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अपने ज्ञान गांभीर्य और धर्ममय जीवन के कारण आशाधर जी पूज्य पद पा गए थे। कहते हैं कि साधारण और उच्च गृहस्थ वर्ग के अलावा कई मुनियों और भट्टारकों ने भी उन्हें गुरुतुल्य पद दिया था।
कविवर आशाधर रचित डेढ़ दर्जन से अधिक ग्रन्थों की सूची उपलब्ध होती है। वर्तमान में उपलब्ध अध्यात्म रहस्य, धर्मामृत, जिनयज्ञकल्प त्रिषष्ठि स्मृतिशास्त्र आदि उनके उत्कृष्ट काव्य ग्रन्थ हैं। ग्रन्थों के नामों से ही उनके वर्ण्य विषय स्पष्ट ध्वनित हो रहे हैं। -तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (भाग 4) आशाशाह
मेवाड़ के इतिहास का एक साहसी जैन श्रावक। आशाशाह कुम्भलमेर दुर्ग के दुर्गपाल पद पर नियुक्त था। उस समय चित्तौड़ में राणा परिवार पर कष्ट के बादल घिरे। महाराणा रत्नसिंह की मृत्यु के पश्चात् दासीपुत्र बनवीर ने उत्तराधिकारी विक्रमाजीत को मौत के घाट उतार कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। विक्रमाजीत का लघभ्राता उदयसिंह अभी शिश था। बनवीर उसे भी मार कर अपने मार्ग को निष्कण्टक करना चाहता था। उस समय पन्नाधाय ने अपने पुत्र का बलिदान देकर उदयसिंह के जीवन की रक्षा की। शिशु उदयसिंह को लेकर पन्नाधाय चित्तौड़ से निकल गई और अनेक सामन्त-सरदारों के पास जाकर उसने उदयसिंह के लिए शरण की याचना की। परन्तु मृत्युभय से उसे किसी ने शरण नहीं दी। उस समय पन्नाधाय आशाशाह के पास पहुंची। पहले-पहल आशाशाह भी झिझके। आशाशाह की जननी पुत्र की झिझक देखकर कटार निकाल कर उस पर झपटी और बोली, ऐसे कायर पुत्र से मैं निपूती भली। ___ आशाशाह के अन्दर माता के रौद्र रूप ने साहस का संचार कर दिया। उसने शिशु राणा उदयसिंह को गोद में ले लिया और प्रण किया-मैं प्राण देकर भी मेवाड़ के शिश राणा की रक्षा करूंगा।
___ आशाशाह ने वैसा ही किया। उसने उदयसिंह को अपना भतीजा' प्रचारित कर उसका पालन-पोषण किया और समय आने पर उदयसिंह चित्तौड़ के सिंहासन पर आसीन हुआ। आषाढ़भूति (आचार्य) ____उत्तराध्ययन वृत्ति के अनुसार आषाढ़भूति आचार्य के सौ शिष्य थे। ये सभी शिष्य परम विनीत और गुरुभक्त थे। पर संयोग ऐसा बना कि ये सभी शिष्य अल्पकालावधि में ही अपने गुरु की आंखों के समक्ष एक-एक कर कालधर्म को प्राप्त हो गए। सबसे छोटा शिष्य, जिस पर आचार्य का विशेष अनुराग भाव था, जब दिवंगत होने लगा तो आचार्य ने उससे कहा कि वह देवगति से लौटकर उन्हें वहां की स्थिति की सचना दे। गुरु के वचन में बंधकर शिष्य परलोकवासी बन गया। वह स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। पर वहां के सुख में वह ऐसा मग्न हुआ कि उसे गुरु को दिया गया वचन विस्मरण हो गया। ___आचार्य आषाढ़भूति शिष्य के लौटने की प्रतीक्षा करते रहे पर शिष्य नहीं लौटा। इससे आचार्यश्री की धर्मश्रद्धा डावांडोल हो गई। उनके भीतर चिन्तन चला-यदि आगमों की बात सही है तो उनके शिष्य को स्वर्ग में जाना चाहिए और उनका शिष्य स्वर्ग में जाता तो अपने वचनानुसार लौटकर उन्हें सूचित करता। प्रतीत होता है कि आगम कपोलकल्पित हैं, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, धर्म, अधर्म और अध्यात्म सब कल्पना से सृजित हैं। जब यह सब कुछ नहीं है तो यों परीषह उपसर्ग सहकर जीवन बिता देने में समझदारी नहीं है। मझे गहस्थ के सख-भोग भोगने चाहिएं। आचार्य की श्रद्धा डोल उठी। श्रद्धा डोल जाए तो व्यक्ति को पथभ्रष्ट बनते समय ही कितना लगता है ! फलतः आचार्य गृहस्थ होने के विचार से चल दिए।
उधर देव बने शिष्य को अपना वचन स्मरण हुआ। उसने अवधिज्ञान के उपयोग से देखा तो उसे गुरु ... 56 ...
--. जैन चरित्र कोश ...