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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।
दोहा - जिनराज देव वन्दौ सदा कहूं श्रावकाचार | पापारम्भ तव ही मिटै कटै कर्म अघद्वार ॥ १ ॥ अर्थ :- ऐसे अपने इष्ट देवकुं नमस्कार करि सामान्यपनैकरि श्रावकाचार कहिये है सो हे भव्य ! तूं सुन, श्रावक तीन प्रकार है । एक तौ पाक्षिक, एक नैष्ठिक, एक साधक । सो पाक्षिक कै देव गुरु धर्मकी प्रतीत तौ जथार्थ होय । अरु आठ मूल गुणता विषै । अरु सात विकृता जो सप्त व्यसनता विषै अतीचार लागे । अर नैष्ठिककै मूल गुन विषै वा सात विकता विषै अतीचार लागे. नाहीं ताका ग्यारह भेद है ताकौ वर्नन आगे होयगा अर साधक अंत विषै सन्यास मरन करे है । ऐसे ये श्रावक तीनौ देव, गुरु, धर्मकी प्रतीत सहित छे । अरु आठ समकितका अङ्ग सहित है. निःशांकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना । एवं आठ अरु आठ समकित के गुण सहित है ताके नाम कहिये है । करुनावान, क्षमावान सौजनिता आपनिंदा, समता, भक्ति, वीतरागता, धर्मानुराग । एवं आठ, अरु पच्चीस दोष ताके नाम कहिये है । जाति १ लाभ २ कुल ३ रूप ४ तप ५ बल ६ विद्या ७ सिरदारी ८ इन आठोंका गर्भ है। आठ मह जानना | शंका १ कांक्षा २ विचिकित्सा ३ मूढदृष्टि ४ परदोष भाषन ५ अस्थिरता ६ वात्सल्य रहित ७ प्रभावना रहित ८ ए. आठ मूल सम्यक्त्वका आठ अंग त्यासूं उलटा जानना । कुगुरु १. कुदेव २ कुधर्म ३ अरू इन तीनका धारक पाछै वाकी सराहना