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अध्यासवाद-अनङ्ग
अनन्त, अखण्ड ब्रह्म में अज्ञान और उसके कार्य समस्त हो। श्रौत और स्मार्त कर्महीन पुरुष को अनग्नि कहते हैं । जड़ समूह का आरोप करना अध्यारोप कहलाता है। सर्प संन्यासी को भी अनग्नि कहा गया है, जो गृहस्थ के लिए न होते हुए भी रस्सी में सर्प का आरोप करने के समान । विहित कर्म को छोड़ देता है और केवल आत्मचिन्तन में यह प्रक्रिया है (वेदान्तसार)।
रत रहता है: अध्यासवाद-आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखते
अग्नीनात्मनि वैतानान् समारोप्य यथाविधि । समय सबसे पहले आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया अनग्निरनिकेतः स्यान्मनिर्मलफलाशनः ।। है । यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो सम्पूर्ण प्रपञ्च को
(मनुस्मृति) दो प्रधान भागों में विभक्त किया जा सकता है-द्रष्टा [वैतानादि अग्नियों को आत्मा में विधिपूर्वक स्थापित और दृश्य । एक वह तत्त्व जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करके अग्निरहित तथा घररहित होकर मुनि मूल-फल का करनेवाला है और दूसरा वह जो अनुभव का विषय है। सेवन करे। ] इनमें समस्त प्रतीतियों के चरम साक्षी का नाम 'आत्मा' अनघाष्टमीव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का है और जो कुछ उसका विषय है वह सब 'अनात्मा' है। अनु ठान होता है । दर्भी के बने हए अनघ तथा अनघी आत्मतत्त्व नित्य, निश्चल, निर्विकार, असङ्ग, कूटस्थ, एक का पूजन, जो वासुदेव तथा लक्ष्मी के प्रतीक हैं, 'अतो और निविशेष है। बुद्धि से लेकर स्थलभूत पर्यन्त जितना देवा" .. '(ऋक् २२-१६) मन्त्र के साथ किया जाता है। भी प्रपञ्च है उसका आत्मा से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। शूद्रों के द्वारा नमस्कार मात्र किया जाता है । दे० भविष्योअज्ञान के कारण ही देह और इन्द्रियादि से अपना तादा- तर पुराण, ५८, १; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १. ८१३-१४ । त्म्य स्वीकार कर जीव अपने को अन्धा, काना, मूर्ख, अनङ्ग-अङ्गरहित, कामदेव का पर्याय है। काम का विद्वान्, सुखी-दुःखी तथा कर्ता-भोक्ता मानता है। इस जन्म चित्त या मन में माना जाता है। उसे आत्मभू एवं प्रकार बुद्धि आदि के साथ जो आत्मा का तादात्म्य हो
चित्तजन्मा भी कहते हैं । साहित्य में काम को प्रेम का रहा है उसे आचार्य ने 'अध्यास' शब्द से निरूपित किया देवता कहा गया है । इसके मन्मथ, मदन, कन्दर्प, स्मर, है। आचार्य के सिद्धान्तानुसार सम्पूर्ण प्रपञ्च की सत्यत्व
अनङ्ग आदि पर्याय हैं। प्रारम्भ में काम का अर्थ 'इच्छा' प्रतीति अध्यास अथवा माया के कारण होती है । इसी से लिया जाता था, वह भी न केवल शारीरिक अपितु अवैतवाद को अध्यासवाद अथवा मायावाद भी कहते हैं। साधारणतया सभी अच्छी वस्तुओं की इच्छा। अथर्ववेद इसका तात्पर्य यही है कि जितना भी दृश्यवर्ग है वह सब
(९.२) में काम को इच्छा के मानुषीकरण रूप में मानमाया के कारण ही सत्य-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः एक, कर जगाया गया है । किन्तु उसी वेद के दूसरे मन्त्र में अखण्ड, शुद्ध, चिन्मात्र ब्रह्म ही सत्य है।
(३.२५) उसे शारीरिक प्रेम का देवता माना गया है और अध्वर-अध्व - सन्मार्ग, र = देनेवाला, अर्थात् यज्ञकर्म । इसी क्रिया के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग पुराणादि ग्रन्थों अथवा जहाँ हिंसा, क्रोध आदि कुटिल कर्म न हों (न+ में हुआ है । उसके माता-पिता का विविधता से वर्णन है, ध्वर = (अध्वर) सरल, स्वच्छ, शुभ कर्म :
किन्तु प्रायः उसे धर्म एवं लक्ष्मी की सन्तान कहा गया 'तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशम्' (रघु०)।
है। उसकी पत्नी का नाम 'रति' है जो शारीरिक भोग 'इमं यज्ञमवतादध्वरं नः' (यजुः) ।
का प्रतीक है । उसका मित्र 'मधु' है जो वसन्त का प्रथम अध्वर्यु-यज्ञों में देवताओं के स्तुतिमन्त्रों को जो पुरोहित मास है । काम के दो पुत्रों का भी उल्लेख आता है, वे हैं गाता था उसे 'उद्गाता' कहते थे। जो पुरोहित यज्ञ का हर्ष एवं यश । प्रधान होता था वह होता' कहलाता था। उसके सहाय- काम सम्बन्धी सामग्री की पुष्टि उसके अस्त्र-शस्त्रों से तार्थ एक तीसरा पुरोहित होता था जो हाथ से यज्ञों की भली-भाँति हो जाती है । वह पुष्पनिर्मित धनुष धारण क्रियाएं होता के निर्देशानुसार किया करता था। यही करता है (पुष्पधन्वा) । इस धनुष की डोरी भ्रमरों की सदस्य 'अध्वर्यु' कहलाता था।
बनी होती है और बाण भी पुष्पों के ही होते हैं (कुसुमअनग्नि-जो श्रौत और स्मार्त अग्नियों में होम न करता शर)। ये बाण प्रेम के देवता के 'शोषण' एवं 'मोहन'
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