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काकुत्स्थ वर्मा ___कदम्ब वंश का एक राजा। जैन धर्म के प्रति उसके हृदय में दृढ़ आस्था थी। अपने राज्य में उसने जैन धर्म को प्रभूत प्रश्रय दिया। अरिहंत देव को वह सर्वोच्च देव और जैन धर्म को सर्वोच्च धर्म मानता था।
काकुत्स्थ वर्मा ने गुप्त और गंग वंशों में अपनी पुत्रियों के विवाह कर उनसे मैत्री संबंध स्थापित किए थे। गुप्तवंशीय महाराज चन्द्रगुप्त और गंगवंशीय राजा तडंगाल (माधव तृतीय) भी जैन राजा थे। काकुत्स्थ वर्मा का शासन काल ई. सन् 430 से 450 तक का माना जाता है।
-प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं कान्हड़ कठियारा ___अयोध्या नगरी का रहने वाला एक दीन-हीन दरिद्र लकड़हारा । बाल्यावस्था में ही उसके माता-पिता का निधन हो गया था। वह अनपढ़ था, नगर के बाह्य भाग में एक तृण-कुटीर में रहता था। जंगल से लकड़ियां काटकर लाता और बाजार में लकड़ियों को बेचकर उदरपोषण करता था। वह धर्म-कर्म को नहीं जानता था पर मानता था कि धर्म से ही मनुष्य का कल्याण होता है। एक बार जब वह लकड़ियां लेने जंगल में जा रहा था तो नगर के बाहर उद्यान में आचार्य धर्मघोष धर्मोपदेश कर रहे थे। कान्हड के कदम ठिठक गए। मदित मन से वह उपदेश सनने के लिए उद्यान में गया और दूर से ही आचार्य श्री को प्रणाम करके बैठ गया। आचार्य धर्मघोष ने ब्रह्मचर्य की महिमा पर उपदेश दिया। उपदेश समाप्ति पर सभी श्रोताओं ने यथेच्छ व्रत-नियम ग्रहण किए। कान्हड़ भी आचार्य श्री के सम्मुख पहुंचा। वन्दन कर बोला, भगवन् ! मेरे लिए जो समुचित हो, वही नियम मुझे दे दीजिए। आचार्य श्री ने पूर्णमासी की रात को ब्रह्मचर्य पालन का नियम कान्हड़ को करा दिया। गुरु के कथन को हृदय पर अंकित कर कान्हड़ अपने पथ पर चला गया।
एक बार वर्षाकाल में निरंतर चार दिनों तक कान्हड़ लकड़ियां लेने जंगल नहीं जा सका। कारण था-जंगल और नगर के मध्य की वह नदी, जो निरंतर वर्षा के कारण उफान पर थी। चार दिन का क्षुधातुर कान्हड़ पांचवें दिन अपनी झोपड़ी से चला। नदी किनारे पहुंचा। नदी में जलावेग इतना तीव्र था कि उसे पार नहीं किया जा सकता था। निराश होकर वह नदी के किनारे बैठ गया। सहसा उसकी दृष्टि एक काष्ठ खण्ड पर पड़ी, जो नदी में पीछे से बहकर आया था। कान्हड़ ने नदी में छलांग लगा दी और काष्ठ-खण्ड को वह तट पर खींच लाया। लकडी के छोटे-छोटे टकडे करके. गटठर बांधकर वह बाजार में गया। अयोध्या के एक धर्मप्राण श्रेष्ठी श्रीपति ने कान्हड़ के सिर पर रखी लकड़ियों को देखा। सेठ को समझते देर न लगी कि वे लकड़ियां बावना चन्दन हैं। सेठ जानता था कि लकड़हारे को उन लकड़ियों का मूल्य ज्ञात नहीं है। सेठ ने इस विचार से कि कोई उस निर्धन लकड़हारे को ठग न ले, उसे अपने पास बुलाया और उसे उसकी लकड़ियों का मूल्य बताया। कान्हड़ की सहमति पर सेठ ने लकड़ियों के वजन का स्वर्ण तोलकर उसे दे दिया। कान्हड़ चमत्कृत हो गया। एक वस्त्र में स्वर्ण मुद्राओं को बांधकर वह अपनी झोंपड़ी की दिशा में चल दिया। मार्ग में कामलता गणिका का भवन था। गणिका की दृष्टि ने कान्हड़ के सिर पर रखी गठरी में रही हुई स्वर्णमुद्राओं को देख लिया। दासी को भेजकर उसने कान्हड़ को ऊपर बुलाया। कामलता का दिव्य रूप कान्हड़ का चिर-स्वप्न था। वह गणिका के पास पहुंचा और स्वर्णमुद्राओं की गठड़ी उसे अर्पित कर दी। गणिका चमत्कृत हो गई। उसने कान्हड़ की सेवा की और उसे भवन के ऊपरी कक्ष में उसकी प्रतीक्षा करने को कहा।
कान्हड़ कामलता के भवन के ऊपरी कक्ष में सुखशैया पर लेटा था। सहसा आकाश में खिले पूर्णमासी ...94 ...
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