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उस युवक को नाट्यकला में प्रवीण बनना पड़ेगा और अपनी कला से इतना धन अर्जित करना होगा, जिससे वह हमारी पूरी जाति को भोज से सन्तुष्ट कर सके। उस पर ही वह मेरी पुत्री को पा सकता है।
निराश धनदत्त अपने घर लौट गया। उसने पुत्र को नट की असाध्य शर्त बता दी और कहा कि वह उस कन्या को विस्मृत कर दे। पर इलायचीकुमार उस कन्या को विस्मृत नहीं कर सका। नटों के जाने के बाद एक रात वह भी चुपके से अपने घर से निकलकर नटमण्डली में जा मिला। उसने नट को विश्वास दिला दिया कि वह उसकी शर्त पूरी करेगा। नटों के साथ रहकर इलायचीकुमार पूर्ण समर्पण से नाट्यकला सीखने लगा। कुछ ही समय में वह इस कला में प्रवीण बन गया। धीरे-धीरे उसकी ख्याति चतुर्दिक् फैल गई। राजा और बड़े श्रीमन्त भी उसे नाटक दिखाने के लिए आमंत्रित करने लगे। ___ एक बार एक राजा के आमंत्रण पर इलायचीकुमार नटमण्डली के साथ नाट्यकला प्रदर्शन के लिए पहुंचा। साथ ही नटकन्या भी थी। इलायचीकुमार को राजा से प्रभूत पुरस्कार प्राप्त होने की आशा थी। उसने बांस पर चढ़कर कला प्रदर्शन प्रारंभ किया। एक प्रहर तक कला दिखाकर उसने दर्शकों को मंत्र-मुग्ध बना दिया। पर राजा का ध्यान इलायचीकुमार की कला पर न होकर नट पुत्री के रूप पर मुग्ध बन गया था। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह नाट्यश्रम से इलायचीकुमार को इतना श्रांत बना देगा कि वह बांस से गिरकर मर जाए।
एक प्रहर तक कला दिखाने के पश्चात् इलायचीकुमार बांस से नीचे उतरा और उसने राजा की ओर पुरस्कार पाने के भाव से देखा। पर राजा कब पुरस्कार देने वाला था। राजा ने कहा-उसे अभी कला से आनन्द ही नहीं मिला है, अभी और खेल दिखाया जाए। इलायचीकुमार पुनः बांस पर चढ़ गया। कला दिखाने लगा। नटकन्या तालियां बजाकर उसका उत्साहवर्धन कर रही थी। पुनः एक प्रहर तक कला-प्रदर्शन के पश्चात इलायचीकमार बांस से नीचे उतरा। पर इस बार भी राजा का वही उत्तर था। उसने एक बार पुनः एक प्रहर तक बांस पर खेल दिखाए। पर इस बार भी राजा का उत्तर यथावत् था। इलायचीकुमार राजा की दुष्ट भावना समझ गया। उसे मालूम पड़ गया कि राजा उसे थकाकर मार देना चाहता है। वह निराश हो गया। परन्तु नटकन्या ने उसका उत्साहवर्धन किया और पुनः बांस पर चढ़ने को प्रेरित किया। तीन प्रहर के निरन्तर कठिन श्रम से इलायचीकुमार का अंग-प्रत्यंग पीड़ा उगल रहा था। पर नटकन्या की प्रेरणा ने उसे पुनः बांस पर चढ़ने को प्रेरित बना दिया। बांस पर चढ़े इलायचीकुमार की दृष्टि सामने एक गृह कक्ष पर पड़ी। उसने देखा, एक अप्रतिम सुन्दरी युवती एक युवा मुनि को भिक्षा बहरा रही है। रूप की देवी साक्षात् होने पर भी मुनि की दृष्टि जमीन पर है। एक बार भी मुनि ने युवती के मुख को नहीं निहारा है। इस दृश्य ने इलायचीकुमार के आत्मचिन्तन को झकझोर डाला। चिन्तन चला-कहां ये मुनि और कहां मैं? एक नटकन्या के रूप की आसक्ति ने आज राजा को मेरे प्राणों का प्यासा बना दिया है। धिक्कार है मुझे ! चिन्तन ऊर्ध्वमुखी होता गया और इलायचीकुमार को बांस पर चढ़े हुए ही केवलज्ञान हो गया। देवों ने दिव्य ध्वनि के साथ केवली इलायचीकुमार का अभिनन्दन किया।
इलायचीकुमार नीचे उतरे। नाट्यमंच ही धर्ममंच बन गया। केवली प्रभु ने वहीं से धर्मोपदेश की शत-शत धाराएं प्रवाहित की। राजा को अपनी दुष्टता पर इतना प्रकृष्ट पश्चात्ताप हुआ कि उसे भी केवलज्ञान हो
या। उधर नटकन्या का चिन्तन भी विशद्धता की उच्चतम भावभमि का स्पर्श कर रहा था. फलतः वह भी केवली बन गई। श्रेष्ठी पुत्र से नट, और नट से केवली बने इलायचीकुमार ने अनेक भव्यात्माओं के लिए कल्याण का द्वार उद्घाटित कर सिद्धत्व प्राप्त किया।
-आख्यानक मणिकोश ...64 ...
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