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अगाध आस्था थी। कर्म सिद्धान्त पर उसका अटल विश्वास था। वह मानती थी कि मनुष्य को जो भी सुख-दुख प्राप्त होते हैं, उनका कारण वह स्वयं ही होता है। इसके विपरीत उसका पिता सिंहस्थ जीता-जागता
अहं का पुतला था और सोचता था कि प्रजा और परिजनों के सुखों-दुखों का नियंता वह स्वयं है। एक बार पिता और पुत्री के मध्य कर्म सिद्धान्त पर मतभेद उत्पन्न हो गया। राजा का कहना था कि वह सर्वशक्ति सम्पन्न है, जिसे चाहे सुखी बना सकता है और जिसे चाहे दुखी बना सकता है। जबकि राजकुमारी का कहना था कि मनुष्य तो क्या, देवता भी पुण्यवान को दुखी और अपुण्यवान को सुखी नहीं कर सकते। पुत्री की बातें राजा के अहं को प्रताड़ित कर रही थी। खीझकर राजा ने कहा, गुणमाला! तुझे अपने सिद्धान्त पर बड़ा घमण्ड है! मैं चाहूं तो तुम्हें किसी राजा की रानी भी बना सकता हूं और भिखारिन भी बना सकता हूं! पिता के इस अहंकार को दूर करने के लिए गुणमाला ने पुनः कर्म सिद्धान्त की पुष्टि की, पितृदेव! मेरे पुण्य जागृत हैं तो आप मुझे भिखारिन नहीं बना सकते और यदि मेरे पुण्य अशेष हो गए हैं तो आप मुझे सुखी नहीं बना सकते!
राजा ने इसे अपने लिए सीधी चुनौती माना। उसने क्रोध और दंभ से भरकर कहा, गुणमाला! देखता हूं कि तुम्हारे पुण्य कैसे तुम्हारी रक्षा करते हैं! राजा ने वर्षों के रोगी एक पुरुष के साथ राजकुमारी का विवाह कर दिया। वह रोगी पुरुष एकाकी था, न उसका कहीं घर था और न कोई परिजन। राजकुमारी ने उक्त पुरुष को ही अपना प्राणेश्वर स्वीकार कर लिया। उसकी अंगुली पकड़कर वह एक दिशा में चल दी। दोनों ने जंगल में एक वृक्ष के नीचे रात्रिविश्राम का निश्चय किया। पति को जब तक निद्रा नहीं लगी तब तक गुणमाला उसके चरण चांपती रही। उसके सो जाने के पश्चात् वह महामंत्र नवकार के जाप में लीन हो गई। उसके मन में खिन्नता और ग्लानि का कण भी नहीं था। उसे कर्म सिद्धान्त पर अटल आस्था थी। उसकी आस्था से बंधी चक्रेश्वरी देवी उसके समक्ष प्रकट हुई और उसने उसके पति के स्वास्थ्य का उपाय बताया। साथ ही देवी ने यह भी बताया कि जिस वृक्ष के नीचे बैठी वह जाप कर रही है. ठीक उसके आसन के नीचे चार हाथ की गहराई पर बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं दबी हुई हैं। कहकर देवी अन्तर्धान हो गई।
दूसरे दिन गुणमाला ने देवी के बताए उपाय से अपने पति को स्वस्थ किया और फिर जमीन खोदकर बारह कोटि स्वर्णमुद्राएं प्राप्त की। एक ही रात्रि में अपने पुण्यों के बल पर वह पुनः समृद्धि और सुख पा गई। उसने अपने पति से उसका परिचय पूछा तो उसने बताया कि वह राजपुर नगर के राजा वीरधवल का पुत्र है और विमाता द्वारा रुग्ण बना दिया गया था। गुणमाला और गुणसेन एक-दूसरे को पाकर हर्षाभिभूत थे। दोनों ने किसी नगर में निवास व्यवस्था कर रहने का निश्चय किया। गुणसेन ने एक रथ का प्रबन्ध किया और दोनों रथ में बैठकर पोतनपुर नगर में पहुंचे। गुणमाला को नगर के बाहर ही छोड़कर गुणसेन
आवास की व्यवस्था जुटाने के लिए नगर में गया। उधर एक गणिका ने गुणमाला को अपने कपट जाल में फंसा लिया। गुणसेन नगर से लौटा तो गुणमाला को न पाकर अधीर हो गया। वह पत्नी को खोजते हुए नगर में भटकने लगा। उधर गणिका के घर में प्रवेश करते ही गुणमाला समझ गई कि उसके साथ छल हुआ है। गणिका ने गुणमाला को अपना आचार समझाया। पर गुणमाला ने उसके आचार को अपनाने के स्थान पर मर जाने को श्रेष्ठ माना। पर गणिका इतनी चतुर थी कि उसने गुणमाला को मरने भी नहीं दिया। पांच दासियां उसने गुणमाला की सेवा और सुरक्षा में नियुक्त कर दीं। .
गुणसेन की भेंट एक योगी से हुई। गुणसेन की सेवा से संतुष्ट और प्रसन्न होकर योगी ने उसे कई चमत्कारी विद्याएं प्रदान की। विद्याओं के बल पर गुणसेन ने शीघ्र ही गुणमाला को खोज लिया और ... जैन चरित्र कोश ...
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