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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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द्रव्यकर्म वा नोकर्मसों तो मेरा स्वरूप भिन्न तुम्हारे प्रसाद कर दरस्या अब मेरे ताई रागद्वेष सूं न्यारा दिखावो सो अब श्रीगुरु कहे हैं हे शिष्य तू सुन जैसे जलका स्वभाव तो शीतल है अरु अग्निके निमित्त कर उस्न होय तब अपना शीतल गुनने खोवे आताप रूप होय परनवे औराने भी आताप उपनावे पाछे काल पाय अग्निका संयोग मिटे त्यों जलको स्वभाव शीतल होय औरांकू आनन्दकारी होय त्योंही यह आत्मा कषायोंका निमित्त कर आकुल व्याकुल होय परनमें तब निराकुलित गुन दवि जाय तब अनिष्ट रूप लागे बहुरि ज्यों ज्यों कषायाका निमित्त मिटता जाय त्यों त्यों निराकुलित गुन प्रगट होय तब इष्टरूप लागे सो थोड़ासा कषायको मेटनेतें भी ऐसा शान्तीक सुख प्रगट होय तो न जाने परमात्मा देवके संपूर्न कषाय मिटे अरु अनन्त चतुष्टय प्रगट भया कैसा सुख होगी अरु थोड़ासा निराकुलित स्वभावको जान्या संपून निराकुलित स्वभावकी प्रतीत आये सुद्धात्माके ऐसा संपूर्ण निरालित स्वभाव होसी ऐसा अनुभवनमें नीका आवे है । बहुरि फेर शिष्य प्रश्न करे है हे प्रभू बाह्य आत्मा अन्तर आत्मा परमात्मा इनका प्रगट चिन्ह कहा ताका स्वरूप क हो सो गुरु कहे हैं । जैसे कोई जनम ताई बालकने तैखानामें राख्या तैठा ही बधायो केताक दिन पीछे रात्र समय बारें काढ़ो अरु बालकने पूछो सूर्य किस दिसाने ऊँगे छे ताको प्रकास कैसो होय छे अरु सूर्य केसो छ । तब वे कहें मैं तो न जानो दिसा व प्रकास व सूर्यका विम्ब कहा कहावे । तब हठकर पूछो तब और सू और बतावे पाछे सूर्य ऊगो तब फेर कही तब वाने कही जहां