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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
भाजन गहना शस्त्रादि बनायें नाहीं । तिर्यचकी थापना करै नाहीं, रुपया मोहरीरत्न परखे नाहीं, प्रतमाजीकी प्रतिष्ठा हुवा पाछे. प्रतमाजीकै टांची लगावै नाहीं, और प्रतमाजीका अंगकै केसर चन्दन आदिका चरचन करें नाहीं, प्रतमानीके तले सिंघासन ऊपर वस्त्र बिछावै नाहीं ए भगवान सर्वोत्कृष्ट वीतराग है । ता 1 सरागता के कारण जे सर्व ही वस्तू ताका संसर्ग दूर ही तिष्ठो अरु कोई कुबुद्धी अपना मान बड़ायका पोखनेके अर्थ नाना प्रकार के सराताके कारण आन मिलावे है ताका दोषका कांई पूंछनी मुन महाराज कै भी तिल तुस मात्र गृहन न कहा तो भगवानकै केसर आदिका संयोग कैसे चाहिये । कोई इहां प्रश्न करे चमर छत्र सिंघासन कमल भी मने किया होता ताकूं कहिये है । सरागके कारण नाहीं प्रभुत्वताके कारण हैं जल करि अभिषेक कराईये है । सोये स्नानादि 1 विनयका कारण हैं जलकर अभिषेक कराइये है सो ये स्नानादि विषयका कारण है याके गंधोदकके लगाये पाप धोया जाय है अरु चंवर छत्र सिंघासन निराला है । जातें जो वस्तु विनयनै सूचती होय ताका दोष नाहीं । बिपर्य पनै कारण ताका दोष नि है । तातें भगवानका स्वरूप निराधार नहीं मानना उचित है ताही को पूजना योग्य है । बहुरि प्रतमाजीके हजूर वैठिये नाहीं । जो पग 1 दूने लगे तो दूर जाय बैठिये । कांचमें मुख देखिये नाहीं । नक चूटी आदिसूं केस उपाड़िये नाहीं । घरसौं जोड़ा पहरे वस्त्र बांध्या देह आवै नाहीं । पांउड़ी पहिरे मंदिर विषै गमन करें नाहीं । वा बेचै नाहीं वा मोल लेय नाहीं । देहराकी विक्षायण नगारा उनिशान आदि जावन्त वस्तु विवहारादिकके अर्थ बरतै नाहीं ।