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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
सिद्धि कीजिये । या बात मैं ढील न करोगे हे संसार समुद्र के तारक मोह मल्लके विजई घातिया कर्मके विध्वंसक काम सत्रुके नाशक समोसरन लक्ष्मी सों विरक्त आपको सर्व प्रकार समर्थ जान तारन वृद्धिकू मान आपके चरननकी सरन आयो हूं सो जगत बंध हे सरनागत प्रतिपाल हे पितर हे दया भंडार मोने चरनकी सरन जान रक्ष रक्ष मोह कर्मते छुड़ाय छुड़ाय कैसा है मोह कर्म लोकका समस्त जीवाने आपना पौर पकर ज्ञानानंद पराक्रम आदि समस्त जीवांका स्वभाव निधि लक्ष्मीको लूट शक्ति हीन कर जेल में राख दिये केईक तो एकेन्द्री जात भावसी में परे छे महा घोरान घोर दुख पावे है ताके दुखका अर्थ के तो ज्ञानी पुरुषाने मासे है । वचनन कर न कहा जाय अरु केईक जीव
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इन्द्री पर्याय में महा दुखद हैं । केईक जीवांने ते इन्द्री चौइन्द्री असेनी सन्मूर्छन ताके महादुख भोगवे है सो तो दुख प्रत्यक्ष इन्द्री गोचर आवे हैं । सो तुम ही सिद्धांत में दुखनका निरूप किया तातें तुमारे वचन अनुमान प्रमानकर सत्य जान्या बहुरि कैई जीव नर्क में पड़े पड़े बहुत विल्लावे हैं रोवे हैं हाय हाय शब्द करें है । आपतो आनकू मारे हैं । औरां कर आप हत्या जाइ है । तहां छेदन भेदन मारन तारन तापन सूलारोपन ऐ पांच प्रकारके दुखकर अत्यंत पीड़ित भूमिकी दुःस्सह वेदना कर परम आकुलता पाइए हैं। कोटान रोग कर शरीर दग्ध होय है ऐसे दुख सहने नारकी असमर्थ हैं कायर हैं दीर्घ आयु सागरा पर्यंत दुःख भोगवे हैं । ऐसे मोह दुष्टके वसी हूआ फेर मोह ही करे है । अरु मोह हीने भला माने है । मोह ही के सरन रहा चाहे