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पुत्र देह से दुर्बल था, पर उसका मस्तिष्क स्वस्थ था। उसने मुनि से अभक्ष्य भक्षण का आजीवन के लिए त्याग ग्रहण कर लिया। वह समता भाव से रोगों को सहन करने लगा। उसकी समता भावना इतनी प्रकृष्ट बनी कि एक बार देवराज इन्द्र ने भी उसके समता भाव और व्रतनिष्ठा की प्रशंसा देवसभा में की। एक देव ब्राह्मण-पुत्र की परीक्षा लेने आया। देव ने वैद्य का रूप धारण किया और वह नन्दा के गृहद्वार पर पहुंचा। नन्दा वैद्य को अपने पुत्र के पास ले गई। वैद्य रूपी देव ने कुछ औषधि दी और कहा, इस औषधि को यदि मदिरा के साथ ग्रहण किया जाए तो समस्त प्रकार के रोग पलक झपकते ही दूर हो जाएंगे।
ब्राह्मण-पुत्र 'रोग' ने उस औषधि को लेने से स्पष्ट इन्कार कर दिया और कहा, उसे रुग्णावस्था स्वीकार है पर मदिरा का सेवन स्वीकार नहीं है। देव ने विभिन्न तर्क देकर ब्राह्मण-पुत्र को मदिरा सेवन के लिए उकसाया, पर ब्राह्मण-पुत्र के मन में भी मदिरा सेवन का भाव तक नहीं जागा।
ब्राह्मण-पुत्र की व्रत निष्ठा देखकर देव गद्गद गया। वह वास्तविक रूप में प्रकट हुआ। उसने ब्राह्मणपुत्र को दिव्य बल से स्वस्थ कर दिया और उसकी व्रत-निष्ठा की प्रशंसा करता हुआ अपने स्थान पर चला गया।
तदनन्तर ब्राह्मण पुत्र जगत में 'आरोग्य विप्र' नाम से ख्यात हुआ। आजीवन दृढ़ता पूर्वक व्रत पालन कर वह सद्गति का अधिकारी बना।
-धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 36 आर्द्रक कुमार
समुद्र के मध्य स्थित आर्द्रकपुर नामक एक अनार्य देश का राजकुमार। महाराज आर्दिक और उनकी रानी आर्द्रिका उसके माता-पिता थे। आर्द्रक कुमार अनार्य से कैसे आर्य बने और फिर कैसे भगवान महावीर तक पहुंचे तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षगामी बने, यह एक दिलचस्प घटनाक्रम है। वस्तुतः इस का सूत्र मैत्री से प्रगट हुआ। आर्द्रकपुर तथा मगध के राजाओं के मध्य पुश्तैनी मैत्री सम्बन्ध थे। यह मैत्री सम्बन्ध मगधेश श्रेणिक और आर्चिक राजा तक पहुंचते-पहुंचते घनिष्ठतम बन गए थे। दोनों नरेश अपने-अपने देशों की बहुमूल्य वस्तुएं एक-दूसरे के पास उपहार स्वरूप भेजा करते थे। उपहारों का यह सिलसिला आर्द्रककुमार और अभयकुमार के मध्य भी प्रारंभ हो गया। आर्द्रककुमार के मैत्री-पत्रों की भाषा से अभय कुमार को लगा कि उसके हृदय में धर्मसंस्कार जगाए जा सकते हैं। सो एक बार अभय ने अन्य उपहारों के साथ एक पेटिका में मुनि वेश के प्रतीक वस्त्र, मुखवस्त्रिका, रजोहरण आदि रखकर आईक कुमार के पास भेजे। साथ ही संवाहक से आर्द्रक को सूचित कराया कि उक्त पेटिका को वह एकान्त में खोले। आर्द्रक अभय की भेंट पाकर अतीव प्रसन्न हुआ। उसने मित्र की बात का अनुपालन करते हुए पेटिका को एकान्त कक्ष में खोला। उन उपकरणों को देखकर आर्द्रक चकित रह गया। वैसे उपकरण उसने कभी देखे न थे। आखिर इन उपकरणों की उपयोगिता क्या हो सकती है? इन्हें भेजने का अभय का अभिप्राय क्या हो सकता है? एकान्त में गहन चिन्तन करते हुए आर्द्रक कुमार को जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसे अपना पूर्वभव स्पष्ट दिखाई देने लगा। उसने जान लिया कि वह पूर्वजन्म में मुनि जीवन जी चुका है। 'संयम ही जीवन का सार है' इस विचार ने उसे भारत आने के लिए सम्प्रेरित किया। वह भारत आकर संयम साधना साधने के लिए कृत्संकल्प बन गया। एतदर्थ उसने पित्राज्ञा चाही। पर पिता ने सख्ती से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं, आर्द्रक अकहे ही भारत न चला जाए, उसके लिए उसने आर्द्रक पर दृष्टि रखने के लिए पांच सौ सुभट तैनात कर दिए। ...52 ... .
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