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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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चुद्धिवान पुरुष ऐसे विचारे छहों मत विर्षे कोई एक मत. सांचा होसी । छहों तो सांचा नाहीं छहों में परस्पर विरुद्ध है। तातूं किसा आगमका आज्ञा मानिये सो यातो बनें नाहीं तासों परिक्षा करवो उचित है परिक्षा किया अनुमान बात मिलसी सोई प्रमान छ । सोई जो छहों मतमें कोई सर्वज्ञ वीतराग है। ताका मतमें पदार्थाका स्वरूप कहा छ सोई उनमें मिले है ताते सर्वज्ञ वीतरागका मत प्रमान है । और मतमें वस्तुका स्वरूफ. कहा है सो उन्मानमें तुलै नाहीं । ता अपमान है म्हारे तो रागद्वेषका अभाव छे । जैसा वस्तुका स्वरूप छा तैसा ही अनुमान प्रमान किया हमारे रागद्वेष होता तो मैं भी अन्यथा व्याख्यान करता रागद्वेष गया अन्यथा श्रद्धा। होय नाहीं जैमाने जैसा कहिये तो रागद्वेष नाहीं । रागद्वेष तो कहिये जो वस्तुका स्वरूप और अरु रागद्वेष कर कहे तो और सो म्हारे ज्ञानावरन कर्मका क्षयोपसम करि ज्ञान यथार्थ भया हैं । अरु मैं भी सर्वज्ञ हों केवल ज्ञानी सारसौ हमारो निजस्वरूप है। अवार चार दिन कर्माका उदय कर ज्ञानकी हीनता दीसे है । तो काई वो वस्तुका द्रव्यत्व स्वभावमें फेर नाहीं अब भी हमारे ज्ञान छे सो केवल ज्ञानको बीज छै । तातें म्हारी बुद्धि ठीक छे जामे संदेह नाहीं । ऐसा सामान्यपने पट मतका स्वरूप कहा आगे संसारी जीव चन्द्रमा सूर्य आदि देवकू तरनतारन माने है ताकू कहिये हैं ये चन्द्रमा सूर्य आदि जगतकों दीसे हैं। सो ये तो विमान है सो अनादि निधन सास्वता है। या ऊपर चन्द्रमा सूर्य अनन्ता होय गया चन्द्रमाका विमान सामानपने अठारासै कोस चौड़ा है। सुर्यका सौ कोस