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२८१ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ऐसा विचारे नाहीं । वासुकी राजाने धरती तलेसू काड़ लियो जब धरती कौनके आधार रही अरु सुमेर उखारो तब सास्वतो क्यों रहो अरु चन्द्रमा आदि चौदा रत्न अब ताई समुद्रमाहीं छो ता चन्द्रमा विना आकासमें गमन कौन करै छो अरु चांदनी कौनकी छी अरु ऐकै रोज आदि पन्द्रह तिथि वा उजालो अधयारो व महीनो वरष याका प्रवर्त कौंन छी अरु लक्षमी विना धनवान पुरुष कैसे छा सोतो ए प्रत्यक्ष ही विरुद्ध सो सत्य कैसे संभवे और कैई कहे हैं । कोई राक्षस धरतीने पातालमें ले गयो पाछे वारह रूप ध र पृथ्वीका उधार किया सो ऐसा विचार नाहीं जो यह पृथ्वी सास्वती तो राक्षम हर कैसे ले गयो कोई जा कहे सूर्य तो कास्यप रानाको पुत्र छे । अरु बुन्हि चन्द्रमाको पुत्र छै अरू शनीचर सूर्यको पुत्र छे अरु हनूमान अंजनीकुमारके कानकी आड़ीमें हो जन्मा अरु दोपदीकू कहे यह महा सती है परन्तु याके पांच पांडव भरतार हैं । सो ऐसा विचारे नाहीं के कास्यप राजाके ऐते मनका विमान गर्भ में कैसे रहसी अरु ये चन्द्रमा सूर्य तो विमान हैं ताके शनिचर वा बुद्धि कैसे होसी अरु कुमारी स्त्रीके कानकी आड़ी पुत्र कैसे होसी अरु द्रोपदीके पांच भर्तार हुवा तो सतीपनो कैसे रहो सो ये भी प्रत्यक्ष विरुद्ध सो या बात सत्य कैसे होती इत्यादि भर्म बुद्धि कर जगत भरम रहा है। ताका वर्नन कहां ताईं कहिये सो या बात न्याय ही है । संसारी जीवांके भर्म बुद्धि न होय तो और कौनके होय कोई पंडित ज्ञानी पुरुषांके तो होवे नाहीं अरु ऐसे ही भरम बुद्धि पंडित ज्ञानी पुरुषांके होय तो संसारी जीवमें अरु पंडितोंमें विशेष काई धर्म छे