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(ग) अर्हद्दास (कवि)
वि.सं. की तेरहवीं सदी के उत्तरार्द्ध अथवा चौदहवीं सदी के पूर्वार्द्ध के एक महान जैन कवि। आपके जीवन पर तेरहवीं सदी में हुए जैन कवि आशाधर जी का विशेष प्रभाव था। उन्हीं की प्रेरणा से अथवा उनके साहित्य की प्रेरणा से आप जिनानुरागी बने और अपने जिनानुराग को आपने अपने उत्कृष्ट काव्य में अभिव्यंजित किया।
आपकी लेखनी गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में पूरे अधिकार से गतिमान हुई। 'मुनि सुव्रत काव्य', 'पुरुदेवचम्पू' और 'भव्यजन कण्ठाभरण' ये तीन ग्रन्थ आपकी ख्यातिलब्ध रचनाएं हैं।
-तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (भाग-4) अर्हद्दासी ___ अर्हद्दास की अर्धांगिनी। (देखिए-विजय-विजया) अर्हन्नक ___ उन्नीसवें तीर्थंकर प्रभु मल्लीनाथ के समय का एक दृढ़धर्मी श्रावक । प्रभु मल्ली ने जिस समय दीक्षा नहीं ली थी, उस समय चम्पा के इस धनी श्रेष्ठी श्रावक ने उन्हें भेंट स्वरूप दो दिव्य स्वर्णकुण्डल प्रदान किए थे, जिन्हें उसने एक देव से प्राप्त किया था। देव से कुण्डलयुगल-प्राप्ति की घटना इस प्रकार है
किसी समय अर्हन्नक व्यापार के लिए समुद्र यात्रा कर रहा था। एक मिथ्यात्वी देव ने जहाज में ही अर्हन्नक को धर्मध्यान करते हुए देखा। अर्हन्नक की धर्मश्रद्धा को खण्डित करने के लिए देव ने समुद्र में सहसा ही तूफान पैदा कर दिया। तीव्र वायु में जैसे पीपल का पत्ता कांपता है, वैसे ही समुद्री लहरों पर अर्हन्नक का जहाज कांपने लगा। जहाज पर सवार समस्त कर्मचारी मृत्यु भय से चीखने-चिल्लाने लगे, पर अर्हन्नक पूर्ण निर्भय मन से सागारी अनशन के साथ ध्यानमग्न था। देव ने विकराल रूप बनाकर अर्हन्नक को चेतावनी दी कि वह धर्मध्यान को भूल जाए। यदि वह धर्मध्यान छोड़ देगा तो उसके प्राणों की रक्षा हो सकती है। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसे उसके समस्त ऐश्वर्य के साथ समुद्र में डुबो दिया जाएगा। अर्हन्नक बोला, वह उस धर्म को कैसे छोड़ दे जो उसे मृत्यु-भय उपस्थित होने पर भी अभय बनाए रखता है। वह मर सकता है पर धर्म को नहीं छोड़ सकता है।
कुपित देव ने अपना आकार अति विशाल बनाया और वह जहाज को उठाकर आकाश में ले गया। उसने पुनः चेतावनी दी कि यदि अर्हन्नक धर्म ध्यान नहीं छोड़ेगा तो उसे इसी क्षण उसके जहाज सहित समुद्र में फेंक दिया जाएगा, वह अपने विनाश का तो कारण बनेगा ही, साथ ही अपने सैकड़ों कर्मचारियों की मृत्यु का भी कारण बनेगा।
इस पर भी अर्हन्नक के मन के किसी भी तल पर भय का कोई भाव नहीं जागा। वह सामायिक की आराधना में लीन रहा। आखिर देव को ही सम्यक् मति प्राप्त हो गई। उसने जहाज को समुद्र में स्थापित कर दिया और अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर अर्हन्नक की दृढ़धर्मिता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा। देवदर्शन अमोघ होते हैं, फलतः उसने दिव्य कुण्डल युगल अर्हन्नक को भेंट किए और अपने स्थान पर चला गया। अर्हन्नक ने यही कुण्डलयुगल भगवती मल्ली को भेंट स्वरूप प्रदान किए। विशुद्ध श्रावकाचार को पूर्ण निष्ठा और दृढ़ता से जीकर अर्हन्नक स्वर्ग का अधिकारी बना।
-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अ.-8 -जैन चरित्र कोश ...
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