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से हुई। मुनि ने उपदेश दिया, जिससे प्रतिबुद्ध होकर उन पांच सौ सुभटों ने दीक्षा धारण कर ली । यों पांच सौ शिष्यों के साथ आर्द्रक मुनि ने तीर्थंकर महावीर के दर्शनों के लिए मगध देश की दिशा में प्रस्थान किया । मार्ग में उनसे गोशालक, बौद्ध, भिक्षुओं, वैदिकों, हस्तितापसों एवं दण्डी आदि विभिन्न मत के आचार्यों ने अपने-अपने मत में प्रवेश करने का आग्रह किया और महावीर के श्रमणधर्म की निन्दना की।
अपनी कुशाग्र बुद्धि से आर्द्रक मुनि ने उन सभी के मतों का खण्डन और महावीर के श्रमणधर्म का मण्डन करके सबको निरुत्तर बना दिया और वे महावीर के पास पहुंचकर अपना श्रद्धा- अर्घ्य उन चरणों पर अर्पित कर सविधि संघ में सम्मिलित हो गए। उसी दौरान उनका मिलन अभय कुमार से हुआ। अपनी मैत्री को यों विकसित और सुफलित देख अभय भी गद्गद बन गए।
उत्कृष्ट-प्रकृष्ट संयम पालकर और अन्ततः कैवल्य साधकर आर्द्रक मुनि ने परम धाम मोक्ष प्राप्त किया । - सूत्रकृतांग 2/6
आर्दिक- आर्दिका
समुद्र के मध्य बसे आर्द्रपुर देश के राजा और रानी । ये आर्द्रक मुनि के जनक और जननी थे । (देखिएआर्द्रक कुमार)
आर्यदत्त
प्रभु पार्श्वनाथ के अनेक गणधरों में से प्रमुख गणधर ।
आर्यदिन
- समवायांग
कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य सुहस्ती की परम्परा में आर्य दिन्न हुए । उनके जीवन के संबंध में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं है। - कल्पसूत्र स्थविरावली
आर्यरक्षित (आचार्य)
वीर निर्वाण के लगभग साढ़े पांच सौ वर्ष पश्चात् हुए एक प्रभावक जैन आचार्य और नौ पूर्वी के मुनि । उनका जन्म दशपुर नगर के ब्राह्मण सोमदेव की पत्नी सोमा के गर्भ से हुआ था। जब वे पाटलिपुत्र से विद्याध्ययन करके लौटे तो उनकी माता ने उन्हें दृष्टिवाद का ज्ञान सीखने के लिए आचार्य तोषलीपुत्र के पास भेजा। आचार्य ने उन्हें मुनिदीक्षा दी और शास्त्राभ्यास कराया। विशिष्ट ज्ञानार्जन के लिए उन्हें आर्य वज्रस्वामी के पास भेजा। उन्होंने आर्य वज्रस्वामी से नौ पूर्वो का ज्ञानार्जन किया। तदनन्तर संसारपक्षीय भाई फल्गुरक्षित की आग्रहभरी प्रार्थना पर वे दशपुर गए। वहां उनके प्रभाव से उनका पूरा परिवार दीक्षित हुआ। वहां के राजा ने भी सम्यक्त्व ग्रहण किया। वे तेरह वर्षों तक आचार्य पद पर रहकर पचहत्तर वर्ष की अवस्था में स्वर्गस्थ हुए।
- उपदेश प्रासाद भाग-5
आर्यरक्षित सूरि (आचार्य)
अंचल गच्छ के संस्थापक आचार्य । परम्परा और पद का मोह त्यागकर आर्य रक्षित ने शिथिलाचार के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजाया। क्रियोद्धार के लिए उन्होंने आजीवन श्रम किया। पूजा-प्रतिष्ठा आदि में प्रचलित सावद्य क्रियाओं पर प्रतिबंध लगाया और निरवद्य विधियों 'स्थापित किया। अपने नवीन गच्छ
अंचल - गच्छ के लिए उन्होंने नवीन सामाचारी की रचना की ।
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