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लाने के लिए बाजार में भेजा। कुसुमवती किसी ऐसे युवक की तलाश में थी जो बुद्धिनिधान हो। इसीलिए उसने वस्तुओं के नाम सांकेतिक भाषा में लिखे थे। आखिर उसका मन्तव्य पूर्ण हुआ। कुसुमसेन नामक एक सुन्दर, सच्चरित्र युवक उसके संकेतों की सीढ़ियों से चढ़ता हुआ रात्रि में उसके घर आ गया। घर पर भी कुसुमवती और कुसुमसेन सांकेतिक भाषा में बतियाए। आखिर कुसुमसेन अपने घर लौट गया।
नगर नरेश जयसिंह गवाक्ष से कुसुमवती और कुसुमसेन के संकेतों को देख रहा था, पर वह संकेतों का रहस्य नहीं जान पाया। दूसरे दिन कुसुमसेन को दरबार में बुलाकर राजा ने उनके संकेतों के रहस्य पूछे। मौन रहने पर राजा ने श्रेष्ठी-पुत्र को शूली का दण्ड तक दे डाला। पर श्रेष्ठीपुत्र ने अपना मौन नहीं तोड़ा। आखिर कुसुमवती से संकेत पाकर कुसुमसेन ने संकेतों के रहस्य स्पष्ट किए, जिन्हें सुनकर राजा-प्रजा कुसुमसेन और कुसुमवती की बुद्धिमत्ता, सच्चरित्र और कुल-मर्यादा को देखकर गद्गद बन गए। आखिर राजा ने कहा कि वह स्वयं उन दोनों को परिणय सूत्र में बांधकर अपना अहोभाव प्रकट करना चाहता है। इस पर कुसुमवती और कुसुमसेन ने स्पष्ट किया कि वे दोनों तो आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन का संकल्प ले चुके हैं। सुनकर राजा और प्रजा कुसुमवती और कुसुमसेन के चरणों में नत हो गए। कुसुमवती को राजा ने अपनी बहन बनाया और कुसुमसेन को नगरसेठ के पद से सम्मानित किया। अखण्ड ब्रह्मचर्य को आजीवन साधते हुए दोनों सद्गति के अधिकारी बने। कुसुमश्री
लंकानगरी के पुष्पबटुक नामक राजमाली की पुत्री और हरिबल की परिणीता। (दखिए-हरिबल) कूपदारक कुमार महाराज बलदेव और रानी धारिणी के अंगजात। (इनका परिचय सुमुख के समान है)
-अन्तकृद्दशांग सूत्र वर्ग 3, अध्ययन 11, कूरगडुक मुनि ___ आचारांग चूर्णि के अनुसार कूरगडुक एक ऐसे मुनि थे, जो क्षुधावेदनीय कर्म के कारण एक दिन भी निराहारी नहीं रह सकते थे। परन्तु उनमें समता पराकाष्ठा की थी। कैसी भी विपरीत स्थितियों में वे अपनी समता को खण्डित नहीं होने देते थे। यों वे राजपुत्र थे। अमरपुर के महाराज कुम्भ के वे पुत्र थे। कुमारावस्था में उनका नाम ललितांगकुमार था। वे सुन्दर और कोमलांग थे। आचार्य धर्मघोष के उपदेश से विरक्त बनकर उन्होंने दीक्षा ली थी। दीक्षित होते ही उन्होंने सरस पदार्थों का त्याग कर दिया और अग्नि संस्कारित कूर नामक धान्य को भोजन रूप में चुना। उस नीरस भोजन को वे घृत-शक्कर के समान मधुर मानकर उदरस्थ करके संयम का परिपालन करते। मात्र कूर धान्य का आहार करने के कारण उन्हें कूरगडुक कहा जाने लगा। . एक बार वर्षावास काल में देववाणी हुई कि किसी भव्यात्मा को सम्वत्सरी पर्व पर केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। इस देववाणी से श्रमणों और श्रावकों में विशेष रूप से तप-रुचि का जागरण हुआ। अनेक श्रमणों और श्रावकों ने बढ़-चढ़कर तप किए।
सम्वत्सरी के दिन उपाश्रय में तप की विशेष बहार थी। नन्हे-मुन्ने बालकों ने भी तप किए थे। पर कूरगडुक उस दिन भी तप न कर सके। भिक्षा का समय होते-होते वे क्षुधा से निढाल हो जाते थे। उन्होंने आचार्य श्री से भिक्षा की अनुमति मांगी। आचार्य ने घृणा से मुंह फेर लिया। कूरगडुक शान्त भाव से भिक्षा ... 112
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