Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Moolchand Manager
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ज्ञानानंद श्रावकाचार [भाषाटीका ] प्रकाशक मूलचंद जैन-सागर, (सी० पी०) "जैन विजय " प्रेस-सूरत । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ramro Sandi - श्री वीतरागाय नमः । కుకు BE. - - - - - सद्बोधरत्नाकर सप्तम ज्ञानानंद श्रावकाचार - - INOAAAEETERDISEASONIPANTARNALAMRITE PHO PAN కుకు కుకు కుకు DG -o-me- संशोधक. श्री मूलचन्दजा - प्रकाशक श्री कन्हैयालाल मूलचन्द मालिक सद्बोधरत्नाकर कार्यालय बड़ाबाजार सागर सी. पी. वीर न २४४५ प्रथमवार मूल्य १॥) कपड़ेकी जिल्लका १) AkhArrow... - - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक:श्री कन्हैयालाल मूलचन्द मालिक सद्बोधरत्नाकर कार्यालय बड़ाबाजार सागर सी. पी. मुद्रक:ईश्वरलाल किमनदास कडेच 'जैनविजय प्रिन्टिंग प्रेस ' खपाटिया धक लक्ष्मीनारायणवाड़ी, सूरत Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना । सजमो, जिस ग्रन्थकी हम प्रस्तावना लिखनेका आरंभ करते हैं वह वास्तव में बहुत ही महत्वका है । ग्रन्थकर्ताने इस ग्रन्थकी रचना कर जैनजातिका बड़ा भारी उपकार किया है। इस ग्रन्थके रचियता श्रीयुत विर्य पं० रायमल्छनी सा० जयपुरनिवासी हैं। आपके विषय में बहुत कुछ लिखने की हमारी इच्छा थी परन्तु जैन समाज ऐतिहासिक विषयों में सबसे पीछे पड़ा हुआ है इसी कारण आज कोई किसी आचर्य, विद्वानकी जीवनी लिखना चाहे तो पहले तो उसे सामग्री ही नहीं मिलती; यदि कुछ सामग्री भी मिल गई तो पूरी न मिलनेके कारण पाठकों को संतोष नहीं होता । ऐतिहासिक विषयोंकी खोज करनेके लिये जिस शिक्षाकी आवश्यकता है हमारे समाजमें सच पूछो तो उसका प्रारम्भ ही नहीं हुआ है । प्रन्थकर्ताकी जीवनीका मैने बहुत खोज किया, कई ग्रन्थ देखे, कई जगह ढूंढ़ खोज की किन्तु दुःखका विषय है कि ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थके रचयिता विद्वानका केवल नाम और ग्राम विदित होनेके सिवाय और कुछ पता न लगा । इतना भी परिचय श्रीयुतं मास्टर दरयावसिंहजी सोधिया इन्दौर निवासीद्वारा प्राप्त हुआ । यह ग्रन्थ (ज्ञानानंद श्रावका - चार जैनियोंका आचार प्रधान ग्रन्थ है इस ग्रन्थकी एक २ प्रति वर्तमान समय में प्रत्येक जैनीके हाथमें होना आवश्यक है, / Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विना इसका संस्करण निकाले ऐसा होना असम्भव था इसी लिये मैंने इस ग्रन्थको प्रकाशित करनेका साहस किया है । ग्रन्थकाकी कृतिमें लेशमात्र फेरफार न करके जयपुरी भाषामें इसको जैसाका तैसा छपाया है । इस ग्रन्थके संशोधनमें श्रीयुत पं० बालचन्दनी संघी तथा श्रीयुत मास्टर दीपचन्द्रनीने विशेष सहायता दी इसलिये मैं उनका आभारी होकर उन्हें कोटिशः धन्यवाद देता हूं। जखौरा जिला झांसी . हितैषी- . .. चैत्र वदी २ सं० १९७५ मूलचन्द मैनेजर यह पुस्तक मिलनेका पता मृलचन्द मैनेजर सद्बोधरत्नाकर कार्यालय बड़ा बानार, सागर (सी. पी.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ज्ञानानन्द श्रावकाचार। मंगलाचरण । दोहा। राजत केवलज्ञान युत परमौदारिक काय । निरख छबि भवि छकित हे पीरस सहज सुभाय॥१॥ अरहत जी हन अरिनकों पायो सहज निवास । ज्ञान ज्योति परगट भई संघ किये सब ग्रास ॥२॥ सकल सिद्ध वन्दों सुविधि समयसार अविकार । स्वच्छ स्वछन्द उद्योत नित लख्यो ज्ञान विस्तार ॥३॥ ज्ञान स्वच्छ जसु भावमें लोकालोक समाय । ज्ञेयाकार न पर नवे सहज ज्ञान रस पाय ॥ ४॥ अन्त आँचके पाचतें शुद्ध भये शिवराय । अभेद रूप जे रनवे सहजानंद सुपाय ॥५॥ जिन मुखतें उत्पन्न भई ज्ञानामृत रस धार । स्वच्छ प्रवाह वहै ललित जग पवित्र करतार ॥६॥ जिन मुखतें उत्पन्न भई सुरति सिन्धुमय सोय । मो निमित्त अघ हरणते सब कारज सिध होय ॥७॥ निरविकार निग्रन्थ ए ज्ञान ध्यान रस लीन । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । नासा अग्रजु दृष्टि धर कर कर्म मल छीन ॥८॥ इह विधि मंगल करन” सब विधि मंगल हो । होत उदंगल दूर सब तम ज्यों भानु उद्योत ॥९॥ सप्रकार मंगलाचरण पूर्वक अपने इष्टदेवको नमस्कार कर RSS ज्ञानानन्द पूरित निन रस नाम शास्त्र ताका अनुभवन करूंगा । सो हे भव्य ! तूं सुन । कैसा है इष्ट देव, अरु कैसा है यह शास्त्र, अरु कैसा हूं मैं सोई कहिये है। देव दोय प्रकार हैअर्हन्त, सिद्ध । गुरू तीन प्रकार है-आचार्य, उपाध्याय, साधु । धर्म एक ही प्रकार है सो विशेषपने भिन्न भिन्न निरूपण करिये है । सो कैसे हैं अन्तदेव परमौदारिक शरीर ताविर्षे पुरुषाकार आत्मद्रव्य है । बहुरि नाश किया है घातिया कर्ममल माने अर धोया है आत्मासे कर्मरूपी मैल जाने, अरु अनन्त चतुष्टयको प्राप्त भया है, अरु निराकुलित अनुपम बाधारहित ज्ञान सुरस करि पूर्ण भरया है, अरु लोकालोकको प्रकाशक ज्ञेयरूप नाही परनवे है । एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावको धरे है, अरु शान्तिक रसकर अत्यन्त तृप्त हैं । क्षुधादि अठारह दोषनसौ रहित हैं । निर्मल (स्वच्छ) ज्ञानका पिंड हैं, जाका निर्मल स्वभाव विघे लोकालोकके चराचर पदार्थ स्वयमेव आन प्रतिविंव हुवे हैं। मानो भगवानका स्वभाव विर्षे पहिले ही ए पदार्थ तिष्ठै था। ताका निर्मल स्वभावकी महिमा वचन अगोचर है । बहुरि कैसे हैं अरहूंत देव जैसे सांचा विर्षे रूपा धातुका पिंड निरमापिऐ है । तैसे अरहंत देव चैतन्य धातुका पिंड परम औदारिक शरीर वि तिष्ठे Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रानकाचार । vvvvvv हैं । शरीर न्यारा है अरहंत अत्मा द्रव्य न्यारा है ताकौ हुं अंजुली जोर नमस्कार करों हौं । वहुरि कैसे हैं परम वीतराग देव अतीन्द्रिय आनंद रसको पीवै हैं वा आस्वाँर्दै हैं। ताका सुखकी महिमा हम कहवा समर्थ नाहीं । पन छ नस्यका जानब नै उपमा संभव है । तीन काल सम्बन्धी बारहा गुनस्थानके धारी मुनि ताके आत्मीक सुखकी जुदी जात है। सो ऐ तो अतेन्द्रिय क्षायिक सम्पूर्ण स्वाधीन सुख है । अरु क्षद्मस्थकै इन्द्रियजनित पराधीन किंचित् सुख है । ऐसा निसंदेह है बहुरि कैसे हैं केवलज्ञानी केवल एक निज स्वच्छ ज्ञानका पुंज है। ता विर्षे और भी अनंतगुण भरे हैं। बहुरि कैसे हैं तीर्थकर देव अपना उपयोग• अपने स्वभाव विवे गाल दिया है । जैसे लूनकी डली पानी विर्षे गल जाय त्यों ही केवली भगवानका उपयोग स्वभाव विर्षे गल गया है। फेरि बाहिज निकसवाने असमर्थ है नियम करि। वहुरिआत्म्रीक सुख सौ अत्यंत रत भया है । ताका रस पीवाकर तृप्ति नाहीं होय है वा अत्यंत तृप्ति है और वाका शरीरकी ऐसी सौम्य दृष्टि ध्यानमय अकंप आत्मीक प्रभावकरि सोभै है मानौ भव्य जीवनै उपदेश ही देय है कि रे भव्य जीवो ! अपना स्वरूप विवें ऐसै लागौ । विलम्ब मत करौ ऐसा शांतीक रम पीवौ ऐसे सैन करि भव्य जीवनकू अपना स्वरूप विर्षे लगावै है । इह निमत्तनै पाय अनेक जीव संसार समुदसू तिरे । अनेक जीव आगै तिरेंगे । वर्तमान विर्षे तिरते देखिये है । सो ऐसा परम औदारिक शरीरको भी हमारा नमस्कार होहु । जिनेन्द्रदेव हैं सो लौ आत्मद्रव्य ही हैं परन्तु आत्मद्रव्यके निमितने शरीर की भी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । स्तुति उचित है । अरु भव्य नीवनै मुख्यपनै शरीरकाही उपकार है तातें स्तुति वा नमस्कार करवौ उचित है । अर जैसे कुलाचलनके मध्य मेरु शोभे है । तैसे गणधरानके विर्षे वा इन्द्रोंके विर्षे श्री भगवान शोभै हैं। ऐसा श्री अरहंत देवाधिदेव या ग्रन्थकू पूरा करें। . आगे श्री सिद्ध परमेष्ठीकी स्तुति महिमा करि अष्ट कर्म हनूं हूं। सो कैसे हैं श्री सिद्ध परम देव जिन धोया है घातिया अघातिया कर्ममल निषपन्न भया जैसे सोला वानीका शुद्ध कंचन अंतकी आंचकर पचाया हुवा निषपन्न होय है । तैसे अपनी स्वच्छ शक्ति कर दैदीप्यमान प्रगट भया है स्वरूप जाका । सो प्रगट हीतै मानूं समस्त ज्ञेयको निगल गया है । बहुरि कैसे हैं सिद्ध एक एक सिद्धकी अवमाहना विर्षे अनंत अनंत सिद्ध न्यारे न्यारे अपनी अपनी सत्तासहित तिष्टें हैं । कोऊ सिद्ध महाराज काहु सिद्धसे मिलें नाहीं बहुरि कैसे हैं सिद्ध परम पवित्र हैं । अरु स्वयं सुद्ध हैं अरु आत्मीक स्वभाव विर्षे लीन हैं । परम अतेंद्री अनुपम बाधा रहित निराकुलित सुरसकू निरंतर अखंड पीवै हैं । तामै अंतर नाहीं पड़े है। बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान असंख्यात प्रदेश चैतन्य धातुके पिंड निवड़ घनरूप धरे हैं अरु अमूर्तीक चर्म शरीर हैं किंचित् ऊन हैं । सर्वज्ञ देवकों प्रत्यक्ष विद्यमान न्यारे न्यारे दीसै हैं बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान अपना ज्ञायक स्वभावते प्रगट किया है । अरु समय २ षट् प्रकार हानि वृद्धि रूप अनंत अगुरु लघु गुणरूप परनवै हैं । अनंतानंत आत्मीक सुखकों आचरें हैं। वा आस्वाद हैं । अरु तृप्ति नाहीं होय हैं वा अत्यंत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ५ तुप्त होय है । अब कुछ भी चाह रही नाहीं कृत्य कृत्य हुआ कारज करता था सो कर चुका । बहुरि कैसे हैं परमात्मा देव ज्ञानामृत कर श्रवै है स्वभाव जिनका अरु स्वसंवेदन करि उछलें हैं। आनंदरसकी धारा जावि उछलकर अपने ही स्वभाव विर्षे गड़फ होय है अथवा सकरकी डली जल विधें गल जाय । तैसे स्वभाव विर्षे उपयोग गल गया है । वाहरें निकसनेको असमर्थ हैं । अरु निज परिनति (अपने स्वभाव) वि रमै हैं । एक समय विर्षे उपनै हैं अरु विनसें हैं अरु. ध्रुव रहैं हैं। पर परनतिसे भिन्न अपने ज्ञान स्वभाव विथें प्रवेश किया है । अरु ज्ञान परिनति विर्षे प्रवेश किया है । अर एकमेक होयं अभिन्न परिणवै है। ज्ञानमें अरु परिनतिमें दो जायगा रहै नाहीं। ऐसा अभूत पूर्व कौतूहल सिद्ध स्वभाव विषैहोय है । बहुरि कैसे हैं सिद्ध अत्यंत गंभीर हैं अरु उदार है अर उत्कृष्ट है खभाव जाका । बहुरि कैसे हैं सिद्ध निराकुलित अनुपम बाधा रहित स्वरस कर पूर्ण भरचा है वा ज्ञानानंद करि अहलाद है वा सुख स्वभाव विर्षे मगन हैं । बहु कैसे हैं सिद्ध अखंड हैं, अजर हैं, अमर हैं, अविनाशी हैं । निर्मल हैं, अरु चेतना स्वरूप हैं, सुद्ध ज्ञानमूर्त हैं । ज्ञायक हैं, वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, त्रिकाल सम्बन्धी चराचर पदार्थ द्रव्य गुन पर्याय संयुक्त ताकों एक समय विर्षे युगपत जाने हैं। अरु सहजानन्द हैं, सर्व कल्यानके पुंज हैं, त्रैलोक्य करि पूज्य हैं, सेवत सर्व विघन विलय जाय हैं, श्री तीर्थंकर देव भी तिनको नमस्कार करें हैं, सो मैं भी बारम्बार हस्त जुगल मस्तककों लगाय नमस्कार करूं हूं सो क्या वास्ते नमस्कार करूं हूं वाही Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । के गुनकी प्राप्तिके अर्थ । बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान देवाधिदेव हैं। सो देव संज्ञा सिद्ध भगवान विषै ही शोभै है । अरु चार परमैष्ठिनकी गुरु संज्ञा है । बहुरि कैसे हैं सिद्ध परमेष्ठी सर्व तत्वकों प्रकाश ज्ञेयरूप नाहीं परणमैं हैं अपना स्वभावरूप हीं रहै हैं । अरु ज्ञेयको जानें ही हैं सो कैसे जाने हैं । जो ए समस्त ज्ञेय पदार्थ मानूं शुद्ध ज्ञानमें डूब गया है । कि मानूं प्रतिबिंबित हुवा है कै मानूं ज्ञानमें उकीर काड्यौ हैं। बहुरि कैसे हैं सिद्ध महाराज शांतिकरस अर असंख्यात प्रदेश भरे हैं। अरु ज्ञानरस करि अहलादित है शुद्धामृत सोई भया परम रस ताकौ ज्ञानांजलि कर पीवै हैं बहुरि कैसे हैं सिद्ध जैसे चन्द्रमाका विमान विर्षे अमृत अवै है। अरु औराकू आहलादि आनंद उपजावै है । अरु आतापकू दूर करै त्यौं ही श्री सिद्ध महाराज आप तौ ज्ञानामृत पीवै हैं वा आजरें हैं अर औराकू आहलादि आनंद उपजावै है । ताको नाम स्तुति वा ध्यान करते जो भव्य जीव ताका आताप विलै जाय है। परनाम शांत होय हैं। अर आपा परकी सिद्धि होय है अरु ज्ञानामृतनै पीवै हैं । अरु निज स्वरूपकी प्राप्त होवे है ऐसे सिद्ध भगवानको फिर भी नमस्कार होहु । ऐसे सिद्ध भगवान जैवन्ते प्रवर्ती अरु संसार समुद्र माहींसूं काढ़ौ अरु संसार समुद्र विर्षे पड़नैतें राखौ म्हारा अष्ट कर्मको नाश करौ अरु माने अप सरीवौ करौ । बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान जाकै जन्म मरन नाहीं जाकै शरीर नाहीं है, जाकै विनास नाहीं है, संसार विर्षे गमन नाहीं है, जाकै असंख्यात प्रदेश ज्ञानका आधार है । बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान अनंत गुनकी खान हैं । अनंतगुन करि पूर्ण Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञामानन्द श्रावकाचार । भरया है । तातें अवगुन आवनै जांगां नाहीं। ऐसे सिद्ध परमेष्ठीकी महिमा वर्णन कर स्तुति करि । आगै सरखती कहिऐ जिनघानीताकी महिमा स्तुति करिये हैं। सो हे भव्य ! तूं सुन सो कैसी है जिनवानी जिनेन्द्रका हृदय स्रोई भया द्रह तहां थकी उत्पन्न भई है। वहां थकी आगै चली सो चल करि जिनेन्द्र मुखारविंदतै निकसी, सो निकसकरि गनधर देवांका कान वि जाय पड़ी। अरु पडिकरि का थकी आगै चलि गणधर देवांका मुखारबिंदतें निकसी। निकसिकरि आगाने चाल सुरत सिन्धुमें जाय प्राप्त भई । भावार्थ-या जिनवानी गंगा नदीकी उपमानै धरा है। वहुर कैसी है जिनेन्द्र देवकी वानी स्याद्वाद लक्षण करि अंकित है वा दया अमृत कारि भरी है । अर चन्द्रमा समान उज्वल है वा निर्मल है, जैसे जैसे चन्द्रमाकी चांदनी चन्द्रवसी कमलानै प्रफुल्लित करै है और सब जीवोंके आतापनै हरै है । तैसे ही जिनवानी भव्य जीव सोई भया कमल त्यानै प्रफुल्लित कौ है । वा आनंद उपजावै है, अरु भव आतापमै दूर करै है। बहुरि कैसी है सरस्वती जगत्की माता है सर्व जीवानै हितकारी है । परम पवित्र है । पुन कुवादी रूप हस्ती ताका विदारवाणै वा परिहार करवाने वादित्त रिद्धिका धारी महा मुनि सोई भया शार्दूल सिंह ताकी माता है। बहुरि कैसी हैं जिन प्रणीत बानी अज्ञान अंधकार विध्वंश करवानै जिनेन्द्र देव सूर्य ताकी किरन ही है। या ज्ञानामृतकी धार बरषावनेको मेघमाला है। इत्यादि अनेक महिमाने धरया है। ऐसी जिनवानी ताकै अर्थ म्हारा नमस्कार होहु । ईहां सरूपानुभवनका विचार मैंने किया है सो इस कार्यकी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सिद्धता ही है । ऐसी जिनवानीकी स्तुति वा महिमा बरनन कारे। आगे निरग्रन्थ गुरू ताकी महिमा स्तुति करै हैं । सो हे भव्य ! तूं सावधान होयके नीके सुन । कैसे हैं निरग्रन्थ गुरु दयालु है चित्त जाका अरु वीतराग है स्वभाव जाका अर प्रभुत्व शक्ति कर आभूषित हैं । अर हेय ज्ञेय उपादेय ऐसा विचार करि संयुक्त हैं। अरु निर्विकार महिमानै प्राप्ति भये हैं । जैसे राजपुत्र बालक नगन निर्विकार शोभै हैं । अरु सर्व मनुष्य वा स्त्रीकू प्रिय लागै है। मनुष्य वा स्त्री वाका रूपकू देख्या चाहे है । वा स्त्री वाका आलिंगन करै है। परन्तु स्त्रीका परनाम निर्विकार हो रहे है सरागतादिकको नहीं प्राप्त होय है । तैसे ही जिन लिङ्गका धारक महा मुनि वालवत निर्विकार शोभै है । सर्व जनकौ प्रिय लागै है, सर्व स्त्री वा पुरुष मुन्याका रूपनै देख देख तृप्त नाहीं होय है अश्वा वह मुनि निर्ग्रन्थ नाहीं हुवा है। अपना निर्विकारादि गुनाने ही प्रगट किया है। बहुरि कैसे हैं शुद्धोपयोगी मुनि ध्यानारूढ़ हैं । अरु आत्मा स्वभाव विर्षे स्थिति हैं । ध्यान बिना क्षणमात्र गमावै नाहीं, कैसे स्थिति है नासाग्र दृष्टि धर अपनै स्वरूपनै देखे हैं, जैसे गाय बच्छानै देख देख तृप्ति नाहीं होय है। निरंतर गायके हृदय विर्षे बञ्छा वसै है तैसे ही शुद्धोपयोगी मुनि अपना म्वरूपनै छिनमात्र भी विसरै नाहीं है। गौवच्छावत् निज स्वभावसौ वात्सल्य किए हैं । अथवा अनादि कालका अपना स्वरूप गुमिगया है ताकों तेरै हैं । अथवा ध्यानअगनि कर कर्म ईधन • आभ्यंतर गुप्त होमै हैं । अथ्वा नगरादिक नै छोड़ वनके विषै जाय नासाग्र दृष्टिं धर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - ज्ञान सरोबर विषै पैठ सुधा अमृतनै पीवै है । वा सुधा अमृत विषै केलि करै है वा ज्ञान समुद्रमें डूब गया है अथवा संसारका भय थकी डरपि आभ्यंतर विर्षे अमूर्तीक पुरुषाकार ज्ञानमय मूस्त ऐसा चैतन्य देवके शरणकुं प्राप्त हुवा है या विचार है भाई म्हानै तो एक चैतन्य धातुमय पुरुष ज्ञायक महिमानै धरचा ऐसा परमदेव सोही शरण है। अन्य शरण नाहीं ऐसाम्हाकै निःसन्देह अवगाढ़ है। बहुरि सुधामृत करि चैतन्य देवका कर्म कलंकनै धोय लेपन कहिये प्रक्षालण करिऐ है पाछै मगन होय ताकौ सन्मुख ज्ञान धाराको क्षेपै है । पाछै निन स्वभाव सोही भया चन्दन ताकी अर्चा कहिये ताकौ पूजे हैं । अरु अनंत गुण सोई भया अक्षत ताको तिन विर्यै क्षेपै हैं । पाछै सुमन कहिये भला मन सोई भया आठ पांखुड़ी संयुक्त पदम--पुष्प ताकौ वा विषै बहुड़े हैं.। अरु ध्यान सोही भया नैवेद्य ता विषै सन्मुष करै है अरु ज्ञान सोही भया दीपताकों तावि. प्रकाशित करै हैं । मानौं ज्ञान दीपकर चैतन्य देवका स्वरूप अबलोकन करै है । पाछै ध्यानरूपी अगनि विषै कर्म सो ही भया धूप ताकौ उदार मन करि शीघ्रपने आछै २ क्षेपे हैं, पाछै निजानंद सो ही भया फल ताकू भलीभांत ताविषै प्राप्त करै हैं ऐसे अष्ट द्रव्य करि पूजन करै है । मोक्ष सुखकी प्राप्तिके अर्थ । बहुरि कैसे हैं शुद्धोपयोगी मुनि आप तौ शुद्ध स्वरूप विषै लग गया है । तहां मारगमें कोई भोला जनावर ढूंठ जान वाके शरीर सों खान खुजावै है । तोहू मुन्याका उपयोग ध्यानसौ चलें नाहीं है । ऐसा निज स्वभावसौ रत हुवा है । बहुरि हस्ती, सिंघ, शूकर, व्याघ्र, मृग, गाय इत्यादि वैरभाव छोड़ सन्मुख खड़ा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - होय नमस्कार करै है । अरु अपना हितकै अर्थ मुन्याके उपदेश नै चाहै है । बहुरि ज्ञानामृतका आचरन करि नेत्रविषै अश्रुपात चालैसों अंजुली विषै पड़े है ताको चिड़ी कबूतर आदि भोलापक्षी जल जान रुचिसो पीवे है । सो ए अश्रुपात नाहीं चाले हैं यह तो आत्मीक रस ही अवै है । सो आत्मीकरस समाया नहीं है तातै बाह्य निकाया है अथवा मानौ कर्मरूपी बैटीकी ज्ञानरूपी षड्ग करि संघार किया है । तातै रुधिर उछलिकर बाह्य निकसे है । बहुर कैसे हैं शुद्धोपयोगी मुनि अपना ज्ञान रस करि क्षक रह्या है । तातें बाह्य निकसवानै असमर्थ है। कदाचित् पूर्वकी वासना कर निकसै है तौ बानै जगत् इन्द्र जालवत् भासै है। फेर तत्क्षण ही स्वरूप विर्षे ही लग जाय है । फेरि स्वरूपका लागवा करि आनंद उपजै है । ताकर शरीरकी ऐसी दशा होय है। अरु गदगद शब्द होय है । अरु कहीं तौ जगतके जीवानै उदासीन मुद्रा प्रति भास है । अरु कहे मानूं मुन्यानिधि पाई ऐसी हंस मुखमुद्रा प्रतिभासै है। ये दोऊ दशा मुनियाकी अत्यन्त शोभै है । बहुर मुनि तौ ध्यान विषै मरक ( लीन) हुवा सौम्य दृष्टिनै धरया है । अर वहां नगरादिकसं राजादिक बंधवानै आवै है सो अवै वे मुनि कहां तिष्ठै है । कै तो मसान भूमिका विषै कै निरंजम पुराना वन वि अरु कै पर्वतादिककी कंदरा कहिये गुफा वि अरु कै पर्वतका सिखर विर्षे अरु कै नदीके तीर विर्षे अथवा नगर बाह्य चैत्यालय विर्षे इत्यादि रमनीक मनके लगवाने. कारन जो होय ता अरु उदासीनताके कारन ऐसा स्थान विषै तिष्ठे हैं जैसै कोई अपनी निधिनै छिपावता फिरै अर एकान्त जायगाका Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ अनुभव करै तैसे ही महामुनि अपना ज्ञान ध्यान निधिको छिपावता फिरै है अर एकान्त हीमें वाका अनुभव किया चाहै है। अरु ऐसा विचार है कि म्हाकी ज्ञान ध्यान निधि जाती न रहै अरु म्हाका ज्ञान भोगमैं अंतर न परे, तिहि वास्तै महा मुनि कठिन कठिन स्थामक विषै वसै हैं । जेठे मनुष्यका संचार नहीं तेठे वसे हैं अरु मुनिनै पर्वत गुफा नदी मसान बन ऐसा लागे है मानौ ध्यान ध्यान ही प्रकार है। कहा कहि पुकार है कहै आवो आवो यहां ध्यान करौ ध्यान करौ निजानंद स्वरूपनै बिलासौ विलासौ । थाको उपयोग स्वरूप विषै बहुत लागसी तीसौं और मत विचारौ ऐसे कहै है। बहुर शुद्धोपयोगी मुनि घनौ पवन चालै तेठे, अर घना घाम होई तेसै वा घना मुनुष्यांका संचार होई तेह्र जोरावरीतें नहीं वसै है । क्यों नाहीं वसै है मुन्याका अभिप्राय एक ध्यानाध्यन करि वांकी ही ऐ । जेठे ध्यामाध्यन घनौ वधै तेठे ही वगै। कोई या जानैगा कि मुनि सर्व प्रकार ऐसा कठिन कठिन स्थानक विर्षे ही बसै अर स्वतः चाहि चाहि परीषहनको सहै अर एता दुद्धर तपश्चरन करै है । अर सास्वता ध्यानमई ही हैं सो यूतौ नाहीं । कारण कि मुन्याकै बाह्य क्रियासूं तौ प्रनोजन है नाहीं, अर अठाईस मूल गुन ग्रहन किया है तानै सिला ऊपर वा पर्वतके सिखिर विर्षे ध्यान धरै वा चौमासेमें वृक्ष्यांके तलै ध्यानको धेरै ही तौ अपनै परनामाकी विशुद्धताकै अनुसार धरै है। - अत्यंत विरक्त होय तौ ऐसी जागै ध्यान धरै । नाहीं तौ और ठौर मन लागै जेठे ध्याण धेरै अर साम्हा आया उपसर्गको Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv छोड़ि नाहीं जाय है सो मुन्याकी सिंघवत् वृत्ति है और मुन्याका परिनाम ध्यान विषै स्थिति होय है । तब ध्यानको छोड़ और कार्यको नाहीं विचारै है । अरु ध्यानसू परनाम उतरै है तव शास्त्राभ्यास करै है । वा औराकू करावै है । वा अपूर्व जिनवानीके अनुसार ग्रंथ जोड़े है । अरु शास्त्राभ्यास करता करता परनाम लग जाई । तौ शास्त्राभ्यास छोड़ि ध्यान विर्षे लाग जाय है । सो शास्त्राभ्यास बीच ध्यानका फल बहुत है । तातै ओछा कार्यको छोड़ि ऊंचा कार्यकू लागवो उचित ही है । सो ध्यान विर्षे उपयोगकी थिरता बहुत रहै है। अर शास्त्राभ्यास विषै उपयोगकी थिरता बहुत रहै है। तीसौ मुनि महाराज ध्यान भी धरै हैं । अर शास्त्र भी वांचै है । अर आप गुरन पै पढ़े है वा चरचा करै हैं । मूल ग्रन्थाके जनुसार अपूर्व ग्रन्थ जोड़े हैं । वा नगरसूं नगरान्तर देशसूं देशान्तर विहार करै हैं । अरु भेजनके अर्थ नगरादिक विषै जाय हैं । तेठे पडगाह्या ऊंचा क्षत्री, वैश्य, ब्राह्मन कुल विषै नवधा भक्ति संयुक्त छियालीस दोष बत्तीस अंतराय टाल खड़ा खड़ा एकवार कर पात्रमें आहार लेय हैं इत्यादि शुभ कार्य विषै प्रवत है । और मुनि उत्सर्गनै छोड़े तौ परनामोंकी निर्मलताके अर्थ अपवादमार्गनै आदरै है । अरु अपवादमार्गनै छोड़ उत्सर्गनै आदरै है । सो असर्गतौ कठिन है अर अपवाद मार्ग सुगम है । मुन्याकै ऐसा हठ नाही की म्हानै कठन ही आचरन आचस्ना वा सुगम ही आचरनका आचरन करना । भावार्थ-मुन्याकै तौ परनामका तौल है वाह्य क्रिया ऊपर प्रयोजन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । 1000 0000000 - - Nrvarvvvvvvvv~-~ 'VVVVV~~~~~~ ~ ~ ~ नहीं जा प्रवित विषै परनामाकी शुद्धता बधै अर ज्ञानका क्षयोपशम बधै सोई आचरन आचरै । ज्ञान वैराग्य आत्माका निज लक्षन है ताहीको चाहै है । और अवै मुनिराज कैसै ध्यान विषै स्थिति है। अरु कैसे विहार करै है अर कैसे राजादिक आय बंद हैं सोई कहिए है । मुनि तौ वन विषै वा मसान विषै वा पर्वतकी गुपय विषै वा पर्वतकी सिखिर विषै वा सिला विषै ध्यान दिया है। अर नगरादिक सौ राजा विद्याधर व देव बंदवाणै आवै है। अर मुन्याकी ध्यान अवस्था देषि दूर थकी नमस्कार करि उहा ही खड़ा रहै है । अर कैई पुरुषाकै यह अभिलाषा वर्ते है । कदि (कब) मुन्याका ध्यान खुलै अर कदि मैं निकट जाई प्रश्न करौं । अर गुरांका उपदेशनै सुनौ अर प्रश्नका उत्तर जानों अर अतीत अनागतके पर्यायोंकू जानों । इत्यादि अनेक प्रकारका स्वरूप ताकौ गुरांकी मुखथकी जान्या जाय : ऐसे कई पुरुष नमस्कार करि करि उठनाई है । अर कैई ऐसा विचार है सो म्हैं मुन्याका उपदेश सुन्या विना घर जाई कांई करा । म्है तौ मुन्याका उपदेश विना अतृप्त क्षा । अरु हाकै नानातरहका संदेह औ । अर नाना तरैका प्रश्न छै । सो या दयालु गुरां विना और कौन निवारन करै । ती हे भाई म्हैनौ जेतै मुन्याका ध्यान खुलैते तैउभाईक्षा। अर मुन क्षै सो परम दयाल : मुन अपना हेत नै छोड़ि अन्य जीवानै उपदेश दे हैं । तीस्यूं मुन्यानै अपना आगमन जनावो मति, अपना आगमन करि कदाच ध्यान सौ चलसी तौ अपना अपराध लागि तीसं गोप्य ही रहै है । अर कैई परस्पर ऐसे कहैं देषौ भाई मुन्याकी काई दशा है । काष्ठ पाषाणका Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | स्थंभवत अचल है । अर नासाग्र दृष्ट घरचा है । अत्यंत संसार उदासीन है । अपना खरूपसं अत्यंत लीन है ईहां आत्मक सुखके वास्तै राज लक्ष्मीने वो वोदा तृणकी नाई क्षोड़ि है । सो अपनी याकै काई गिनती छै । अर कैई कहता हुवा रे भाई आपनी गिनती तौ नाहीं सो सत्य परंतु यह परम दयाल है महा उपकारी है, तारन तरन समर्थ है । तासूं ध्यान खुलै अपनौ भी कार्य सिद्ध करसी । बहुरि कैई ऐसा कहता हुवा देखौ माई मुन्याकी क्रान्ति अर देखो भाई मुन्याका अतिशय अर मुन्याकौ साहसू क्रांति कर तौ दशौ दिशा उद्योत कीनी है अरु अतिशयका प्रभाव करि मारगकै सिंघ हस्ती व्याघ्र, रीछ, चीता, मृग इत्यादिक जनावर वैरभाव छोड़ि मुन्यांनै नमस्कार करि निकट बैठा है । अरु मुन्याकौ साहस ऐसा है सो ऐसा क्रूर जनावर ताकी भय थकी निर्मै हुवा है उद्यान विषै तिष्ठै है । अर ध्यानसूं क्षिन मात्र भी नाहीं चलै है । अर क्रूर जनावरनै अपूरामोह लिया है । सो यह बात न्याय ही है जैसा निमित्त मिलै तैसा ही कार्य उपभै । सो मुन्याकी शांतिता देख क्रूर जना - वर भी शांतिताकुं प्राप्त हुवा है । रे भाई या मुन्याका साहसपनौ अद्भुत है । कोई जाने ध्यान खुलै कै ना भी खुलै । तीसूं ऐटाही सूं नमस्कार कर घरां चालौ फेर आवलौ । और कोई ऐसे कहता हुवा रे भाई अवै कोई उतावलौ होहु क्षो श्री गुरूकी वानी सोई हुवौ अमृत तीका पिया विना घर जावा मै कांई सिद्ध है । धाने घर आक्षौ लागे है म्हांने तो लागे नाहीं म्हानै तौ मुन्याका दशन उत्कृष्ट प्रिय लागे है । अर मुन्याका ध्यान अब खुलती । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५ राग घनी वार हुई है तीनू कोई प्रकारको विकल्प मत करौ । और कोई ऐसे कहता हुवा रे भाई तैं या आछी कही याकै अत्यंत अनुछै | श्रावक धन्य क्षै ऐसे परस्पर बतलावता हुवा । अर मन जै विचारता हुवा तैसे ही मुनिका ध्यान खुल्या । अर बाह्य उपजोग कारि सिल्य जनादिने देखवा लागा तब सिख्य कहता हुवा | रे भाई सुन परम दयाल आपाने दया करि सन्मुख अवलोकन करे है । मानूं आपनै वुलावै ही है हीसूं अवैं सावधान होइ अर सितावी चालौ चालिकर अपना कारज सिह करौ । सो वे सिख्य मुन्याके निकट जाता हुवा अर श्री गुराकी तीन प्रदक्षिना देता हुवा अर हस्त जुगल मस्तक कै लगाई नमस्कार करता हुवा । अर मुन्याका चरन कमल विषै मस्तक धरता हुआ । अर चरननकी रज मस्तककै लगाता हुवा अर अपनौ धन्यपनौ मानता हुवा | अर दूर न घना नजीक ऐसे विनय संयुक्त खड़ा हुआ अरु हाथ जोर स्तुति करता भया, काई स्तुति करता हुआ हे प्रभू, हे दयाल, हे करुनानिधि, हे परम उपगारी, संसार समुद्र के तारक, भोगनसूं परान्मुख, अरु संसारसूं परान्मुख, अर संसार सं उदासीन, अर शरीर निःप्प्रेह अर खपर कार्य वि लीन ऐसे ज्ञानामृत करि लिप्त थे जैवंता प्रवत्तौं । अर मो ऊपर प्रसन्न हो, प्रसन्न हो, बहुरि हे भगवान् थां विना और म्हा कौ रक्षक नाहीं थे अवै म्हांनै संसारमाहि से काड़ौ अर संसार विषै पड़ता जीवाने थें ही आधार क्षै । अर थें ही सरन क्षौ । तीसूं जीवातमें म्हाकौ कल्याण होइ सोई करौ अर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । म्हाकै आपकी आज्ञा प्रमान है । है निर बुद्धी क्षा अर विवेक रहित क्षा । तिसूं विनय अविनयमैं समझा नाहीं क्षा । एक आपने हेतुनै ही चाहूं क्षा । जैसे बालक मातानै लाड़ करि चाहैं ज्यौं बोलै । अर लडूवा आदि वस्तुनै मागै सो माता पिता बालक जान वासू प्रीति ही करै । अर खावानै मिष्ठानादिक चोखी वस्तु काड़ ही दे । जैसे ही प्रभु मै बालक क्षो आय माता पिता क्षो । बालक जान म्हां ऊपर क्षिमा करौ । अर म्हाका प्रश्नका उत्तर करौ अर सन्देहका निवारन करौ । त्यू म्हाको अज्ञान अंधकार विले जाई । अर तत्त्वका स्वरूप प्रतिभासै । आपा परकी पिछान होई । सो उपदेश म्हांनै . द्यो । ऐसे सिख्य जन खड़ा खड़ा वचनालाप करता हुवा पाछै चुपका होय रह्या पाछै मुनि महाराज सिख्य जनाका अभिप्रायके अनुसार मिष्ट मधुर आत्म हितकारी कोमल ऐसा अमृतमई वचनकी पंकितता कर मेघ कैसी नाई सिरव्य जनानै पोषिता हुवा अर कैसे वचन उच्चारता हुवा हे राजन! हे पुत्र ! हे भव्य ! हे वक्ष ! तें निकट भव्य क्षौ । अर अवै थाकै संसार थोरौ झै । तीमूं थाकै यह धर्म रुचि उपजी : । अव थै म्हाका वचन अंगीकार करौ सो मै थानै जिनवानीके अनुसार कहौं क्षा सो चित है सुनो । यो संसार महा भयानक क्षै । धर्म विना यो संसारको नाश होइ नाहीं। तीसु एक धर्मनै सेवौ पाछै ऐसा मुन्याको उपदेश पाय जथा जोग्य जिन धर्म गृहन करता हुवा । अर कई प्रश्नका उत्तर सुनता हुवा केई जथा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार-1 - - जोग्य आखड़ीको गृहण करता हुवा भरु कई प्रभ करता हुवा । केई अपना अपना संदेहका निवारन करता हुवा ऐसे नानाप्रकारके पुन्य उपार्ज ज्ञानकों वधाई मुन्यानै फेर नमस्कार करि मुन्याका गुनानै सुमरता सुमरता आपनै ठिकाना जाता हुवा । ऐठा आगै मुन्याका विहार स्वरूप कहिए है जैसे निरबंध स्वेच्छाचारी वनविर्षे हस्ती गमन करै है। तैसे ही मुनि महरान गमन करै है सो हस्ती भी धीरे धीरे इंडिकी चालन करिता अरु सूंडनै भूमसूं स्पर्स करावता- थका अरु सूंडनै ऐठी उठी फैलावता थका अरु धरतीनै सूडसुं सूंघता थका निशंक निरमय गमन करे है। त्योंही मुनि महाराज धीरे धीरे . ज्ञानदृष्टि करि भूमिकू सोधता निरभय निशंक स्व इच्छाचारी विहार कर्म करै है । मुन्याकै भी नेत्रकै द्वारै ज्ञानदृष्टि धरती पर्यंत फैली है। सो याके यही सुंड है तीसू हाथीकी उपमा संभव है अरु गमन करता जीवांकू विराध्या नांही चाहै है । अथवा मुनि गमन नाही कर है भूली निधन हेग्ना नाय है । अरु गमन करता करता ही स्वरूपमें लग जाय है । तब खड़ा रहि जाइ है । फेर उपयोग तला उत्तरे है तब फेर गमन करै है पाछै एकांत तीष्ठ फेर आत्मीक ध्यान करै है। अरु आत्मीक रस पीवै है जैसे कोई पुरुष क्षुधा करि पीड़ित त्रषावान ग्रीष्म समय शीतल जल करिगल्या मिश्री काढेला अत्यंत रुचिसूं गड़क गड़क पीवै है । अरु अत्यंत तृप्ति होई है । तैसे शुद्धोपयोगी महामुनस्वरूपाचरन करि अत्यंत तृप्ति है वार वार वेई रसनै चाहै हैं वाकू छोड़ि कोई काल पूर्व ली वासना करिशुभोपयोग विधै लागें हैं । तव या जानै है ग्हा ऊपरआफत Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - आई । यह हलाहल विष सारसी आकुलताम्हासू कैसी भोगी जाई। अवार म्हाको आनंद रस कड़ि गयौ । फेर भी म्हाकै ज्ञाननंद रस की प्राप्ति होती कै नांही । हाय, हाय अवै म्है कांई करौ यौ म्हाको स्वभाव नाहीं छै, म्हाको स्वभाव तौ एक निराकुलित बाधारहित अतेन्द्री अनोपम सुरस पीवाकौ है। सोई म्हांनै प्राप्ति होई कैसै प्राप्त होइ । जैसे समुद्र वि मगन हुवा मच्छा वाह्य निकस्या न चाहै । अरु बाह्य निकसवानै असमर्थ होय । त्योंही मैं ज्ञान समुद्र विर्षे डूब फेर नाहीं निकस्या चाहूं हूं। एक ज्ञानरस होकौं पीवौ करौं आत्मीकरस विना और काईमें रस नाहीं सर्व जगकी सामग्री चेतन रस विना जड़त्व स्वभाव नै घट्या फीकी, जैसै लून बिना अलूनी रोटी फीकी, तीसू ऐसौ ज्ञानी पुरुष कौन है सो ज्ञानामृतनै छोड़ि उपादीक आकुलता सहित दुख आचरै, कदाचन आचरै । ऐसे शुद्धोपयोगी महामुन ज्ञानरसके लोभी अरु आत्मीक रसके स्वादी निजस्वभावतै छूटे हैं तव ऐसै झूरे हैं। वहुरि आगे और भी कहिए है मुनि ध्यान ही धरै हैं सो मानूं केवलीकी वा प्रतिमाजीकी होड़ ही करै हैं । कैसे होड़ करै हैं भगवानजी थांके प्रसादकरि म्है भी निजस्वरूपनै पाया है। सो अवै म्है निजस्वरूप को ही ध्यान करता । थाको ध्यान नहीं करा थांका ध्यान बीच म्हांका निजस्वरूपको ध्यान करता आनंद विशेष होय छै । म्हांकै अनुभव करि प्रतीति है । अरु आगममें आप भी ऐसौ ही उपदेश दियौ छै । रे भव्यजीवौ ! कुदेवानै पूजौ तातें अनंत संसारके विषै भ्रमोला अर नारकादिका दुख सहौला अरु म्हांनै पुजौ तातै स्वर्गादिक मंद क्लेशसहेला । अरु निजस्व Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ - - - . ज्ञानानन्द श्रावकाचार । . रूपनै धावौला तौ नियमकरि मोक्ष सुखनै पावौला । तीसुं भगवाननी मैं थानै ऐसा उपदेशकरि सर्वज्ञ-वीतराग जान्यां अरजे सर्वज्ञ वीतराग हैं तेही सर्व प्रकार जगत विष पूज्य हैं ऐसा सर्वज्ञ वीतराग जान भगवानजी म्है थानै नमस्कार करूं छु। सर्वज्ञ विना तौ सर्व पदार्थोका स्वरूप जान्या जाई नाहीं अरु वीतराग विना राग द्वेषकौं वसकरि यथार्थ उपदेश दिया जाई नाहीं। कैतौ अपनी सर्व प्रकार निंदाका ही उपदेश है। कै अपनी सर्व प्रकार बड़ाई महंत ताका उपदेश है सो ए लक्षन भलीभांति कुदेवादिक विषै संभवै है । तीसूं भगवानजी म्है भी वीतराग छा। तीसू म्हाका स्वरूपकी बड़ाई करा छां । सो म्हानै दोष नाहीं। एक राग द्वेष ही का दोष है। सो म्हाकै राग द्वेष आपके प्रसाद करि विलै गया है। बहुरि कैसे हैं शुद्धोपयोगी महा मुनि जाकै राग अरु द्वेष समान है । अरु जाके सत्कार पुरस्कार समान है। अरु जाके रतन अरु कौड़ी समान है। अरु जाकै सुख दुख समान है। अरु जार्के उपसर्ग अनउपसर्गसमान है । जाकै मित्र शत्रु समान है। कैसै समान है सो कहिए है पूर्व तौ तीर्थकर चक्रवर्ति वा बलिभद्र वा कामदेव वा विद्याधर वा बड़ा मंडलेश्वर मुकुट बंधराजा इत्यादि बड़ा महंत पुरुष मोक्ष लक्ष्मीके अर्थ संसार देह भोगसू विरक्त होई राज्य लक्ष्मीनै वोदा तृणकी नाई छोड़ि संसार बंधननैं हस्तीकी नाईं तोड़ वनके विर्षे जाइ दीक्षा धेरै हैं। निरग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा आदरै हैं । पार्छ परनामोंका महात्म करि नाना प्रकारकी रिद्धि फुरे है कसी है रिद्धि काय बलि रिद्धिका बल करिं चाहे जेता छोटा बड़ा शरीर बना ले है। वा सारखी सामर्थता होय है अरु वचन बलि रिद्धि करि द्वादशांग Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ज्ञानानन्द श्रावकाचार। शास्त्र अंतर मुहूर्तमै पड़ जाइ है। अरु मन बल रिद्धि कर द्वादशांग शास्त्रका अंतर मुहूर्तमें चिंतवन कर लें हैं । अरु आकाश विष गमन करे हैं और जलविर्षे ऊपर गमन करें हैं पनजलका जीवको विरोधै नाहीं हैं। अरु धरती वि डूबि जाई हैं पण पृथ्वी कायकी जीवको विरोधैं नाहीं हैं । और कही विषावह राया है, अरु शुभ दृष्टि करि देखै तौ अमृत होई जाय है पन ऐसै मुन महाराज करै नांही। और कहीं अमृत वह राया है। अरु मुनमहाराज करै द्रष्टि कर देखे तौ विष होय जाइ पन ऐसे भी करै नांही । और दया शांति द्रष्टि करि देखै तौ केतईक योजन पर्यंतकाका जीव सुखी होइ जाइ । अरु दुर्भिक्ष आदि ईत भीत दुख मिटि जाइ। सो ऐसी शुभ रिद्धि दयाल बुद्धि करि फुरे है तौ दोप नाहीं । अरु ऋरि द्रष्टि करि देखै तौ केताइक जोजनके जीव भस्म होइ जाइ । पन ऐसे करें नाहीं, अरु जाका शरीरका गंधोदक व नवों द्वारोंको मल अरु चरनातरली धूल अरु शरीरका सूपर्सा पवन शरीरकू , लगै तब लगता को आदि सर्व प्रकारके रोग नाशकुं प्राप्ति होइ। और मुनि महाराजजी गृहस्थ के आहार कीया है तीके भोजन विष नाना प्रकारकी अटूट रसोई होय जाई तिहि दिन सर्व चक्रवर्तिका कटक जीमै तौ भी टूटे नाहीं अरु चार हाथकी रसोईके क्षेत्रमै ऐसी अब गाहन शक्ति होयजाई सो चक्रवर्तिका कटक. सर्व समाइ जाई । अरु बैठ कर जुदा जुदा भोजन करै तब भी सकड़ाई होइ नाहीं । अरु जेठे मुन अहार करें तीके दुवारै पंचा चार्य होई। रत्नवृष्टि, पहुपवृष्टि, गंधोकवृष्टि अरु जय जयकार शब्द, अरु देव दुंदुभि ये पंचाचार्य जाननै । अरु सम्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ग्दृष्टी श्रावक मुन्यानै एकवार भोजन दे तो कल्पवासी देव ही होय ऐसै शुद्धोपयोगी मुन्याने एकवार भोजन देवाका फल निपजै । और मुन मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय ज्ञानका धारी होइ है इत्यादि अनेक प्रकारके गुन संयुक्त होते संतै भी कोई रंक पुरुष आइ महां मुनर्ले गाली दे वा उपसर्ग करै तौ वासू कदाचित् भी क्रोध न करै । परम दयालु बुद्धि करि वाका भला चाहै है और ऐसा विचार ए भोला जीव है याकौ अपना हित अहित की खबर नाहीं ये जीव या परनामों करि बहुत दुख पावसी । म्हांको कुछ विगार है नाहीं परन्तु ये जीव संसार समुद्रमांहीं डूवसी। तीसू जौ होई तौ याको समुझाईए ऐसा विचार करि हितमित बचन दया अमृत करि करता भव्य जीवनकू आनंदकारी ऐसा वचन प्रकाश कांई प्रकाशै हे भव्य ! हे पुत्र ! तूं आपानै संसार समुद्रा विषै मति डोबै या परिनामोंका फल तोनै खोटा लागसी अरु तूं निकट भव्य छै । अरु थारा आयु भी सुच्छ रहा है। तीसू अवै सावधान होई जिनप्रणीत धर्म अंगीकार करि ई धर्म बिना तूं अनादि कालको संसार विर्षे रुल्यौ अरु नरक निगोद आदि नाना प्रकार दुष सह्या सो तूं भूल गया। ऐसा श्री गुराका दयाल वचन सुन वह पुरुष संसारका भय थकी कंपाईमान होता हुवा अरु शीघ्र ही गुरुके चरनाकू नमस्कार करता हुवा । अरु अपना किया अपराधनै निन्दता हुवा अरु हाथ जोड़ खड़ा हुवा अरु ऐसा वचन कहता हुवा। हे प्रभु ! हे दया सागर ! मोऊपर क्षिमा करौ, क्षिमा करौ, हाय हाय, अवै हूं काई करूं । यौ म्हारौ पाप निवृत्ति कैसे होई । म्हारै कौन पाप उदय आयौ सो म्हारै या खोटी बुद्धि उपजी । बिना Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । I 'अपराध म्हा मुन्याने मैं उपसर्ग कियौ । अरु जाका चरनाकी सेवा इन्द्रादिक देवाने भी दुर्लभ है । अरु मै एकने ऐसी करी ये परम उपगारी त्रैलोकाकरि पूज्य तानै मै कांई जाण उपसर्ग कियौ । हाय हाय, अब म्हारौ कांई होसी । अरु हूंसी गति जासूं । इत्यादि ऐसे वह पुरुष बहुत विलाप करतौ हुवौ अरु हाथ मसलतो हूवो अरु वारंवार मुन्याके चरणने नमस्कार करतो हवो जैसे कोई पुरुष दरआव विषै इतौ जिहानने अवलंबै । तैसे गुरांका चरनविषै अवलंबतौ हुवौ । अबै तो माने ऐहीका चरनकौ सरन छै । अम्य शरन नाहीं । जोई अपराध सूं बचौ तौ याहीके चरनाका सेवनि करि बचूं छू, और उपाई नाहीं । म्हारौ तौ दुख काटवाने ऐही समर्थ है । पाछै ई पुरुषकी धरम बुद्धि देख श्री गुरु फेर बोल्या हे पुत्र ! हे वच्छ ! तूं मति डरपै । थारै संसार निकट आयौ है । ती अवैथै धर्म्मामृत रसाईनने पी । अरु जरामरन दुःखका नाश कर । ऐसा अमृतमई वचन करि वे पुरुषनै पोषता हुवा जैसे ग्रीषम समय कर मुरझाई वनस्पतिकं मेष पोषे तैसें पोषता हुवा सोमहंत पुरुषांका यह स्वभाव ही है । अवगुणका ऊपर गुण ही कैटै सो ऐसे गुरु तारवा समर्थ क्यौं नाही होई है । बहुर ये शुद्धोपयोगी वीतराग संसार भोग सामग्री तासूं उदासीन शरीर सूं निष्प्रेह शुद्धोपयोगकी थिरता के अर्थ शरीरनै आहार दे है । सो कैसे दे हैं ताकूं कहिये है मुन्याकै आहार कै पांच अर्थ है । गोचरी कहिये जैसे गउनै रंक वा पुन्यवान कोई घासादि डोरै सो चरवा ही सौ प्रयोजन है । अरु कोई पुरुष सौ प्रयोजन नाहीं । त्यों ही मुन्याने भावै तौ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रानकाचार। २३ रंक पड़गाहि अहार द्यौ । भावै राजादिक पड़गाहि अहार द्यौ । सो आहार लेवा सौ तौ प्रयोजन है। रंक वा पुन्यवान पुरुषसूं प्रयोजन नाहीं। बहुर दूसरा अर्थ भ्रामटी कहिये जैसे भौरा उड़ता फूलकी बासनातै फूलनै विरोधै नाहीं। बहुर तीसरा अर्थ दाहश्रमन कहिये जैसे लाय लगी होई तानै जेती प्रकार बुझाई देना । त्यौंही मुन्याकै उदराग्न सोई भई लाय तीनै जीसौ तीसौ आहार मिलै तिहिंकरि बुझाव है। आछा बुरा स्वादका प्रयोजन नाहीं । बहुरि चौथा अक्ष प्रख्यन कहिये जैसे गाड़ी औंगन बिना चालै नाहीं । त्योंही मुन या जानै यह शरीर अहार दिया बिना 'सथिल होसी अरु म्हानै पासू मोक्षस्थान बिषे पहुंचा जै तौं यासू काम है । ताहैं याकू अहार है या कै आसरै संजम आदि गुन ऐकठा करि मोक्षस्थान विष पहुंचना बहुरि पांचमा गरत पूर्न कहिये जैसे कोई पुरुषकै सांप आदिका खाड़ा खाली होइ गया होई । तीनै वे पुरुष भाटा ईंट माटी काकरि पूर दिया चाहै । त्योंही मुन्याकै निराहारादिक करि खाड़ा कहिये उदर होई तौ जीती भांति अहार करि वाकू भरहे । ऐसा पांच प्रकारके अभिप्राय जान वीतरागी मुन शरीरकी थिरताके अर्थ अहार लै है। शरीरकी थिरतातूं परिनामकी थिरता होय है। अरु मुन्याकै परनाम सुधर वा कोई निरंतर उपाय रहै है । ती वातमैं रागद्वेष न उपनै तिहि क्रियारूप वः । और प्रयोजन नाहीं सो ऐसा शुद्धोपयोगी मुन्यानै गृहस्थ दातारका सात गुण संयुक्त नवधाभक्ति करि आहार दे है। प्रतिग्राहन कहिये प्रथम तौ मुन्यानै पड़गाहा है। पछि ऊचौ स्थान कहिये मुन्यानै ऊंचा स्थान विषै स्थांपै । पाछै पादोदक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कहिये मुन्याका पद कमल प्रक्षालन करै सोई भया गंधोदिक सो अपना मस्तक आदि उत्तम अङ्गों के कर्मका नाश कै अर्थ लगाव अपनैको धन्य मानै वा कृत्य कृत्य मानै । पाछै अर्चन कहिये मुन्याकी पूजा करै । पाछै प्रनाम कहिये मुन्याका चरनानै नमस्कार करै । बहुरि मन शुद्ध कहिये मन प्रफुल्लित होय महा हर्ष होय बहुरि वचन शुद्धि कहिये मीठा मीठा वचन बोलै बहुरि काय शुद्धि कहिये विनयवान होइ शरीरका अङ्गोपांगको नम्रीभूत करै । ... बहुर ऐषण शुद्धि कहिये दोष रहित शुद्ध अहार देई । ऐसै नवधाभक्तिका स्वरूप जानना । आगै दातारके सात गुन कहिये मुन्याने अहार देई लोकके फलकी वांक्षा न करै क्षमावान होई कपट रहित होई अदेक सखापनो न होइ अरु विषाद करि रहित होई हरष संजुक्त होई अहंकार रहित होई ऐसे सात गुण सहित जानना सोई दातार स्वर्गादिकका सुख भोग परंपरा मोक्षस्थान पहुंचे है ऐसे शुद्धोपयोगी मुन तारनतरन है । आचार्य, उपाध्याय, साधु ताके चरनकमलको म्हारा नमस्कार होउ । अरु कल्यानके कर्ता हो । अस भवसागर विषै पड़तानै राखौ ऐसे मुन्याका स्वरूप वर्नन करा । सो हे भव्य ! जौ तूं आपना हितनै वांझै छै । तौ सदैव ऐसा गुर यांका चरनारबिंद सेवो अन्यका सेवन दूरही तें तनो । इति गुरु स्वरूप वर्णन सम्पूर्ण ।। - १-ऐसें आचार्य, उपाध्याय, साधु या तीन प्रकारके गुराका भेला ही बर्नन किया तीनौ ही शुद्धोपयोगी हैं । तातें समानता है विशेषता नाहीं ऐसे श्री गुराकी स्तुति करि वा नमस्कार करि वा ताके गुन वर्नन करि ईटै आगै ज्ञानानंद पूरित निरभर निन रस श्रावकाचार नाम Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । शास्त्र जिनवानीके अनुसार मेरी बुद्धि माफिक निरूपन करूंगा। सो कैसा है यह शास्त्र क्षीर समुद्रकी शोभानै धेरै है सो कैसा है समुद्र अत्यंत गम्भीर है अरु निर्मल जल करि पूर्ण भरया है अरु अनेक तरंगोंके समूह कर व्याप्त है। ताका जलकुं श्री तीर्थकर देव भी अंगीकार करें हैं । त्यों ही शास्त्रार्थ करि अत्यंत गम्भीर है । अरु सुरस करि पूर्ण भरचा है सोई जल है । अरु सर्व दोष रहित अत्यंत निर्मल है । अरु ज्ञान लहर करि व्याप्त है । ताको भी श्री तीर्थकर देव सेवें हैं । ऐसे शास्त्रको म्हारा नमस्कार होहु क्या वास्तै नमस्कार होय ज्ञानानंदके प्राप्तकै अर्थ, और प्रयोजन नाहीं। आगे करता अपना स्वरूपको प्रगट करै है वा अपना अभिप्राय जनावै है। सो कैसा हूं मै ज्ञानजोति कर प्रगट भया हूं तातें ज्ञान ही नै चाहूं हूं । ज्ञान छै सो म्हारा स्वरूप छै। सोई ज्ञान अनुभव न कर मेरे ज्ञान ही की प्राप्ति होय मैं तौ एक चैतन स्वरूप करि उत्पन्न भया । ऐसा जो शांतिक रस ताके पीवाको उद्यम किया है । ग्रंथ बनावा का अभिप्राय नाहीं, ग्रन्थ तौ बड़ा बड़ा पंडितोंने धना ही बनाया है मेरी बुद्धि कांई । पुन उस विषै बुद्धिकी मंदता करि अर्थ विशेष भाषता नहीं। अर्थ विशेष भास्या विना चित्त ऐकाग्र होता नहीं ॥ अरु चित्तकी एकाग्रता विना कषाय गलै नहीं । अरु कषाय गल्या विना आत्मीक रस उपजै नहीं ॥ आत्मीक रस उपज्या विना निराकुलित सुख ताकौ भोग कैसे होई ॥ तातै ग्रन्थका मिस कर चित्त एकाग्र करि वाका उद्यम किया । सो ए कार्य तौ बड़ा है। अरु हम जोग्य नहीं। ऐसा हम भी जाने है। परन्तु अर्थी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । vvvvvvvvvvvvvv anvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv. दोषान्न पश्यति ॥ अर्थी पुरुष छे ते शुभाशुभ कार्यकुं विचारे नहीं आपना हेत नहीं चाहै है ॥ तातै मैं निज स्वरूप अनुभवनका अत्यंत लोभी हों॥ जातै मेरे ताई और कछू सूझता नाही। मेरेताई एक ज्ञान सूझता है ॥ ज्ञान भोग विना कांई भोग तातै मैं और कार्य छोड़ि ज्ञान हीकुं आराधूं छु, अरु ज्ञान हीको आदर करुं छू, अरु ज्ञानहीका आचरण करूं छू अरुज्ञान हीका शरनरह्याचाहूं छू बहुरि कैसा हूं मैं शुद्ध परनति कर प्राप्त भया हौं । अरु ज्ञान अनुभूत करि संयुक्त हौं अरु ज्ञायक स्वभावनै धरचा हूं । अरु ज्ञानानंद सहन रस ताका अभिलाषी हौं वा भोगता हूं ऐसा मेरा निज स्वभाव छै ताके अनुभवनका मेरे ताई भय नाहीं अपनी निन लक्ष्मीका भोगता पुरुषनै भय नाही त्यौं ही मोनै स्वभाव विषै गमन करता भय नाही । या बात न्याय ही है । अपना भावका ग्रहन करता कोई दंड देवा समर्थ नाही पर द्रव्यका ग्रहन करता दंड पावै है तातै मैं पर द्रव्यका ग्रहन छोड़ा है तीस्यूं मै निशंक स्वच्छंद हुवा प्रवत्तॊ हों मेरे तांई कोई भय नांही जैसे शार्दूल सिंहके ताई कोई जीव जंतू आदि वैरीका भय नाही । त्यों ही मेरै भी कर्मरूप वैरी ताका भय नांही। तीसूं ऐसौ जान अपने इष्टदेव ताकू विनयपूर्वक नमस्कार करि आगे ज्ञानानंद पूरित निरभर निजरस श्रावकाचार नाम शास्त्र ताका प्रारम्भ करिऐ है। इति श्री स्वरूप अनुभूत लक्ष्मीकरि आभूषित ऐसा मैं जु हों सम्यक्त ज्ञानी आत्मा सोई भया ज्ञायक परम पुरुष ताकरि चिंतते ज्ञानानंद पूरित निरभर निज रस नाम शास्त्र ता विषै बंदना ऐसा जो नामाधिकार ता विषे अनुभवन पूर्वक वर्नन भया । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ॐ नमः सिद्धेभ्यः । दोहा - जिनराज देव वन्दौ सदा कहूं श्रावकाचार | पापारम्भ तव ही मिटै कटै कर्म अघद्वार ॥ १ ॥ अर्थ :- ऐसे अपने इष्ट देवकुं नमस्कार करि सामान्यपनैकरि श्रावकाचार कहिये है सो हे भव्य ! तूं सुन, श्रावक तीन प्रकार है । एक तौ पाक्षिक, एक नैष्ठिक, एक साधक । सो पाक्षिक कै देव गुरु धर्मकी प्रतीत तौ जथार्थ होय । अरु आठ मूल गुणता विषै । अरु सात विकृता जो सप्त व्यसनता विषै अतीचार लागे । अर नैष्ठिककै मूल गुन विषै वा सात विकता विषै अतीचार लागे. नाहीं ताका ग्यारह भेद है ताकौ वर्नन आगे होयगा अर साधक अंत विषै सन्यास मरन करे है । ऐसे ये श्रावक तीनौ देव, गुरु, धर्मकी प्रतीत सहित छे । अरु आठ समकितका अङ्ग सहित है. निःशांकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना । एवं आठ अरु आठ समकित के गुण सहित है ताके नाम कहिये है । करुनावान, क्षमावान सौजनिता आपनिंदा, समता, भक्ति, वीतरागता, धर्मानुराग । एवं आठ, अरु पच्चीस दोष ताके नाम कहिये है । जाति १ लाभ २ कुल ३ रूप ४ तप ५ बल ६ विद्या ७ सिरदारी ८ इन आठोंका गर्भ है। आठ मह जानना | शंका १ कांक्षा २ विचिकित्सा ३ मूढदृष्टि ४ परदोष भाषन ५ अस्थिरता ६ वात्सल्य रहित ७ प्रभावना रहित ८ ए. आठ मूल सम्यक्त्वका आठ अंग त्यासूं उलटा जानना । कुगुरु १. कुदेव २ कुधर्म ३ अरू इन तीनका धारक पाछै वाकी सराहना Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - करनी ए षट् अनायतन अरु देव गुरु धर्म इन विषै मूढदृष्टि ऐसे पच्चीस दोष २५ । इन करि रहित ऐसे निर्मल दर्शन करि संजुक्त तीन प्रकारके जघन्य मध्यम उत्कृष्ट संजमी जाननै । सो पाक्षिक विषै अरु साधक विषै ग्यारह भेद नाहीं है । नैष्ठिक विषै ही है । सो पाक्षिकको तौ पांच उदम्बर १ पीपर २ वर ३ उंबर ४ कळंबर ५ पाकर इन पांचका फल अरु मद्य मधु मास सहित ये तीन मकार पाका प्रत्यक्ष तौ त्याग है अरु आठ मूल गुन विषै अतीचार लागै है सो कहिये है । मास विषै तौ चामके संजोगका घृत तेल हींग, जल अरु रात्रीका भोजन, अरु विदल अरु दो घड़ीका छान्या जल अरु वीधा अन्न इत्यादि मर्यादा रहित वस्तु, ता विषे त्रस जीबाकी वा निगोदकी उत्पत्ति है ताका भक्षनका दोष लागै है । अरु प्रत्यक्ष पांच उदम्बर तीन मकार भक्षन नाहीं करै है । अरु सात व्यसन भी नाहीं सेवै है । अरु अनेक प्रकारकी आखड़ी संजम पालै है । अरु धर्मका जाकै विशेष पक्ष है । ऐसा पाक्षिक विशेष जघन्य संयमी जानना । सो ऐ प्रथम प्रतिमाका भी धारक नाहीं है । अरु प्रथम प्रतिमा आदि संयमका धारवा का उद्यमी हुआ है । तातै याका दूना नाम प्रारध्व है। नैष्ठिकका ग्यारा भेद । दर्शन १ व्रत २ सामायिक ३ प्रोषध ४ सचित्त त्याग ५ रात्रिमुक्ति वा दिन विषै कुशील त्याग ६ ब्रह्मचर्य ७ आरम्भत्याग < परिग्रह त्याग ९ अनुमति त्याग १ ० उद्दिष्ट त्याग ११ ऐसेई ग्यारह मेद विषै असमका हीनपनौ जाननां । तातें याका दूजा नाम घटमारग है । अरु तीजा साधक ताका दूसरा नाम निपुन है। भावार्थ पाक्षिक तौ संयम विषै उद्यमी हुवा है करवा नहीं लागा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २९ - - - shah-rnNAAM ~ ~ ~ ~ v- है । अरु साधक सम्पूर्ण कर चुक्या ऐसा प्रयोजन नानना । अबै पाक्षिक वा साधकनै छोड़ि नैष्ठिक तिनका सामान्यपनै वर्णन करिये है । प्रथम दर्शन प्रतिमाको धारक सात व्यसन अतीचार सहित छोड़े । अरु आठ मूल गुन अतिचार रहित ग्रहण करै । अर दूसरौ व्रत प्रतिमाको धारक पांच अनुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत . इनइ व्रतोंका गृहण करे। अरु तीसरौ सामायिक व्रतधारक अधौन (सांझ) सवारे व मध्यान विषै सामायिक करै । अरु चौथा प्रोषध व्रतको धारक आठै चौदश जे परबी तिन विषै आरम्भ छोड़ि धर्मस्थान विषै वसै । अरु पांचमौ सचित्त त्याग व्रतको धारक सचित्तको त्याग करे । रात्रि भुक्त त्याग व्रत को धारक रात्रि भोजन छोड़े। अरु दिन विषे कशील छीड़े।, अरु सातथौ ब्रह्मचर्य वृतको धारक रात्रि या दिन विषै मैथुन सेवन तजे अर आठमो आरम्भत्याग व्रतको धारक आरम्भ तजे अरु नवमौ परिग्रहत्याग व्रतको घारक परिग्रह तजे। अरु दशमौ अनुमति त्याग वृतको धारक पाप कार्यका उपदेश वा अनुमोदना तजे। अरु ग्यारमो उद्दिष्ट त्यागव्रतको धारक उपदेशो भोजन तनै । ऐसा सामान्य लक्षण जाननां ऐठा आगै इनका विशेष वर्नन करिये है । सो दर्शनप्रतिमाको धारक आठ मूल गुण पूर्व कहा सो ग्रहन करै अरु सात व्यसन तनै अरु इनका अतीचार तजै अथवा कोई आचार्य आठ मूलगुण ऐसै कहे हैं पांच उदंबरका एक अरु तीन मकारका तीन सो चार नौ पूवै आठ कह्या तेही भया। अरु चार और जानना सोई कहिये है। णमोकारमंत्रका धारण अरु दयाचित्त अरु रात्रि भोजनका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . .. ~ ~ - ~ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । त्याग अरु दोय घड़ी उपरांतको अनछान्या जलका त्याग ऐसै आठ मूल गुन जाननां । सात व्यसन है तै जानना १ जूवा २ मांस ३ दारू ४ वेश्या ५ परस्त्री ६ शिकारं ७ चोरी एवं सात । ज्यासौ राजा दंड देई अरु लौकिक विषै महानिन्दा पावे ऐसा जानना । अवै मूल गुन वा सात व्यसन ताका अतीचार हिये है प्रथम दारूका अतीचार आठ पहर ऊपरका अथाना अरु चलित रस अरु जो वस्तु उफन के आई वा वस्तुका भक्षणकरै । इत्यादि अरु मांसका अतीचार चामके संगमको हींगघ्रत तैल जल इत्यादि शहदका अतीचार फूलका भक्षन अरु शहदका अंजन औषधि अरथ लैना इत्यादि। अरु पांच उदम्बरका अतीचार । अनजान फरलाका भक्षण करे अरु विना शोध्या फलका भक्षण करे इत्यादि। आठ मूल गुनके अतिचार जानता । बहुर आगे सात व्यसनके अतीचार कहिये है सो प्रथम जुवा अतिचार होडादि अर मास मदिराके पूर्व कहि आये । परस्त्रीके अतीचार क्वारी लड़क सौ कीडा करवौ । अर अकेली स्त्रीसुं ऐकांत बतलावौ 'इत्यादि' अर वेश्याके अति चार नृत्यादि वादित्र गांनता विषै आशक्त होय देखै अरु सुने । अरु वेश्या विर्षे रमे त्यां पुरषासौ गोष्ठी राखै ॥ अरु वेष्याके घर विषै जाइ इत्यादि अरू शिकारके अतीचार काष्ठ, पाषाण मृत्तका धातुका चित्रामसे धोड़ा हाथी मनुष्य आदि जीवनके आकार बनाया हुवा ताका घात करना 'इत्यादि' चोरीके अतीचार पराया धनकुं लेना वा . जोवरीकरि खोश लेना । थोड़ा मोल देय घना मोलकी वस्तुसे ले लेनी तौलमै घट Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । देना बड़ लेना धरोहर राख मेलनी झोले मारना इत्यादि ऐसे सात व्यसनके अतीचार जानना । ऐ अतीचार छोडै सो दर्शनप्रतिमाका धारी श्रावक जाननां और आगे भी केतीक वात नीतपूर्वक प्रथम प्रतिमाके धारक पालै सो कहिये है । अनारम्भ विर्षे जीवका घात न करै । मावार्थ हवेली महल आदिका करावा विषै हिंसा होई छै सो तौ होई छ ही । परंतु विना आ. रम्भ जीवने मारे नांही अरु उत्कृष्ट आरम्भ न करै खोटा व्यापार जिहिमैं घनी हिंसा होई घनौ झूठ होई वा जगत विषै निंदहोई। हाड़ चाम आदि अथवा ता विषै घनी त्रप्णा वधै इत्यादि उत्कृष्टका स्वरूप जानना अरु निज स्त्री जिहि तिही प्रकार कर धर्म विर्षे लगावै । स्त्रीकी धर्मबुद्धिसौ धर्मसाध नीका साधै है । अरु अपना धर्मका अनुराग होत सूचै है । अरु धर्माचार रहित लोकाचार उलंघे नाहीं । जा विषै लोक निंदा करै ऐसा कार्य कौन करै परंतु जा विर्षे अपना धर्म जाई है अरु लोक भला कहै है सो ऐसा नाहीं । कै धर्म छोड़ि लोकका कहा कार्य करै ताते अपनै धर्मको राख लोकाचार उलंघे नाही अरु स्त्रीनै पुरुषकी आज्ञा माफिक करवौ उचित है पतिवृता स्त्रीकी यही रीत है। और यह धर्मात्मा पुरुष है सोषट् आवश्यक हमेशा करि भौजन करे सो कहिये है प्रभात ही तौ देव अरहंतकी पूजा करे । पाछै निन्थ गुरुकी सेवा करै । शक्ति अनुसार तप अरु संयम करै शास्त्र श्रवन पढ़न करै पाछै पात्रके ताई वा दुःखित भुखित जीवांके ताईं चार प्रकार दान दे । सुपात्रानै तौ अहार औषधि शास्त्र वस्त्रका दान भक्तिपूर्वक देवे अरु दुखितताको आहार औषधि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । अभय आदि दान दया करि देवे अरु चार भावना भावता निरंतर तिष्ठै सो सर्व जीवासू तो मैत्री भाव राखै । भावार्थ- सर्व जीवाने अपना मित्र जानै । आप साखा स्वरूप ऊको भी जाने । तीभु काइनै विरोधै नांही सर्व जीवांको रक्षपाल ही होय । अरु दूसरी प्रमोद भावनामूं आपसूं अधिक गुनवान पुरुषसू विनैवान होय प्रवत्तौ। अरु तीसरी कारुण्य भावना दुखित जीवांकौ देख वाकी करुना करै अरु जिस प्रकारसे बाकौ दुख दूर होय ती प्रकार दुख्यनै मैटै । अरु आपनी सामर्थ नहीं होई तौ दयारूप परनाम ही करै । वानै दुखी देख निरर्द रूप कठोर परनाम छै सो यहां कषाय है । अरु कोमल परनामा छै सो निःकषाय छै सो ही धर्म छै अरु चौथी माध्यस्त.मानना सो विपरीत पुरुष तासू माध्यस्थ रूप है नहीं तौ वेसू राग करै नहीं वेसू द्वेष करै । कोई हिंसक पुरुष छै । अथवा सप्त व्यसनी पुरुष छै सो वानै समझै तौ धर्मोपदेश दे करि पाप कार्य छुड़ाई दीजै । नहीं समझै तो आप माध्यस्थ रूप रहनै । ऐसे चार भावनाका स्वरूप जाननां । अरु और भी केतीक वस्तूका त्याग करै सो कहै है । अरु बीधा अन्न अरु माखन कहिये नैनू । अरु विदल कहिये टुफाड़ा नाजका संजोग सहित उन बिना । अथवा दाखं चिरौंजी आदि वृक्षका फल दही वा छाछका खाना । अरु चौमासै तीन दिन सियाले (सीत ऋतु ) सात दिन उन्हालै (गरमीमें ) पांच दिन उपरांत कालके आटाका भक्षण नाहीं करना आठ पहरके उपरांतका दही न खाइ । भावार्थ:-आजका जमाया काव खाना जामन दिया पाछै पहर अष्टकी मर्यादा है और Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ३३ वीधी वस्तूका भक्षण अर दही गुर मिलाइ खानेको वा जलेबी इत्यादिमें त्रस जीव वा निगोद उपनै है तातै याका त्याग करना। अरु नैनूकी दो घड़ीकी मर्यादा है वा कोई आचार्य शास्त्र विर्षे चार घड़ीकी मर्यादा भी लिख हैं तातै दोय घड़ी वा चार घड़ी पाछै जीव उपजै है । परन्तु ये भअक्ष हैं तातै तुरतका भी विलोया खाना उचित है नाही। याका खावा विष मास कैसा दोष होय है या विषै राग भाव होवै है और बैंगन अरु साधारन वनस्पति अरु घोंसका वरा अरु पाला अथ गाडा मृत्तका अरु विष अरु रात्रि भोजनका भक्षन तजै । पांच उदम्बर अरु बैंगण ताका भी भक्षण नहीं करै । याका खाया सूं रोग भी बहुत उपजै है । और चलित रस ताको व्यौरौ वासी रसोई मर्यादा उपरांत आटा घी तेल मिठाईका भक्षन तनै अरु आम व मेवा आदि जाका रस चलि गया होई ताका भक्षन नाहीं करै है। और बड़े वेर वा जारियाका वेर हाथ सू फोड़ा विना अरु नेत्र सौ विना देख आप ही मुखमें न देय । ये काना बहुत होय है ता विषै लट होइ है । अरु गलित आम विष भी सूतका तार सरीखा लट होय है । सो विना देख्या चूसे नाही। अरु काना · सांठा वा कानी ककडी इत्यादि काना फूल तामै लट उपजै है ताका भक्षन तजै और सियालेमें साग आदि हरित काय ता विषे वादलाका निमित्त करि लटां उपनै हैं ताका भक्षन तनौ अरु कलीदा तरबूज आदि बड़ा फल याका घात विर्षे निर्दईपना विशेष उपजै है । मलीन चित्त होय है अरु याकौ हस्त विषै छुरियासू विदारे तब बड़ा त्रस जीवां कीसी हिंसा किये की सो परनाम विषै प्रतिभाषे है । तातै Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । बड़ा फलका दोष विशेष है । अरु केला ताका भक्षण तजै या खाया राग बहुत उपनै है । अरु फूल जात वा नरम हरत काय जाकी छालि कहिये छोटा जाड़ा होय वा बटके इटै वा सांटा आदिकी ये लीवा कांकरी आदि ताकी लकीरी अरु निंबू दाझौं आदि ताकी जाली ये गूढ होय याका व्यक्रपना नाहीं भासै ताका भक्षण तजै । भावार्थ ऐसी वनस्पति विषै निगोद हो है । इत्यादि जीव हरित काय विषै निगोद होय वा जा विषे त्रस जीव अरु दुष्ट चित्त अत्यंत होय है । अरु अत्यंत गदला परनामा करि पाप करि लिप्त ऐसा बहुत होय ते वनस्पति सर्व ही तननी उचित है । और आगै ऐसे व्यापारादि नाही करै है ताका व्यौरा-लोह हाड़ चाम केश हींग सीघड़ाका घत तेल तिल ताक हलदी साजी लोह रांग फिटकड़ी कसुंभा नील साबणा लाख विष सहद पसारीपनाका सर्व ही व्यापार निषिध है । अर हरित कायका व्योपार ताका अर वीधा अन्न आदि जा विर्षे त्रस जीवाका घात बहुत होई ऐसा सर्व ही व्यापार तनै । और चंडाल कसाई धोवी लुहार ढेड ड्रम भील कोरी वागरी साढना कुंजरा नीलगर ठग चोर पालीगर याका बनन कहिये वाकों वस्तु मोल वेंचै भी नाही, वाकी वस्तु मोल लैनीका भी त्याग करै, वा हलवाईगरीका किसब तनै । वा धोबी पास धुवाई वा छीपा नीलगर पास रंगाया कपड़ा बैचना ताकू तनै वा खेती करावै नाही, खांड पिड़ावै नाहीं वा खेतीका करावा वालेनै उधार दै नाहीं वा चूना खैरकी मट्टी आदि घरै करावै नाहीं और भाड़ विष बस्तु सिकावै नाहीं। वा भड़भूना वा लुहार लाकू Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । द्रव्य उधार दै नाहीं वा कोयलाकी भट्ठी करावै नाहीं वा दारुकी भट्ठी करावै नाहीं वा सोरा कहिये दारु जाकौ करावै नाहीं वा कोइला वा मदिरा वा सोरा को करनेवालौ को बननै नाहीं। बहुर ऊंट घोड़ा भैंसा बलद गधा गाड़ी बहल कुदाड़ी बसूला भाडै दै नांही वा आप भाड़ी देय वहावै नाहीं । वा ताकै वहावनैवाले पुरुषकू उधार द्रव्य दे नाहीं या विषै महत् पाप है। जा कार्य कारि प्रानी दुःखी होई वा विरोधो जाई ऐसा कार्य को धरमात्मा पुरुष कैसे करै । जीवहिंसा उपरांत और संसार विषै पाप नाहीं तातै सर्व प्रकार त्यननौ जोग्य है। अर ताकू द्रव्य भी उधार दै नाहीं और शास्त्र का व्यापार तनै अरु शास्त्र के व्यापारीकू उधार भी दै नाहीं इत्यादि खोटे किमव त ने अरु याके सेवा वाले ताकी देवा लैई को तनै और पापिनकी वस्तु मोल ले नहीं और विराना डील (शरीर) का पहिरया वस्त्र मोल लै आप पहिरै नाहीं। अपने डील (शरीर) का वस्त्र और कुं वैचै नहीं । अरु मंगता आहि भिक्षुक दुखित जोव नान आदि भिक्षुक वस्तु माग ल्याये होय ताकं मोल दै कर भी लैनां नहीं । अरु देव अरहंत गुरू निरग्रन्थ धर्म जिन प्रणीत ताके अर्थ द्रव्य चढ़ाया ताकौ निर्माल्य कहिये ताकै अंशमात्र भी ग्रहण कर नहीं या का फल नरक निगोद है । इहां प्रश्न जो ऐसा निरमाल्यका दोष कैसे कहा, भगवानकुं चढ़ा द्रव्य ऐसा निंद्य कैसे भया ताका समाधान । रे भाई ये सर्वोत्कृष्ट देव है ताकी पूजा करवे समर्थ इन्द्रादि देव भी नाहीं । अरु ताके अर्थ कोई भक्त पुरुष अनुरागकरि द्रव्य चढ़ाया पाछै अपूठा चहोड़ बाकी जाइगा वाकै द्रव्यमौ विना दिया ग्रहन करे तो वे पुरुष देव मुरू Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । wovvvvvvvvvv~~~~~~~~~~ धर्मका महा अविनय कीया। बिना दियाका अर्थ ए है जौ अरहंत देव तौ वीतराग हैं तातें ऐ तो आप करि कोई ने दे नाहीं। तातै विना दिया ही कहिये है जैसा रानादिक बड़े पुरुष कोई वस्तु नजर करि पाछै वाका विना दिया ही मांगते है तौ वाकै राजा महादंड दै है। ऐसे ही निरमाल्यका दोष जानना। और भगवानके अर्थ चहाया सर्व द्रव्य परम पवित्र है। महा विनय करने योग्य है । परन्तु लेना महा अनोग्य है । या समान और अनोग्य नाहीं तातै निरमाल्य को तनना । वा निरसयल वस्तुका लेवा वाला ताकौ उधार दै नाहीं । बहन पुत्री आदि सुवासिनी ताकौ द्रव्य उधार तनक भी गृहन कर नाहीं इत्यादि अन्याई पूर्वक सब ही कार्यकू धर्मात्मा छोड़े है, जा कार्य विर्षे अपजस होय अपना परिणाम संकलेश रूप रहे वा शोक भयरूप रहे ता कार्यकू छोड़े। तब धर्मात्मा सहज ही होई ऐसा भावार्थ जानना । ऐसे प्रथम प्रतिमा को संयमी नीत मारग चालै छ । घरका भार सौप दूजी प्रतिमाका ग्रहण करै सो कहे है। पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत ए बारह व्रत अती चार रहित पालै । ताकू दूसरी प्रतिमाका पालक कहिये प्रतिमा नाम प्रतिज्ञाका है । अब याका विशेष कहिये है । द्वेषबुद्धि कर चार प्रकार त्रस जीवका घात । अरु विना प्रयोजन पांच प्रकारका थावर जीवका घात नाहीं करै ताका रक्षक होई । भावार्थकैई या कहै तूनै पृथ्वीका राज यूं छं । तूं थारां हाथसूं कीड़ानै मार अरु नाहीं मारै तौ थारा प्राननका नाश करिसूं । ऐसा सजादिकका हठ जानै। जो हुं याकू कही न करिस्यूं तौ ए विचारी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | सोई रसी ऐसी जान धर्मात्मा पुरुष ऐसी विचार करे जो हमारे बूतै त्रस जीव ऊपर शस्त्र कैसे चलाये जाई । तीमूं शरीर धनादिक . is | तो जावयाकी स्थिति ये ते ही छै महारौ, कोई तरौ राखा कैसे रहसी । अरु थिति बधती छै । तौ राजा वा देव करि हत्या कैसे जासी । यह नि:शन्देह है। तीसं म्हारे सर्वथा करि जीव घात करवौ उचित नहीं अरु कोई या है अवार तौ एक ही छै सोही करौ पाछै प्रायश्चित करि लीजौ, सो धर्मात्मा पुरुष ई नैया कहै । रे मूढ़ जिन धर्मकी खड़ी ऐसी नाहीं । जो शरीर बांधुवादिक वास्ते भंग की अरु पाछै फेर प्रायश्चित कीजे यौ उपदेश तौ आऩमत है जिनमत में नाहीं सो ऐसी जान वे धर्मात्मा पुरुष जीवकौ मारवौ तौ दूर ही रहौ । पन अंश मात्र भी परनाम चलावे नाहीं अरु कायरताका भी वचन उच्चारे नाहीं । अरु चलन हलनादि क्रिया विषै अरु भोग संजोगादि क्रिया विषै संख्यात असंख्यात जीव त्रस अर अनंत निगोद जीवकी हिंसा होय है । परन्तु या जीव मारवा को अभिप्राय नाहीं । हलन चलनादि क्रियाका अभिप्राय है अर वा क्रिया त्रस जीवकी हिंसा बिना बने नाहीं तांते या स्थूलपनै त्रस जीवकी रक्षा कहिये अरु पांच थावरकी हिंसाका त्याग है नाहीं तौ भी विना प्रयोजन थावर जीवका स्थूल पर्ने रक्षक ही है । तातै या अहिंसावृतका धारक कहिये । ऐसे जानना आगे सत्य वृत का स्वरूप कहिये हैं जो झूठ बोलौ राजा दंड देवे जगत विषै अपजश होय । ऐसा स्थूल झूठ बोलै नहीं । अरु ऐसा सत्य बचन भी बोलै नहीं जा सत्य बचन बोलै परिजीवका बुरा होई । अरु / 1 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कठोरताने लिया ऐसा भी सत्य बचन बोलै नहीं। कठोर बचन कहिये वाका प्रान पीड़ा जाय है अरु अपना भी प्रान पीड़ा जाय है ऐसा सत्य बचनका स्वरूप जानना । अरु अचौर्यव्रत स्वरूप कहिए है औरांकी चौरी सर्व प्रकार तजे और चोरीकी वस्तु मोल लेना ही । अर गैले पड़े पाइ होइ तौ वस्तु ताका ग्रहन करे नहीं अरु जो ले मारे नाहीं अरुं वस्त्र अदला बदली करे नाहीं काहीकी रकम चुरावै नाहीं, राजादिकका हासल चुरावै नहीं । तौल विषै घाट दै नहीं। बाढ़ लेना ही । और गुमास्तागिरी विषै वा घरका व्योपार विषै कि सौकी चोरी भी नहीं करे इत्यादि सर्व चोरी का त्याग है । भावार्थ ।। मारगकी माटी वा दरयावका जल आदिका तौ याकै बिना दिया ग्रहन है। ये माल राजादिकका है याका नहीं येती चोरी याकौ लागै है अरु विशेष चोरी नहीं लागे है तिहि वास्तै याकुं स्थुल पनै अचौर्य व्रतका धारक कह्या । आगै बृह्मचर्य व्रतको कहिए है। सो परस्त्रीका तो सर्व प्रकार त्याग करै । अर स्वस्त्री विषै आठै चौदश अठाई सोलह कारन दक्षलक्षन रत्नत्रय आदि जे धर्म पर्व ताकौ शील पालै अरु काम विकार विष घटती करें । अरु शीलकी नव वाड़ि ताकू पालै ताको व्यौरौ । काम उत्पादक भोजन करे नहीं, उदर भर भोजन करे नहीं, श्रृंगार करे नाहीं, पर स्त्रीकी सेज्या विषै ऊपर बसै नहीं अकेली बतलावै नाहीं। अकेली स्त्रीकी संगति करै नाहीं रागभाव करि स्त्रीके बचन सुनै नाही रागभाव करि स्त्रीका रूप लावण्य निरख करै नहीं। मनमथ कथा करै नहीं ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत जानना। आगै परिग्रह परिमान व्रत कहिये हैं सो आपना पुण्यके Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । A . N v . . . अनुसार दश प्रकारके सचित अचित बाह्य परिग्रह ताको प्रमान न करे ऐसा नहीं के पुन्य तौ थोड़ा अर प्रमान बहुत राखें ताको परिग्रह परिमान व्रत कहिये सौ यो नाहीं है या विषै तौ अपन लोभ तीव्र होई है इहां लोभ हीका त्याग करना है ऐसे जानना अबै दश प्रकारके परिग्रहका स्वरूप कहिये है । धरती, जान कहिये पालकी आदि, द्रव्य कहिये धन, धान्य कहिये नान, हवेली, हलवाई, वरतन, सिज्यासन, चौपद, 'दुपद, ऐसे दश प्रकारके परिग्रह त्यागका प्रमान राख अवशेष त्याग करना ताकौ परिग्रह त्याग व्रत कहिये है। ऐसे पांच अणुव्रतका स्वरूप जानना । आगे दिग्वतका स्वरूप कहिये है । सो दिग नाम दिशाका है । सो दशू दिशा विर्षे सावद्य जोग अर्थि गमन कर वाका परनाम राख जौ वौ जीव मर्यादा कर लेई उपरांत क्षेत्रसू वस्तु मंगावै नाहीं वा भैजै नाहीं चिट्ठीपत्री भेजे नाहीं । अरु वहाकी पत्री चिट्ठी आई वाचै नाहीं ऐसे जानना । आगे देशव्रत कहिये है । देश नाम एकौदेशका है दिन प्रत दिशाव्रत दिशा प्रमान कर लै आज मोनै दोय कोश वा चार कोश वा वीस कोश मौकला है। अबशेष क्षेत्र विषै गमन न करनै आदि कार्यका त्याग है ता विष भी रातका जुदा प्रमाण है । दिनका जुदा प्रमाण करै रात विषै तुच्छ गमन करना है दिन विर्षे अरु देश व्रत विषै विशेष गमन करना। तातै ति माफिक गमन करै ता आगै कौन करता । भावार्थ । दिगविरत विषै अरु देश विरत विर्षे एता विशेष है सो दिगविरत विषै तौ दिशाका जावत जीवन प्रमान राख त्याग करै । अर देशविरत Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । विर्षे मर्यादतीमैं मर्यादअल्प राख घटाय घटाय त्याग करै । जैसे बरस दिनका, छह महीनाका, महीनाका, एक एक पक्षका, वा दिनका वा पहरका वा दोय घड़ीका ता पर्यंत क्षेत्रका प्रमाण सावध जोगके अर्थिकरि धर्मके अर्थ नाहीं करै । धर्मके अर्थ कोई प्रकारका त्याग है नाहीं। आगै अनर्थदंडत्यागवत कहिये है विना प्रयोजन पाप लगै अथवा प्रयोजन विषे महापाप लगै ताका नाम अनर्थदंड है । ताका पांच भेद है १ पापोदेश २ अपध्यान ३ हिंसादान ४ प्रमादचर्या ५ दुश्रुतिश्रवन एवं पांच याका विशेष कहिये है । अपध्यान कहिये जा बात करि अन्य जीवका बुरा होइ वा राग द्वेष उपने, कलह उपनै अरु विश्वास उपजै दुःख उपजै, मरया जाय, धन लूटा जाइ सो कलह उपनै ताका उपायका चितवन करै । मुवा मनुष्यकू ताके वाके दुष्टको सुनाय देना। परस्पर बैर आदि करावना रानादिकका भय वतावना अबगुन प्रकट करना । मरमछेद बचन कहना ताका ध्यान रहै इत्यादि अपध्यानका स्वरूप जानना । बहुरि हिंसा दान कहिये है । छुरी, कटारी, तरवार, बरछी इत्यादि हथियार मांगा देना। ईधन, अग्नि, दीपक मांग्या दैना, कुसी, कुदारी, फावड़ा, की मांग्या देना, गाड़ी बलध ऊंटको घोड़ाकौ मागा देना, सिंगारादिकको मांगा दैना और चूला, उखली, मूसल, घरटी (चक्की) मांगा दैना, काकसी बुहारीको मांग्या दैना इत्यादि हिंसानै कारनजे वस्तु सो धरमात्मा पुरुष पेलेका भला मनावा वास्तै मांग्या है नाही । ऐसे ही हिंसानै कारन जे वस्तु ताका व्यौपार भी करै नाही, और बैठा बैठा ही विना प्रयोजन खोद नाखे अर पानी ढोलै छै। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - D अरु अग्निनै प्रजाले छै । अरु वीजनासौ पवन करवौ करै । वनस्पतीनै शस्त्रकरि छैद नाखै हाथसौ तोडिनाखै ऐसे हिंसादानका स्वरूप जानना । आगै प्रमाद चर्याको स्वरूप कहिये है। प्रमाद लिये धरती ऊपर बिना प्रयोजन आम्हां साम्हां फिरवौ करे, कहीनै हालै कहीने चालै, कठैनै ही वा विना देख्या बैठ जाय, विना देखें वस्तु उठाय लेय वा मेल देय इत्यादि प्रमादचर्याका स्वरूप जानना । आगै पापोदेशका स्वरूप जानना ऐसा उपदेश देना ही फलाना तूं हवेली कराई वा कुवा, वावड़ी, तलाव खनाय वा खेत बांध थोरै खेती निदानी आयो है, तीको निहाउ वा थारौ खेत सूकै छै जाकुं जलि करि सीचवा, थारी बेटी कुंवारी है ताको व्याह करि वा थारौ बैटा कुंबारा छै ताकू व्याह करवा, बजार विषै. नीबू, आला, काकड़ी, खरबूजा आदि जे फल विकै छै सो तू मोल ल्याव अरु गाजर, कंदमूल, सकलकंद, आदि वजारमैं विकै छै सो तूं मोल ल्याव वा मैथी, वथुवौ, गादल इत्यादि बाजारमैं विकै छै सो मोल ल्याव । तोरई, करेला, ठीठसा आदि मोल मगाई वाकी उपदेश देई अर अनि ईधन जल घृत लून मंगाय वाका उपदेश देय, वा चूल्यो बालवांको, आंगन लिपायवांकी, गारा गोवर करवाका उपदेश देइ । कपड़ा धुवावाका, स्नान करावाका, स्त्रीके मस्तकका केश सवांरवाका, खाट ताबड़े नषायवाका, कपड़ा वा सेन आदि काड़वांका, दीवो जोवाकौ, वींध्यो सूंल्यो नान मंगावेका वा घृत तैल गुड़ खांड़ नाज आदि वस्तु भांडार राखवा का उपदेश देई। वा दान तप शील संजम सौ सु आखड़ी आदि धर्म कार्य विर्षे कोई पुरुष लागै ताकू मनै करै ऐसा उपदेश Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । दे अथवा पूर्व कहै जे सर्व वस्तुका सौदा करै अरु नाना प्रकारकी खोटी वस्तु चतुराई व अकल औराकुं सिखावै अथवा राजकथा वा चोरकथा स्त्रीकथा देशकथा इत्यादि नाना प्रकारकी विकथाका उपदेश देई ऐसे पापोदेशका स्वरूप जानना । आगै दुःश्रुतिका स्वरूप कहिये है। दुःश्रुत कहिये है खोटी कथाका सुनना अंगारादिक गीत राग बानित्रका सुनना। काम उत्पादन कथा भोजन चोर राज देश स्त्री वेश्या नृत्यकारणीकी कथा वा रार संग्राम जुद्ध भोगकी कथा स्त्रीका रूप हावभाव कटाक्षकी कथा, जोतिष वैद्यक मंत्र तंत्र जंत्र म्वरोदयकी कथा. ख्याल तमाशा इत्यादि पापनै कारन ताकी कथाका सुनना ताको दुःश्रुति श्रवन कहिये है । इत्यादि ये विना प्रयोजन महापाप ताको अनर्थदंड कहिये है । ताका त्याग करै ताको अनर्थदंड त्याग व्रत कहिये ऐसे तीन गुणवृतका स्वरूप जानना । आगै सामायिक व्रत को स्वरूप कहिये है सो अथोन सवार मध्यान विर्षे त्रैकाल ( तीन वेर ) सामायिक करै । आठ चौदश प्रोषध करै ताका स्वरूप आगै कहैगे । आगै भोगोपभोग व्रतका स्वरूप कहा है । सो एकवार भोगवामें आवै सो भोग जैसे भोजनादि । अरु वेही वस्तु बार बार भोगिये जैसे स्त्री वस्त्र वा गहना आदि ताकौ उपभोग कहिये । नित्तवार चार पहर को प्रमान करले । प्रभात प्रमान करै सो तौ अथॉननै याद करले अरु अथौनका प्रमान कीनौ प्रभात याद करले । याका विशेष भेद ताका नाम सत्तरा नेम है ताका व्योरा भोजन १ षट रस २ जलपान ३ कुंकुमादि ४ लेपन ५ पुप्प ६ ताम्बूल ७ गीत ८ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । नृत्य ९ ब्रह्मचर्य १० श्नान ११ भूषण १२ वस्त्रादि १३ वाहन १४ सेन १५ आसन १६ सचित १७ आदि वस्तु संख्या ऐसा जानना। आगै अतिथि संविभागका स्वरूप कहिये है। विना बुलाया तीन प्रकारके पात्र वा दुखित अपनै वारनै आवै अनुराग कर दान दे सो पात्रनै तौ भक्ति करि दै। अरु दुखित जीवन अनुकंपा कर दै । सो दातारके सात गुण सहित दे अरु मुन्पाने नवधाभक्ति कर दे। ताको व्योरौ नवधाभक्तिका नाम प्रतिग्रहन है। ऊचौ स्थान १ पादोदक २ अर्चन ३ चरण धोना ४ मनशुद्धि ५ वचनशुद्धि ६ कायशुद्धि ७ एषणाशुद्धि ८ शुद्धअ हार देना ९ ऐसा जानना और भी दान दे। मुन्यानै कमंडल पिछी पुस्तक वा औषधि वस्तका देई । अरु आर्जिका श्रावकाने पांच तो वे ही अरु वस्त्र देई । अरु दुखित जीवने वस्त्र औषधि आहार आदि देई । अरु अभय दान भी देइ और जिन मंदिर विषै नाना प्रकारके उपकरन चहोंडै पूजा करै वा शास्त्र लिखाइ धर्मात्माज्ञानी पुरुषनै देइ । अरु बंदना पूजा करावे, तीर्थ जात्रा वि. द्रव्य खरचै । अरु न्याइपूर्वक द्रव्य पैदा करै ताका तीन भाग करै । तीमै एक भाग धर्म- निमित्त खर्चे, अरु एक भाग भोजनके अर्थ कुटुम्बनै सौपै, अरु एक भाग संचय करै सो तौ उत्कृष्ट दातार जानना । अरु एक भाग तौ दान अर्थि तीन भाग संचय करे सो जघन्य त्यागी है। अरु जो दशौ भाग धर्म में ख. नाहीं । तौ वाकौ घर मसान समान है। मसानविर्षे भी अनेक प्रकारके जीव हौमे जाइ हैं । अरु गृहस्थका चूला विषै नाना प्रकारके जीव दग्ध होंय है। अथवा कैसा है वह पुरुष Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सो सर्वसू हलकीसौं हलकी तोरई है । और तामै भी हलकौ आकके फूल है, और तासूं भी हलकी परमानू है तीसूं भी हलको जाचक है । तीसूं भी हलकौ कृपण दान रहित पुरुष सो वे तो अपनौ सर्वस खोय हाथमोड़ो, अरु जाचना को दीन वचन मुखसेती भाखौ अरु विना बुलाये आपनौ घर आयौ तौ भी वाकौ दान नाहीं दीनौ । तीसौ जाचक पुरुष सौ भी हीन दान 1 करि रहित पुरुष है, और धर्मात्मा पुरुष के धर्म देख पूजा अरु दान छे । पट् आवाश्यक विषै भी ये दोय मुख्य धर्म देवपूजा अरु दान छै । बाकी चार गौण छै गुरुभक्ति १ तप २ संयम ३ स्वाध्याय ४ तातै सात ठिकाना विषै द्रव्य खरचवौ उचित है । मुनः १ अर्निका २ श्राविका ३ श्रावक ४ जिनमंदिरप्रतिष्ठा ५ तीर्थजात्रा ६ शास्त्र लिखावै ७ ए सात स्थानक जानना । सो दान देना के चार भेद है । प्रथम तौ दुखित भुखित जीवकी खबर पाइ वाके घर देवा जोग्य वस्तु पहुंचा सो तौ उत्कृष्ट दान है सो दान देना । बहुरि वाकूं - अपने घर बुलाई कर दान देना सो ए मध्यमदान है । बहुरि अपनौ काम चाकरी कराय दान देना सो ये अधम दान है । और कोई प्रकार धर्म विषै द्रव्य नाहीं खर है अरु तृष्णाके वशीभूत हुवा द्रव्य कमाई कमाई इकट्ठा ही किया चाहे है तौ वह पुरुष मरकै सर्प होय है । पाछै परम्परा नरक जाई है निगोद जाइ हैं । ता विषै नाना प्रकारके भेदन मारन ताडन सूलारोपन आदि तौ नरकके दुख अरु मन कान आँख नाक जिल्हा कौ अभाव है जाके, अरु स्पर्श इन्द्र द्वारा एक अक्षर के अनंतवै भाग ज्ञान बाकी रहै है । ता 1 हैं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । विषै भी आकुलता पावजै है। ऐसा एकेन्द्रिय परजाई है सो नरकके दुखसे भी विशेप दुख्य जाननां । सो वह लोभी पुरुष ऐसी नरक निगोद परजाई विषै अनंतकाल पर्यत भ्रमन करै है। वासौ वे इन्द्री आदि परजाई पावना महा दुर्लभ होई है । तातै लोभ परनतिकू अवश्य तनना जोग्य है । जे जीव नरक तिर्यच परजाइनै छोड़ि मनुष्य भव विष प्राप्त होय है । अरु नरक तियंच गत हू को पाछै जानै जोग्य है ताका तौ यह स्वभाव होय है ताकौ द्रव्य बहुत प्रिय लागै है अरु धनके वास्ते निज प्रानका त्याग करै पन द्रव्यका ममत्व छोड़े नहींतौं वह रंक वापरा गरीब कृपन हीनबुद्धि महामोही परमारथके अर्थ दान कैसे करै वाके. बृत रूपेका रुपैआ कैसे दिया जाई । बहुरि कैसा है वे पुरष मच्छके समान है स्वभाव व परनति जाकी । बहुरि दातार पुरुष है सो देवगति माहींसू तौ आऐ हैं अरु देवगति वा मोक्षगतिनै जानै जोग्य हैं । सो ए न्याय ही है । तिरयंच गतिके आहे. जीवके उदार चित्त कैसे होइ ज्यां वापरा असंख्यात अनंत काल पर्यंत क्यों भी भोग सामग्री देखी नाही । अरु आगै मिलनैकी आस नाही तो वाकै तृष्णारूपी अग्नि अरु किंचित् विषय सुखरूप जल करि कैसे बुझे । अरु असंख्यात वर्ष पर्यंत अहमिन्द्र आदि देवोपुनीत आनंद सुखके भोगी ऐसा जीव मनुष्य पर्यायके हाड़ मांस चामके पिंड मल मूत्र करि पूरित ऐसा शरीर ताके पोषनै विषै आशक्त कैसै होइ । अरु कंकर पत्थरादि द्रव्य विषै अनुरागी कैसे होइ । अरु भेद विज्ञान करि खपर विचार भया है जानै आपको परद्रव्यमूं भिन्न सास्वता अविनाशी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सिद्ध शादृश्य लोकालोकके देखनहारे आनंदमय जान्या है। ताहीके प्रसाद कर सर्व प्रकार परद्रव्यमू निवृत्ति हुवा चाहै है ताका सहजही त्याग वैराग्यरूप भाव वर्ते है। एक मोक्ष ही नै चाहै है ताकें परद्रव्यसू ममत्व कैसे होइ ए धन महापाप क्लेश करि तौ उत्पन्न होय है । अरु अनेक उपाय कर वाकौ आपने आधीन राखिये है । ताकै विषै भी महा पाप उपजे है । अरु याकै मान बड़ाई अर्थि वा विषय भोग सेइवेके अर्थि अपने हाथांकरि खरचिये है। ता विषै व्याहादिककी, हिंसा करिवा द्रव्यके छीजनै करि महा पाप कप्ट उपजै है। अरु विना दिया राजा चोर खोस लूट ले है वा अग्निमैं जल जाइ है वा व्यंतरादि हरलै है। वा स्वयमेव गुम जाइ है वा विनश जाइ है ताके दुखकी वा पाप बंधकी कांई पूछनी । सो ये पर द्रव्यका ममत्व करना सत्पुरुषांनै हेय कह्या है । कोई प्रकार उपादेय नाहीं परन्तु अपनी इच्छाकरि परमार्थकै अर्थ दान विषै द्रव्य खरचै तौ ईलोक विषै महासुखनै पाचै अरु देवादिक करि पूज्य होय ताके दानको प्रभाव करि त्रैलोक्य करि पूज्य है चरनकमल जाके ऐसा जो मुनिराज ताका वृंद कहिये समूह सो दानके प्रभाव करि प्रेरचा हुवा विना बुलाया दातारके घर चाल्या आवे है। पाछै दानके समै वे दातार ऐसा फल सुखको प्राप्त होय है अरु ऐसा शोभै है सो कहिये है मानूं आज मेरे आंगन कल्पतरु आयौ कै कामधेनुं आई है। कि मानूं चिंतामन पाया कि मानूं घर मांहि नवनिधि पाई इत्यादिक सुख फल उपनै है । अरु त्रैलोक्य करि पूज्य है चरन कमल जाका ऐसा महामुन ताका हस्तकमल तौ तलै अरु दातार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।। ४७ का हस्त ऊपर । सो यासौ भी दातारकी उत्कृष्टता पात्रके दान विना और कौन कार्य विषै होय । अर जो वे मुनि रिद्धि धारी होइ तौ पंचाश्चर्य होइ ताकौ व्यौरा । रत्नवृष्टि १ पहुपवृष्टि २ देवदुंदभी आदि वादित्र ३ अरु देवाकै जयजयकार शब्द होय ४ गंधोदक वृष्टि यह ५ बात आश्चर्यकारी होय तातै याका नाम पंचाश्चर्य है। बहुरि तिहि दिन वा चार हाथकी रसोई विषै नाना प्रकारकी तरकारी वा पकवान सहित अमृतमई अटूट होय जाइ अरु वे रसोईशाला विषै सर्व चक्रवर्तिका कटक जुदा जुदा वैठ जीमै तौ भी सकुड़ाई होय नाही। अरु रसोई टूटै नांही ऐसा अतिशय वरतै । पाछै बड़ा बड़ा राजा नगरके लोग सहित अरु इन्द्रादिक देव त्यां कर वह दातार पूज्य होय। अरु बड़ाई जोग्य होय अरु वाका दीया दानकी अनुमोदना करि घना जीक महा पुन्यको उपार्ने । परंमपराय मोक्षनै पावै । सो सम्यग्दृष्टी तीन प्रकारके पात्रनै दान दै तौ स्वर्ग ही जाय । अरु मिथ्यादृष्टी दान दै तौ जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भोगभूमि जाई । पाछै मोक्ष जाय ऐसा पात्रदानका ईलोक वा परलोक विष फलै है । अरु दुखित भुखित जीवानै करुना करि दान दीजै तौ वाका भी महा पुन्य होई है। सर्व सौं बड़ा सुमेर है तासूं भी बड़ा जंबूद्वीप है तासू भी बड़ा तीन लोक है तासू भी बड़ा अलोकाकाश द्रव्य है । पनि एतौ कछू दे नाहीं तातै याकी शोभा नाही। तासू भी बड़ा दातार है तासूं भी बड़ा अजाचीक त्यागी पुरुष है । तातै कोई अज्ञान मूरख कुबुद्धि अपघाती ऐसा फल जान करि भी . दान नाहीं करै है तौ वाकी लोभीकी वा अज्ञानकी कोई पूछनी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । 'अरु कदाच दान करै तौ कुपात्रनै पोखै है अरु पुन्य चाहै है । तौ वे पुरुष कौनकी नाई, जैसे कोई पुरुष सर्प नै दुग्ध प्याय वाका मुखसो अमृत लीया चाहै है । जल विलोय घतको काड़ा चाहै है, पत्थरकी नाव बैठ स्वयम् रमन समुद्र तिरचा चाहै है । वा वज्ञान विष कमल को बीज बोय वाके कमलनके फूलकी आशा करै है। वा कल्पवृक्ष क ट धतूरा बोथै है वा अमृतकुं तज हलाहल विषका प्याला पीके अमर हुवा चाहै है । तौ काई वा पुरुषका मन बांक्षित क रन सिद्ध हो सी। कार्य सिद्ध तौ कार्य कै लगै होसी । अरु झूठा ही गरज करि मान्या तौ गरज कोई सरी । कांच का खंडनै चिन्ता मन रत्न जानै घना अनुराग सू पल्लै वाध्य राख्या तौ काई वह चिन्तामणि रत्न हुवा। जैसे बालक गारि पाखानके आकारकू हाथी घोड़ा मान संतुष्ट होय है त्यों ही कुपात्रका दान जाननां घना कहा कहिये । जिनवानी विषै तौ ऐसा उपदेश है रे भाई धन धान्यादिक सामग्री अनिष्ट ही लामै है तो आंधेरे कूवामैं नाख यो तो केवल द्रव्य जाई लो। और अपराध क्यों नाहीं होयला अरु कुपात्र को दान दिये धन भी जाइ । अरु परलोक विष नरकादिका भव भव विषै दुख सहनै पड़ेगा तीसूं प्रान जावो तो जावो पन कुपात्रने दान देवा उचित नाही । सो ए बात न्याइ ही है। पात्र तो आहारादिक लै मोक्ष साधन करै है अरु कुपात्र आहारादिक लेइ अनंत सागरके बधावनैका कार्य करै है । सो कार्यके अनुसार कारनके कर्ता दातार ताकौ फल लागै है । सो वे कुपात्राने दान दिया मानौ आपाने मोक्षका दान दिया । अरु वे कुपात्रनै दान Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । दिया अपूठा आपाने अनंत संसार विषै डुबोया अन्य घना जीवानै डुबोया ऐसा जान बुद्धिमान् पुरुषन कू सर्व कुपात्र कं दान तनना सुपात्र दान करना उचित है । ग्रहस्थके घरकी शोभा धनसू है । अरुधनकी शोभा दानसू है । अरुधन गईए है सो धर्म सो पाई ये हैं । धर्म विना एक कौड़ी पाइवौ दुर्लभ है। जे अपना पुरुषार्थ कर धनकी प्राप्त होय तौ पुरुषार्थ तौ सर्व जीव कर रहै हैं । ऐक ऐक जीबकै तृस्ना रूपी खाड़ा ऐसा दीर्घ उड़ा है । ताके विषै तीन लोककी सम्पदा पाई हुई परमानू मात्रसी दिखलाई दै हैं । सो ऐसा तृस्ना रूपी खाड़कौ सर्व ही जीव पूरया चाहैं हैं । परन्तु आज पर्यंत कोई जीवनै नाहीं पूरचा गया । तातै सत्पुरुष तृस्ना छोड़ि सन्तोषनै प्राप्त भया है र त्याग वैराग्यनै प्राप्त होय है । ताहीका प्रसादकरि ज्ञानानंदमय निराकुलित शांति करि पुर्ण सूक्ष्म निल कवलज्ञान लक्ष्मीनै पावै है । अविनाशी अविकार सब दोष रहित परम सुखनै सदैव सास्वता अनंतकाल पर्यंत भोगवे है । ऐसा निर्लोभताका फल है तातै सर्वजीव निर्लोभ ताकौ सर्व प्रकार उपादेय जान भनौ, रूपनतानै दूर ही तै तननौ । आगै दुखित भुखितके दानका विशेष कहिये है । अंधा, बहरा, गूंगा, लूला पांगुला वा सकल वृद्धि स्त्री रोगी घायल क्षुधाकरि पीड़ित शीतकी बाधा करि पीड़ित वंदीवान तियच व्या व्यावर स्त्री कुंकरी विलाई गाय भैंस घोडी आदि जाका कोइ रक्षक सहाइक खाविंद नाहीं। ऐ पूर्व कहे मनुष्य तिर्यच ते सर्वदा अनाथ पराधीन हैं । अर गरीब हैं दुखित है, दुखकरि महाकष्टनै सहैं हैं । अरु विलविलाट करें Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। हैं । अर दीनपनाका बचनं उच्चारै हैं । दुख सहनै कू असमर्थ हैं ताके दुख करि विलखा गया है मुख जाका । अर शरीर करि छीन है बल करि रहित है । सो ऐसा दुखी प्रानिन कुं देख दयालु पुरुष हैं ते भयभीत होय हैं । अरु वाकैसा दुख आपकै होय हैं। अर घबराइ गया है चित्त जाका ऐसा होतै वह दयालु पुरुष निहि तिहि प्रकार अपनी शक्ति के अनुसार वाके दुखकों निवृत्त करै है। अरु प्रानी जीवकू मारता होई बाधा करता होई ताकौ जिहि तिहि उपाय करि छुडावै है । दुखी जीवका अविलोकन करि निरदई हुग आगै नाहीं चल्या जाइ है । अरु वज्र समान है हृदय जाका ऐसा निर्दई पुरुष दुखी प्रानीनकू भी विलोंक जाकै दया भाव नाहीं उपनै है । अरु या विचारे है ऐ पापी पूर्व पाप किया ताका फलंकू भोगवै ही भोगवे । ऐसे नाहीं जानै मैं भी पूर्व ऐसा दुख पाया होईगा अरु फेर २ पाऊंगा । तातै आचार्य कहै हैं धिंकार होउ ऐसे निरदई परनामकौ । जिनधर्मका फल एक दया ही है। जाके घट दया नाही ते काहेका जैनी । जैनी विना दया नाहीं यह नियम है। . आगै दान देनेका स्वरूप कहिये है। रोगी पुरुषन को औषधि दान दीजिये सो नाना प्रकारकी औषधि कराइ कराइ राखनै पाछै कोई रोगी आइ मांगै ताकू दीजिये । अथवा वैद्य चाकर राखवा का इलाज कराइये ताका फल कर देवादिकका निरोग शरीर पाइये है आयु पर्यन्त ताकौ रोगकी उत्पत्ति नाहीं अथवा मनुष्यका शरीर पावै तौ ऐसा पावै--अपनै शरीरमै तौ रोग कोई प्रकार उपनै नाहीं अरु अपने शरीरका स्पर्श करि वा नहानेका Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । -0.hhhhhhh. जल करि अन्य जीवनका अनेक प्रकार छिन मात्र मैं रोग दूर होइ है बहुरि क्षुधा तृषा करि पीड़ित प्रानीको शुद्ध अन्न जल दीनै । भावार्थ--अन्न तौ ऐसा त्रस जीव अरु हरित काय कर रहित यथा जोग्य अन्न रोटी अर छान्या जलसौ पोखिये ताका ‘फल करि क्षुधा करि रहित देवपद पावै । अरु मनुष्य होइ तौ जुगलिया तीर्थकर चक्रवर्ति आदि पदवी धारक महा भोग सामग्री सहित होय बहुर मरते जीवकू छुड़ाइये वा आप मारना छोड़िये ताका फल करि महा पराक्रमी वीर्यके धारी देव मनुष्य होइ । ताको कोई शंका नाहीं ऐसा निरभय पद पावै । बहुरि आप पट्टा होय तो औरको सिखाइये, तत्वोपदेश देय निनमारग विथै लगाइये । आप शास्त्र लिखिये वा सोधिये व काव्यशास्त्रको टीका बनाइये अथवा धन खरच नाना प्रकारकै जैन शास्त्र लिखाइये । अरु धर्मात्मा पुरुषनको दीजिये । ये ज्ञान दान सर्वोत्कृष्ट है। याका फल भी ज्ञान है । सो ज्ञान दानका प्रभाव करि मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान विना अभ्यास किये ऐसी फुरै है पाछै शीव ही केवलज्ञान उपनै है । बहुरि परनै सुखी किया आपनै जगत सुखदाई परनवै । बहुरि गुरादिककी विनय किया आप जगत करि विनय जोग्य है । अरु भगवानके चमर क्षत्र सिंहासन वादिर चंदोवा झारी रकेवी आदि उपकरन चहोड़े । तौ भी ऐसा पद पावै है सो आपके ऊपर क्षत्र फिर चमर ढुरै है । वा सिंहासन ऊपर वैठि देव विद्याधरोंका अधिपति होइ । बहुरि निनमंदिरका करावां अरि भाधानको पूना कर आप भी त्रैलोक्य पूज्य पद पा है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ५२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । भावार्थ-तीर्थंकर पद वा सिद्ध पद पावै है। सो ऐ न्याय ही है जैसा वीज बोबै तैसा फल लागै । ऐसा नाहीं के वीन तौ और ही वस्तुका अरु फल और ही वस्तुका लागें। सो ए त्रिकाल त्रिलोक विषै होइ नाही यह नियम है । सो ही जगत विषै प्रवृत्ति देखिये हैं जैसा जैसा ही नाज वोवै तैसा तैसा ही निपजै । सो जैसा ही वृक्षका वीज वोवै तैसा तैसा ही वृक्षके फल उपले सो जैसा जैसा ही पुरुष वा स्त्री वा तीर्यचनका संयोग होइ ताकै तैसा ही पुत्रादिक उपनै । ऐसा वीनके अनुसार फलकी उत्पत्ति जाननी । तीसू श्री गुरु कहै हैं। हे पुत्र कुपात्र अपात्रनै छोडि सुपात्र अर्थ दान करहु । अथवा अनुकम्पाकरि दुखित भुखित जीवानै पोषि जैसे जीवाकी बाधा निवृत्ति होइ । वा गुरुकी ठसक धराव ताको दमरी मात्र भी देना उचित नाहीं । बहुरि कैसा है अपात्रका दान जैसे मुरदाका चकडोल काड़िये है । अरु रुपैया पैसा उछालिये है अरु चंडालादिक चुन चुन ले है अरु मुख सूं धन्य धन्य करें हैं । परन्तु दानके करने वाला घरका धनी तौ ज्यू त्यू देखै है। यूं त्यूँ छाती ही, कूटै है तैसे ही कुपात्रने दान दिया लो भी पुरुष जश गावै है । परन्तु दानके करनै दैनै वालौकुं तौ नरक ही जाना होसी। सम्यक्त्व सहित होय तौ पात्र जानना अरु सम्यक्त्व तौ नाहीं है अरु चारित्र है ते कुपात्र जानना । अरु सम्यक्त्व वा चारित्र हू है नाही ते अपात्र ही है। ताका फल नरकादि अनंत संसारी है । अरु सर्व प्रकार ही दान नाहीं करै है सो कैसा है मसानके स्थूल मुरदा समान है। अरु धन है सौ याका मांस है । अरु कुटुम्ब परवार सो कैसै है गृह पक्षी है याका Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ५३ धन आमिष खाय है । अरु विषs कषाय रूपी अस्थी है । ताविषै ए जलें हैं। तातै मसान मुरदाकी भलीभांति उपमा संभवे' है ता ऐसी सर्व प्रकार निंदित अवस्था जान क्रपनता भनि पर-: द्रव्यका ममत्व न करना । संसार ममत्व हीका बीज है। ऐसी हेय उपादेय बुद्धि विचार शीघ्र दान करना । अरु परलोकका फल लैना नाहीं तौ यह सर्व सामग्री कालस्वरूप दावाग्नि विषै भस्म होयगी । पाछै तुम बहुत पछतावोगे सो कैसा है वो पछतावो जैसे कोई आइ समुद्र के तीर बैठ काग उड़ावने अर्थि चिंतामणि रत्न समुद्र विषै फेंक पछतावे है । पाछे रत्नकं झूर मेरे है । परन्तु स्वप्न मात्र भी चिंतामन रत्न पावै नाहीं ऐसा जानना । घनी कहा कहिये उदार पुरुष ही सराहवा योग्य है अरु वे पुरुष देव समान है ताकी कीर्ति देव गावै है । इति अतिथिसंविभागव्रतका स्वरूप सम्पूर्ण | बारह व्रत सम्पूर्ण - ऐसा बारा व्रतका स्वरूप जानना । आगे श्रावकके बारह व्रत तथा सम्यक्त्व अंत समाधि मरनके सत्तर अतीचार ताका व्योरा स्वरूप कहिये है । प्रथम सम्यक्त्वके अती चार ५ ता विषै 'शंका' कहिये जिन वचन विषै सन्देह १ कांक्षा कहिये भोगविलासकी इच्छा २ विचिकित्सा कहिये ग्लानि ३ अन्य दृष्टीकी परोक्ष प्रशंसा ४ अन्य दृष्टि संस्तव कहिये मिथ्यादृष्टिकी समीप जाय स्तुति करना ५ | ऐसे हिंसा अनुव्रतके अतीचार पांच । ता विषै 'बंध' कहिये बांधना १ बध कहिये मारना २ छेद कहिये छेदना ३ अतिभारारोपन कहिये बहुत बोझ लादना ४ अन्न पान निरोध कहिये खाना पानी 4 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आदिका रोकना ५ । ऐसे सत्यानुव्रतके अतीचार ५ मिथ्योपदेश कहिये झूठका उपदेश देना १ रह्यो व्याख्यान कहिये काहूकी गुप्त बात प्रकाश दैना २ कूटलेख क्रिया कहिये झूठा खातादि लिखना ३ न्यासापहारा कहिये काहूकी घरी वस्तु मैटना ४ साकार मंत्र भेद कहिये अन्य पुरुषका मुखादिकका चिन्ह देखि ताक अभिप्राय जान प्रकाश दैना ५ । अबै अचोर्य अनुव्रतके अतीचार पांच । स्तेन प्रयोग कहिये चोरीका उपाइ बताइ देना १ तदाहृतादान कहिये चोरनका हरचा माल मोल लेना २ अरु विरुद्ध राज्यातिक्रम कहिये हासलका चुरावना ३ हीनाधिकमानोन्मान कहिये घाटि दैना वाड़ि लैना ४ प्रतिरूपक व्यवहार कहिये बाढ़ मोल वस्तुमै घाट मोली वस्तु मिलावना ५ । ऐसे ब्रह्मचर्य अनुव्रत के पांच अतीचार । पर विवाह करन कहिये पराया विवाह करावना १ इत्वरिका परगृहीता गमन कहिये व्यभिचारनी पराई स्त्री सुहागिन ताके विषै गमन करना २ इत्वरिका अपर गृहीता गमन कहिये खाविंद रहित स्त्री ता विषै गनम करना ३. अनंग क्रीड़ा कहिये हस्तस्पर्शादिकर क्रीड़ा करना ४ काम तीब्राभिनिवेश कहिये कामका तीव्र परिणाम करना । अवै परिगृह के - विशेष कहै है । तथा और भी कहिये है । अति वाहन कहिये 1 मनुष्य पशु आदिको अधिक गमन करावना १ अति संग्रह कहिये वस्तुनका संग्रह करना २ अति भारारोपण कहिये लालच करि अति बोझा लादना ३ अति लोभ कहिये अति लोभ करना गये धनका लोभ करना । तथा और प्रकार भी कहै है । क्षेत्र वास्तु - कहिये गांव खेत हाट खेली आदि १ हिरन्य सुवर्ण कहिये रोकड़ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - तथा गहनौ व दासी दास कहिये नौकर नौकरनी १ कूप भांड वस्त्र तथा सुगंधि भाजनादि १ इनका प्रतिक्रम कहिये प्रमान किया था ताकौ उलंघना व दिग्वतके अतीचार पांच ऊर्ध्व व्यतिक्रम कहिये ऊर्ध्व दिशाका प्रमान उलंघना व अधो व्यतिक्रम कहिये अधो दिशाका प्रमान उलंघना २ तिर्य व्यतिक्रम कहिये तिर्यक दिशाको उलंघन करना ३ क्षेत्र वृद्धि कहिये क्षेत्रका जो प्रमान था सोई क्षेत्रका प्रमान बधाय दैना ४ स्मृत्यन्तराधान कहिये क्षेत्रका प्रमान किया था ताहि भूल जाना ५ ऐसे जानना देशव्रतके अतीचार। व आनयन कहिये मर्यादा उपरांत क्षेत्र तै वस्तु मगावना १ व प्रेष प्रयोग्य कहिये मर्यादा उपरांत वस्तु भेजनी २ शब्दानुपात कहिये प्रमान उपरांत क्षेत्र तै शब्द कहि काहू को बुलावना ३ रूपानुपात कहिये प्रमान उपरांत क्षेत्र विषै अपना रूप दिखाय अभिप्राय जनाय दैना ४ पुद्गल क्षेप कहिये प्रमान उपरांत क्षेत्र विष कंकरी इत्यादि वगावना। ५ अनर्थदंड व्रतके अतीचार पांच । कंदर्प कहिये कामोद्दीपन आहारादिकका करना १ कौत्कुच्च कहिये मुख मोड़ना आंख चलावनी भौह नचावनी २ मौखर्य कहिये वृथा बकवाद करना ३ अमीक्षादिकरन कहिये विगर देख वस्तुनका उठावना मेलना ४ भोगानर्थ कहिये निषिद्ध भोगोपभोगका सेवना ६ सामायिकके अतिचार पांच । मनोयोग दुःप्रनिधानान कहिये मनकी दुष्टता १ । वचनयोग दुःप्रनिधानान कहिये बचनकी दुष्टता २ काययोग दुःप्रनिधानान कहिये शरीरकी दुष्टता ३ अनादार कहिये सामायिकका निरादर ४ स्मृति अनुप. स्थान कहिये पाठका भूल जाना ५ प्रोषधोपवासके अतीचार Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । पांच, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित उत्सर्ग कहिये विना देखै विना पूछे वस्तुका धरना अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित आदान क हये विना देखे बिना शोधे वस्तुका उठावना अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तर कहिये विना देखै विना पूछ साथरा विछावना ३ अनादर कहिये निरादरसे प्रोषधका करना ४ स्मृत्यनुपस्थान कहिये प्रोषध दिन आठै चौदश जे परवी दिन तिनको भूल जाना ५ भोगोपभोग परमानके अतीचार, सचित आहार कहिये हरित कायादिकका आहार करना व सचित्त सम्बन्ध आहार कहिये पातल दोंना आदि सचित्त वस्तु वर्तन विषै मैं ले तथा ढांके । इत्यादि सचित्त सम्बधका आहार करना २ सचित्त मिश्राहार कहिये उम्न जलमैं शीतल जल नाख्या होय ‘ताका अंगीकार करना ३ अभिषव आहार कहिये सीला विंदलि इत्यादि अयोग्य आहार करना ४ दुःपक्वाहार कहिये दुःखते पचै जो आहार ताका लैना ५ अतिथि संविभाग व्रतके अतिचार पांच सचित्तनिक्षेप कहिये सचित्त जे पातल दोंना ता विषै मेल्यौ जो आहार ताका दैना व सचित्तोपधान कहिये सचित्त कमल पत्रादिसे ढंके हुए आहार औषधि आदिका देना २, परव्यपदेश पात्र दान औरनको बनाइ आप अन्य कार्जको जाइ. ३ मात्सर्य कहिये औरनका दान दिया देख न सकै, ४, कालातिक्रम कहिये हीनाधिक कालका लगावना, ५, अंत सल्लेखनाके अतीचार पांच । जीवित आशंसा कहिये जीवनैकी अभिलाषा १, मरन आशंसा कहिये मरनेकी अभिलाषा, मित्र नुराग मित्रन विषै अनुराग ३, सुखानुबंध कहिये इहि भवका सुखका चितवन ४, निदान कहिये Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । .. - - - - vvvvvvvvvvvvvvvvvvv.AnAnamne परभवके भोगनकी अभिलाषा ५, ऐसे सब मिल सत्तर अतीचार भये, तिनका त्याग करना । आगै सामायिकका बत्तीस दोष कहै है । अनादृत्त कहिये निरादरसौ सामायिक करै १, पर जीवने पीड़ा उपजावे अर्थ सामायिक करै २, प्रतिष्ठा कहिये मान बड़ाई महिमाके वास्ते सामायिक करै ३, अरु पीड़ित कहिये परिजीवनै पीड़ा उपनावै ४, दोलापति कहिये हं दीवालाकीसी नाई सामायिक विषै हालै ५, अंकुश कहिये अंकुश कीसी नाई सामायिक वक्रता लिये करै ६ कछुपरित्यागका कछुवाकी नाई शरीर संकोच करि सामायिक करै ७, मत्सोदन वर्तन कहिये मामला कैसी नाईं नीचौ ऊचौ होई ८, मनोदुष्ट कहिये मन दुष्टता राखै ९, वेदका बंध कहिये आम्नाय बाह्य १०, भय कहिये भय संयुक्त सामायिक करै ११, विभस्त कहिये गिलान सहित सामायिक करै १२, ऋद्धि गौर कहिये रिद्धि गौरव मनसै राखै १३, गौरव कहिये जाति कुलकौ गर्व राखै १४ स्तेन कहिये चोरकीनी नाई करै १५ व्यतीत कहिये व्यतकाल १६, प्रदुष्ट कहिये अत्यंत दुष्टतासौ कहै १७, तपित कहिये पैलनै भय उपजावै १८, शब्द कहिये सामायिकमैं सावध कार्य लिया बोलै १९, हीलति कहिये परकी निंदा करें २०, तृवली कहिये मस्तककी त्रवली भौंह चढ़ाई सामायिक करै २१, कुंचित कहिये मनके विषै संकुच्या सामायिक करें २२, दिगविलोडन कहिये दशों दिशामाहीं अबलोकन करै २३, अदिष्ट कहिये जागा विना देख्यां विनां पौछै करै २४, संयम करि मोचन कहिये जैसे काहीको लहनौ दैनौ होई सो जिहितिहि प्रकार पूरौ पाड़नौ चाहै त्यौही दैनै कैसी नाई जिहितिहि प्रकार सामायिकको काल पूरौ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कियौ चाहै २५, लब्ध कहिये सामायिककी सामग्री लंगोटी पीछी वा क्षेत्रकी जोगाई मिले तो करें नहीं तो आधोकर जाय २६, अलब्ध कहिये न लब्धी २७, हिन कहिये सामायिकका पाठ है। सो हीन पड़े अथवा सामायिककौ काल पूरौ हुवा ही विना उठबैठा होय २८, उचूलिका कहिये खंडित पाठ कहै २९, मूक कहिये गूंगा कैसे नाई बोले ३०, दादुर कहिये मीढककी नांई सुरनै लीया बोले ३१, चलुनित कहिये चित्तको चलाईव ३२, ऐसे सामायिक बत्तीस दोष जानना । आगै सामायिक विषै सात शुद्धि राख सामायिक करै ताका ब्योरा । क्षेत्र शुद्धि ऐ जेठे मनुप्याकौ कलकलाट शब्द घना न होय अरु डास मच्छर न होय. और नौ पवन वा घनी गरमी वा घनौ शीत न होई १, काल शुद्धि कहिये प्रातःकाल वा मध्यानकाल वा सांझकाल सामायिककौ काल छै उलंघै नांही । जघन्य दोय घड़ी मध्यम चार घड़ी उत्कृष्ट छह घड़ी सामायिककौ काल छै । सो दोय घड़ीकी करनी होय तौ घड़ीका तड़का सूं लगाई घड़ी दिन चड़ा पर्यंत । चार घड़ीकी करनी होय तौ दो घड़ीका तड़का लगाई दोय घड़ी दिन चड़ा पर्यंत छह घड़ीकी करनी होय तौ तीन घड़ीका तड़का लगा तीन घड़ी दिन चड़ा पर्यंत ई कालकी आदि विषै सामायिककी प्रतिज्ञा करें । प्रतिज्ञा सिवाइ काल लगावै नाहीं । ऐसे ही मध्यान समै विषै जानना २, आसन शुद्धि कहिये पद्मासन वा कायोत्सर्गासनसौ सामायिक करै ३, अरु आसनकूं चलायमानं न करै विनय शुद्धि कहिये देव गुरु धर्म्मको वा दर्शन ज्ञान चारित्रताकौ विनय लिया करें मन शुद्धि कहिये राग द्वेष रहित मनकूं राखे ५ वचन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ५९ शुद्धि कहिये सावध वचन बोलै नांही ६ काल शुद्धि काहिये विना देख्या विना. पूंछा हाथ पगि उठावै वा धरै नांही ७ ऐसे सात शुद्धिका स्वरूप जानना । आगे कायोत्सर्गके बाईस दोष कहिये है। कुआश्रित कहिये भीतको आसरो लेवौ १ लतावक्र कहिये वेलकी नाई हालता रहना २ स्तंभावष्टक कहिये थंभका आसरालेना ३ कुंचित्कहिये शरीरका संकोचना ४ स्तवेक्षा देखना ५ काकदृष्टि कहिये काक कैसी नाई देखना ६ सीर्ष कंपति कहिये मस्तकका कंपावना ७ भूकेष कहिये भंवर कैसी चंचलताई करना ८ उत रीति कहिये मस्तकका ऊचा करना ९ उन्मत्त कहिये मत्त वालाकी नाई चेष्टा करनी १० पिशाच कहिये भूत कैसी नाई चेष्टा करनी ११ अष्ट दिशे क्षण कहिये आठ दिशाकी तरफ चौधना १२ ग्रीवां वन कहिये नाग्रईको नमावै १३ मूक संज्ञा कहिये गूंगेकी नाई सैन करना १४ अंगुलि चलावन कहिये आंगुलि चलावन १५ निष्टीवन कहिये खखारना १६षलितनं कहिये खखारका नाखना १७ सारी गुह्यगृहन कहिये गुह्य अंग काटना १८ कापि मुष्ट कहिये काथोडीकी नाई मुठी बांधना १९ ग्रीवो त्रमन कहिये नाड़ीका उंचा करना २० श्रृंखलिताप कहिये सांकल कीसी नाईं पादका होना २१ मालिकोचलन कहिये कोई पीठ माथा ऊपरि तीकौ आश्रय लेना २२ अंग स्पर्सन कहिये अपना अंग सपर्सना २३ घोटकं कहिये घोड़ा कीसी नाई पादका करना २४ ऐसा चौवीस दोष कायोत्सर्गका जानना । आगे श्राव कके चार प्रकार अंतराय कहिये हैं । मदिरा १ मांस: २ हाड़ . ३ काचा चर्म ४ चार अंगुल लोहूकी धारा वड़ा पचेन्द्री जनावर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ज्ञानानन्द श्रावकाचार | १ विष्टा मूत्र १ चूहडा १ इन आठौनका तौ प्रत्यक्ष नेत्रा करि देखने हीका भोजन विषै अंतराय है । बहुरि आठ तौ पूर्व देखने विषै कह्या सोई । अरु सूका चर्म १ नख ९ केश १ ऊरात १ पांख १ अजमी स्त्री वा पुरुष १ वड़ा पञ्चेन्द्री तिर्यच १ ऋतुवंती स्त्री १ आखड़ीका भंग १ मल मूत्र करनेकी शंका ९ शूद्रका स्पर्श, कांसा विषै कीड़ा त्रस मृतक जीव निकसै वा हस्तादिक निज अंगसौ वे इन्द्री आदि छोटा बड़ा जीवका घात, इत्यादि भोजन समय स्पर्श होय तौ भोजन विषै अंतराय होइ है । बहुरि मरन आदिका दुख ताका विरह करि रोवता होइ ताकै सुननैका, लाय लागी होय तौ ताकै सुनवा की, नगरादिकका माराका धर्मात्मा पुरुषकौ उपसर्ग होई व कोई का नाक कान छेउनैका व कोई चोरादिकके मारने गया होई ताका व चंडालके बोलनैका व जिन बिंब व जिन धर्मके अविनयका व धर्मात्मा पुरुषके अविनयका व इत्यादि महा पापके वचन सत्यरूप आपनै भासै तौ ऐसे शब्द सुननें विषै भोजनकी अंतराय होय है ।। बहुरि भोजन करती बार आशंका उपजै या तरकारी तौ मांस सारखी है । वा लौही सारखी है। वा चाम सारखी है वा विष्टा वा शहद इत्यादिक निंद्य वस्तु सारखे भोजन विषै कल्पना उपजै अरु मनमें ग्लान होय आवै ।। अरु मन वाके चाखनै विषै औहौटा होय तौ भोजन विषै अंतराय है । अरु भोजन विषै निंद्य वस्तुको कल्पना तौ नाहीं उपजै अर यहांसे मनि विषैका जानपना होय तौ अंतराय नांही ॥ ऐसे देख वाके आठ ८ स्पर्शके वीस २० सुनने की दश ॥ १० ॥ मनका छह || ६ || सब मिल चारके चवालीस अंतराय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जानना ॥४४॥ केई मूरख अज्ञानी पाखंडी कलंगी राग भाव घटनैके कारन अरि अन्य जीवकी दया हेत ये अंतराय तौ पालै नाहीं ॥ अरु झूठा छोरानका मुखतै भ्रष्टा आदि खोटा बचन सुननेते अंतराय होना मानै ॥ पाछै झालर थाली बजाइ अंधा बहरा कैसी नाई देख्या अनदेख्या करै सुना अनसुना करै पाछै नाना प्रकारकी गरिष्ट गरिष्ट मेवा पकवान दही दुग्ध घृत तरकारी खाद्य अखाद्य के विचार विना त्रस थावर जीवका हिंसा अहिंसाके विचार विना कामोत्पादक वस्तु अघोरीकी नाई अनभावतै ठग ठग पेट भरै है। राजी होइ स्वाद लै है अरु भिखारीकी नाईं सरावगांकी खुसामद करि करि माग माग खाइ । जैसे कोई पुरुष सूक्ष्म थावराकी तौ रक्षा करै अरु बड़ा बड़ा त्रस जीवाकुं आंखमीच साना ही निगलै । अरु पाछै कहै म्है सूक्ष्म जीवाकी भी दया पालौ हों ऐसा काम करि बापरा गरीब भोला जीवनके धर्म अरु धनकुं ठगै है । पाछै आपुन साथि मोहमंत्र करि कुगति ले जाई । तैसे महाकालेश्वर देव अरु पर्वत ब्राह्मन मायामई इन्द्रनाल सादृश्य चमत्कार दिखाइ सगरराजाके वंशकुं जग्य विष होम्याकर नरक विषै प्राप्त किये अरु मुखतै ऐसा कहै जग्य विषै होम्या प्रानी वैकुंठ जाय है ऐसा आचार कुलिंगाका जानना । आगे सात जाइगा मौन करनाका स्वरूप कहिये हैं १ देवपूजा विर्षे २ सामायिक विषे ३ स्नान विषे ४ भोजन विषं ५ कुशील विषं ६ लघुदीर्घ बाधा विषं ७ वमन विर्षे इन सप्त मौनके धारक पुरुष हाथV व मुखसू सैनको नाहीं करें य हुंकार करें नाहीं । भागे बारह स्थान विर्षे श्रावकके जीवनकी दयाके अर्थ चंदोवा चाहिये १ पूजाजीके स्थानक ऊपर Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द: श्रावकाचार । २ सामायिकका स्थानक ऊपर ३ चूल्हे ऊपर ४ पनहड़े ५ उखली ६ चाकी ७ भोजन स्थान । सेज्या स्थान आटौ चालतै ऊपर ९ व्यापारादिक करै तेटै १० अरु धर्म चर्चाके स्थान ११ दुग्ध गरमके स्थान १२ ऐसा जानना । आगै सामायिक प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । दूनी प्रतिमा विषै आठ चौदश वा और पर्व विवै तौ सामायिक करै ही करै । औरा दिना विषै मुख्यपनै तौ सामायिक करै ही करै पन सर्व प्रकार नेम नाही करै वा नाहीं करै । अरु तीसरी प्रतिमा धारीकै सर्व प्रकार नैम है । ऐसा विशेष जानना । आगै प्रौषध प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । ऐसी ही दूनी तीजी प्रतिमाधारी कैप्रोषध उपवासका नियम नांही है। मुख्यपनै तौ करै है गौण पनै नाही करै है। अरु चौथी प्रतिमाधारी के नियम है यावजीब करै ही करै । आगै सचित्त त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । दोय घड़ी उपरांतका अन छान्या. पानी अरु हरित काय मुख कर नांही विराधै है । अरु मुख्यपनै हस्तादिक कर भी पांच स्थावरानकुं नांही विरोधै है । याकै सचित्त भक्षन त्याग है पांच स्थावरांका शरीरकी क्रियादि करि त्याग नांही मुनीकै है। हस्तादिक अंग करि हिंसाका पाप अल्प है अरु मुखमैं भक्ष्यनैका महा पाप है । मुखका त्याग पांचवी प्रतिमा धारी करै है। अरु शरीरादिकका त्याग मुनि करै । मुनि विशेष संयमकू प्राप्त भया है। आगै रात्रि भुक्ति त्याग दिन विथै कुशील त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । रात्रिभोजनका त्याग तौ पहली दूसरी प्रतिमा सूं ही मुख्य पनै होय आया है। परन्तु क्षत्री, वैश्य, ब्राह्यण, शूद्र आदि जीव नाना प्रकारके हैं। स्पर्श शूद्र पर्यंत श्रावक व्रत Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ६३ होय है । सो जाकै कुल कर्म विषै ही रात्र भोजनका त्याग चल्या आया है ताकै तौ रात्रि भोजनका त्याग सुगम है। परन्तु अन्यमती होय अरु श्रावक व्रत धारै ताकुं कठिन है। तीसू सर्व प्रकार छठी प्रतिमा विष ही याका त्याग संभवै है। अथवा अपनै खावा का त्याग तौ पूर्व ही कियौ थौ इहां औराकुं भोजन करावनै आदिका त्याग किया । आगै ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप कहिये है। यहां घरकी स्त्रीका भी त्याग किया नव वाड सहित ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया । आगै आरम्भ त्याग प्रतिमा कहै है । इहां व्यौपार रसोई आदि आरम्भ करनैका त्याग किया पैलाके घरि वा अपनै घर न्यौता वा बुलाया जीमै है। आगै परिग्रह त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । इहां जो वाकै लक्ष अपनै परवानकै धोवती दुपटा पछेड़ी इत्यादि राखै है । अवशेष सर्व परिग्रहका त्याग करै । आगै अनुमति त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है। इहां सावध कार्यका उपदेश देना तज्या है । सावध कीया कार्यकी अनुमोदना भी नाहीं करै है । आगै उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाका स्वरूप कहिये है । यहां बुलाया नाहीं जीमै है । उदंड ही उत्तर है। एक क्षुल्लक ऐलक, क्षुक तौ कमंडल की पीछी आधा पछै बडा लंगौट राखै है । स्पर्श शूद्र लोहका पात्र राख है। ऊंच कुली पीतल आदि धातको राख है । अरु पंचघरासू भोजन लेय अंतके घर पानी लै वहां ही बैठ लोहके पात्र तामै भोजन करै है। कोई ऊंच कुली एक हीके घर भोजन करै है। अरु एकान्तमें भी करै है। ऐलक पक्षे बड़ा विना एक कमंडल पीछी लंगोट राखै है। अन्य नाही राखै है । अरु कर पात्र आहार कर है । अरि लौच करै है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | अरि लंगोट लाल राखे है । अरु लंगोट चाहिये तौ भी लेय । अरि आहारको जाय तब श्रावकके द्वार ऐसा शब्द करे है अझै दान । अरि नगर वारै मंडल विषे वसै है । वा मुन्याके सभीप वनादिक बिषै वसै है । अरु मुन्याके चरनारविन्द सेवै है । अरु मुन्या साथ विचरै है। अरि क्षुल्लक भी मुन्याके साथ विवरे है | अरु संसारसौ महा उदासीन है । अरु अनेक शास्त्रांका पारगामी है । अरि स्वपर विचारका वेत्ता है । तातै आप चिन्मूर्त्ति हुवा शरीरं भिन्न स्वभाव तिष्ठै है । अरि ऐलक आर्जिका जी तौ क्षत्री वैश्य ब्राह्मन ऊंच कुली ही नियम करि उत्कृष्ट श्रावक व्रत धारे है । अरु असपर्श शूद्रनै प्रथम प्रतिमाका धारक जघन्य श्रावक ताकौ भी व्रत नाहीं संभवै है । अरु या आखड़ी पलै नाहीं । अरु बड़ा सैनी पञ्चेन्द्री तिर्यच विषै ज्ञानका धारक तातै भी मध्यम श्रावक व्रत होय है । सो देखौ श्रावककौ तौ यह व्रत है । अरि महा पापी अरि महा काई महा मिथ्याती महा परिग्रही व विषई देव गुरु धर्मका अविनई महा तृषावान महा लोभी स्त्रीके राग महा मानी गृहस्थांकै विभव महा विकल सप्त व्यसन कर पूरन अरु मंत्र मंत्र जोतिष वैद्यक कामिनादिके डोरा गंडा करि मोहित किया है बारा भोला जीवानै अरि ज्याकै कोई प्रकारका संवर नाहीं । तृश्वा अन कर दग्ध होय गया है आत्माजाका | सो अपने लोभके अर्थ गृहस्थांका भला मना वाचनैके वास्तै त्रैलोकन करि पूज्य श्री तीर्थंकर देवका प्रतिबिंब वाके घर ले जाय, वाकूं दर्शन करावे । माछै औहीटा ल्यावै ऐसा अनर्थ अपने मतलब के अर्थ करे । सो Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - A-Vvvvvvvvvvvvvvvvvvv... आप तौ घोरान घोर संसार विष बूड़ा ही है । परंतु वापरे भोरा जीवानै संसार विष डोवोवै है। दोय चार गांव ताका ठाकुर भी सेवकका मतलबके वास्तै सेवकका ले गया औषकके घर जाय नाहीं । तौ ए सर्वोत्कृष्ट देव याकू कैसे ले जाई । सो इस समान पाप और हुवा न होसी । सो कैसा कैसा विपर्यय-वात कहिये आजीविकाके अर्थ ग्रहस्थाके घर जाय शास्त्र वांचै अरु शास्त्रमैं अर्थ तौ विषय कषाय रागद्वेष मोह छुड़ावाका अरु वे पापी अपूठा विषय कषाय रागद्वेष मोह ताकौ पोखै । अरु या कहै अवार को पंचमकाल है, न ऐसा गुरु न ऐसा श्रापक। अपनै गुरु माना वाकै वास्तै गृहस्थाने भी धर्ममूं विमुख को अरु गृहस्थानै एक श्लोक भी प्रीति करि सिखावै नांही । मनमै या विचार कदाच याकै ज्ञान होय जासी तौ म्हाका औगुन वा प्रतिभाससी तो पाछै म्हांकी आजीविका मनै किसी रीतिज्ञ होसी । ऐसा निर्दई अपना मतलबके वास्तै जगतनै डोबै है । अरु धर्म पंचमकालके अंत ताई रहता है ये अब ही धर्म घटा है अरु जिनधर्मके आसरै जीविका पूरी करै है । जैसे कोई पुरु: कोई प्रकार आजीविका करवानै असमर्थ है | पाछै वह अपनी माताने पीठे बैठार आजीविका पूरी करै है । त्यों ई जिनधर्म सेइ सत्पुरुष तौ एक मोक्षनै ही चाहै है। स्वर्गादि भी नाही चाहै है तौ आजीविकाकी कहा बात । सो हाय हाय हुंडा व सर्पनी कालदोष करि पंचमकाल विषै कैसी विपरीतिता फैली है। काल दुकाल विषै गरीबाका छोरा भूखा मरता होय चार रुपैया विषे चाकर भया भूरा गोलाकी नाईं मोल विकया पाछै निर्मायल Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । खाइ खाइ बड़ा हुवा । अरु जिनमंदिरमै अपनै रहवाका घर किया अरु शुद्ध देव गुरु धर्मके विनयका तौ अभाव किया। अरु कुगुरादिके सेवनका अधिकारी हुवा ऐसा ही औरानै उपदेश दिया। जैसे अमृतनै छोड़ हलाहल विषनै सेवै वा चिंतामणि रत्न छोड़ि कांच खंडकी चाह करै वा कामदेव सौ भरतार छोड़ी असपर्श शुद्र अंधा बहरा गूंगा लूला कोड़ी तासू विषय सेय आपनै धन्य मानै अरु या कहै शीलवंती पतिव्रता स्त्री हूं । सो इसी रीत वेश्या विष पाईये है । अरु ताहीका आंधा जीव आसरा लेइ धर्म साधना कहै है। अरु वह आपकू पुनाय महंत माननै लगा अरु अपनै मुखसै कहै है भट्टारक दिगम्बर गुरू हौं म्हानै पूजौ। अरु नाहीं पूजौ तौ दंड देस्यां वा थाके माथै भूखा रहस्या । वा माने चंदा करस्या । अरु स्त्री साथ लिया फिरै सौ भट्टारक नाम तौ तीर्थंकर केवलीका है । अरु दिगम्बर कहिये दिग नाम दिशाका है अवर नाम वस्त्रका है सो दशू दिशाके वस्त्र पहिरै होय ताकू दिगम्बर कहिये है । निग्रन्थ नाम परिग्रह त्यागका है तातै तिल तुस मात्र परिग्रह तौ बाह्य नाही अर चौदा प्रकारको आभ्यंतर तासू रहित सौ वस्तुका स्वभाव तौ अनादिनिधन है ऐसा अरु यह यसै मानै सो यह बात कैसी है। म्हारी मां अरु वांझ सो जगत विषै परिग्रहसू नरकां जाइ है । अरु परिग्रह ही जगत विषै निंद्य है। ज्यू ज्यू परिग्रह छोडै त्यों त्यों संजम नाम पावै । सो या बात तो ऐसी न्याय बनी अरु हजारा लाखा रुपैयाकी दौलति अरु घोड़ा व हल रथ पालकी चढ़नैकुं चाकर कंकर अरु कड़ा मोती पहरै । नरक लक्ष्मीके पानग्रहन करनैकी दशा करै है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । बहुर चेला चांटा सोई भई फौज अरु चेली सोई हुई स्त्री। ऐसी विभूति सहित राजा सादृश्य होता संता भी आपकौ दिगम्बर मानै है | सोहे दिगम्बर हम कैसे जाने मानै एक दिगम्बर नाहि हुंडा सर्पनी पंचमकालकी विधातानै एक मूर्ति ही गड़ी है, कै मानूं सात व्यसनकी मूरति ही है कै मानूं पापका पहार ही है । कै मानूं जगतके डुबोवानै पत्थरकी नाव है। बहु २ कैसा है. कलिकालके गुरु सो आहारके अर्थ दिनप्रति नगृ व्रत आदरै । अरु स्त्रीका लक्षन देख वांका मिसकर स्त्रीयांका स्पर्श करै । स्त्रीका मुख कमलनै भंवर साढस्य होइ वाका अवलोकन करै । पाछै अत्यंत मग्न होय आपनै कृत्य कृत्य मानै । सो या बात न्याय ही है। ऐसा तौ नाना प्रकारका गरिष्ट नित्य नवा भोजन मिल्या अरु नित्य नई स्त्री मिली तौ याका सुखकी कांई पूछनी । ऐसा सुख राजान भी दुर्लभ सो ऐसा सुखनै पाइ कौन पुरुष मगन न होइ ? होय ही होय । सो कैसी है वे स्त्री अरु कैसा है वाका खाविंद । सो स्त्रीका तौ अंतहकरन परनाम कैसी बनी। अरु पुरुष मोह मदिरा करि मूच्छित भया तातै ई अन्यायका मैठ वानै कौन समर्थ है ? कोई नाहीं । तीसू आचार्य कहै है हैं ई विपर्जय देखि मौन करि तिष्ठो याका न्याय विधाता ही करनैकं समर्थ है। अरु वहीं दंड देनेतुं समर्थ हैं हम नाही सो ऐसा गुरानै परलोक विषै भला. फलमू वोछै हैं सो वे कोइ करै हैं । जैसे कोई पुरुष वांझके पुत्रका आकाशके फूरलम्हं सेहरा गूंथ आप मुवा पाछै वाका अवलोकन किया चाहै हैं वा जस कीर्तिकू सुन्या चाहैं हैं तिहि साढस्यनवाका फल स्वरूप जानना बहुरि वे परस्पर प्रशंसा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। करै है थै म्हांके सतगुरु हौ वे कहै है । के पुन्यात्मा श्रावक हो । कौन दृष्टांत जैसे ऊंटका तौ व्याह अरु गंर्धवगीत गावने वारे वे तौ कहै है बींदका स्वरूप कामदेव साढस्य बन्या है अरु वे कहे हैं कैसा किन्नर जातके देवके कंठ साद्रश्य कंठसू राग गावै है। या सादृश्य श्रावक गुराकी शोभा जाननी । इहां कोई कहसी के थै अपना गुराकी दशा बरनई । अरु श्वेताम्बर आदि अन्यमतीन की दशा क्यों न बरनई वे तौ पान या वीच भी खोटा है ताकुं कहिये है भाई ए न्याय तौ नीकै होसी जद ब्राह्मणाके ही हाथकी रसोई निषद्ध छ । तौ चंडाल दिकके हाथकी रसोई लीन कैसे होसी । ऐसा जांयनां इहां कोई प्रश्न करै ऐसे नाना प्रकारके भेष कैसे भये ताकू कहिये हैं जैसे राजाके सुभट वैरीके शस्त्रप्रहार करि कायर होय भागें पाछै राजा याकू भाजे जान नगरमैं आवना मनै किया अरु बाहरि ही सौ कैईको कालौ मुख करि माथा मूढ ताकौ या कही के गधे चढ़ाई नगर दौल्या फेरौ, कैहीकू लाल कपड़ा पहिराये, केही कू चुरिया पहिराई, केही का रांड़ स्त्रीका सा भेष किया, केहीका सुहागल स्त्रीका भेस किया है कै इनमै भीख मंगाई इत्यादि नाना प्रकारके स्वांग कराय नगर बारै काड़ दिया। अरु जे रन विष बैरीको जीत आये मुजरा किया ताकू राजा नाना प्रकारके पद दिये अरु मुखसूं बड़ाई कीनी तौ यहां दृष्टांतके अनुसार दृष्टांत जाननी । तीर्थंकरादि देव त्रिलोकीनाथ सोई भया राजा ताके भक्त पुरुष भगवानकी मस्तक ऊपर आज्ञा धार मोह कर्म { लड़वानै ज्ञान वैराज्ञकी फौजि साथ ले वनवासी होय मोहसे लरयौ । पाछै मोहकी विषय कषाय फौज करि ज्ञान वैराज्ञ फौजको Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvvvvv ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ६९ लुटाई अरु आप कायर होय भागे ताकू भगवानकी आज्ञा अनुसार विधाता कर्मनै गृहस्थपना रूप नगरमें तौ आया नाहीं दिया वाह्य ही राख्या अरु रक्तांवर पांटावर स्वेताबर जटाधारी कनफटा आदि नाना प्रकारके स्वांग बनाये अरु जे भक्त पुरुष मोहकर्मकी जयनै प्राप्त भये ताकौं अहंतदेव नाम नगरका राजा किया ताकी अपनै मुखकरि बहुत बड़ाई कीनी और भी अनागत काल विषै तीर्थकर होसी ऐसा याका स्वरूप जानना। ऐसा ग्यारा प्रतिमाका स्वरूप विशेषपनै कह्या । ___आगै रात्रि भोजनका स्वरूप वा दोष वा फल कहिये है । प्रथम तौ रात्रि विषै त्रस जीवाकी उत्पत्ति बहुत है सो बड़ा त्रसजीव तौ डांस माच्छर पतंग आदि आंख्यां देखिये है, जो महा छोटा जीव दिन विषै भी नजरां नाहीं आवै है ऐसा संख्यात असंख्यात उपजै है । अरु वाका स्वभाव ऐसा होय सो अग्नि विषै तौ दूरसेती भी आई झुकै है । ऐसा ही कोई वाके नेत्र इन्द्रियका विषय पीडै है । बहुरि सरदी बिगटा रस सजाति विषै बेठा हुवा चिपटी जाय है अरु कौड़ि मकोड़ि कुंथुवा कसार मकड़ी विसमरा आदि त्रस जीवाका समूह छुधाकरि पीड़ा हुवा वा नासिका नेत्र इन्द्रीका पीड़ा हुवा भोजन सामग्री विषै आई प्राप्त होई है । अथवा भोजन सामग्रीकू किया पाछै धनीवार हुई तो वही विषै मर्यादा उलचै पाछै घना त्रस जीवाका समूह उपनै । पाछै वही भोजनकू रात्रिनै कांसा विषै धरै पाछै ऊपरसुं माखी माछर टाड़रा कीड़ी मकोड़ी नाला विसमराका बच्चा आदि आई परे है वा कणसली सर्पका वच्चा आय पड़े है अथवा सारा कासा विषे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । तालासूं चड़ि आवै है अथवा जटी तटी ऊठीमूं कासा विषै आई डूबे है और निशाचर जीवनकूं रात्रिनै विशेष सूझे है । तातै रात्रिनै गमन घना करे है। सो गमन करते भोजन सामग्री विषै भी आई जाई है। पाछै ऐसा जीवाका समूहने कोई पशु सादृश्य मनुष्य निरहै हुवा खाई है तो वह मनुष्या मैं अघोरी है । पाछै नाना प्रकारके जीवने भखटा करि नाना प्रकारके रोग उपजै वा इच्छा छीण परे हैं । जैसा जैसा जीवन कै मासका जैसा विपाक होय तैसा ही रोग उत्पन्न होइ । कोडि उपजावै कोड होइ शूल होइ सकोदर अतीसार होइ अरु पेटमै गडारी परिचलै वाल सिरै बाई पित्त कफ उपजै इत्यादि अनेक रोगकी उत्पत्ति होय । अथवा अंधा होइ बुद्धि करि रहित होइ सो ऐसा दुख तौ इही पर्याय उपजै । पाछे पाका फल करि अनंत सर्पादिक खोटी पर्याय विषै जन्म पावै है परम्पराय नरकादि जाई है । ऐसे ही नरकसूं तिर्यच तिर्यंच सौं नरक केता ईक पयार्य नर्कका धारी पाछै निगोद माहीं जाइ परे पर्यंत भी निकसवौ दुर्लभ है और भी है 1 । पाछै उहांसं दीर्घकाल दोष कहिये है । कीड़ी भक्षन तैं बुद्धि नाश होइ अरु जुवा भक्षन तै जलोधर रोग उपजै, माछी भक्षन तै वमन होइ, बालतै सुरभंग होइ, मकोडी ते कोड़ होइ, भंवरी तै सुन होई, कसारी तै कंपाइ होइ, आंख अंधी होइ । स जीवाका भक्षनमै मांसका दोष लागे १ महा हिंसा होइ २ अपच होय अपचतै अजीर्न होय ३ अजीर्नतै रोग होई ४ तिरखा लगै ५ अरु काम वधै ६ जहरतै मरन होइ ७ डांकनी भूत पिशाच व्यंतरादि भोजन झूठौ करि जाइ। ऐसा पाप करि Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । नरक विषै पतन होइ । ऐसा दोषनै धर्मात्मा पुरुष सर्व प्रकार करि जन्म पर्यंत रात्रिका खान पान तजौ । एक मांसका रात्र भोजनका त्यागका फल पंद्रह उपवासका फल होय ऐसे रात्रि भोजनका स्वरूप जानना । अरि दिन विषै ताखाना विषै गुफा विषै वा बांदल विषै आंधी वा धूल्याके निमित्त करि चौहड़े अंधेरा होय ता समय भोजन करिये तौ रात्रि सादृश्य दोष जाननां । भावार्थ - जीव नजर न आवै तौ दिन विषै भी भोजन करना उचित नाहीं । इति रात्रि दोष । । आगे चूल्हा रात्रि न वारिये ताका दोष दिखाईए है । प्रथम तौ रात्रि कोई जन्तू सूझे नाहीं अरु छानेमै तौ त्रस जीवाका समूह है अरु आला काकी खबर परे नाहीं, जो आला छौना होई ता विषै पइसा पइमा भरा गिडोलानै आदि दै बालका अग्रभाग संख्यातका वा भाग पर्यंत सैकड़ा हजारों लाखां असंख जीवाका समूह पावनै है । सो सर्व चूल्हा विषै भस्म होयजाय । अरु लाकड़ी बालिये तौ वा विषै भी अनेक प्रकारकी लट वा कीड़ी व कनसला व अलीखा आदि बहुत त्रस जीवका समूह होय है । भावार्थ - घनी तरह लाकड़ी तो बीधी होय है ता विषै तौ जीव अगिनित है ही अरु लकड़ी पोली होय है ता विषै कीड़ी मकोड़ी मकोड़ा उदेई कामला सपली आपैस जाई है । अरु जेठमासका निमित्त पाइ सरदी होय तौ कुंथिया निगोद आदि जीवकी उत्पत्ति होय पाछै वैसाही बली तानै बालिये तौ वाके जीव दग्ध होंय । ता पापीकी काई पूछनी । बहुरि चूल्हा विषै उनताका निमित्त पाइ वा छिद्र आदि आश्रयका निमित्त पाइ कीड़ी मकोड़ी आदि त्रस जीव रहैं हैं । सो सब Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । चूल्हा विषै होम्या जाइ है। बहुरि माखी माकड़ी आदि जीव रात्रि नै ऊपर छत विष व ठाट विष विश्राम ले । अरु पाछै रात्रिनै चूल्हाका धुवा करौ होय सारा घरमै आताप फैलै ताका निमित्त करि हजारा जीव दौड़ा दौड़ा फिरै है । अरु चूल्हा विषं वा हाँडी विषै वा आटा विषै वा पानी विर्षे आई पड़े है तौ सब ही प्रानांत होइ । अरु अग्निका झार व लपट दूर ही थकी पतंगा डांस माछर आई चूल्हामै होम होई और रात्रिनै आटा सीधा विषै इली सुलसुली कुंथिया होय अरु कीड़ी मकोड़ी ईला आदि आप ही चड़ि आवै है । अरु धी तेल मीठा विषै जीव आन पड़े है । सो वे छोटा जनावर दिन विष भी दीसै नाहीं तौ रात्रि विषै वा जीवका देखवांकी काई गम्य । ताते आचार्य कहै है ऐसा दोष संयुक्त आहार कैसा किया जाय तातें रात्रिका चूल्हा बालना मसानकी अरथीसूं भी अधिक कह्या है । मसान विषै तौ दिननै एक मुरदा हौमिये है अरु चूलै विर्षे अगिनित जीवता प्रानी हौमिये है। तीसूं रात्रि चूल्हा बालवाका महापाप है अरुता विषै चतुर्मास विषै कोई महापापी वाले है तौ वाके पापकी मर्यादा हम नाहीं जानै केवलज्ञान गम्य है । अरु केई धर्मात्मा पुरुष तौ ऐसा है । सो रात्रि विर्षे दिवा भी जोवै नांही । ऐसे रात्रीके चूल्हा वालनैका दोष कहा। आगै अनछान्या पानीका दोष कहिये है। लाख कोड़ि वेडां तुरंतके छान्या पानी डारियेतातै भी एक इन्द्री जीवके मारवेका पाप घना है, तासू असंख्यात गुनावे इन्द्रीके मारवे का पाप है तासू असंख्यात गुना ते इन्द्रीकौ । तासौ असंख्यात गुना चौ इन्द्री तासू असंख्यात Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । गुना असैनी पञ्चेन्द्रीका तासू असंख्यात गुना सैनी पञ्चेन्द्री मार वा का पाप है। सो अनछान्या पानीका एक चुलू विषै वे इन्द्री ते इन्द्री, चौइन्द्री, पञ्चेन्द्री, सैनी असैनी लाखां कोड्या तौ आकाशके विष पेहराकी रेन आया सांधा गमन करे ता साहश्य पंच प्रकारके त्रस जीव पावन हैं। सोनीका द्रष्टि करि देखिये तो ज्योंका त्यों नजर आवै । बहुरि तासूं छोटा जीव ताही के संख्यातवै भाग सूक्ष्म अवगाहनाके धारक असंख्यात पांच प्रकारके ऋस और भी पावनै है । ऐक ऐक नातनाका छिद्रमै असंख्यात त्रस जीवा युगपत पानी छानिती वार निकर जाइ है । इन्द्रिय गोचर नाहीं आवै, अवधिज्ञान व केवलज्ञान गम्य है। बहुरि कैईक पानी छानै भी हैं । अरु विलछानी जहांका तहां नीका नाहीं पहुंचाव है। तो वह पानी अनछान्या ही पिया कहिये भावै, तीसूं एक चुलू अनछान्या पानीका अपनै हाथसू डालौ वा वरतौ वा पीवौ वा औरनै प्यावो ताका पाप एक गांव मारा कैसा है। ऐसे हे भव्य तूं अनछान्या पानीको दोष जान अनछान्या पानी पीवौ भावै लोहु पीवौ अरु अनछान्या पानीसौ सापड़ौ भावै लोहुसौ सापड़ी। लोही बीचि भी अन छान्या पानी का विशेष दोष कहै । अरु लोहु तौ निंदनीक है ही । अरु अन छान्या पानीका वरतवा विषै असंख्यात त्रस जीवांका घात हो है। अरु जगत विषै निंद्य है, महा निर्दई पुरुष याके पाप करि भवि विर्षे रुलै है नर्क तिर्यचके क्लेशने पावै हैं, संसार समुद्रमांही सू निकसना दुर्लभ होय है । या समान पाप और नांही है घना कहा कहि ये जैनी पुरुषनका तीन चिन्ह है । एक तौ प्रतिमाके Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ - - - - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । दर्शन किया विना भोजन न करै अरु अनगालौ जल न पीवै और रात्रि विषै भोजन नाही करै । या मैं सुं एक भी कसर होई तौ जैनी नाहीं अन्यमती शूद्र सादृश्य है। तातै अपनी हेतका बांछा करि पुरुष शीघ्र ही अनगाल्या पानीको तनौ इति अनगाल्या पानी दोप सम्पूर्ण। आगै सात व्यसन विषै छह व्यसनानै छोड़ि जुवाका दोष वर्णन करिये है। छह व्यसनका दोष प्रगट दीसै है जुवाका दोष गूढ है। ताकू छह व्यसन अधिक प्रगट दिखाइये है । जुवामै हार होइ तौ चोरी करनै परै चोरीके धन आये परस्त्रीकी वा परस्त्रीका संजोग मिलै तब वेश्या यादि आवै । वेश्याके घर आये सुरापान करै, वाके अमल मै मांसकी चाह होइ. मांस चाह भयै शिकार खेला चाहै। ततै सात व्यसनका मूल जुवा है और भी धना दोष उपजै है । जुवारी पुरुषका घरकी जायगा आकास ही रह जाय है, ईलोक विषै अपजश होइ है, पैटि विगरै है विश्वास मिटै है, राजादिक करि दंडको पावै है, अनेक प्रकारके - कलह केश बड़े है-अरु क्रोध लोभ अत्यंत बढे है। जनै जनै आगै दीनपना भासै है-इत्यादि अनेक दोष जानना पाछै ताके पाप करि नरक जाई है जहां सागरा पर्यंत तीव्र वेदना उपनै है। तातै भव्यजीव हैं ते दुष्टकर्म शीघ्र छोड़ौ। पंच पांडव आदि जुवेके वशीभूत होय सर्व विभूति व राज्य खोया ऐसा जानना। - आगै खेतीका दोष कहिये है । असाढ़के महिना प्रथम वर्षा होइ ताके निमित्त करि पृथ्वी जीवमई होइ जाइ । ऐसे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जीव विना एक अंगुल भूमिका न पाइये ता भूमिकाकू हल करि फेरिये सो भूमिका विदारवां करि सर्वत्र स्थावर जीवन प्राप्त होइ । फेरि पूर्ववत् नवा जीव उपनै पाछै दूजी वरसा करि वे भी मरनकू प्राप्त होइ । फेरि जीवाकी उत्पत्ति होइ फेरि हल करि हन्या जाइ ता भूमिका विष बीज बोवै पाछे सर्व जायगा अन्यके अंकूरा अनंन निगोद रासि सहित उत्पन्न होइ । फेरि वर्षा होइ ताकरि अगिनित त्रस थावर जीव उपनै फेरि निंदवा करि सर्व जीव हन्या जाइ, फेरि वर्षा करि ऐसी ही और उपजै । फेर धूप वा नुननी करि मरै ऐसे ही चतुर्मास पूर्ण होय । पाछै सर्व खेती त्रस थावर जीवा करि आश्रित ताकू दांतलादि करि काटिये । सो काटिवा करि सर्व जीवदल मल्या जाइ ऐसे तौ चतुर्मासकी खेतीका स्वरूप जानना । आगै उनारीकी खेतीका स्वरूप वा दोष कहिये है । सो सावनका महिनासूं लगाइ कातिक महिना पर्यंत पांच सात वार हल कुसिया फावड़ा करि भूमिकानै आमी सामी चुन करै पाछै वाके अर्थ दोय चार वर्ष पहली गुवार रोडीका संचय किया था । अथवा दोय चार वरसका एकठी हुई मोललै खेत विषै नाखे । सो वे रोडीका पापकी कोई पूछनी जेती वह रोडीको बोझ होय तेताही लटादिक त्रस जीव जानना । एक दोय दिनका गोबर पड़ा चोहडे रह जाइ ता विषै लाखां कोडयां आदि अगनित लटादि त्रस जीव किल किल करते आंख्यां देखिये है। तौ दोय चार बरसका संचय किया सैकड़ा गाड़ा भर गोबर विष्टा आदि अशुचि वस्तु ऊपरा ऊपर एकठी हुई सासती सरदी सहित ता विषै जाय पेखै तौ वाका निर्दयीपनाकी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। कह्य बात । पाछै वा खात• सारा खेत विषै बखेरता ऊपर सारे वखट फेरै ता पीछे बीज बोबै। पीछे मगसिरका महिनासू लगाई फागुन पर्यंत अनछान्या कुंवा बावड़ी तलाबका जल करि दिनप्रति ताई सीच्यां करै सो वा जल कर पाहिला त्रस थावर जीव तौ प्रलयन प्राप्त होइ नवा सरदीका निमित्त करि त्रस थावर जीव फेर उपनै ऐसौ ही दिन प्रति चार पांच महिना ताई पूर्व पूर्व जीव मरते जांय अपूर्व अपूर्व जीव उपजते जाय । ऐसे होते सन्ते अनेक उपद्रव करि निर्विघ्नपनै खेती घरमैं आवै । वा न आवै कदाचिद आवै तौ राजाका बीजकी दैनी चुकै वा न चुकै सो फल तौ जाकौ ऐसा अरु पाप पूर्वे कह्या तैसा । असंख्यातासंख्याता त्रस जीव अनंतानंत निगोद राशि आदि थावर जीवका घात एक नाजका कनकै वंदा अवै है। भावार्थ-ऐसी ऐसी हिंसा करि एक एक नाजका कना पैदा होय है । बहुरि केई या जानैगा खेती करती वार तौ सुखी होयगा ताको कहिये है। जहां पर्यंत खेती करनैका संग्रह हो है जहां पर्यंत राक्षस ते दैत्य दरिद्री कलंहरवत् ताका स्वरूप जानना अरु परभव विष नरकादि फल लोग है । तातै ज्ञानी विचक्षण पुरुष खेतीका किसब छोड़ी। ऐसे खेतीका दोष जानना सो प्रत्यक्ष चौड़े दीसे हैं ताकौ कहा लिखिये । अरि कुंवा बावड़ी तलाब खनाइवे का महल अटारी बनावनेका खेती हवेलीके पाप असंख्यात अनंत गुना पाप जानना । इति खेती धरती दोष । ____आगै रसोई करवाकी विधि कहिये है । सोई रसोई करवा विषे तीन बात करि विशेष पाप उपनै विना सोध्या Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। ~~ ~~~~~ ~~~~~~ ~~~~ अन्न, विवेक बिना गाल्या जल, अरु विना देख्या वलीता (इंधन) ऐ तीन पाप कर रसोई उपनै सो रसोई मांस समान जानना। अरु ये तीन पाप रहित रसोई निपजै सो रसोई कहिये है। ताका स्वरूप कहिये हैं । प्रथम तो नाजका अऊ संग्रह न करना । दस दिन पन्द्रा दिनका पांच दश जायगा अवधि देख मोल ल्यावै । पीछे ताको दिन विषै नीका सोध बीन दिन ही विषै ताबड़ा माहें कपड़ातूं पोंछे तब पिसावै । पाछै लोह पीतल बांस आदि चाम बिना चालनीसू चाल लीनै । ऐसे तो आटाकी क्रिया जाननी ! वलीता छानानै फौड़ काढ फार जीव रहित प्रासुक लकड़ी वा कोइले ए बलिता ताकी शुद्धता है । अरु छाना गोबर रसोई विषै सर्व प्रकार अलीक है । अरु ता विषै जीवकी उत्पत्ति भी बिसेष है । अरु अंतर मुहूर्त सौ लगाई जहां पर्यंत वा विषै सरदी है । तहां पर्यंत अनेक त्रस नीव उपनै हैं । पाछे गोबरका सूकवा करि सारा नासनै प्राप्त होइ है । सूका पीछे बड़ा बड़ा ताका कलेवर पईमा पईसा भरि गिडाला आदि शंख्या देखिये है। पाछ फेर चतुर्मास आदि विषै सरदीका निमित्त पाइकर असंख्यात कुंथवा लट उपजै हैं । तातै छानाका बलीता तौ हिंसाका दोष कर सर्व प्रकार ही तननी । अरु लकड़ीका कोइला ग्रहनैं योग्य है । सो कोइला तो सर्व प्रकार त्रस थावर जीव रहित प्रासुक है। तातै मनुष्यनै बालना उचित है। तातै बुद्धिवान पुरुष विशेष पनै बीधी सूखी लकड़ी फार अववि देखकर गृहन करै ।या विषै आलस प्रमाद राखै नाही, या विषै पाप अगिनित अपार है। सो विवेककर तछ लाग है। तातै धर्मात्मा पुरुषनै वलीताकी सावधानी राखनी। पोली Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। लकड़ी विषै कीड़ी मकोड़ी देहीकांनखजूरा सर्प आदि अनेक त्रस जीव पैसजाई हैं। सो विना देखी बालिये तो सर्व भम्म होय । सो पार्श्वनाथ तीर्थकरके समै कमठ निर्दय हुवा पंचाग्नि तपै। तहां अधजल्या लकड़ी पोली विषै सर्पनी अई दग्धि हुई ताकू पार्श्वनाथ स्वामी अवधिज्ञान कर बलता देख्या ताकू नवकार मंत्र सुनाई देवलोकनै प्राप्त किया । ऐसे बिना देख्या बलताता विषै जीवका दग्धि जानना धनी कहा कहिये । बहुरि तलाव कुंड तुच्छ जलकर बहती नदी अरु कुंवा बावड़ीका पानी तो छान्या हुवा भी अयोग्य है। या जल विषे त्रसकी रास इन्द्रिय गोचर आवै है । तातै जा कुवांका पानी चड़स करि छटता होय ताका जल विष जीव नजर नाहीं आवै । वा जलको कुवा ऊपर आप ज य व आपका प्रतीतका आदमी जाय दोवड़ नातना गाढ़ा गुठलीकर रहित वा जामें जलकौ ग्रास हुवा एक पल भी रहै ततकाल ही ऐके साथ छन न जाय । अनुक्रम सौं धीरे धीरे छनै ऐसा नातनांसू जल छानिये ताका प्रमाण । जी वासण विषै छानिये ताका मुंहसू तिगुना लांबा चौड़ा डयोड़ा सो दोबड़ो बड़ो किये समचौकोर हो जाय ऐसा जानना । अथवा बिना छान्या ही कुंवासो भरि डेरै लै जाय । युक्ति पूर्वक नीका छानना, छानती बार अनछान्या पानीकी बूंद भी गिरे नाही वा अनछान्याकी बूंद छानै पानीपै आवै नाहीं ऐसे पानी छानिये । अनछान्या पानीके हाथसूं छान्या पानी करि अनछान्या पानीके बासनमें न धरिये । पीछे छान्या पानीका बासनकुं पकड़िये । दोय वार तीन वार छान्यां यानी करि बासनकू खोलिये । पाठे वाके मोड़े नातिना दौनिये वा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । हाथ विषै बेला बेला लेय छोटा बासनसों बोर बोर पानी छानै अरु वह नातना बेला ऊपर धर बहुर कूपसों पानी काढै फेर वाही भांति छानै जब बासन भर चुकै तब नातना हाथमें करि वानै पानी भर पाल ऊपर लिया लिया आवना नातिना ऊपर धरि धरि धीरेधीरे काढ़िये । पीछे अनछान्याका हाथकुं खोल अगल बगल सू कोना • पकड़ उलटौ करिये । पीछे छान्या पानी करि अविशेष अनछान्या पानी रह्या ता विष जीवानी करिये । अथवा जुदी वासना विष जीवानी करिये । बीचमूं जीवानीकी तरफ चिमठी करि नातिना रखड़िये नाहीं। पीछे चार पहर दिनका व आठ पहर दिनका जीवानी एकट्ठा कर भंवरकलीका डोल जाका वाका जल आया होय तिहि कूचे पहुंचावै । अथवा भंवरकलीका डोलन होय तो भंवरकलीका डोल बना चरूका लोटास भी पहुंचे है। वाका पांसानै उलटौ बांध पीछों डोरा अपूटी ल्याव पांच सात अंगुलकी लाकड़ी बांध लोटेके मौठे भीतर आड़ी लगाइयो ताका सहारासू लोटा सूध्या चल्या जाय, कुंवाके पीदे जल ऊपर लोटा पहुंचे तब ऊपरतूं डोल हिलाय दीजे । पीछे वह लोटेसूं लाकड़ी निकस औंधा होय ऊपर तै बैंच्या हुवा चल्या आवै ऐसे पहुंचावना । अथवा इ भांति भी न पहुंच्या जाइ तो सारा प्रभात सर्व पानीका जीवनी एकट्ठा कर पानी भरका बासन विषै घालिये अरु पनहारीकुं सौंपिये पनहारीनै पानी भरवाका महीना सिवाय टको दोटको बढ़ाइये अरु वाकुं ऐसा कहिये । जीवानै शुद्धता पूर्वक कुंवामें नाख दैनी। गैला वा ऊपरसूं कुंवा विषै जीवनै न नाखना कदाच नाख्या तौ तूनें पानी भरवासौ ही दूर करौंगा । ऐसो कहा पीछे Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । भी दोय चार वार गुपति वाके पीछे जाय कुवा पर्यंत ठीक पाढ़िये जे पूर्वै कह्या । ता माफिक जीवानी सुद्ध उरासना ऐसे ही कुंवामें उरास है ताको विशेष पढ़ाई दीजिये टका दो टकाकी गम्य खाइये, पापका भय दिखाईये हैं। या भांति जीवानी पहुचावै तिनकुं छान्या पानी पिया कहिये । अरु पूर्ववत् जीवानी न पहुंचे ताकों अनछान्या पानी पिया कहिये । वा शूद्र साढस्य कहिये । जिनधर्म विषै ही तो दया ही का पालना धर्म है दया बिना धर्म नाम पावै नाहीं । जाके घट दया है तेई सत्पुरुष भवसागर तिरै हैं। ऐसे पानीकी शुद्धता स्वरूप जानना । बहुरि मर्यादा उपरांत आटा विषै कुंथवा सुलसुली आदि अनेक त्रस जीवांकी रास वा सरदी विषै भी निगोदरास सास्वते त्रप्सरास उपजै है । ज्यों ज्यों मर्यादा उलंघ आटा रहै त्यों त्यों अधिक बड़ी बड़ी अवगाहनाका धारक आटा विष कनक सारखा त्रस जीव उपनै है । सो प्रत्यक्ष ही आंख्या देखिये है तातें मर्यादा उलंध्या आटा अरु बाजारका तुरत पिसाया भी अवश्य तजना, जेता आटाका कनकाते ता ही त्रस जीवं जानना । तातें धर्मात्मा पुरुष ऐसा देखिके आटाका भक्षन कैसे करें । बहुरि चामका संयोग करि धृत विषै अंतर मुहूर्तसू लगाय जहां पर्यंत चामके सीधड़ामें घृत रहै तहां पर्यंत अधिक अधिक संख्याता त्रस जीव उपजै है । अरु चर्मका अस्पर्स करि महा निंद्य अभक्ष होय है । ताका उदाहरण कहिये है। काढू एक सरावगी रसोई करवाके समै कोई सरधानी पुरुष हाथ पैसा टकाका घृत बाजारसों मंगाया तब वह सीघ वाका घृत छुडायवाके अर्थ एक अकल उपजावता Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।। हुवा। सो बनारमांसू नवा जूता मोलले वामें घृत घाल वाकी रसोई विष जाय धस्यो तब वह रसोई छोड़ उठवा लागा तब यानै कही रसोई क्यों छोड़ौ हौ । थै पूर्व या कही थी म्हाकै तो चर्मके घृतका अटकाव नाहीं तातै बजारका महाजनोंके तो काचा चमके बासनमें घृत था। मैं थाकै अटकाव न जान पाका खालका जूता विष घृत ल्याया अरु थाने सौप्या तौ म्हानै काहेका दोष मैं या न जानी थी के पूर्वोवाली क्रिया है । पूरव्या मोकला अनछाना पानीसों तो साफ है । अरु सीसा साढस्य सोई उज्जल रसोईका बासन राखे । अरु बड़ा बड़ा चौका देई कोई ब्राह्मन आदि उत्तम पुरुषाका स्पर्श होई तो रसोई उतर जाय । पाछ कांसामें मांस लै रानी होय होय खाय । तातै त्योंही चामका घृत महा अभक्ष्य जानना । ऐसा सुनते प्रमाण चामका घृत तैल, हींग, जल आदि वस्तुका त्याग वे पुरुष कीया। ऐसे और भव्य जीव याकौं त्याग करौ । अब रसोई करनकी विधि कहिये है । जहां जीवकी उत्पत्ति न होई ऐसा स्थानक विषै खाड़ा खोवरा रहित चूनाकी वा माटीकी साफ जायगानै तौ जीव जंतु देख ऊपर चन्दोवा बाधि गारिका वा लोहका चूला धरिये। चूनाकी जायगा तो जीव जंतु देख कोमल बुहारीसों बुहार दे फिर तुक्षपानी करि जायगा आला बस्त्रसेती पोंछ नाखै वा धोय नाखै और गारकी जायगानै तुक्ष शुद्ध माटीसेती दयापूर्वक लिपाईये है । ता विषै उजला कपड़ा पहर तुक्ष पानीसूं हाथ पांव धोईये । सर्व वासनोंकू मांज रसोई विषै धरिये । पूर्वे कह्या ऐसा आटा, सीधा, दाल, चांवल, बलीता सोधि रसोई विषै लै बैठिये। रसोई विषै लागै जेता पानीकी मर्यादा दोय घड़ी हीकी है । तातै Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । प्रासुक पानी ते रसोई करना उचित है। प्रासुक पानीको दोय पहिर पहिले बरताय देना | आगे राख्या यामें जीव उपजै है जीदानी याकौ होय नाहीं। ऐसे दयापूर्वक क्रिया सहित रसोई निपन ताकौ उज्जल कपड़ा पहर हाथ पांव धोय पत्राकू चा दुखित जीवकू दान देई । राग भाव छोड़ चौकी ऊपर भोजनकी थाली धर थाली ऊपर दृष्टि राखे, जीव जंतु देख मौन संजम सहित भोजन करै । ऐसा नाहींकै दया बिना अघोरीकी नाईं आप तौ खायले पात्र व दुखित जनवारनै आवै आप उठि जाय । ऐसा क्रपण महा रागी महा रोगी विषई दंड देने योग्य है । तातै धर्मात्मा पुरुष है ते विधिपूर्वक दान दें, पीछे भोजन करै, ऐसे दया सहित रागभाव रहित भोजनकी विधि कही । बहुरि रसोई जीमे पीछे ई विषै कूकरा बिलाई हाड़ चाम मैले वस्त्र सूद्र आय जाय । वा विशेष औंठ (जूंठन) पड़ी होय तो प्रभात आय वा परसौ आदि हमेसा रसोई कर वा समय पहली चूलाकी राख सर्व काढ़ी नाखिये । नमरासों जीवजंतुदेखि कोमल बुहारीसे बुहार देई पीछे चौका दीजे, चौका दिये विना ही राख फेंक कर बुहारी देह रसोइ करिये विना प्रयोजन चौका देना उचित नाहीं। चौका विषै जीवाकी हिंसा विशेष होवै है । अरु अशुम जायगा विषै रसोई करिये तो चौकाकी हिंसा बीच भी अक्रियाके निमित्तकरि राग भावका पाप विशेष होय है । तातें जामै थोड़ा पाप लागै, सो करना। धर्म दयामय जानना दया विना कार्यकारी नाहीं । अरु केई दुर्बुद्धी नान लकड़ीको धोवै है। तवेला चरू तवा आदि बासन ताका पैदा धोय आरसी समान उन्जल राखै है । मौकला पानी सोसा पड़े वा चौका दै है । स्त्रीके हाथकी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000000002 ज्ञानानन्द श्रावकाचार । रसोई नाखाइ है । नाना तराकी तरकारी मेवा मिष्टान्न दही, दूध, घृत, हरित काय सहित बार बार भोजन बनवाबै है । पीछे राजी होय होय चार बार तिर्यचकी नाई पेट भरै है। अरु या कहै है मैं बड़ा क्रिया पात्र हूं, बड़ा मैं संजमी हूँ ऐसा झूठा डिंभधारी धर्मका आसरे वापरा भोला जीवांने ठगे है। जिनधर्म विषै तौ जहां जहां निश्चय एक रागादिक भाव छुड़ावनेंका उपदेश है। और याहीके वास्ते अन्न जीवकी हिंसा छुड़ाई है। सो इन पापी राग भाव व अन्य जीवकी हिंसा अपूठा बंधाय दीनी तातै जा रसोई विषै ज्यों ज्यों रागभाक्की वा अन्य जीवाकी हिंसाका निमित्त नाहीं होवै है, सोई रसोई पवित्र है जा विषै ऐ दोष बंधे सोई रसोई अपवित्र है ऐसा जानना बहुर कुलिंग्या आयनां विषय पोखवाके अर्थ धर्मका आसरा लेय । अष्टांनका सोलाकारन दसलाक्षनी रत्नत्रय आदि पर्व दिना विष आक्षा आक्षा मन मान्या नाना प्रकार महा गरिष्ट और दिव विषे कबहु मिले नाहीं। ऐसा तो भोजन खाना अरु चोखा चोखा, वस्त्र आभूषण पहिरना ताका उपदेश दिया पाछे ऐसे ही आय विषय पोखने लगे तो गृहस्थानिकू काहेको मनै करै । सो भादवांके पर्व दिना विषै कखायकू छोड़ना। संजमको आदरना जिनपूजा, जिन शास्त्राभ्यास, जागरनका करना दानका देना, वैराग्यका बंधावना, संसारका स्वरूप अनित्य जानना। ताका नाम धर्म है, विषय कषाय पोखनेका नाम धर्म कदापि नाहीं झूठा मान्या तो गरज काई वाका फल खोटा ही लागसी । आगे कंदोईकी वस्तु खानेका दोष दिखाईये है। प्रथम तो कंदोईका स्वभाव निर्दई होइ है । पाठे लोभका प्रयोजन परै ताकी विशेष Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । करि दया रहित होय है ताका किसब ही महा हिंसाका कारन हैं सो विशेषपर्ने कहिये है। नाज सस्ता होय सो मोल ल्यावै सो सस्ता तो बीधा घुना पुराना ही मिले सो बीना सोधा बीना नाजनें बात बिना देखें पीसै पाछें वह आटा बेसन मेदा महीनों पड़ा रह जाय ता विषै अगिनति त्रस जीव उपजै है । पीछे वैसा तो आटा अन छान्या मसकका पानी ताकरि उसने बीघा सूल्या आला गाभटी विषै रातनै वलीता बालें । अरु चामका घना दिनका वा सज्या वृत विषैवानें तलें । अरु रात्रितें अग्निका निमित्त करि दूर सो डांस, माक्षर, पतंग, माखी मट्टी में व कड़ाही में आय आय पड़े व तपत धुवांके निमित्त करि अनेक जीव मकड़ी बिसमरा कानखजूरा भरी कड़ाही में परै । पाछे वह मिठाई पकवान तुरत ही तो सारा बिक जाय नाहीं । अनुक्रमसों बिके सो बिकता बिकता महीना पन्द्रह दिन दो महीना पर्यंत पड़ा रहि जाय । ता विषै अनेक लटईला आदि परि चाले । अरु अस्पर्श सूद्रकूं वह मिठाई चें ताकी मीठी जंठी मिठाई पाछी अपना वासनमें डार है है । अरु धनाक दोई कलारि खत्री आदि अन्य जाति होय हैं । ताकी दया कहा पाईये । अरु कोई वैप्य कुलके भी कंदोई होय सो भी वा सादृस्य जानना अरु जल अन्न नून मिलाय घृतमें तलै सो वह समान ही है । संसारी जीवाने थोड़ा बहुत अटक में राखनै अर्थ सखरा निखरीका प्रमाण बाधा है । वस्तू विचारता दोन्यों एक है * कोई जैनी कुल विषै रातनै अन्नका भक्षण छोड़ना अरु फलाहार आदि राख्या तो काई वह रात भोजनका त्यागी हुवा ? यदि रात्रिकीं परवानगी नहीं देसी तों अन्नादि सर्व ही Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आनन्द प्रावकाचार । ८५ - -- वस्तुका भक्षण करना, याकै खाया बिना तो रहौय नाहीं । तातै अन्नकी वस्तू छुड़ाय मर्यादामें राख्या अन्नका निमित्त तौ रंकादिककै भी सास्ता पाइये । दूध पेड़ादिक निमित्त कोई पुन्यवानकै कोई काल वि. पाइये है। तातें घनी वार धनी वस्तुका रात्रिनै संवर होय है। ऐसा प्रयोजन जानना तातै बुद्धिमान पुरुष क्षे, ते असंख्यात त्रस जीवांकी हिंसा करि निपनी अनेक त्रस जीवकी रासि महा अक्रिया सादृश्य अभक्ष्य ऐसी कंदोईकी वस्तू. ताकू कैसे खाय अरु ठग गई है बुद्धि जाकी आचार रहित है स्वभाव जाका । परलोकका भय नाहीं है जाके ऐसा पुरुष कंदोईकी वस्तू खाइ है । तातें अपना जानै हित चाहिये ते पुरुष हलवाईकी वस्तू सर्वथा तनो । बहुरि कोई अज्ञानी रसना इन्द्रीका लोलपी ऐसे कहै है । कंदोईकी वस्तू बजारका वांसना विषै मद्य मांस वापरै । ऐसा गूजर रजपूत कलार आदि सूद्रके घरका दही, दूध, रोटी आदि वस्तू प्रासुक है तातें निर्दोष है सो महा त्रस थावर जीवाकी हिंसा करि निपजी मद्य मांसके वांसन विषै धरी । ऐसी वस्तू प्रासुक निर्दोष होय तो और उपरांत दोषीक वस्तू कैसे होसी हाड़ चामके देषनैका मृतगके सुननैकाई भोजन विषै अंतराइ गीत ऐ तो प्रतक्ष खायवेका कैसा दोषण गिननौ जाते जे वस्तू हिंसा करि निपनी वा अक्रिया करि निपजी सो धर्मात्मा पुरुष कोई आचरै नाहीं। प्रान जावै तौ जावो पन अभक्ष वस्तू खाना उचित नाहीं। दीनपना सिवाय और पाप नाहीं है। तातै जिन धर्म विषै अजाचीक वृत्ति कही है। आगे सहतका दोष दिखाईये है। माखी, खाट या मीठा रस वा जल ओंट विष्टादि मुख्यमें लै आवै। सो वाके मुख्य Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - - - - - - - - -.. - - - - ---... ज्ञानानन्द श्रावकाचार। विषै वस्तू लालरूप परनवै । पीछे लोभके अर्थ जैसे कीड़ी नांन ल्याय विलमें एकठा करै । पीछे भीलादिक सकल पहुंचे सो वाके सर्व कुटुम्ब परवार सहित नाजसोर ल्यावै । पीछे सर्व कीड़ाका तो संधार होय नाज भील खाये जायँ तैसे ही मछिका त्रष्णाके बशीभूत हुवा लालकू एक स्थानक चूंकि थूकरैंक ढाके । पीछे ऐसौ होते होते धनी लाल एकत्र होय घना लालके रहने करि मिष्ट स्वादरूप परनवै ता विष समय समय लाखां कोड़ना बड़ा अंडा आंख्या देखिये तातें आदि दै और असंख्यात सूक्ष्म जीव उपनै हैं । अरु निगोदरास उपजै हैं । अरु तिस ही विषै माख्यां निहार करै है ताकौ भिष्टा भी बाही विषै एकठौ होय है । पीछे भील आदिक महा निर्दई वाकू पथरादि करि पाडें है। पार्छ वाके वच्चा सुधा अरु माहिला अंडाशुद्धा मसल मसल निचोय निचोय रस काड़ें है । पीछे पंसारी आदि निर्दय अक्रिय खान लेवें हैं। ता विष माग्वीकी डीम कोड़ी आदि अनेक त्रस जीव उड़ा है वा चपि जाय है । अरु दो चार वरस पर्यंत लोभी पुरुष संचय करे हैं ता विषै पूर्ववत् जा समय हालकी उतपत्ति भई ता समयसूं लगाय तहां ताई सहित रहै । तहां पर्यंत असंख्यात त्रस जीव सासता उपजै है । सो ऐसा सहत पंचामृत कैसे हुवा । अपना लोभक अर्थ न जीव कौन कौन अनर्थ न करें । अरु कांई कांई अषाद वस्तू न खाय तातै ए सहित मांस साढस्य है । मद्य मांस रहित तीनों एकसां है । सो याका खावा तो दूरी रहौ। औषधि मात्र भी याका स्पर्श करना उचित नाहीं तैसे जानना याको औषधि मात्र भी गृहन किया दीर्घ कालका संच्या पुन्य नासनै Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । प्राप्त होय है । आगे कांजीका दोष कहिये हैं छांछकी मर्यादा बिलोया । पाछे अथौन ताई की है, पाझै रह्या अनेक त्रस जीव उपजै हैं ज्यों घनाकाल ताईं रहै त्यों त्यों घना त्रस उपनै । जैसे रात बसाका अनछान्या जल अभक्ष है तैसे रात वसाकी छाछ अभक्ष है । सो एक तो यह दोष अरु छाछि विषै राई परै है। राईका निमित्त करि तत्काल छाछि विषे त्रस जीवाकी उतपत्ति होय है । ताही वास्ते राई छाछिका राय तौ अभक्ष है । एक दोष तो यह और छाछ विषै भुजिया पर है । सो एक बिदलका दोष बहुरि छाछि विषै मोकला पानी अरु लून परै है सोई ताका निमित्त पाय शीघ्र ही घना त्रस जीवकी उतपत्ति होय है । सो एक दोष यह पाछै दस पन्द्रह दिन ताई याकौ भखवौ करै है। जैसे धोवी छीया नीलगरके कुंडका जीव रहै । तैसे कांजीका जीवा रहा जानना । ज्यों ज्यों घना दिन कांजी रहै त्यों त्यों वाका स्वाद अधिक हौय है। सो अज्ञानी जीव इन्द्रीयाका लोलपी रानी रानी होय होय खाय जावै ए स्वाद त्रस जीवोंका मांस कलेवरका है । सो धिक्कार है ऐसे रागभावके ताईं। ऐसा अषाद वस्तूको न आधेरै । ऐसा ही दोष डोहा किरावका जानना । या विषै भीत्रस जीवघना उपनै है। आगेअथाना संधान ल्योंजीका दोष कहिये हैं। सोलून, घृत, तैलका निमित्त पाय नींबू आदिका अथाना विषं दोय चार दिन पर्यंत सरदी मिटै नाहीं । सो लून सरदीका निमित्त पाय त्रस जीवांकी उतपत्ती होय है। वा ही विषै मरै है। ऐसे जन्म मरण जहां ताई वाकी स्थित रहै तहां ताईं हुवा करै । ऐसे ही लौंनी संधान मुरब्बा विषै जीवाको रासका समूह जानना। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सो नष्ट भई है बुद्धि जाकी ऐसे अनाचारी मूह विषई पुरुष आचरन करै। या जाने नाहीं कि यह अनाचारका मूल है ऐसा दोष जान अवश्य तनना योग्य है । अरु सर्वथा न रहा जाय तो आठ पहरकी खावो निर्दोष है । अथवा सूकी आवौली वा आंवलाकी बनाय ल्यो वृथा ही आपनै संसारसमुद्र विषै मति डोवै। आगे जलेबीका दोष कहिये है । सो रात्र विषै मैदानै माहिं वै है सो षटाई उठे तो जीव प्रत्यक्ष नजर आवै हजारां लाखां लटाका समूह उपजे, सो खट्टा मैदानै कपड़ा ऊपर रह जाय । ऐसी लटा सहित मैदानै स्वादके अर्थ घृत कड़ाहमें तलिये पीछे मिश्री खांडकी चासनीमें वौरे है । वहुरि अघोरीकी नाईं रात वा दिन विषै भोजन करै सोय भोजन कैसा सो हमनै जानै सर्वज्ञ जानै है। आगे भेलै जीमणका दोष कहिये । सो जगत विषै औंढि ऐसी निंद्य है सो मन दोय मन मिठाईकी छाव भरी ता माहींसू एक कनका उठाय मुखमें दीजे तो वा मिठाइनै कोई भेटे नाहीं । अरु या कहै ऐतो ओंठी होगई सो ये तजने योग्य है। अरु ऐ मूढ़ सरागी पीच सात जना । एकै साथ भेलै बैठ भोजन प्रसादी करै सो मोहढा माहिम साराकी औंठ थाली मांहि परै । वा मुखकी लाल थालीमें परै अथवा ग्रासकी साथि पांचू आंगुरी मुखमें जाय सो मुखमें आगुल्यां लालसों लिप्त होजाय फिर वैसा ही हाथसों ग्रास उठाय मुखमें देय ऐसे ही सारेकी ओंठि कांसा विषै धिल मिल एक मेक होजाय । सो परस्परि सरावै तो वे वाकी औंठि खाय, वौ वेकी ओंठि खाय परस्पर ए हास्य कौतूहल अत्यन्त स्नेह बंधाय वा मनुहारि करि पूर्न इन्द्री पोखै ताके पोखने पर काम विकार तीव्र होय। मान Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । (९ अत्यंत बंधै सो भेले जीववा विषै ऐसा अनेक तरहका पाप उपनै है। तातें सगा भाई, पुत्र, इष्ट मित्र वा धर्मात्मासा धर्मीके भेले जीमना उचित नाहीं । औंठ खावाका स्वभाव तौ चांडालकू कराका है। भेले खावाका स्वभाव ऊंच कुलकै पुरुषका नाहीं। __ आगै रजस्वला स्त्रीका दोष कहिये। सामान्यपनौ महीनाके माहिं वाकी जो निस्थांन माहिंसूं ऐसो निन्द रुधिर विकारसमूह निकस है। ताके निमित्तकरि मनुष्य तिर्यंच केई पुरुष आंधा होय जाय। व आंखमें फूली परजाय, पापर, बड़ी, मुगोड़ी, लाल होय जाय इ सादिवाकी छाया देखवा कर कपड़ाका स्पर्स करि करवा कर तीन दिन पर्यंत अनेक औगुन उपजै है । याकै जा समय महा पापका उदय है। ब्रहछा समान है याका हाथकी स्पर्श वस्तु सर्व अलीन है। पीछे चौथे दिन वा केई आचार्य पांचवें दिन छटे दिन कहे हैं । भावार्थ:-छटे दिन व पांचवे दिन व चौथे दिन स्नान कर उजल कपड़ा पहिर भगवानका दर्शन कर पवित्र होय है। मुख्य पनै चौथा स्नान कर भरतार समीप जाय है। कोई मनुष सूद्र समांन याकू अपवित्र नाहीं गिने है । सो वह भी चांडाल सादृस्य है घना कहा कहिये । आगे दूध दही छांछि घृतकी क्रिया लिखिये हैं। गरडी ऊंट आदिका दूध तो अलीन है। या विषै दोहता दोहता त्रस जीव उपनै हैं। अरु गाय भैसकालीन है। सो छान्या पानीसूं दोहनेवारेके हाथ धुवाईये गाय भैंसको आंचल धुवाय चोख्या मांजा चरू वासन ताकों जल कर धोयवा विर्षे दुहाईये । पीछे दूजे वासनमें कपड़ातूं छानिये पीछे दोह्या पीछे दो घड़ी पहिले पी जाईये अथवा दो घड़ी पहिले उष्ण करिये। दो घड़ी उपरांत Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । । ९० . काचां रह जाय तो वा विष नाना प्रकारके त्रस जीव उपजै हैं । तातै दोय घड़ी पहिला गरम करना उचित है। सो प्रथम ही आंबला आदि खटाई बतातां रुप्या दूध विषै डार जमाईये। वाकी मर्याद आठ पहरकी है । आजका जमाया प्रभात दहीकू कपड़ा विषै बांध वाकी मुगोड़ी तोड़ सुकाई है। पाछै और ही वाका जांवण दै दूध जमाईये । ऐसे दूध, दही आचरनै योग्य है। सुठ वा और खटाई वा जसद रुपाका भाजन कर जम जाय है । कोई दुराचारी जाठ गूजर अन्य जातका दूध दही पाईये है। ते धर्म विषै वा जगत विषै महा निंद्य है । और ऐसा सूद्र दहीकू लोया पीछे तो तुरत अग्नि ऊपर ताता करि जाईये । छांछि अथोंन ताई उठाय दीजे रात विषै राखेय नाहीं । रातकी राखी सवारै अनछान्या पानी समान है । ऐसे दूध देही छांछि क्रिया जाननी अरु केई विषै लोलुपी क्रियाका आसरा लेय गाय भैस मोल लै निज घर विषै आरम्भ बंधावै है। सो आरम्भमें बढ़ावै नाही ज्यों ज्यों आरम्भ बन्धै त्यों हिंसा वधै चौपद जात राखवेका विशेष पाप है सोई कहिये है सो वह तिर्यंच काय वा बिना अनछान्या पानी पिया बिना न रहै । अरु सूके त्रन छान्या पानीका मेर मिलना कठिन अरु जो कदाचित्त कठिनपनै वाका साधन राखिये तो विशेष आकुलता उपजै, आकुलता है सो कखायका बीज है। कखाय है सोई महा पाप है, बहुरि कदाचित वाकू भूखा तिसाया राखये शीत उष्ण मांछरादिके दुखका जतन न करिये . तो वाके प्राण पीड़े जाय, मोहवासो वोल्या जाय नाहीं। अरु याकू सासती कैसे खबर रहै। अरु शीत उष्णादि वाधा मेटे Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । Vvvvvvvvvvvvvvvvvvvv. नहीं, तातै वां वेद नाहीं होय तातै वाका महा - पाप राखनै वारेको लगै । बहुरि वाके गोवरमूत्र विषै विशेष त्रस जीवकी रास उत्पन्न होय है । अरु ईधनका निमित्त कर सासता रातदिन चूला बाल्या करै । चूलाके निमित्तकरि छह ग्राम दाह करवां जितनो पाप लगे । तातै ऐसा जान चौपद राखना उचित नाहीं। बहुरि ताकी तेल्ही खानेका विशेष पाप है। घना दिनको दूध गाय भैसका पेट विषै रहै है । पीछे वे प्रसूत होय अरु ता समय वाके आंचलझं रक्त साढस्य निचोय काड़िये। वाकू उश्नकर जमाइये ताका आकार और ही तरहका होय जाय । ताकू देख गलान उपनै पीछे वैसो निन्द वस्तुको आचरिए तो वाके रागभावकी काईं पूछनौ । तातै अवश्य याका आचरन न करना । छलीका परसूत भया, पीछे आठ दिवसका अरु गायका दिवस दस पीछे। अरू भेसका पन्द्रह दिवस पीछे दुग्ध लैना योग्य है, पहली अभख्य है । अरु आधा दुग्ध वाके बच्छाकों छोड़िये। आगे कपड़ा धुवानें वरिगाबनैका दोष कहिये है । प्रथम तो वा कपड़ा विर्षे मल निमित्त कर लीख, जुवां आदि अनेक त्रस जीव उपजै हैं । सो वे जीव कूपमेंतें जीका पानीमें नासनै प्राप्त होय । पीछे वे कपराने दरियाव विष सिला ऊपर पछाड़ पछाड़ धोवै । सो पछाहती वार मींढ़क माछला पर्यंत अनगिनत छोटा बड़ा जीव कपडाके ऊपर तिमें आवै ताका कपडाकी साथ सिला ऊपर पछाड़तां जाय । सो पछाड़िवाकर जीवका खण्डन होय जाय । बहुरि वे तेजीका खारौ पानी दरियाव विष घनी दूर फैलें । वा बहती नदी होय तो घना दूर कहता चल्या जाय तो तहां पर्यंत जीवकों Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । खारा रस पौंहुचै तहां पर्यंत सर्व जीव मृत्यूर्व प्राप्त होय। बहुरि कपराकौं सावन सेती फेर दरियावमें धोवै । सो वैसे ही जहां ताई सावनका अंस पहुंचे तहां तांई दरियावका दरियाव प्रासुक होय जाय । जैसे एक पानीका मटका विषै चिमटी भर लोंग डोंडा लायचीका नाखवा कर प्रासुख होय है । तैसे एक दोय कपड़ाका धोयवा करि सर्व दरियावका जल प्रासुक होय है । अरु केई महत पापके धारक सैकरा हजारा थान छदाम अधेलाके वास्ते धुवाय बेंचें है । तो वाके पापकी बार्ता कौन कहै । तातें धर्मात्मा पुरुष सर्व प्रकार धोबीके कपड़ा धुवायवौ तौ तनौ याकौ पाप अगिनित है । अरु कदाच पहिरवेका धोये विना न रहै जाय तो गाढ़ा नातना सू दरियावके बाहर कुंड़ी आदि विषै पानी छान छान पाछै जीवानां दरियाव व कुवामें विलोय कपराकी जू लीख सोधि धोईये। भावार्थ-मैला कपरानै डील सूं उतठरया पाळू दस प्रन्द्रह दिन तो पड़ा राखिये । पीछे फेरि भी वा विषै कोई जू लीख रही होय ताकू नेत्रकर देखिये अरु कोई नजर आवे ताकू लेय और डीलके पुरा या वस्त्र ता विषै मेल्हि और ठौर न नाखिये. नाहीं कपड़ा विषै जुवे मैंलनै कर घना दिनताई मरै नांही है । आयु पूरीकर ही मेरै है बहुरि ऐसी जागा धोइये कि दरियावके बाहर प्रासुक स्थान विषै जल उहांका उहां ही सूष जाय व भूमि विषै सूख जाय अरु जैसे कदाचि वह पनी वहकर अपूठा दरियाव हीमें जाय, तौ अनछान्या पानी सादृश्य ही धोया करिये । तातें विवेकपूर्वक छान्यापानी सूं धोवना उचित है । बैंचवेका कोई प्रकार धोवना उचित नाहीं । आगै रंगावनैका दोष कहिये है। नीलगर छीपा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आदि रंगरेजके दोय चार व पांच दस वरस पर्यंत रंगके पानीका भांडा रहै है। पीछे वा विष कपराके समूह डुबोय मसलिमसलि रंग है। सो मसल वाकर सारा कुंडका जीव संगराम सल्या जाय है। ता पीछे दरियावमें जाय धोवै है। ऐसे ही पांच सातवार रंगना धोवना करै सो वा धोवा विषै वैसे ही रंगका पानी जहां पर्यंत दरियावमें फैले तहां पर्यंतका जीव बार बार हन्या जाया तातै ऐसा रंगानैका महा पाप जान सत पुरुषनकों रंगाबना त्याज्य है। आगेसे तखानाका. दोष कहिये है। एक बार मध्यान्ह समय चौंड़े ठौर विषै निहार करिये है । सो ततकाल ही सन्मूर्छन मनुष्य और असंख्यात. त्रस जीव सूक्ष्म अवगाहनाके धारक उतपन्नि हौय हैं पीछे दोय चार पहरके आतरै नजर आवै है । ऐसा लटादिकाका समूह जेता बह मल हो य तेता जीवाकी रास उत्पन्न होता देखिये है । सो जहां सांसती गूढ सरदी रहै है । अरु ऊपरा ऊपरी दसबीस पुरुष स्त्री मल मूत्र छैप वी सीला ताता पानी कुंडेसों ऐसा अशुद्ध स्थान विषै जीवाकी उत्पन्नकी कहा पूंछनी । अरु हिंसा दोषकी कहा पूंछनी, तातें ऐसा पाप महत् जान स्वपनै मात्र भी सेतखाना जाना योग्य नाहीं । आगे निगोद आदि पंच थावरके. जीवका प्रमाण दिखाईये है । एक खानकी माटीकी डली विर्षे असंख्यात प्रथ्वी कायके जीव पाईये है । सो निजाराका दाना, दानाका प्रमाण देह धरै तौ जम्बूदीपमें मावै नाहीं क संख्यात. असंख्यात दीप समुद्रामें मावै नाहीं। वा तीन लोक वा असंख्यात. लोकमें मावै नाहीं । ऐ ताही एक पानीकी बूंदमें वा अग्निके तिनगामें तुच्छ पवनमें व प्रतियेक वनस्पती काइके अग्र भाग मात्र. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । wovvvvvvvvvvvvvvvv.x.vvvvww. गाजर, मूला, शकरकन्द, आधा फूल,मुंवारा, कूपल आद नरम वनस्पति विषै तासू अनंत गुना जीव पाईये हैं। सो ऐसा जान पाचौं थावरकी भी विशेषपनै दया पालनै, विना प्रयोजन थावर भी नहीं बिरोधना । अरु त्रस सर्व प्रकार नहीं विरोधना थावर की हिंसा बीचसे त्रसकी हिंसामें बड़ा दोष है । सो आरंभकी हिंसा बीच निरापराध जीव हतनका महा तीव्र पाप है । आगे दुवा इतका दोषको दिखाय है सो दुवायत विष दोय चार वरस पर्यंत स्याही रहै है । ता विषै असंख्यात त्रस जीव अनंत निगोद ऐसे सासता उपने है। सो यह नीलगरकै कुंडी साढस्य होय है। ताके हजार पांचसै वैभाग समान एक छोटी कुंडी ही है । या विर्षे जीवाकी हिंसा विशेष होय है तातै उत्तम पानीसों स्याही गाल प्रमाण सो लिखावा करै पीछे साझ समय वह स्याही मिहीन कपड़ामें सुखायले । प्रभात फेर भिंजोईये । ऐसे ही नित्य स्याही कर लेना ऐ प्रासुक है । यामें कोई प्रकार दोष नाहीं थोरौ प्रमाद छोड़वाकर अपरंपार नफा होय है। आगे धर्मात्मा पुरुषके रहनेका क्षेत्र कहीये है । जहां न्यायवान जैनी राजा होय नाज बलीता सोधा होय बिकलत्रय जीव थोरा होय । घरकी बा वारली फौजका उपद्रव न होय। सहरके दोन्यू गढ़ होय जिन मंदिर होय, साधर्मी होय, कोई जीवकी हिंस्या नहोष, बालक राजा ना होय, राज विषे बहु नायक न होंय, स्त्रीका राज न होय, पंच्याका स्थाप्या राज न होय, अनवैस बुद्धिके धारक राजा न होय औरकी अकलके अनुसार राजा कार्य न करै । नगर दोल्यू बिरानी फौजका घेरा न होय मिथ्यांती लोगांका प्रबल जोर न होय । इत्यादि दुःखनै Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कारण व पापनै कारण एसे स्थानक तानै दूर ही तजनै योग्य है । आगे श्री जैन मंदिर विषै अज्ञान वा कखाय कर चौरासी आक्षादान दोष लागै, अरु विचक्षण धर्म बुद्धि करि नहीं लागै ताका स्वरूप कहिये है । श्लेष मानापै नाहीं हास्य कौतूहल करे नाहीं। कलह करै नाहीं। कोई कला चतुराई करै नाहीं। नख चाम उपाड़ नाख नाहीं मलमूत्र छेपे नाहीं स्नान करै नाहीं गाली बोले नाहीं । केस मुड़ावै नाहीं । नोंह लिवावें नाहीं । लोहू कहावै नाहीं । गूमड़ा पीव आदि बिकार नाख नाहीं । नीला पीला पित्त नाखै नाहीं । बमन करे नाहीं। भोजन पान करै नाहीं ठांड़े दांत माहतूं अन्नादिक अस काढे नाहीं । सैनासन करै नाहीं । दांत मल, आंख मल, नख मल, नाक मल का? नाहीं । गलाका मैल, मस्तकका मैल, शरीरका मल, पगका मैल उतारै नाहीं । गृहस्थपनाकी बातें करै नाहीं । माता, पिता, कुटुंब, भ्राता, व्याही बहिन आदि लोक कि जनता श्रुश्रूषा करै नाहीं। सासु जिठानी ननद आदके पग लागै नाहीं । धर्म शास्त्र उपरांत लेखक विद्या न करै बांचै ही। श्रृंगारका चित्राम चित्रै नाहीं। कोई वस्तुका बटवारा करै नाहीं। दिव्यादिकका भंडार राखै नाहीं । अंगुली चटकावै नाहीं आलस करै नाहीं। भीतका आसरा लेबे नाहीं। गादी तकिया लगावै न हीं। पांव पसौर नाहीं । पग पर पग धरि बैठे नाहीं। छान्या थोप नाहीं। कपड़ा धोवै नाहीं, दाल दलै नाहीं, साल आदि कूटै नाहीं, पापड़ मुगौड़ी आदि सुखावै नाहीं, गाय भैस आदि तिर्यच बांधै नाहीं । राजाके भय करि भाज देहरै जाय नाहीं वा लुकै नाहीं 'रुदन करै नाहीं, राजा चोर स्त्री भोजन देश आदि विकथा न करें। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । भाजन गहना शस्त्रादि बनायें नाहीं । तिर्यचकी थापना करै नाहीं, रुपया मोहरीरत्न परखे नाहीं, प्रतमाजीकी प्रतिष्ठा हुवा पाछे. प्रतमाजीकै टांची लगावै नाहीं, और प्रतमाजीका अंगकै केसर चन्दन आदिका चरचन करें नाहीं, प्रतमानीके तले सिंघासन ऊपर वस्त्र बिछावै नाहीं ए भगवान सर्वोत्कृष्ट वीतराग है । ता 1 सरागता के कारण जे सर्व ही वस्तू ताका संसर्ग दूर ही तिष्ठो अरु कोई कुबुद्धी अपना मान बड़ायका पोखनेके अर्थ नाना प्रकार के सराताके कारण आन मिलावे है ताका दोषका कांई पूंछनी मुन महाराज कै भी तिल तुस मात्र गृहन न कहा तो भगवानकै केसर आदिका संयोग कैसे चाहिये । कोई इहां प्रश्न करे चमर छत्र सिंघासन कमल भी मने किया होता ताकूं कहिये है । सरागके कारण नाहीं प्रभुत्वताके कारण हैं जल करि अभिषेक कराईये है । सोये स्नानादि 1 विनयका कारण हैं जलकर अभिषेक कराइये है सो ये स्नानादि विषयका कारण है याके गंधोदकके लगाये पाप धोया जाय है अरु चंवर छत्र सिंघासन निराला है । जातें जो वस्तु विनयनै सूचती होय ताका दोष नाहीं । बिपर्य पनै कारण ताका दोष नि है । तातें भगवानका स्वरूप निराधार नहीं मानना उचित है ताही को पूजना योग्य है । बहुरि प्रतमाजीके हजूर वैठिये नाहीं । जो पग 1 दूने लगे तो दूर जाय बैठिये । कांचमें मुख देखिये नाहीं । नक चूटी आदिसूं केस उपाड़िये नाहीं । घरसौं जोड़ा पहरे वस्त्र बांध्या देह आवै नाहीं । पांउड़ी पहिरे मंदिर विषै गमन करें नाहीं । वा बेचै नाहीं वा मोल लेय नाहीं । देहराकी विक्षायण नगारा उनिशान आदि जावन्त वस्तु विवहारादिकके अर्थ बरतै नाहीं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । -~ -~~~~~~~~ ~~~~ ~ ~ ~~... अथवा देहराका द्रव्य उधार भी ना लेय । व पैसा दै मोल ना लेय । वा आप मनमें ऐसा विचारै, ए वस्तु ए द्रव्य देवगुरु धर्मके अर्थ है। पाछे वह वस्तु द्रव्य संकल्प किया माफक ना चहोडै । तौ याका अंश मात्र भी अपनै घर विषै रह्या हुवा निर्मायल सादृश्य जानना। निर्मायलका गृहनका पाप सादृश्य और पाप नाहीं। या पाप अनन्त संसारनै करै है नखसू ले मस्तक ताई शरीरका मैल उतारै नाहीं । ब्रती पुरुष सचित्त वस्तुसौ पूजा न करै । देहराकी भीतके आदि सरागपर नामके कारण ऐसा चित्राम न करावै । देव गुरु शास्त्रनै देखि तत्काल उठे। हाथ जोड़ नमस्कार करें। स्त्रीजननै एक साड़ी ओढ़ देहरे न आवै । ऊपर उपरनी आदि ओढ़ आवैअन पूजा विना देहराकी केसर चन्दन आदि तिलक नाहीं करै । स्नान व चन्दनका तिलक अरु आभूषणादि सिंगार बिना सरागी पुरुष तिनकौ पूजा नाहीं करनी । त्यागी पुरुषनै अटकाउ नाहीं । पूजा किया पाछे तिलक घोष नाखना । प्रतिमाजीके आगै चहोड़नी फूल सो आप सिरपर धरै नाहीं। वाकागृहण विषै निर्मायलका दोष लगै । गदिरा चौपर स्तरंज गंजीफा आदि कोई प्रकारके खेल न खेलै । वा होड़ नाहीं पाटै । देहरामें ववसाखा आदि अशुच क्रिया नाहीं करै। जुहार व्योहार आदि शृष्टाचार न करै। भांड क्रिया नाहीं करै । रे कारे नूं काखो कठोर वा तर्क लिये बचन वा मर्म छेद बचन मसकरी कुठा विषाद अदया मृषा कोई न रोकवौ । डांडवो इत्यादि बचन ना बोलै । कुलांट ना खाय पगाके दरबडी ना दाबै । हाड़ चाम केस आदि मंदिर विषै लै जाय नाहीं । मंदिरमें बिना प्रयोजन आह्या साह्या फिरै नाही.। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कपड़ा हुई स्त्री तीन दिन व प्रसूत हुई स्त्री डेढ़ महिना पर्यंत देहरा विषै जाय नाहीं । गुह्य अंग दिखावै नाहीं । खाट आदि बिछावै नाहीं। जोतिक वेदिक मंत्र मंत्र तंत्र न करै। जलक्रीड़ा आदि कोई प्रकार क्रीड़ा न करै । लूला, पागला, बिकल अंगी, अधिक अंगी, वा बन्या, अन्धा, बहिरा, गूंगा, काना, माजरा, सूद्र, वरणसंकर वर्ण पुरुष स्नान कर उजल कपड़ा पहिर श्री जिनको पखालादि अभिषेक कर अष्टद्रव्यसूं पूजा न करै अरु अपनै घरमूं विनयपूर्वक चोखाद्रव्य ल्याय कपड़ा पहिर श्री जिनके सन्मुख होय आगे धरि देय, पीछे नाना प्रकारकी स्तुति करि पाठ पठन नमस्कारादि करि उठ जाय ऐसी द्रव्यपूजा वा स्तुति पूजा करै । राते पूजा न करें। मंदिर{ चारों तरफ गृहस्थका हवेली घर ना होय । सो सर्वत्र मलमूत्र आदि अशुच वस्तु रहित पवित्र होय अनछान्या जल करि जिनमंदिरका काम करावै नाहीं । और जिन पूजन आदि सर्व धर्मकार्य विषै बहुत त्रस थावर जीवोंका घात होय सो सर्व कार्य तजनै योग्य है । ऐसे चौरासी आसादनाका भेद जानना । भावार्थ-जिन मंदिर विषै सर्व सावध योग लिया जो कार्य होय सर्व तजना । और स्थानक विषै पाप किया ताके निरवृत्य करनैकुं जिनमंदिर करिये है । अरु जिनमंदिर विष उपाया पाप ताके उपसांत करवाने और कोई समर्थ नाहीं भुगत्यां छूट है। जैसे कोई पुरुष किसी जनसूं लरे ताकी तकसीर राजा पास माफ करावै । और राजा सूं भी लड़ा ताकी तकसीर माफ करवाने ठिकाना, वाको फल बंदीखाना ही है । ऐसा जान निज हितमान जिहि तिहि प्रकार विनयरूप रहना । विनय गुन है सोधर्मका मूल Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । है। मूल विना धर्मरूपी वृक्षके स्वर्ग मोक्षरूपी फल कदाचि लगैं नाहीं। तीसूं हे भाई ! आलस्य छोड़ प्रमाद तजि खोटा उपदेशका वमन कर भगवानकी आज्ञा माफिक प्रवर्तो। घनी कहवाकर कांई ए तो अपना हेतकी बात है जामें अपना भला होय सोको करना, सो देखौ अरहंत देवको उपदेश तौ ऐसा है या चौरासी मांहिंसू कोई एक दोय भी लागै तौ नर्क निगोद जाय । अरु कुलिंग्या जिनमंदिरनै अपना घर सादृश्य करि गादी तकिया लगाय ऊंचा चौका चौकी बिछाय ऊपर बैठ बड़े महंत पुरुषानै पुजावै है याका फल कैसा लागैगौ सो हम नाहीं जानें है। अरु गृहस्थयाकी भूल कैसी, ऐसे महंत, पापके धारक, संसार समुद्र विषै खेवटिया बिना पत्थरकी नाव साद्रश्य ताकों सत गुरु मानें हैं धर्म रूपी अमोलक रत्न मुसावै हैं। तौ भी मान बड़ाईके अर्थ आपनै धन्य ही मानै है । बहुरि गृहस्थाने बरजोरी बुलाय भावना करावै है सो यह तो मुनिकी वृत्ति नाहीं मुनि तो भमरा कीसी नाईं उड़ता फूलकी बास ले फूलनै विरोधै नाहीं त्योंही उदंड उतरै । बिना बुलाया अनाची वृत्य भरे गृहस्थीके बारनै षड़ा छयालीस दोष बत्तीस अंतराय टालि उदासीन वृत्ति कर विरस अल्प आहार लेय तत्काल वनमें उठ जाय है। गृहस्थनै पीडै नाहीं ताका नाम भांवर वृत्ति कहिये है। अरु जा कुलिंगाकी भावना कैसी सो हमनै जानै । अणे चौथाकाल विष बड़े जिन मंदिर कराये अरु पांचवां काल विषै जिनमंदिर कराया ताका स्वरूप व फल वर्णन करिये है । चौथा काल विष बड़े धनाढ्यके अभिलाषा होती । मेरे बहुत दुःख ताकू धर्मके अर्थ कछू खरचाईये है । ऐसा विचार कर धर्मवुद्धी पाक्षिक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - श्रावक साद्रश्य महंत बुद्धिके धारक अनेक जैनशास्त्रके पारगामी बड़े बड़े राजान करि माननीक ऐसे गृहस्थाचार्य हुते ता समीप जाय प्रार्थना करै । हे प्रभु ! मेरा जिनमंदिर करायवे का मनोर्थ है आपकी आज्ञा होय तो मैं ए कार्य करूं। पीछे धर्म बुद्धी गृहस्थाचार्य कहै याका उत्तर प्रभात काल दूंगा । अवार तुम डेरै जावौ । पाछे वे गृहस्थाचार्य रात्रिनै मंत्रका आराधन करि सैन करै । पीछे रात्रिने स्वप्ना देखै सो भला शुभ स्वप्ना आया होय तौ या जानै ए कार्य निर्विघ्नताको पहुंचसी । अशुभ आया होय तो या जानै ए कार्य निर्विघ्नपनै होनेका नाहीं। पीछे गृहस्थी फेर आवै ताळू शुभ स्वप्ना आया होय तौ ए कहै विचारयासों करौ सिद्धि होसी । अशुभ आया होय तौ ए कहै थाके धन है सो तीर्थयात्रा आदि धर्मकार्य विष खरचौ । ए कार्य यासू होता दीसे नाहीं। जा कार्य बनि आवै सो ही करिये । अरु जो शुभ स्वप्न आवै तो यह कहिये प्रथम तो अपनै परिणाम विषै द्रव्यका संकल्प करै । ऐता द्रव्य मने याके अर्थ खरचना । पाछै जैसा परिणाम होय तैसा कार्य विचारेंगे। अर या द्रव्य विषै मेरा मंत्र नांही ताकू अलाधा एक जायगा धरै ऐसा नांही। कै परिमान किए बिना देहराके अर्थ अनुक्रमसों खरचै जाय सो याका परमान काई पहली तो परनाम भला होय ताकर बहुत द्रव्य खरचना विचारया है पीछै परिनाम घषि जाय या पुन्य घटि जाय तौ पूर्व विचार माफक खरच सकै नाही, बहुरि जहां मंदिर कराईये सो वह बड़ा नगर जहां जैनी लोग घना बसता होय ताके बीच आस पास दूर गृहस्थयाका घर छोड़ पवित्र ऊंची भूमिका दाम दै मोल लेय बरजोरी नांही लेय । पीछे, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । भला महूर्त देख गृहस्थाचार्य वाके ऊपर यंत्र मांडै । पीछे जंत्रका कोट्य विषै सुपारी अक्षत आदि द्रव्य धेरै । ताके धरनै कर ऐसा ज्ञान होय फलानी जायगा एता हाथ तलें मसानकी राख है। एता हाथ तलै हाड़ चाम है । पाछे वाकू खुदाय हाड़ चाम आदि अशुचि वस्तु परी काढ़े पीछे श्रेष्ठ नक्षत्र लग्न देखि नीव विष पाखान धेरै जी दिन विषै नीव लगावै ती दिनसू करावने हारा गृहस्थी ब्रह्मचर्य स्त्री सहित अंगीकार करै सो प्रतिष्ठा किये पीछे श्रीजी जिनमंदिर विषै विरानै तहां पर्यंत प्रतिज्ञा पालै और छान्या पानीसू काम करावै । चूनाको भट्टी घरै करावै नाहीं । प्राशुक ही मोल ले और कारीगर मंजूरांसू कामकी घनी ताकीद नाहीं करै । वाका रोजगार विषै कसर नाहीं करै । वाकै सदीव निराकुलता रहे ऐसा द्रव्य दै मंदिरका काम करावै । ईतौ धर्म कार्य विचारया है सो मोटा मोटा काम कराय चोखा काम होय है । मोटी वस्तु मोल लेय चोखी हाय है अर कृपणाता तन दुखित भुखितनै मदीव दान दे अर कारीगर मजूर चाकर आदि जे प्रानीजन ता ऊपर कोई प्रकार कखाय ना करै । सदा प्रसन्नचित्त ही रहै सारांकू विशेष हित जनावै । एक बांक्षवः कि कब श्रीजिनमंदिरकी पूर्णता होय । श्रीजिन विनयपूर्वक बिराजै और जिनवानीका व्याख्यान होय ताके निमित्त करि घना जीवाका कल्याण होय । जिन धर्मका उद्योत होय धर्मात्मा जीव ई स्थानक विषै धर्म साधन कर स्वर्ग मोक्ष विषै गमन करे और भी संसारका बंधन तोड़ि मोक्ष जावै । संसारका स्वरूप महा दुःखरूप है । सो फेर जिन धर्मके प्रताप करि न आऊं । बीतराग है सो स्वर्ग मोक्षके Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - फलनै शीघ्र दे है । ताते जिनदेवकी भक्ति परम आनंदकारी है। आत्मीक सुखकी प्राप्ति याही ते होय है ताते में खर्गादिकके लौकिक सुखने छोड़ि अलौकिक सुखनै वाक्ष हूं । और म्हारे कोई बातका प्रयोजन नाहीं । संसार सुखसू पूरै पड़ी धर्मात्मा पुरुषकै तौ एक मोक्ष ही उपादेय है। मैं हूं नै एक मोक्ष हीका अर्थी हूं । सो याका फल मेरे उपजै । भावार्थ-धर्मात्मा पुरुप तो एक मोक्ष हीने चाहै है । मान बड़ाई जस कीर्ति वा गौख वा स्वर्गादिक पुन्यफल नाहीं चाहै है। याकी चाह अधम पुरुषकै होय है याहीकी चाहके अर्थि जिनमंदिर करावै है सो वे जीव अधोगतनै ही जाय है । आगे प्रतमाका निर्मापनके अर्थ खान जाय पाखान ल्यावै ताका स्वरूप कहिये है । सो वह गृहस्थी महां उक्षावमूं खान जावै खानकी पूजा करै । पीछे खानकू न्यौत आवै । अरु कारीगरनै मेल आवै सो वह कारीगर ब्रह्मचर्य अंगीकार करै । अल्प भोजन ले उजल वस्त्र पहिरै । शिल्पशास्त्रका ज्ञानी घना विनयसूं टांकी करि पाखानकी धीरे धीरे कोर काटे। पीछे वह गृहस्थ गृहस्थाचार्य सहित और घना जैनी लोग कुटुंब परवारके लोग और गाजा बाजा बजाते मंगल गावते जिन गुणके स्तोत्र पढ़ते महा उत्सव सू खान जाय। पीछे फेरि वाका पूजन कर विना चामका संजोगकरि महा मनोज्ञ रूपा सोनाके कामका महा पवित्र मनकुं रंजायमान करनै वारा रथ विषै मोकली रूईका पहलामै लपेट पाखान रथमें धरै । पीछे पूर्ववत् महा उत्सवमूं जिनमंदिर ल्यावै । पीछे एकांत स्थानक विषै घना विनय सहित शिल्पशास्त्र अनुसार प्रतमाजीका निर्मापन करै ता विषै अनेक प्रकार गुण दोष लिख्या Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १०३ annanname namin है । सो सर्व दोषानै छोड़ सम्पूर्ण गुण सहित यथा जात स्वरूप निपुणता दोय चार पांच सात बरसमें होय । एक तरफनै तौ जिनमंदिरकी पूर्णता होय । एक तरफनै प्रतिमाजी अवतार धेरै पीछे घनै गृहस्थाचार्य पंडित अरि देश देशका धर्मी ताकू प्रतिष्ठाका महूर्त ऊपर कागद दै दै घना हेतसूं बुलावै । सर्व संघको नित प्रति भोजन होय और सर्व दुखितङ जिमावै नित प्रति अरु कोई जीव विमुख न होय रात्र दिवस ही प्रसन्न रहै । अरि कुत्ता बिलाई आदि तियच भी पोख्या जाय वे भी भूख्या न रहै । पीछे भला दिन भला महूर्त विषै शास्त्रानुसार प्रतिष्ठा होय । घनौ दान बटै इत्यादि धनी महिमा होय । ऐसी प्रतिष्ठी प्रतिमानी पूजना योग्य है । विना प्रतिष्ठी पूजना योग्य नाहीं । अरु जानें भोले सौ बरस पूजता होय तौ वा प्रतिमा पूजनै योग्य ही है। अंग हीन प्रतिमा पूज्य नाहीं उपंग हीन पूज्य है । अंग हीन होय ताकू जाका पानी कड़े टूटै नाहीं ता जल विष पधराय देना याका विशेष स्वरूप जान्या चाहौ तौ प्रतिष्ठा पाठ विषै वा धर्म संग्रह श्रावकाचार आदि और श्रावकाचार विर्षे जान लेना । इहां संक्षेप मात्र स्वरूप दिखाया है । ऐसे. धर्म बुद्धिनै लिया विनय सौ परमार्थके अर्थ जिन मंदिर बनावै है । वा नाना प्रकारके चमर छत्र सिंघासन कलस आदि उपकरन चहौड़े तो वह पुरुष थोरा सा दिनामें त्रैलोकी पद पावै । वाका मस्तक ऊपर भी तीन छत्र फिरें, अनेक चमर दुरै और इन्द्रादिक संसारीक सुखकी कहा बात ऐसे चौथा कालके भक्त पुरुष जिन मंदिर निर्मापै ताका फल व स्वरूप कया । अब पंचम काल विषै बनावै ताका स्वरूप कहिये है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । मानक या पन्ने लिया घना काल ताई ना रहै ऐसा अभिप्राय सहित व मत मतांतरका पक्ष न लिया गौरव सहित महंत पुरुषानै आ बिना अपनी इच्छा अनुसार जिन मंदिरकी रचना निहि तिहि नगर विषै वा निहि तिहि थानक विषै बनावै है । देहराके अर्थ द्रव्य संकल्प किये बिना द्रव्य लगावै है । वा संकल्प किया द्रव्यनै आपना गृहस्थपनाके कार्य . विषै लगावै है । अथवा नारियल आदि निर्माल वस्तु भंडार विषै एकठा करकै वाका द्रव्य लगावै है वा पंचायतीमें नाम मांडि बरजोरी गृहस्थान पै रुपया पइसा मंगाय लगावै पीछे भाड़े दै लेके अर्थ मंदिरके तले मोकली दूकानै बनावै। तिन वि कदोय छीया दरजी हरवान्या पसारी गृहस्थी आदि राख है । वा नाजसू हाट भर देसी। गृहस्थीतो उठै कुसीलादि सेवै; कदोई रात दिन भट्टी बालै नाजकी नामें जेता नाजका कनका तेता ही जी परै | सो ऐसा पाप जहां पर्यंत मंदिर रहै तहां पर्यंत हुआ करै । वाके भांडेका द्रव्य जिनमंदिरके कार्य लगावै वा पूजा करने वारे बहुर जिनमंदिर विषै कुलिंग्यानै राख घोरानघोर श्रीजीका अविनय करावै । उहां ही खाय उहां ही पीवै उहां ही सोवै वा मंत्र ज्योतिक वैद्यक कौतुक करै जुवा खेलै स्त्रीयांकी हांसी मसकरी करै । देहराराकी वस्तु मन मानी वर्ते । वा बेंच खाय आप पुजावै प्रतिमाजीका अविनय करै । गृहस्थाका घरा ले जाय ऐसा पाप कुलिंग्यानके करावै और कुलिंग्या देहरै आवै सो महा बिकथा कर पाप उपार्ने । प्रतिमाजीकी पूठ दै परस्परि पगा लागे । मालीकू दैन कि रोटी श्रीजीको चहोडै, रात पूजा करावै वा तीन लोकका Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। - - नायकनै मान बड़ाईका भरया प्रमादी हुवा बैठा बैठा पूजा करै । राजादिकनै तौ बैठनै पावै ही नाहीं तौ भगवानके निकट बैठना कैसे संभवै । अरु पूजा करता भगवानको अवलोकन छोड़ि स्त्री आदि नै देखै लुगायांकी खुसामदीके अर्थ माथासू ऊपर बारंबार जलधारा दिखावै । सो भगवानका दर्शन उपरांत जलधारा देखनैका उत्कृष्ट फल कह्या और पंडित जेती जेती अरु जेती पूजा गृहस्थानपै करावै ताका नेग मांग लेय । इत्यादि जेता कार्य होय सो अबिधि सौ होय और पुरुप जेता आवै तेता लौकिक बात करै । वारंवार परम्पर भृष्टाचार करै प्रतिमाजीका वा शास्त्रजीका अविनय ताकी खबर नाहीं और जाजम नगारा आदि देहराकी निर्मायल वस्तु ग्रंहस्थी अपना विवाहादि कार्य विषै लै जाय बरतै ऐसी विचारै नाहीं। यामें निर्मायलका दोष लागै है । इत्यादि जहां पर्यंत मंदिर हैं तहां पर्यत मंदिर विषै अयोग्य कार्य होय धर्मोपदेशका कार्य नाम मात्र भी नाहीं । तातें ऐसा मंदिर करावा बिना तौ नं कराया श्रेष्ठ था। याके पापका पारावार नाही। जे जे अन्यमती अविनय करै तैसा ही जैनी होय अविनय करै अरु मनमें ये मान राखै मैं जिनमंदिर कराया है सो मैं भी धर्मात्मा हौं । सो नाम मात्र धर्मात्मा है। सो याको फल तौ उदय आवसी तब खबर परसी। श्रेणिक महाराजा चेलना रानीकी हास्य करनै अर्थ कौतूहल मात्र मुन्याके गलामें मृतक सर्प नाख्या हत्यौ । सो नाखत प्रमाण ही सातवां नरकका आयु बंध किया। पीछे मुन्याका शांति भाव देखकर परिणाम सुलटना महां दरेग उपज्यौ । सम्यत्वकी प्राप्ति हुई । वईमान अंतम तीर्थकरकै निकट क्षायक सम्य Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । त्व पाय तीर्थकर गोत्र बांध्यौ सभानायक भया तौ भी कर्म सौं छूटो नाहीं नर्क ही लेगयौ । ऐसा परम धर्मात्मासूं कर्म गम्य न खाय । तो तीर्थंकर महाराजकै प्रतिबिंबका अविनय करै तासु गम्य कैसे खासी । ताते श्रेणिकजीका पाप वीच याका पाप अनंत गुना अधिक जानना । सो धर्मात्मा पुरुष ऐसा अविधि कार्य शीघ्र ही छांडौ । अरु केई विरले पुरुष पंचमाकाल विषै भी पूर्व ही अविधि कही ता बिना अपनी शक्ति अनुसार महा विनय सहित धर्मार्थी होय जिनमंदिर निरमापै है। नाना प्रकारके उपकरन चहौड़ें है। तो वह पुरुष स्वर्गादिनै पाय मोक्षके सुखका भोक्ता होय है। बहुरि आनमती राजा जिनधर्मका प्रतपक्षी त्याका दरबारसू नसायरका. चबूतरातूं पांच सात रुपैयाको महीना जिनमंदिरके जाचना करि पूजादिकके अर्थ रोजीना बंधावै है सो ए महापाप है। श्री जिनको अपनै परम सेवकादि बिना औरका द्रव्य लगावना उचित नाहीं। बैरीका पईसा कैसे लगाईये तातै धर्म विषै विवेकपूर्वक कार्य करना। आगे सर्व कुलिंग्याकी उत्पत्ति कहिये है। दस कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पणी काल, ऐता ही उत्सर्पिणी काल ताका नाम कालचक्र है। प्रथमा सुखमा चार कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण ता विषै मनुष्यकी आयु तीन पल्यकी, काय तीन कोस । दूना सुखमा तीन कोडाकोड़ी सागर ता विषै आयु दोपल्यकी, काय दोय कोस । तीना सुखमा दुखमा दोय कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण ता विष आयु एक पल्य, काय कोस एक चौथा दुखमा सुखमा व्यालिस हजार बरस घाट एक कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण कोटि पूर्व आयु, सवा पांचसै धनुष Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १०७ - काय । सो प्रथम चौदा कुलकरि भये। तहां पर्यंत नौ कोड़ा कोड़ी सागर ताई जुगलिया धर्म रह्यौ संयमका अभाव अरि दस प्रकारके कल्पवृक्ष ता करि दिया भोगताकी अधिकता बहुर पीछे अंतका कुलकर आदिनाथ तीर्थङ्कर भये सो जब प्रभु दिक्षा धारी तिनके साथ चार हजार राजा दीक्षा धारी सो ये मुनव्रतके परीखा सहवान असमर्थ भये नगर अयोध्यामें तो भरत चक्रवर्तिके भय कर आये नाहीं और वन फूल अनछान्या पानी भक्षण करने लगे तव बनकी देवी बोली रे पापी ! नग्न मुद्राधार थै अभख्यका भक्षण करौ है । थानै शिक्या है कि जिनधर्म विषै क्षुधादिककी परीखा न सही जाय तौ और लिंग धारौ पाछे वा भ्रष्टि ऐसा ही किया। कैई तौ जटा बांध्या, केई बभृत लगाया, केई योगी, कैई सन्यासी, कनफड़ा एक दंडी, त्रिदंडी, तापसी भये। कैयां लंगोटी राखी इत्यादि नाना प्रकारके भेष धरे पीछे हजार बरस पाछै भगवानकै केवलज्ञान उपज्या सो केतांई सुलट दीक्षा धारी, केतांईक वैसा ही रह्या ताकै नाना प्रकारके भेद भये बहुरि भरत चक्रवर्ति दान देना विचारा सो द्रव्य तो बहुत अरु लेनेवारे कोई मात्र नाहीं, तब सब नगरके लोग बुलाये अरु मार्गमें हरित तृण उगाये, कछु मार्ग प्रासुक राखा अरु पुरुषनको आज्ञा दीनी । ईठां अप्रासुक मार्ग आयौ तब निर्दयी है हृदय जाका ते तो बहुत लोग उस ही हरित ऊपर पग दै दै आये । अरु दया सलिल कर भीना है चित्त जाका ते उहां ही खड़े रहे आगे नाहीं आये । तब चक्रवर्ति कही इस मार्गसे आवो तब वा फेर कही हौं तौ सर्व प्रकार हरित कायकों विरोधौं नाहीं । तब भरतजी उस पुरुषने दयावान जान प्रासुक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । मार्गकी तरफ बुलाये । अरु बानें कह्या तुम धन्य हौ सुत हमारे दया भाव पाय ऐसौ अब हम कहैं सो तुम करौ । सम्यक दर्शनज्ञान चारित्रके चिन्हकी तौ तीन तारकी कंठ सूत्र कहिये जनेऊ कंठ विधै धारो अरु पाक्षिक श्रावकके 'धर्मको धारौ अरु गृहस्थ कार्यकी धर्मकी प्रवृति चलावौ अरु दान लेवौ दान देवो यामें कोई प्रकार दोष नाही था महा कर माननीक हो सोथौ वेही करता हुवा । सो गृहस्थाचार्य कहाये पीछे ए ब्राह्मन स्थाप केताई काल पीछे श्री आदिनाथ भगवानकों पूछा यह कार्य उचित किया कै अनुचित किया। तब भगवानकी दिव्यध्वनि विषै ऐसा उपदेश हुआ यह कार्य विरुद्ध किया । आगे शीतलनाथ तीर्थकरकै समय सर्व भ्रष्ट होसी आनमती होय जिनधर्मका विरोधी होसी पीछे भरतनी मनके विषै बहुत खेद पाय कोप करि याका निराकरन करता हुवा । सो वे होतव्यके वश करि प्रचुर फैलै । विक्षित्ति नाहीं भई फेर भगवानकी दिव्यध्वनि विषै ऐसा उपदेश हुवा ऐतौ ऐसे ही होनहार है, खेद मत करौ ऐसे ब्राह्मण कुलकी उत्पत्ति भई जानना, सोई अवै विप्र रूप देखिये है । बहुर अंतिम तीर्थकरके समय भगवानका मौस्याईता भाई ग्यारा अंगके पाठी मसकपूरन नाम भया ताकों महा प्रज्वलित कषाय उपजी त्याणे मलेक्ष भाषा रची। अरु मलेक्ष तुरकीको मत चल.यौ, शास्त्रका नाम कुरान ठहरायौ । जाकी तीस अध्याय ताका नाम तीस सिपारा नाम ठहराया ऐसे घोरानघोर हिंसा ही में धर्म प्ररूप्या सो कालका दोष कर प्रचुर फैले जैसे प्रलय कालका पवन करि प्रलय कालकी अग्नि फैलै ऐसे तुरकोंकी मतकी उत्पत्ति Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १०९. - जाननी । बहुर वर्द्धमान स्वामीनै मुक्ति गया पीछे इकईस हजार बरस प्रमान पंचमकाल ताके केताइक काल बरस अठाईसके अनुमान गया तब भद्रवाहु स्वामी आचार्य भये । ता समय केवली अवधिज्ञानकी विक्षित्ति भई । ताहीं समय एक चन्द्रगुप्तनाम राजा उज्जैनी नगरीका भया। तानै सोला स्वप्न देख्या ताकौ फल भद्रवाहु स्वामीनै पूछ्या तब वा जुदा जुदा स्वप्नका फल बतायो सो ही कहै। कल्पवृक्षकी टूटी डाहली देख वाकरि क्षत्री दीख्या भार छोड़सी । सूर्य अस्त देखवाकर द्वादसांगपाठीका अभाव होसी। चंद्रमा छिद्र सहित देखवा कर जिनधर्म विषे अनेक मत होसी, भगवानकी आज्ञासू विमुख होय घर घर मन मान्या मत स्थापसी । बारह फनहका सर्प देखवाकर बारह बरस काल पड़सी, यती क्रिया आचरणसं भ्रष्टहोसी। देव विमान आपूढा जाता देखवाकर चारन मुन कल्पवासी देव विद्याधरि पंचमकाल विष न आवसी । कमल कुंडा विष ऊंगा देखकर संयम सहित जिनधर्म वैश्य घर रहसी, क्षत्री विप्र विमुख होसी । नाचता भूत देखवाकर नीच देवका मान होसी, जैन धर्मसू अनुराग बन्द होसी । चमकता अग्निया देखवाकर निनधर्म कटै अल्प होसी, कोई समय घनौ घटसी कोई समय अल्प बधजासी, मिथ्यामतनै सेइसी । सूका सरोवर विषै दक्षिन दिशाकी तरफ तुच्छ जलकै देखवाकर दक्षिणकी तरफ धर्म रहसी, जहां जहां पंच कल्यानक भये तहां तहां धर्मका अभाव होसी । सोनाके पात्रमें स्वान खीर खाता देखवा करि उत्तम जनकी लक्ष्मी नीचनन भोगसी । हस्ती ऊपर कपि चढ़ा देखवाकरि राजा नीत छांड़ प्रजानै बांध टूटसी। वृषभ तरुण रथकै जुता Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । देखवाकर नवीन स्थानमें धर्म संयम आदरगी, वृद्धपनै सिथिल होसी । ऊंट ऊपर राजपुत्र देखवाकर यती परम्पर दोषी होसी। काला हस्तीका समूह लड़ता देखवाकर समय समय वर्षा थोरी होसी, मनमान्या मेघ न वरषसी । ऐ सोला स्वप्नाका अर्थ अशुभनै सूचता भद्रबाहु स्वामी निमित्तज्ञानकी बलसू राजा चन्द्रगुप्तनै याका अर्थ यथार्थ कह्या ताकर राजा भयभीत भया ऐसा स्वप्नाका फल सारा मुन्यां प्रसिद्ध जान्यों । ऐही सोला स्वप्ने चतुर्थ कालके आदि भरत चक्रवर्त्तिनै आये थे । सो वा भी याका फल श्री आदिनाथजीको पूछ्या । तब श्री भगवाननी दिव्यध्वनि विषै ऐसा उपदेशभया आगे पंचमकाल आवसी । ता विषै हुंडा सर्पनी काल देखकर अनेक तरहका विपर्ने होसी ता करि या भव विषै वा परिभव विषै जीवनै महा दुःखका कारण होसी । सोला स्वप्ना पंचमकालमें राजा चन्द्रगुप्तनै आए । अरि राजा चन्द्रगुप्त दीक्षा धरी तामें बारा फनका सर्प देखवां थकी बारा बरसको काल पड़ौ जान्यौ तब चौबीस हजार मुन्यौका संग छाड़ि यानै कही ई देशमें बारा बारा बरसको अकाल पडैलौ ये ठहरसी ते भ्रष्ट होसी, दक्षिणमें जासी ता मुनपद रहसी। अकालका अभाव होसी पीछे ऐसा उपदेश सुन भद्रबाहु स्वामी सहित बारा हजार मुन तौ दक्षिण दिशामें विहार किया । अब शेष बारा हजार मुनि इहां ही रहते अनुक्रम तै भ्रष्ट भये । पातर, डोली, पक्षेडी, लाठी राग्वते भये। ऐसे बारह बरस पूर्ण भये पीछे सुभिक्ष्य काल भया तब भद्रबाहु स्वामी तो परलोक विषै पधारे और दक्षिण दिशातें सर्व मुन आए याकी भ्रष्ट अवस्था देख निंद्या तब केता तौ प्रायश्चित्त दंड लै छेदो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १११ स्थापित कर शुद्ध हुवा अरु केताइक प्रमादका बशीभूत हुवा विषय कषायके अनुरागी धर्मसूं शिथिल हुवा अरु कायरपनाने धारता हुवा अरु मनमें चितवन करता हुवा यह जिनधर्मका आचार तौ अति कठिन तातें मैं ऐसे कठिन आचारन आचारवे समर्थ नाहीं। ऐसा ही भ्रष्ट होते होते सर्व भ्रष्ट हुआ अरु अनुक्रम अधिक भ्रष्ट होते आए सो प्रतक्ष अबै देखिये है बहुर ऐसेई काल दोष कर राजा भी भ्रष्ट हुवे अरु जिनधर्मका द्रोही होय गये। ऐसे ऐसे सर्व प्रकार धर्मकी नास्ति होती जान जे धर्मात्मा गृहस्थी रहे थे ते मनमें विचार करते हुए अब काईं कर नौ के वली श्रुतकेवली ताकौ तौ अभाव हुआ अरु गृहस्थाचार्यपूर्व ही भ्रष्ट भये थे अब राजा अरु मुन भी भ्रष्ट भये सो अब धर्म किसके आसरे रहै । तासूं अपने धर्म राखने सौ अबै श्रीजीकी ढ़ीला ही पूजा करौ अर ढ़ीला शास्त्र यांचौं । अरि कुवेष्यांने जिन मंदिर बाहरै निकास दियौ । जे भगवानका अबिनय बहुत करै आपको पूजावै अरि देहरा घर सादृश्य कर लिया । सोया बातका महत पाप जान जे ग्रहस्था धर्मात्मा कुवेप्यां हलाहल समान खोटा 'धर्मका द्रोही जान वाका तजन किया अरु श्री वीतराग देव सों अर्ज करते भये, हे भगवान ! तौ थाका बचना के अनुसार चला तातै तेरापंथी होते सिवाय और कुदेवादिककौ हम नाहीं सेवै है, वाका सेवन नर्कादिकके कारन है अरु तुम स्वर्ग मोक्षके दाता हौ तातें तुम ही देव हौ, तुम ही गुरु हौ, तुम ही धर्म हौ तातै सेव हों और नाहीं मे त्रौं हौं । तुमें न सेवै है सो वह तुमा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । हरामखोर है । जो ई तेरापंथी सो तुम्हारे आज्ञाकारी सेवक हैं । अरु तुमनै छोड़ तुम्हारे प्रतपक्षी हैं, कुदेवादिकको सेवै हैं सो वह हरामखोर है सो हरामखोरी उपरांत संसारमें पाप नाहीं सो वे हरामखोर नर्कादिकके दुःख पावै ही पावै । बहुरि मत होय है सो देवके नाम होय है वा गुरुके नाम होय है सो तेरा प्रकारके चरित्रके धारक ऐसे निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरु ना माने । अरु और परग्रहधारी गुरुकौ नाहीं मानै ताते गुरुकी अपेक्षा भी तेरापंथी संभव है। अरि तेरा प्रकारके चरित्र पालनै वारे पूर्व गुरु वर्य ता. को भी मानै । अरु सप्त बिसनकै सेवन हारे तीव्र कखाय ताके. अवलोकन किये ही भै उपजै मानूं अवार ही प्रान हरैगें ऐसे भयकरि कूरि दृष्टि स्त्रीकेरागी मोह मदराके पान कर उन्मत्त भये । इंद्री विषयके अत्यंत लोलपी मोलके चाकर सादृश्य ते गुरु कहिये है । अरु देवोंके मानसीक आहारकी इच्छा भये कंठमासौ अमृत अवै ताकरि तृप्ति होय ताकौ कहिये है। सो चार प्रकारके देव देवांगना ताकै पाइये है । बहुरि मज्जा आहार वीर्य नामा धात शरीरकै सहकारी होय ताकौ कहिये है । सो पंखींनके अंडे ताकें पाईये है सो पंखी गर्भ मासूं अंडा धेरै है वे केते दिन पंखीं कवला आहार विना ही वृद्धिनै प्राप्त होय है । सो वा विषै बीर्य धात पाईये है ताके निमित्त करि शरीर पुष्ट होय है। कोईके हस्तादिक लगायै वीर्य गल अंडा गल जाय है। बहुरि लेय आहार सर्वांग शरीर विष व्याप्त होय ताकौ कहिये है सो एकेन्द्रियादिक चौ थांवराकै पाइये है। जैसे बिरष मृतका जलको Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ११३ नड़से तो खेंच सर्वांग आचारवे कौ समर्थ है तीसौं अबै सुगम कर या माफिक प्रवरति करिस्यां अरु काल पूर्न करिस्यां । पीछे ऐसा उपाय करता हुवा या जिन प्रतीत शास्त्रका लोप करि जामें अपना मतलब सधै । विषय करवाय पोख्या जाय ती अनुसारने लिये। पेंतालीस शास्त्र पंडिताईका बल कर मनो कल्पत गूंथे । अरु ताका नाम द्वादसांग धरया ता विषै देव गुरू धर्मका स्वरूप अण्यथा लिख्या । देव गुरुकै परग्रह ठहराय धर्म सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र विना उपवासमें जल मिष्टानादि लैना काय कलेश वीतराग भाव बिना स्थापन कीन्हैं । सो किया तब तौ लंगोटी पिछौड़ी भोजनका पात्र ये तीन राखेथे द्रव्यादिककै अभाव था पीछे ज्यों ज्यों काल आवता गया त्यों त्यों बुद्धि विशेष रागभावनै अनुसस्ती गई ताही माफक द्रव्य असवारी आदि परिगृह राखते भये । मंत्र जंत्र जोतिष वैद्यक करि मूर्ख गृहस्त लोकानै बस करते भये । आपना विषय कखायनै पोखते हुवे ता विषै भी कखायोंके तीव्र वसीभूत हुवे तपालो बीजमत परतरा आदि चौरासी मत स्थापै । पीछे विशेष काल दोष करि शास्त्रमाहिका मत विष ही मारवाड़ देश विषै एक चेला लड़कर ढूंटार विषै जाय पीछे ढूंटया मत चलाया । अरु पेंतालीस शास्त्र माहिं बत्तीस ही शास्त्र राखे ता विषै तौ प्रतमाजीका तो स्थापन है। पूजनका विषै फल लिख्या है आकृतम चैत्यालय वा प्रतमाजी तीन लोक विषै संख्यात है। ताका विशेष महिमा वर्णन लिख्या है। परंतु हिन्दू मुसल्मान दिगंबर वा श्वेतांबरसू दोष पालनैके अर्थ प्रतमाजीका वा जिन मंदिरजीका जिन थापन किया । सो काल दोष कर वा मतिकी बृद्धि प्रचुर फैल Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | गई। सिद्ध धर्म की प्रवर्त्त बरजोरी भी चाल सकें नाहीं हिंसा ही प्रतिक्ष देषिये ऐसे श्वेतांबरमती उतपत्ति भई । याकौं विशेष जान्या चाहौ तौ भद्रबाहु स्वामी चरित्र विषै देख लेना । बहुर पीछे अविशेष बुद्धि सुद्ध दिगंबर गुरू रहे थे ते केताईक काल पर्यंत तौ वाकी भी परपाटी सुद्धि चली आई | पीछे काल दोषके बसतें 1 कोई भ्रष्ट होने लागे सो बनादिकनै छोड़ रात्रि समय भयके मारे नगर समीप आ रहे हुवे पाछे वा विषै शुद्ध मुनराज थे ते निंद्या करते हुए हाय हाय या कालकौ दोष मुनकी सिंहवृत्त था सो - स्यालवृत्त आदरी सिंहनै बनके विषै काहेका भय । त्यों मुन्यांनें काहेका भय स्याल रात्र के समय नगरके आसरे आय विश्राम लें त्यों ही स्यालवृत जे भ्रष्ट मुन नगरका आसरा ले हैं, प्रभात समय तो सामायिक करवे कौ वैठसी अरु नगरकी लुगायां गोवर पानी के अर्थ नगरके बाहर आवसी सो याकी वैराग्य संपदाकू लूट लै जासी तब निधर्न होय नीच गति विषै जाय प्राप्त होसी अरु लोक विषै महां निंद्याने पावसी । सो नगरके निकट रहने कर ही भ्रष्टताने प्राप्त होवै । सो और परग्रह धारक गुरूकी कहा बात । सो वे गुरू भी ऐसा ही भ्रष्ट होते होते सर्व भ्रष्ट हुवे । अरु अनुक्रमते अधिक अधिक भ्रष्ट होते आए सो प्रतक्ष अब देखिये है । बहुर ऐसे ई काल दोष कर राजा भी भ्रष्ट होते आये सर्व भ्रष्ट हुवे । अरु जिन धर्मका द्रोही होय गये सो ऐसे सर्व होती जान देख धर्मात्मा गृहस्थी रहे थे ते - हुवे अब काई करनौ केवली श्रुतकेवलीका तो अभाव ही हुवा अरु गृहस्थाचार्य पूर्व ही भ्रष्ट भये थे । अरु राजा अरु मुन भी 1 प्रकार धर्मकी नास्ती मन विचार करते 7 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सर्व भ्रष्ट भये सो अब धर्म किसके आसरे रहै । तातें अपने धर्म राखने सू अबै श्रीजीकी ढीला ही पूजा करौ अरु ढीला ही शास्त्र बांच्यौ अरु कुवेष्यानै जिन मंदिर बाहरै निकार द्यौ। ए भगवानका अविनय बहुत करै । आपको पुनावै अरु देहराको घर सादृश्य कर लिया बातका महत पाप जति । ये गृहस्थी धर्मात्मा कुवेष्याने हलाहल खोटा धर्मका द्रोही जान वाका तजन किया । अरु श्री वीतराग देव सूं अरज करते भये । हे भगवान म्हां तौ थाका बचनाके अनुसार चाल हों तातै तेरापंथी होते सिवाय और कुदेवादिककौं हम नाहीं सवै है । वाका सेवन नर्कादिकका कारण है । अरु तुम स्वर्ग मोक्षके दाता हौ ताते तुम ही देव हो तुम ही गुरू हौ तुम ही धर्म हौ तातै तुम ही नै सेवौ हौ । और नै नाहीं सेवौ हौ ताते तुम ही नै सेवौ सो तेरापंथी सो म्हां तुमारौ आज्ञाकारी सेवक हौ अरु तुमनै छोड़ तुम्हारे प्रतपक्षी है कुदेवादिक ताको सेवै है सो वह हरामखोर है इस उपरांत संसारमें नाही. सो हरामखोर नर्कादिकके दुःख पावें है पावें बहुर सत होय है सो देवनके देव होय हैं वा गुरूके नाम होय है । सो तेरा प्रकारके चारित्रके धारक ऐसे निरग्रंथ दिगंबर गुरु ताकौ ही मानैः । अरु और ही परीग्रहीको नाही. मानै ताते गुरूकी अपेक्षा भी तेरापंथी संभव है । अरु तेरा प्रकारके चारित्रके पालनै वारे पूर्व गुरू भये ताको भी मानै । अरु विश्नुके सेवन वारे तीब्र कखाय ताके अवलोकन किये ही भय उपनै मानूं अवार. ही प्रानकू-हरेंगे ऐसे भयंकर कृरि दृष्टि सीके रागी मोह मदराका पानकर उन्मत्त भये इन्द्रीनके अत्यंत Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । otoपी मोलके लिये चाकर साद्रश्य ताकौ भी मानै । अरु श्रावक देवादिक मानै तातें सर्वपंथी कहिये है। ऐसे याका अर्थ जानता सो तेरापंथी तौ अनादि निधन जिनभाषित शास्त्रके अनुस्वार चले आऐ है । अरु जेते कुमत चालै है सो रिखभनाथ तीर्थकी आदतें अब पर्यंत त्यों त्यों तेरापंथीकी पांत वारे निसरते गये। अरु आनमतमें परते गये तैसे दुग्ध घना ही चोखा था परंतु मदराके भाजनमें जाय परे सो वे दुग्ध अलनि कर गया । अब भले मनुष्य कैसे गृहन करें त्यों ही शुद्ध जैनी होय कुगुरू कुदेव कुधर्म सोई भये अलीन भाजन ताकों अंगीकार करे । ताकौ सत्पुरुष जैनी कैसे मानें जैनी तौ सोही है। जो जिनदेव सिवाय और किसहीने न मानें । ताकी लालन पालन नाहीं कर । जैसे शीलवंती स्त्री होय अपने कामदेव से भरतारकों छोड़ अि नीच कुलके उपजे भ्रष्ट पुरुष ताकौ लालन पालन नाहीं करै । अरु वाका लालपाल करै तौ शीलवंती काहेकी । हमारी मां अरु बांझ ऐसे कहता संभव नाहीं । ऐसा बचन कोई कहै है तौ बाकों बावला मतवाला जानिये स्याना नाहीं त्योंही जैनी होय । जिनदेवको भी सेवै है अरि कुदेवादिकको भी सेवै वाको भी भलौ जाने है । वे पुरुष स्त्री मदरा पीय बावरे कैसी चेष्टा करे है । तातें बावरेका बचन प्रमानीक नाहीं । तातें देव अरिहंत गुरू निग्रंथ धर्म जिन प्रनीत दयामई मानना उचित है । यही मोक्षमारग है अन्य मोक्षमारग नाहीं । केई अज्ञानी और प्रकार भी मोक्षमारग माने है सो वे कांई करे है सर्पका मुख थकी अमृत चाहै है । वा जल विलोय घृत काढया चाहे है। बालू Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । रेतको पेर तेलकी अभिलाखा करै हैं । वा अग्निके विषै कमलका बीन बोय वाकी शीतल छायामें बैठ आराम किया चाहै है । इत्यादि विरोध कार्य किये फलकी निष्पत्ति, होय नाहीं भ्रम बुद्धि कर मानिये तो म्हां कष्ट ही उपनै । ऐसा प्रयोजन जानना। आगे श्वेतांबर दिगंबर धर्मसों विरोध चौरासी अछेरा मान है। तिनका नाम व स्वरूप वर्णन करिये है। केवलीकै केवलाहार मानै ऐसा विचार करै नाहीं । संसार विषै क्षुधा उपरांत और तीब्र रोग नाहीं अरु तीब दुःख नाहीं अरु जाकै तीब दुख पाइये तो परमेश्वर काहेका संसारी सादृश्य ही हुवे तो अनंत सुखपना कैसे संभवै । अरु छयालीस दोष बत्तीस अंतराय रहित निर्दोष आहार कैसे मिलै । केवली तौ सर्वज्ञ है सो केवली. तौ दोषीक निरदोषीक वस्तु सर्व दीसै । अरु त्रिलोक हिंस्यादि सर्व दोष मई भर रहै है। तौ ऐसे दोषको जानता सुनता केवली होय .दोषीक आहार कैसे करै मनु महाराज भी सदोष अहार न करै तो सर्व मुन्यां कर सेवनीक त्रलोकनाथ इक्ष्या विना सदोष अहार कैसे लहे । अरु एक अहार पीछे क्षुधा १ त्रषा १ रोग १ दोष १ जन्म जरा १ मरण १ शोक ' भय १ विष्मय १ निद्रा १ खेद १ स्वेद १ -मद १ मोह १ अरति १ चिंता १ ए अठारा दोष उपजे तौ ऐसे अठारा दोषके धारक परमेश्वर अन्यमती साद्रश्य परमेश्वर होय गये । अरु यहां कोई प्रश्न करै तेरहां गुणास्थांन पर्यंत आहार अनाहार दोनों कहा है। सो कैसे ताका उत्तर यह जो आहार छै प्रकारका है। कवल १ मानसीक २ ओझ ३ लेय ४ कर्म ५ नोकर्म ६ । ताकौ अर्थ लिखये है सो कवल नाम मुखमें ग्रास Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । लेंनेंका है। सो बेंद्रीं तेंद्री चौइन्द्री असैनी पचेन्द्री येतौ तिर्यंच अरु मनुष्य नारकीनकै पाइये अरु मानसीक आहारकी इक्ष्या भये कंठमांसू अमृत अवै ताकर तृप्ति होय ताकौ कहिये। अरु उज्झा आहार पंखीनके अंडेन कर पाईये है। सी पक्षी गर्भमासू बाहर अंडा धेरै है वे केते दिन अहार बिना ही बृद्धिनै प्राप्त होय सो वा विषै वीरज्य धान पाइये है । ताके निमित्त कर शरीर पुष्ट होय है। कोईके हस्तादिक लगाय वीर्य्य गलि जाय है। बहुरि लेय आहार सर्वांग शरीर विषै व्याप्त होय । ताकौ कहिये है. सो एकेंद्री पांचौ थावरकै पाइये है। जैसे वृक्ष मृतका जलकौजड़सेती खेंच सर्वांग अपनै शरीररूप परनवावे है । सो यह चार प्रकारके आहार तौ छुध्याके निवृत्त करनैका कारण है। बहुर नौकर्म अहार छै सो पर्याप्ति पूर्ण करनैका कारण है । सो समय समय सर्व जीव नौकर्म जातकी वर्गनाका ग्रहन करै । प्राप्त रूप परनवावै है सो कारमान कायका तीन समै अंतरालके छोड़ वा केवलीका समुद्घात विषै प्रतरके काल जुगलका दो समय पूरण कर । एक समय बिना, आयुका अंत समय प्रजंत त्रिलोकके सर्व जीव सिद्ध अर अयोग्य चौदहां गुणस्थानवी केवली या गुन लहै । ताकी अपेक्षा तेरा गुणस्थान पर्यंत आहार कहा है। सो तो हम भी मानै है परंतु कवला आहार छटौं गुणस्थान पर्यंत ही है । ताते आहार संज्ञा छटां गुणस्थान पर्यंत कही है । मानसीक आहार चौथा गुणस्थान पर्यंत ही है । ओझा लेय प्रथम गुणस्थान विषै है है बहुर करम आहार आगै कारमानके ग्रहण करनेका है । सो यह संसारी जीव सिद्ध अयोम केवली बिना Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ११९ - प्रथम गुणस्थानतें लगाय तेरमा गुणस्थानके अंत समय पर्यंत आयु सहित आठवां आयु विना सातवां मोह बिना: । या साता वेदनी एक करमका ग्रहण करै है। ऐसे षट प्रकारके आहारका स्वरूप जानना । तातें केवलीके कवलाहार संभवै नाहीं अर जे पूर्वापर विकल्प कर रहित हैं ते मानें हैं । स्वेतांबर मत विषै भी आहार संज्ञा छटां गुणस्थान पर्यंत ही कही है। मोहका माता अहंकारका पक्षनै लिये वाका बिचार ही करै नाहीं। यह आहार कैसा है ऐसा बिचार उपजे नाहीं सो यह न्याय ही है । अपनै औगुण ढाकनैं होय तब आपसूं गुनकर अधिक होय ताकौ औगुण पहली स्थानपै । तैसे सर्व अन्यमत्यां आपने विषयभोग सेवनै आया । तब परमेश्वरकै भी विषयभोग लगाय दिया । त्योंही श्वेतांबर अपने एक दिन विपें बहुत बेर तिर्यचकी नाईं आहार करता आया तातें केवलीके भी आहार स्थाप्या सो धिक्कार होहु । राग भावांकै ताई अपनै मतलबके वास्तै ऐसे निरदोष परम केवली भगवान ताकौ दोष लगावै है । ताके पापकी बात हम नाहीं जाने कैसे पाप उपनै सो ज्ञानगम्य ही है। बहुर केवलीको रोग। केवलीकै निहार । केवलीकों केवली नमस्कार करै । केवलीको उपसर्ग प्रतमाकै भूषण ६ । अरु तीर्थकर स्तुति पढ़े ७ । तीर्थंकर पहली देसना अहली जाय ८ । महावीर तीर्थकर देवानंदी ब्रह्मानीकै घर अवतार लियौ पाछै इन्द्र वाका गर्भ में काढ़ त्रसलादे रानीके गर्भ विष जाय मेला पीछे वाके गर्भथकी जन्म लियो ९ । आदनाथ भाई सुनन्दा बहन जुमलिया १० । सुनन्दा बहनको आदनाथ परनी ११ । केवलीकों छींक आवै १२ । सुदकर ब्राह्मण Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ज्ञानानन्द श्रावकाचार। मिथ्यादृष्टिको गोतमें लीसां भाग गया १३ । स्त्रीको महांवृत पलै १४ । स्त्रीको मुक्त १५ । तीर्थकरने दीक्ष्या समय इन्द्र स्वेत वस्त्र आनंदे सो मुन अवस्थामें पहरे रहे १६ । प्रतमानीकै लंगोट कंदोरा कोधिहू १७ । श्रीमल्लिनाथजीको तीर्थकर स्त्री पर्याय मानै १८ । जुल्याकै छोड़ी कायकर देव भरतक्षेत्रमें ल्याये । चौथा कालके आद तासों फिर जुगल्यौ धर्म चलसी १९ । जुगलिया सो हरिवंश चल्यौ ॥२०॥ जतीके चौदा उपकरन २१ । मुनशुवृत्ति तीर्थकरकै घोड़ौ गनधर हुवौ २२ । मुन श्रावकका घरसों आहार ल्यावै । अरु घरका किवाड़े जोड़ खावै ॥२३॥ अरु दूनौ अहार करै ताका अर्थ यह जौ कोई साधु अहार विहार ल्यिाय हौ आहार किये पाछै अवशेष बाकी रहौ ते अहारकों बेला आद घनौपवासके धारी और कोई साधु होय ताका घेटमें खवाय दीजिये तो दोष नाहीं । साधुको उदर छै सो रोटी समान छै। भावार्थ-वेला आदि घनौपवासा विवै और साधुको बच्यौ भोजन लैनौ उचित है यामैं उपवासका भंग नाहीं औ निरदोष आहार छै ॥२४॥ नौ पानी आहार करै ताका अर्थ । यह जो जलकी बिधि नाहीं मिलै तौ नित पी अर त्रषा बुझावै । साधाको कैसो स्वाद अरु नौजातका बीधैका भेद सो। घृत १ दुग्ध १ दही १ तेल १ मीठा १ मदमांस १ सहत १ एकेबोरे । अथवा कोई श्रावकानै पानी आहार पचाया होय सो भी साधुको लेना उचित है ॥२५॥ निंद्यक मारयांका पाप नाहीं ॥२६॥ जुगला भी मर नर्क भी जाय ॥२७॥ भरतनी ब्राह्मनी भागनी भागनीको परनैके अर्थ अपनै घरमें नाखी ॥२८॥ भरतनी गृहस्त Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १२१. अवस्था विषै महला आभूषण पहरया, भावना भावता केवलज्ञान उपज्यौ ॥२९॥ महावीर जन्म कल्याणिक विषै बाल अवस्था विषे ही पगके अंगुष्टा सौ सुमेरु कंपायमान कियो ॥३०॥ पांच पंडवाकी द्रौपदी स्त्री पंच भरतारी शीलवंती महासती हुई ॥३१॥ कूवडया चेलाकै कांधे गुरु चढ़ा । और गुरू यों याका दंड किया की चेलाकै माथामें देते जाय । तब चेले छमाय तब छिमाके प्रभाव करि चेलाको केवलज्ञान उपज्यां तब चेला सूधागमन करने लगा। तबै गुरा फुरमाय कोई चेलां सूधा गमन करनै लागा । सो तौनें केवलज्ञान उपज्या तब चेलै कही गुराके प्रशाद ॥३२॥ अरु नै माली जातको माली सो महावीर तीर्थकरकी बेटी परन्यौ ॥३३॥ कपल नारायणनें केवलज्ञान उपज्यौ तब कपिलनारायण नाच्यौं थातकी खंडको यह आयौ छै ॥३४॥ बसुदेवकै बहत्तर हजार स्त्री हुई॥३५॥ मुनीश्वर स्पर्श सूद्रके घर आहार लेय अर कोई मांसादिक वैराया होय तौ साधु ऐसा विचार करै सो साधकी वृत्ति तौ ये है । बहरावै सोई लैना अरु दिभाया पीछे परथी उपरै खैपिय तो वह जीवकी हिंसा होय । तातें भक्षण ही करना उचित है पीछे गुरु खैपाका दंड प्रायश्चित ले लेंगे।॥३६॥, देवता मनुष्यनिसो भोग करें सो सुलसा श्रावकनीकें देवसौ वेटौ हुवौ ॥३७॥चक्रवर्तीकै छह हजार स्त्री हुई ॥३८॥ त्रिपिष्टनारायण छीपाकी कुल विषै उपज्यौ ॥३९॥ बाहुबलकौ सवापांचसै धनुष शरीर उतंग नहीं मानें घटि मानै ॥४०॥ अनार्य देश विष बर्द्धमान विहार करम कियौ ॥ ४१ ॥ चौथे अरु असंजमीको जति पूनै ॥४२॥ देवकों एक कोस मनुष्यको चार कोसा बराबर Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । छ ॥४३॥ प्रानजातै प्रानकी रक्षाके अर्थ वृतिभंग कीजे तौ दोष नाहीं उपास माहै ओषध खानै तौ दोष नाहीं ॥४६॥ समोसरनमांही तीर्थंकर केवली नगन नाहीं दीसै कपड़ा पहिरै दीसै ॥४६॥ जती हाथमैं डांडो राखै ॥४७॥ मरुदेवी मातानें हस्ती ऊपर चढ़या केवलज्ञान उपज्यों ॥४८॥ भावार्थ-द्रव्यी चारित्र बिना केवलज्ञान उपनै ॥४९॥ चांडालादि नीचकुली दिक्ष्या धेरै मोक्ष जाय ॥१०॥ चन्द्रसूर्य मूल बिमान सहित महावीरस्वामीकौ बंदवा आये ॥११॥ पहला स्वर्गका इन्द्र दूजा स्वर्गको जाय स्वामी होय ॥५२॥ अरु दूजा स्वर्गका इन्द्र पहला स्वर्ग । मी ॥५३॥ जुगल्याको शरीर मुवा पीछे पढ़ाना रहै ॥ १४ ॥ जिनेश्वरका मूल शरीरको दाग देय ॥१५॥ श्रावग जतीको स्त्री आन थिरता करावै तौ असतको दोष नाहीं उपजै । जती श्रावगका विकारकी बाधा मिटी ॥ ५७ ॥ अठारा दोष सहित तीर्थकरको मानै ॥५८॥ तीर्थकरके शरीरसुं पांच थावरकी हिंस्या होय ॥१९॥ तीर्थकरकी माता चौदा ही स्वप्ना देखे ॥६०॥ स्वर्ग बारा ॥३१॥ गंगादेवीसूं भोगभूमिया पंचांउन हजार प्रनंत भोग भोग्या ॥६२॥ अरु बहत्तर जुगल प्रलयकाल समै देव उठा लै जाय ॥६२॥ बमठाका पानी निरदोष ॥६४॥ घृत पकवान व खरी रसोई वासी निरदोष है ॥६५॥ महावीर भगवानका माता पिता भगवान दीक्षा लिया पहली पर्याय पूरी कर देवगति गये ६६॥ बाहुबलं मुगलकौ रूप ॥६॥ सारा जो फल खाया दोष नाहीं ॥६८॥ जुगल्या परस्परै लेरै कखाय करै ॥६९॥ त्रेसठ शलाका पुरुषांकी निहार मान॥७॥चन्द्र चौसठ जातके मानें ॥७१॥' Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | १२३ जांदवा मास भक्षौ ॥ ७२ ॥ मानषोत्तर आगे मनुष्य जाय ॥ ७३ ॥ कामदेव चौवीस नाहीं मानें ॥७४ || देवता तार्थंकरका मृतक शरीरका मुख माहेकी डाढ़ उपाड़ स्वर्ग लै जाय पूजै ॥ ७५ ॥ नाभि राजा मरुदेवी जुगलिया ॥ ७६ ॥ नव ग्रेवेयकका वासी जीव देव अनुसनौ पर्यंत जाय || ७७ || चेल्यों आहार ल्यायौ सर्वग्य सेवाका पाता पातरामै थुको । चेलै गुर जूंठ उत्तम जान खाय गयो । तातें केवलज्ञान उपज्यौ || ७८ || अरु शास्त्रकौं बांचन वेठनेकौ चौका पटा ताके नीचे धरि देय, या शास्त्रको सिरानें दे सोवै अरु या है ऐ तौ जड़ है । याका कहा बिनय करिये अरु प्रतमाजीको कहै यह भी जड़ है याका कहा विनय करिये । अरु प्रतमाजीको भी कहै यह भी जड़ है याकौ पूजै वा नमस्कार करें कहा फल होय ॥ ८० ॥ अरु कुदेवादिक के पूजवामें अटकाव नाहीं वह तौ गृहस्तपनाको धर्म है ॥ ८१ ॥ अरु औराने तौ कहे धर्मके अर्थ अस मात्र भी हिंसा कीजे नाहीं । अरु मान बड़ाईके अर्थ सैकरा स्त्री पुरुष चैत्र मास आदि तीन ऋतु विषै गारा खूदता खूदता असंख्यात वा अनंत त्रस थावर जीवकी हिंस्या कराय अपने निकट बुलावै व आपको नमस्कार करावे व चालता हुवा बी जाय । आवता पांच सात कोंस ताई जाय । इत्यादि धर्म अर्थ नाना प्रकारकी हिंसा करे ताका दोष गर्ने नाहीं । अरु मूढ़े पाटी राखे कहै पवनकायकी हिंसा होय है । सो मुखका छिंद्र तो सासता मुदित रहै है अरु बोलें भी मूर्खकी आड़ी सांसोंसांस निकसता नाहीं । सांसतौ नाककी आड़ निकसे है। ताके तौ पाटी दे नाहीं । अरु मूढ़ाकी लालसों असंख्यात त्रस जीव उपजै ताका दोष Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ही नाहीं । जैसे एक स्त्री अपने लघु पुत्रको अपने शरीर के आड़ा पट दै पुत्रकं अंचल चुखावै मुख सूं या कह ये लड़का पुरुष है ताते याका सपर्श किये कुशीलका दोष लागे है । अरुमें परम शीलवंती हों ताते पुरुष नाम मात्रको भी सपर्श करना मौनें उचित नाहीं । पीछे अपने पतिको निंद्रा विषै सुत मेल्हा वा खांदकी आंख चुराय दाव घाव कर आधी रात्र के समय वा दिन विषै मध्यान समय आदि चाहै जब अपने घोड़ेका चिरवादार नीच कुलीकूं बड़ा महांकुरूप निर्दई तीव्र करवाय ऐसे निंद्य पुरुषसूं जाय भोग करे 1 अरु वह स्त्री कदे जार नखे मोड़ी वेगी जाय तब बेजार उनै लाठी मूढी आदसू मारै तौ भी जारसूं विनयवान होय प्रीति ही करे । कामदेवसे निज भरतारकुं इक्ष नाहीं । तैसे ही स्वेताम्बरको प्रकार मुख सूं बोल कर सकाय थावर जीवकी बाधा होती नाहीं । जो बाधा होती तौ परम दयाल षट कायके पीहर त्रस कायके रक्षक परम दिगम्बर जोगीश्वर बनोवासी संसार भोगमूं उदासीन निज देह त्यागी परम बीतरागी शुद्धोपयोगी तरन तारन शांति मूरत इन्द्रादि देवा कर पूज्य मोक्षगामी ताका दर्शन किये ही ज्ञान प्राप्त होय । आप परका ज्ञानपना होय । ऐसे निर्विकार निर्ग्रथ गुरू भी खुले मुख उपदेश काहेको देसी । ताके मुखके कोई प्रकार हस्तादिक कर आछादन देखवे नाहीं । सो जी बात में कोई प्रकार हिंसा नाहीं । ताकौ तौ ऐसा जतन करे और भील डव्यादिनकी वा सूद्रके घरकी अनछान्यां पानी खालके सपर्से जल मदरा मांस संयोग सहित ऐसे गारके भाजन ता विषै रात्रसमय - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १२९ पचाई रसोई दीन पुरुषकी नाई जा सुद्रके घरकी लै आवै वा जैनधर्मकी द्रोही सो जैनधर्मकी आज्ञा कर रहित विना आदरसू अहार दे सो ऐसे भोजनके रागी ताका भक्षन करतै अंस मात्र भी दरेग मानै नाहीं। कैसे है भोजन त्रस जीवाकी रास है । बहुर ऐसे ई त्रस जीवकी रासमई कंदोईकी वस्तु अथाना संधाना नौनी कानी आदि महां अभक्षका आचर्ण करै है । ताकी संसार मैं दोष गनै नाहीं अरु वाकू प्रामुक कहै है। ए प्रासुक कैसा जैसा सोक. हो तातें गृहस्थांका साग त्याग काहेको करते। सो रागी पुरुषोंकी विटंबना कहां ताईं कहिये ।।८३॥ बहुरि चित्रामकी पूतली नखै रहनैका तो दोष गनै । अरु सैकड़ास्त्री ताकौ सिखावै वदावै उपदेश देवाके संसर्ग रहे वाका लाल पाल करे । अरु वा नःरी देखवेके मिस ही वाका स्पर्श करे। वा ओषध जोतिक वैदक कर मनोरथ सिद्ध करे । बहु द्रव्यक संग्रह करे । ताकरि मनमान्या विषय पोषे । आवाका सेवन करे वाके गर्भ रहा होय तो वाकों औषध दे गर्भका निपात करे । अर कहे मैं जती हों, मैं साधु हो म्हाने पूजो । सो ऐसे साधु भाषा समर्थक कैसे होंय । पत्थरकी नाव समुद्रविषै आप ही डूबे तो ओराने कैसे तारे । बहुर स्त्रीका भलामत वाके वास्ते वाका कपड़ा सहित ही ग्रहस्तपनामे ही मोक्ष वतावे भर या भी कहे वजवृषभ नाराच संहनन विना मोक्ष नाहीं। अर करम भूमकी स्त्रीके अंतका तीन संहनन है तो स्त्री मोक्ष कैसे जाई। ताके शास्त्रमें पूर्वापरि दोषते ऐसे शास्त्र परमानीक कैसे अरु परंमानीक विना सर्वज्ञका वचन कैसे । तात नेमकर अनुमान प्रमान करि यहा जान्या गया शास्त्र कल्पित हैं। कषाई पुरुषां अपना मत Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । लब पोषवेके अर्थ रच्या है । बहुर कैई कहे हैं स्त्रीकों मोक्ष नाहीं तो नवां गुनस्थान पर्यंत तीनों वेदका उदे कैसे कहा। ताका उत्तर यह जो ये कथन भाव अपेक्षा है । सो भाव तो मोहकर्मका उदयसू होय है । अरु द्रव्यां पुरुष स्त्री नपुंसकका चिन्ह नाम कर्मके उदयसे होय है । सो भाव तीनों वेदावारेने तो मोक्ष हम भी माने हैं । द्रव्यां स्त्री नपुंसककों मोक्ष नाहीं । वाकी समर्थता पंचमा गुनस्थान पर्यंत चढ़नेका है । आगे नाहीं यह नेम है। आगे एक द्रव्यां पुरुषको ही मोक्ष है । सो एकेन्द्री आदि असेनी पर्यंत अरु वा संमूर्छन पंचेन्द्री वा नारकी जुगल्यां य.के तो जैसो द्रव्यां चिन्ह है तैसा ही भावावेद पाइये है । अरु सैनी गर्भज पंचेन्द्री मनुष्य वा तिर्यचके द्रव्यां माफिक भाववेद होय । वा अन वेदका भी उदय होय । यह गोमट्टसारजी विषे कहा है। जैसे उदाहरण कहिये, द्रव्यां तो पुरुष है । अरु बाके पुरुषसूं भोग करने की अभिलाषा वर्ते ताका तो भावां स्त्री वेदी द्रव्यां पुरुषवेदी कहिये । अरु एकै काल पुरुष स्त्री भोग करनेकी अभिलासा होय ताका भाव नपुंसक वेद कहिये । अरु द्रव्यां स्त्री पुरुष भोगनेकी अभिलासा वर्ते ताको भाव पुरुष वेदी अरु द्रव्या वेदी कहिये । ऐसे द्रव्या पुरुष भाव तीन वेदवारे जीवकों मोक्ष होइ है । ऐसे ही तीन वेदका उदय द्रव्या स्त्री व नपुंसकके जानना। ताको पंचमा गुनस्थान तक आगे होय नाहीं। ताको ये मोक्ष माने है। ताका विरुद्धपन है। बहुरि दिगम्बर धर्म विषे वा श्वेताम्बर धर्म विषे ऐसा कहा है। अब सम्यक्तमे उत्कृष्ट एकसो आठ जीव मोक्ष जाय । अड़तालीस पुरुष वेदी बत्रीस स्त्री वेदी अठाईस नपुंसक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १२७ वेदी मोक्ष जाय । सो यह ऐसे भाव वेदके धारीकी अपेक्षा तो विधि मिले हैं। अरु द्रव्यांकी अपेक्षा विधि मिलती नांही। पुरुष स्त्री तो आध आध देखनेमे आवे है । द्रव्यां नपुंसक ल खा पुरुष स्त्रीमें एक भी देखवेमें आवे नहीं । तातें भी तुम्हारे शास्त्रकी बात झूठी भई । बहुरि बाहुबल मुनिके वे ई ऐसे कहें हैं । वरस दिन ताई केवलज्ञान डोल्यो डोल्यो फिरवो करो परन्तु बाहुबलजीके परिणाम विर्षे ऐसा कषाय रहवो करया सो यह भूम भरतकी है। ता ऊपरे हम तिष्टे हैं। तो यह उचित नहीं। ऐसे मान कषाय कर केवल ज्ञान उपना नाहीं। इत्यादि वावला पुरुषकी नाई असंभव कहिये है। तो वे अन्न मतसे कहा घटि है। जिनधर्मकी बात ऐसी विपर्ने है नाहीं ऐसी बात तो लड़का भी कहानी मात्र कहै नाहीं । जा पुरुष कदें सिंह देष्या नाहीं ताके भावे विलाव भी सिंह है त्यों ही जा पुरुष वीतरागी पुरुषाका मुख थकी साचा जिनधर्म कदें सुन्या . नाहीं ताके भावे मिथ्याधर्म ही सत्य है। तातै आचार्य कहे हैं अहो लोको, धर्मने परीक्षा कर ग्रहण करो। संसार विषं पोटे धर्म बहुत हैं पोटा धर्मके कहनहारे लोभी आचार्य बहुत है साचा धर्मके कहनहारे वीतरागी पुरुष विरले हैं । सो यह न्याय है अच्छी वस्तु . जगत विषे दुर्लभ है । सो सर्वोत्कृष्ट शुद्ध जिन धर्म है सो दुर्लभ होय ही होय । तातै परीक्षा किये विना पोटा धर्मका धारन होय . ताके सरधान कर अनन्त सागर विषे भ्रमन करना परे । यह जीव संसार विषे रुले है ताके रुलनेका कारन एक ही है और , कोई कारन माने है सो भ्रम है। तातै धर्म अधर्मके निरधार कर नेकी अवश्य बुद्धि चाहिये। पनी कहा कहिये । ऐसे श्वेताम्बर Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८. ज्ञानानन्द श्रावकाचार । मतकी उत्पत्ति कही। अरु ताका कामरूप कहा। आगे स्त्रीके सिखाये विना सहन सुभाव होय है। ताका स्वरूप विशेष कर कहिये है। मोहकी मूरत है। काम विकार कर आभूषत है। सोक मंदिर है। धीरजता कर रहित है ! कायरता कर सहित है । साहस कर निवर्ती है। भयकर भीत है। माया कर हिरदा मैला है। मिथ्यात अरु अज्ञानका घर है। अदया, झूठा, असुच अंग, चपल अंग वा चपल नेत्र अरु अविवेक, कलह, निश्वास, रुदन क्रोध, माया, क्रपनता, हास, गिलानता, ममत्व, अदेसकपनो, अटीमर बुद्धि, बिसर्म, पीवकास्थानक है निगोद, वा क्रम, वा लट, ए सन्मूक्षन निमेष आपि त्रस थावर जीवनकी उत्पत्तिकी कोथली वा जोनीके स्थानक है कोईकी अच्छी वा बुरी बात सुना पीछे हृदै विषे राषवाने असमर्थ है । साली मोली बात करवाने परवीन है विकथाके सुनवाने अति आसक्त है। भाड़ विकथा बोलवेको अति अषता है। घरके षट कारज करवे विर्षे चतुर है। पूर्व परि विचार कर रहित है । पराधीन है। गाली गीत गावनेकी बड़ी बकता है। कुदेवादिकके रात जगावनेको सीत कालादि विषे परीसह सहवाने अति सूरवीर है। गरव कर सारो घर सारो ग्रहवाराके मारने धरवा है। वा भारवाने समर्थ है। पुत्र पौत्रादि ममत्व करनेको बांदरी साढस्य है। धर्म रतनके खोसवाने बड़ी लुटेर है। वा धर्म रतनके चोरवाने परवीन चोरटी है। नरकादि नीच गतिको लेजानेको सहकारी डलाव छै मोक्ष स्वर्गकी आगल है। हाव भाव कटाक्ष कर पुरुषके मन अरु नेत्र बाधनेको पास है। ब्रह्मा विस्नु महेश इन्द्र धरनेन्द्र चक्रवर्त सिंह हस्ती आदि बड़े बड़े तिनको जोड़ा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । मात्र वस करनेको मोह विधूलके धरया साहस्य है। बहुरि मनमें क्यों ही वचनमें क्यों ही कोईको बुलावे कोईको सेन दे कोईतूं प्रीत जोरे कोईसू प्रीत तोरे छिनमें मिष्ट बोले छिनमें गारी देइ छिनमें लुभाय कर निकट आवे छिनमें उदास होय कर जाती रहे इत्यादि मायाचार. सुभाव कामके तीव्रताके वस कर स्वयं सिद्ध पाये हैं स्त्रीके कारी साकी अप्रि जाननी सादृस्य कामदाहकी ज्वाला जाननी, पुरुषके त्रणकी अग्नि, नपुंसककै पिजावाकी अग्नि साढस्य काम अग्न जाननी बहुरि दान देवेको कपला दासी समान रूपन है । सप्त स्थानका मोन्य कर रहित है। चिडीवत चकचकाट किये बिना दुखित है। अंदरायनके साहस्य फल रूपको धरया है। बाह्य मनोहर भीतर विष समान कड़वा....। देखनेको मनोहर खाये प्रान जाइ । त्योंही स्त्री दीसती बाह्य मनोहर अंतर प्रान हरे है, द्रष्टि विर्षे सर्पनी सादृस्य है । सवद सुर पाये विचक्षन सूरवीर पुरुषनको विभले करनेको कामज्वर उपजाबनेका कारन है । रजस्वलामें वा प्रसूत होने समय चांडालनी साहस्य है । ऐसे ओगुन होते संते भी मानके पहार ऊपरे चढ़ी औरनकू साढस्य म ने हैं। सो आचार्य कहे हैं धिक्कार होहु मोहके ताई । सो वस्तुका स्वरूप यथारथ भासे नाहीं । ताही ते अनन्त संसार विषै भृमे है मोहके उदैते ही जिनेन्द्र देवने छोड़ कुदेवादिक पूजे है । सो मोई जीव काई काई अकल्यानकी बातें नाहीं करे। . अरु अपने संसार विषे नाहीं उपमा पावे । आगे स्त्रीनके बेसर्मका स्वरूप कहिये है। मागकी सर्म होय है । सो तो स्वयमेव ही माही। मूंछकी सर्म होय है सो मूछ नाहीं । आष्याकी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ज्ञानानन्द श्राकाचार । सर्म होय है सो काली कर नाषी । नाककी सरम होय है सो नाकने वेध काड्या अरु छातीकी गड़ास होय है सो आड़ी काचली पहिर लीनी अरु भुनाका पराक्रम होय है सो हाथ विषै चूड़ी पहरलीनी अरु लाषी नान्ह जानेका भय होय है सो मेधी कर लाल कर दीन्ही । काछकी सरम होय है सो काछ खोल नाखी अरु मनका गठास होय है सो मन मोहकर कामकर वेवल होय गया अरु मुषकी सर्म होय है सो मुख वस्त्रकर आक्षादन कीनी मानू ये मुष नाहीं आछादे है ऐसा भाव जनावे ह । सो कामी पुरुष मने मुषने देखकर नरक मत जावो अरु जंघाकी सर्म होय है सो घंघरा पहर लिया । इत्यादि वेसर्मके कारण घने ही है । सो कहां लग कहिये । तति स्त्री नपुंमक निर्लज्ज स्वभाव धरया है बाह्य तो ऐमी सर्म दिखावे सो अपने अंग सर्व कपड़ाकर आछादितके अरु पुत्र भ्राता माता पिता देवर जेठ सासु श्वसरा राना प्रना नगरका लोगां आदि लोग देखते गावे ता विखें मन मान्या विषे पोवे अंतरंगकी वासना कारन पाय बाहर झलके विना रहै नाहीं । बहुरि कैसी है स्त्री कामकर पीड़ित है मन इन्द्री जाकी अरु नषसूं ले रसना पर्यंत सप्त कुधातमई मूरत बनी है भीतर तो हाडका समूह है ताके ऊपर मांस अरु रुधिर भरया है ऊपर नसा जारकर वेढ़ी है । ता ऊपर केसनके झुंड है मुख विषे लटा साहस्य हाड़के दांत हैं । बहुरि भीतर वाय पित कफ मल मूत्र वीरन कर पूरित है उरा अग्र वा अनेक रोगकर ग्रसित है जरा अरु कालकर भयभीत है अनेक तरांके पराधीनताको धरया है। पेनी जायगा सन्मूर्छन उपजे है काख विषे, कुच नीचे, नाभि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १३१ तलें, जोन स्थान विषे, वा मल मूत्र विषे असंख्याते मनुष्य उपजे हैं बहुरि दुग्ध द्वारा विर्षे वा सब शरीर विखें इस वा निगोद सदैव उपजो करें हैं । वा वाह्य तनके मैल विष लीख जुवा अनेक उपजे हैं सो नितका उत देखिये है ही अरु केई निर्दई या मूरत वाको मारे भी है दया कर रहत है हृदय जाका सो देखो सराग प्रनामाका महातम ऐसी निधि स्त्रीको बड़े बड़े महंत पुरुष उत्कृष्ट निध जान सेवे है आपने कृतार्थ माने है वाका आलिंगन कर जन्म सफल माने है सो आचार्य कहें हैं धिक्कार होहु मोहकर्मके ताई अरु धिक्कार होहु ऐसी स्त्रीको मोक्ष माने ताको अरु सदा भयवान अत्यंत कायर स्थिल संका सहित स्वभाव जाका ऐसी स्त्रीको मोक्ष कैसे होय सोलवां स्वर्ग छटा नर्क आगे जाय नाहीं अंतका तीन ही संघनन उपरांत संघनन होय नाहीं अन्तका तीन होय है अरु भोगभूमयां जुगलियाके पुरुष वा स्त्री तियच वा मनषांके एक आदिका ही संघनन है तातै पुरुषार्थ कर रहित है तो ही तात वाके शुक्ल ध्याननकी सिद्ध नाहीं अरु शुक्लध्यान विना मोक्ष नाहीं सो यह निंद्यपना कही सो स्वाधीन रहित वा शील रहित स्त्री है ताका कहा है अरु सरधावान शीलवान स्त्री है सो निंद्या कर रहित है वाके गुन इन्द्रादिक देव गावे हैं अरु मुनि महाराज वा केवली भगवान भी शास्त्र विषै बड़ाई - करी है अरु स्वर्ग मोक्षकी पात्र है तो औरांकी कहा बात ऐसी निंद्य स्त्री भी तिनका सो निन धर्मका अनुग्रह कर ऐसी महमा पावे है। तो पुरुष धर्म साधे ताकी कहा पूछनी । वहु गुन आगे लघु ओगुनका जोर चले नाहीं । ये सर्वत्र न्याय है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १३२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ऐसे स्त्रीका स्वरूप वर्णन किया। आगे दस प्रकार विद्या सीखनेका कारन कहिये है । ता विषै पंच बाहिनके कारन हैं । सिखावनेवाले आचार्य । पुस्तक । पड़नेका स्थानक । भोजनकी थिरता । ऊपरली चाकरी करनेवाले टहलुआ। आभिंतरके पांच निरोग शरीर । बुद्धि कषायोपषम । विनयवान । वात सल्यत्व अंग । उद्धिम एवं दश । आगे शास्त्रवक्ताका उत्कृष्ट गुन कहिये है । कुलकर ऊंच होय । पुन्यवान होय । पंडित होय । अनेक मतके शास्त्रनका पारगामी होय । श्रोताका प्रश्न पेले ही अभिप्राय जानवाने समर्थ होय। सभाचतुर होय । प्रश्न सहावनै समर्थ होय । अपने जिन मतके शास्त्र घनाके वक्ता होय । उकत जुगत मिलावनेको प्रवीन होय । लोभ कर रहित होय । क्रोध मान माया कर वर्जित होय । उदास चित होय । सम्यक्तदृष्टि होय । संयमी होय । शास्त्रोक्त क्रियावान होय । निसंक होय । धर्मानुरागी होय । अनमतके खंडवाने समर्थ होय । ज्ञान वैराज्ञका लोभी होय । परदोष ढांकवावाला होय । अरु धर्मात्माका गुनका प्रकाशक होय । अध्यात्मरसके भोगी होय । वाशिलत्व अंग सहित होय । दयालु होय । परोपकारी होय । दातार होय । शास्त्र वांच शुभका फलने नाहीं चावे । लोका बड़ाई नाहीं चाहे । एक मोक्ष ही चाहे । मोक्षके. अर्थ होय । सुपने उपदेस देवेकी बुद्धि होय । जिनधर्मकी प्रभावना करवे विर्षे आसक्त चित्त होय । संयम घनो होय । हृदय. कोमल होय । दया जल कर भीगा होय । वचन मिष्ट होय । हित मितने लिया वचन होय । सवद लजित होय । उतंग स्वर होय । और वकतापुरुष शास्त्रके वाचवे समै आंगली कठकावे Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १३३ नाहीं। आलस मारे नाहीं। घूमे नाहीं । मंद सवद बोले नाहीं। शास्त्रसूं ऊंचा बैठे नाहीं। पांव पर पांव नाषे नाहीं । उकड़ बैठे नाहीं। गोड़ी दो वडिवारे नाहीं । घना दीर्घ शब्द उचारे नाहीं । अरु घना मंद सबद भी बोले नाहीं। भृमायल सवद भी बोले नाहीं । श्रोतानकी निज मतलबके अर्थ खुसामद करे नाहीं। जिनवानीके लखे अर्थको छिपावे नाहीं । जो एक अक्षरको छिपावे तो महापापी होई । अनन्त संसारी होय । जिनवानीके अनुस्वार विना अपने मतलब पोषनेके अर्थ अधिक हीन अर्थ प्रकासे नाहीं । जा शब्दको अर्थ आप सो उपजे नाहीं ता शब्दको अर्थ मान बड़ाई लियां अन्यथा नाहीं कहै । जिनदेव न भुलाय देय । मुखसो सभा विषे ऐसा कहे । या शब्दका अर्थ कछू हमारे ताई भास्या नाहीं। हमारी बुद्धिकी नूनता है । विशेष ज्ञानी मिलेगा वा को पूंछेगे । नाहीं मिलेगा तो जिनदेव देख्या सो प्रमान है । ऐमा अभिप्राय हो व हमारी बुद्धि तुक्ष है। ताके दोष कर तत्वका स्वरूप औरका और कहनेमें आवे वा साधनमें आवे । तो जिनदेव मोपर छिमा करो मेरा अभिप्राय तो ऐसा ही है। जिनदेवने ऐसा ही देष्या है तातें भी ऐसा ही धरो है । अरु ऐसे ही ओरांको आचरन कराऊं हूं। मेरे मान बड़ाई लाभ अहंकार प्रयोजन नाहीं । सूक्ष्म अर्थकू ओरसे ओर भासे तो मैं कहा करूं । ताही ते मो आदि दिगम्बर देवां प्रनंत ज्ञानकी नूनता पाई है । तातें असत्य वा उभै मनो जोग वा वचन जोग वारमां गुनस्थान प्रयंत कहो है । सत्य वचन जोग केवलीके भी है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. १३४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । 1 तातें मोने भी दोष नाहीं । सो ज्ञान तो एक केवली ज्ञान सूर्य प्रकाशक है । सोई सत्य है । ताकी महमा वचन अगोचर है । एक केवल ज्ञान ही गम्य है । केवली भगवान विना और के जानवाकी समर्थ नाहीं । तातें ऐसे केवली भगवानके अर्थ मेरा वारंवार नमस्कार होहु । वे भगवान मोने बालक जान मो ऊपर छिमा करो । अरु मेरे शीघ्र ही केवल ज्ञानकी प्राप्त करो । त्यों मेरे भी निसंदेह सर्व तत्व के जानने की सिद्धिहोय । ताही माफिक सुखकी प्राप्ति होय । ज्ञानका अरु सुखका जोड़ा हैजेता ज्ञान तेता सुख । सो मैं सर्व प्रकारका निराकुलता सुखका साथी हूं । सुख विना और सब असार है । तातें वे जिनेन्द्र देव मोने सरन होय जन्म मरनके दुख सो रहित करहु । संसार समुद्र सो पार करहुं मेरी तो दया शीघ्र करहु । मैं संसार के दुख अत्यंत भयभीत भया हूं । तातें संपूर्न मोक्षका सुख देहु घनी कहा . कहिये । इति वक्ता स्वरूप संपूर्न । अथां श्रोता लक्षन कहिये है सो श्रोता अनेक प्रकार के हैं तिनके दिशतकर कहिये है । माटी चालनी, छेली, विलाव, वक, पापान, सर्प, हंस, भैंसा, फूटा घड़ा, डंस मसकादिक, जौक गाईएक ऐसे ये चौदा दृष्टांत कर या सादृश्य श्रोता चौदे प्रकार जानना । याने कोई मध्यम हैं कोई अधम हैं। आगे परम उत्कृष्ट श्रोताके लक्षन कहिये है । विनयवान होय । धर्मानुरागी होय । संसारके दुखसूं भयभीत होय । श्रद्धानी होय । बुद्धिमान होय । उद्यमी होय । मोक्षभिलाषी होय, तत्वज्ञान चाहक होय । परीक्षा प्रधान होय । हेय उपादेय करनेकी बुद्धि होय, ज्ञान: वैराग्यका लोभी होय । दयावान होय मायाचार कर रहित होय.. -- Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १३५ निर्वाक्षिक हो। क्षमावान होय । कृपनता रहित उदार होय, प्रशमवान होय, प्रफुल्लित मुख होय। सोजरा पगुन रहित होय, सीलवान होय, स्वपर विचार विपे प्रवीन होय । लज्या गर्भ कर रहित होय । ठीभर बुद्धि न होय । विचक्षन होय! कोमल परनामी होय । प्रमादकर रहित होय । वात्सल्य अंगकर संयुक्त होय । आठमदकर रहित होय । आठ समकितका गुन वा आठ अंगार रहित होय, आठमल दोषकर रहित होय, षट् अनायतन तीन मूढ़ता दोषकर रहित होय । आन धर्मका आरोचक होय । सत्यवादी । जिन धर्मका प्रभावना अंग विषे तत्पर होय । गुरादिकका मुखसूं जिनप्रनीत उपदेश श्रुत एकांत स्थान विषे बैठ हेय उपादेय करवांका स्वभाव होय । गुनग्राही होय । निज ओगुनको हेय होय । वीज बुद्धि रिद्धि साढस्य होय । ज्ञान कषायोपषम विसेश होय । वैनरूनो होय । ऊंच कुल होय अरु किया उपगारने भूले नाहीं । किया उपगारने भूले है सो महां पापी है । या उपरान्त और पाप नाहीं । लोकीक कार्यके उपगारको ही सत्य पुरुष नाहीं भूले हैं । तो परमार्थ कार्यके उपगारको सत्य पुरुष कैसे भू । । एक अक्षरको उपगार भूले सो महां पापी है । विसवासघाती है कृतघ्नी कहिये । किया उपगार भूले है सो संसार विषे तीन महा पाप है। समद्रोही । अरु गुरादिक आपसो गुनकर अधिक होय । साक्षात सिप्या दिप्याधि धर्मोपदेस दे नाहीं । दे तो वे सर्व दंड देने ही जोग्य है । बहुरि गुरु आदि अपने बड़े पुरुष गुनकर अधिक होंय । तो उपदेस दे । अरु गुरु आप सन्मुख न बोले तिनके वचनको पोषनेरूप वचन कहै । अरु कदाच गुरांका कहां उपदेसमें कोई Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | तरह का संदेह वर्ते तो विसेषपने सहित प्रश्नकरताके उत्तर सुन निरसल्य खोय । चुपका होय रह्यो । वार वार गुरांके अगारू वचनालाप करे नाहीं । गुरांके अभिप्रायके अनुस्वार गुरू सन्मुष अवलोकन करे । तत्र प्रश्नरूप बचन बोले ऐसा नाहीं के गुरू पहिल्यां आप औराने उपदेस देने लाग जाय । सो गुरा पहली है उपदेसका अधिकारी होना ये तीव्र कषायांका लषिन है । यामें मान कषायकी मुख्यता है । अंतरंग विषै ऐसा अभिप्राय वर्ते है । सो मैं भी विशेष ज्ञानवान होता तो उत्तम शिष्य होय ते पहली अपना औगुन काढ़े आपको वारंवार निौं कि मैषदरेग करे | हाय मेरा काई होसी हों तीव्र पापसो कब छूटों । कच निवृत हों सो तातैं अपने सदीव नूनताई माँ पीछे कोई ओसर पाय कंठ सो पुष्ट होई । वचन मिष्ट होय । आजीवकाकी आकुलता कर रहित होय । गुरुका चरन कमल विषै भ्रमर समान सदा लीन होय । साधर्मीकी संगत होय साधर्मी ही है कुटम्ब जाके बहुरि नेत्र नीक डाक सोंटीका पाषान दर्पन अग्रसारसे सरोंता सिद्धान्त रूप रतनके परतनके परिष्या करनेका अधिकारी है बहुरि सुननेकी इच्छा । श्रवन | ग्रहन | धारना । समान एक प्रश्न | ईतर निह ये आठ श्रोतानके गुन चाहिये। ऐसे श्रोता शास्त्र विषै सराह - वे जोग्य हैं। सोही मोक्षके पात्र है ताकी महमा इन्द्रादिक देव भी करें हैं । अरु महमा करनेवारे पुरुषके पुन्यका संचय होय है । अरु वाका मोह गले है गुनमान की अनमोदना किये वाका गुनका लाभ हो है । औगुनवानकी अनुमोदना किये वाके औगुनका लाभ हो है । तातै औगुनवानकी अनुमोदना करनी नाहीं । इति श्रोता Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १३७ वर्ननं । आगे कृत कारित अनुमोदना। मन वचन काय ये तीन करनी अरु तीन जोगाके परस्पर लपटन कर गुनचास भंग उपजे हैं जैसे भागाकार सावध जोगका त्याग करना होय । अरु आखड़ी आदि विरतका गृहन करना होय । सोया गुनचास भंग करिये ताको व्योरो क्रति कारित अनमोदना ए तो तीन भाग प्रत्येक अनुमोदना रात्र संजोगी भाग एक कहे ऐसे सात भंग ऐ तो तीन करनके भये बहुरि ऐसे ही सात भंग तीन जोगके जानने मन वचन काय ऐ तीन प्रत्येक इकईस जोग भंग है । मन वचन मन काय वचन काय ये तीन दोष जोगी भंग हैं । मन वचन काय ये त्रिसंजोगी भंग हैं। ऐसे ये सात तीन जोगोंका भंग हुआ सो सात करनाका भंग पूर्वे कहा । सो एक एक ऊपर स.त सात जोगांका भंग ल इये । गुनचास भंग हुये सो याका विशेष कहिये है। कृतकार मन कर । कृतकार वचन कर । कृतकार काया कर मनकर । वचन कर कृतमन काय कर । स्तमन वचन काय कर । सों ये सात तो कृत सौ भंग भये । ऐसेही ओर भी जानना कारितमन कर। कारितवचन कर । कारितमन काय कर । कारितवचन, काय कर । अनमोदना वचन कर । अनमोदना काय कर । अनुमोदना वन कर । अनुमोदना मन काय कर । अनुमोदना वचन काय कर । अनुमोदना मन वचन काय कर । कृतकारित मन कर। कृतकारित वचन कर। हतकारित मन काय कर। कृतकारित वचनकाय कर । कृतकारितमन वचन काय कर । कृत अनुमोदना मन कर। कृत अनुमोदना वचन कर । कत अनुमोदना काय कर कृत अनुमोदना मनकर वचन कर । कृत अनुमोदना मनकर काय कर । कृत अनुमोदना वचन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | काय कर। कृत अनुमोदना काय कर। कृत अनुमोदना मन वचन कर | कारित अनुमोदना मन काय कर कारित अनुमोदना वचन काय कर | कारित अनुमोदना मन वचन काय कर। कृतकारित अनुमोदना मन वचन काय कर। ऐसे ये गुणचास भाग जानना । सो ईक भयनो ईक भयनोके भाग । ईक भैनो दो मैनोके भाग । ईक भैनो तिनो के भाग । दुभैनो ईक मैनोके भाग । दुभैनो दुभैनोका भाग । दुमैनो तिभैनोका भाग । ईक मैनोका भाग । तिभैनो दुभैनोका भाग । ई तिभौनो तिभोनोका भाग। ए गुनचास भागकी संज्ञा जाननी होय । एवं गुनचास अरु तीन काल सेती गिन्या एक्सै सैतालीस भाग संपूर्ण । आगे षोडस भावनाका स्वरूप कहिए है। दरसन विशुद्धी कहिये दर्शन नाम श्रद्धानका है । सो सरधानका निह विवहार त्रिषै पच्चीस मल दोष रहित समकितकी निर्मलता होय ताको नाम दर्शन विशुद्धी कहिये | देवगुरू धर्मका वा आप सो गुनकर अधिक धर्मात्मा पुरनका विनय करिये ताका नाम विनय संपन्नता कहिए । शील अरु वृत ता विषे अतीचार लगावे नाहीं । ताको शील वृत अनतीचार कहिये । मुन्याके तो पांच महावृत हैं अवशेष मूल तेईस शील है । अर श्रावकके बारा वृत तामें पांच अनुवृत तो वृत हैं। ओर अवशेष सात शील है ऐसा अर्थ जानना । निरंतर ज्ञानभ्यास हो वाको अभीक्षन ज्ञानोपयोग कहिये । धर्मानुराग होय ताको संवेग कहिये । अपनी सक्त के अनुसार त्याग करिये arat नाम कति त्याग कहिए। अपनी सक्त के अनुसार त्याग करिये ताको सक्तिस तप कहिये | निकषाय मरन करिये ताको Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १३९ - साधसमाध कहिये । दश प्रकारके संगका वैयावृत कहिये चाकरी करिये वा आप सोगुना कर अधिक धर्मात्मा पुरुष होय । ताकी भी पग चापी आदि चाकरी करिये ताको वैयावृत कहिये। अर्हन्त देवकी भगत करिये ताको अर्हत भक्ति कहिए । आचारजकी भगत करिये ताको आचार्य भक्ति कहिये। उपाध्याय आदि बहुत श्रुत कहिये । धना सास्त्रका जामें ज्ञान होय ताको बहुश्रुत भगत कहिये । जिनवानी समस्त सिद्धान्त गृन्थ ताकी भगत करिये । ताको प्रवचन भक्ति कहिये। षट् आवदयमें दिन प्रति अंतराय न पाड़िये ताको आवस्यका प्रदान क'हये । ज्यों ज्यों धर्मका अंगीकार कर जिन धर्मकी प्रभावना होय । ताको प्रभावना अंग कहिये। निनवानी सों विशेष प्रीत होत । ताको प्रवचन वात्सल्य कहिये । ये सोलाकारण भावना तीर्थकर प्रकृति बंधनेको चौथा गुनस्थानसूं लगाय आठवां गुनस्थान पर्यंत बंधनेको कारन है। तातें ऐसे सोलाकारनके भाव निरंतर राखिये । याका विषेश विनय करिये या विषेश प्रीत राखिये । याके उछवसू पूजाकर बैठा कराइये अर्घ उतारिये याका फल तीर्थकर पद है। एवं षोड़सभावना सामान्य अर्थ संपूर्ण । आगे दशलक्षनीक धर्मका स्वरूप कहिये है। न क्रोध कहिये क्रोधका अभावताको उत्तिम क्षिमा कहिये । मानका अभाव हुये विनय गुन प्रगटै तब कोमल परनाम होय ताको मार्दव कहिये। कुटिलता कहिये दगावाजी मायाचार रहित सरल परनामी होय ताको आर्जव कहिये । झूठ जो असत्य मन वचन कायकी प्रवृति रहित होय ताको सत्य कहिये । निर्लोभता कर आतमा पवित्र Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । होई ताको सौच कहिये । केवल जलकर स्नान करनेका नाम सौच नाहीं है । असंजमका त्याग संजमका ग्रहन ताको संयम कहिये है । बारह प्रकारके तप ताकर आत्माको तपाय कर्मकलंकको नास करिये ताको तप कहिये । चौवीस प्रकारके परिग्रह आभ्यंतर बाह्यके ताका त्याग ताको त्याग कहिये । किंचित कहिये तिलका तुसमात्र परिग्रह सो रहित नगनस्वरूप ताको आकिंचन कहिये। शीलका पालना तासों ब्रह्मचर्य कहिये । ऐसा सामान्य दश लक्षण धर्म एवं दसलक्षनीक धर्म संपूर्ण । आगे रत्नत्रय धरमका स्वरूप कहिये है । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ' ऐसा दस सूत्र वि कह्या है । वा उमास्वाम आचार्यने दर्शन नाम श्रद्धानका कहा है। दर्शनोपयोगका नाम यहां दर्शन नाहीं । दर्शनका अनेक अर्थ है । जहां जैसा प्रयोजन होय तहां तैसा अर्थ जान लेना। सो दर्शनका अनेक नाम है। सुभावे दर्शन कहो वा प्रतीत कहो सरधान कहो। वा रुच कहो इत्यादि जानना। एवमेव ऐसेही है। यही है। अन्य नाहीं और प्रकार नाहीं। ऐसा सरधान होय ताको तो “सामान्य दर्शनका स्वरूप कहिये । बहुरि सराहवा जोग्य कहो भावे भले प्रकार कहो भावे कार्यकारी कहो भावे सम्यक प्रकार कहो भावे सत्य कहो जथारथ कहो ये सब एकार्थ हैं । बहुरि यासो उल्टा जाकर स्वभाव होय । तासों विपर्यय वा अनोग्य कहिये । भावे बुरे 'प्रकार कहो । भावे अकार्यकारी कहो। भावे मिथ्या प्रकार कहो भावे असत्य कहो । भावे अनथार्थ कहो । ये सब कार्य ताते सप्त तत्वका यथार्थ सरधान होय ताको निश्चय सम्यक दरसन कहिये । अर सप्त तत्वनका अजथार्थ श्रद्धान होय ताको मिथ्या Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १४१ 1 | दर्शन कहिये । तत्व नाम वस्तूके भावका है । अरु अर्थ नाम पदार्थका है सो पदार्थ तो आधार है अरु तत्व आध्येय है । सो यहां मोक्ष होनेका प्रयोजन है । सो मोक्षने कारन मोक्ष मार्ग जो रत्नत्रय धर्म है। सो प्रथम सम्यक दर्शन कारण तत्वार्थ सरधान है। सो तत्व सप्त प्रकार हैं । जीव । अजीव । आश्रव । बंध | संवर । निर्जरा । बंध | मोक्ष । यामें पाप पुन्य मिलाये यहीका नाम नक पदार्थ है । सो तत्व कहो भावे पदार्थ कहो । सो सामान्य भेद कहे त्याको तो सप्त तत्वां कहा अरु विशेष भेद कहे ताको नव पदार्थ कहे । याका मूल आधार जीव अजीव दोय पदार्थ हैं अरु जीव तो एक ही प्रकार है अजीव पांच प्रकार है । गल | धर्म । अधर्म । आकास । काल । याहीकूं षट् द्रव्य कहिये । काल विना पंचास्तिकाय कहिये । याही ते सप्त तत्व नव पदार्थ षट द्रव्य पंचास्तिकाय याका स्वरूप विशेष जान्या चाहिये । सो याका - भेदाभेद करिये ताको भेद कहिये । अरु याका विशेष ज्ञान ताको विज्ञान कहिये । दोनोंका समुदायको भेद विज्ञान कहिये । याही ते सम्यक दर्शन होने को भेद विज्ञान जिन वचन विषे कारन कहा है । तातें विज्ञानकी वृद्धि सर्व भव्य जीवने कारन उचित है । तिने मूल कारन जिन वानी कर कहा जैन सिद्धान्त ग्रन्थ ताका. मुष्य पहली अवलोकन करनो । जेता सम्यक चारित्र आदि और उत्तरोत्तर धर्म हैं । ताको सिद्ध एक सिद्धान्त ग्रन्थके अवलोकनतें ही है । तातें वाचन प्रक्षना । अनुपेक्षा । आमनाय । धर्मोपदेस । ये पांच प्रकार के स्वाध्याय निरंतर करना याका अर्थ बांचना सास्त्रका वांचनेका है । प्रक्षना नाम प्रश्न करवेका है । T Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। अनुपेक्षा नाम वार वार घोषनेका है। आमनाय नाम कालके कल्प परनेका है। जी काल ज्यों पड़नेका होय सो पढ़े । धर्मोपदेश नाम परमार्थ धर्मोपदेश देनेका है । आगे सप्त तत्व ऐ आदिका स्वरूप कहिये । सो चेतना लक्षनो जीव जामे चेतनपनो होय ताको जीव, कहिये । तामे चेतनपनो नाहीं ताको अजीव कहिये। तारें चेतनपनो रहित कर्म आवनेको कारन ताको आश्रव कहिये । द्रव्य भावकर दोय प्रकार है। सो द्रव्य आश्रव तो धर्मकी सक्ति जो अनुभाग ताको कहिये। तथा भावाश्रव मथ्याते । अविरत । कषाय । जोगें। ये संतावन आश्रवको कहिये । सो यहां चार जातके जीवका भाव लेना बहुरि द्रव्य आश्रव भाव सरवका अभाव होना ताको संवर कहिये । पूर्वे द्रव्य कर्म व सत्ता विषे वंधर्थ तिनकी संवर पूर्वक एकी देस निर्जराका होना ताकों निर्जरा कहिये । वहुरि जीवके रागादिक भावनके निमित्त कारण कर्मकी वर्गना आत्मके प्रदेस विषे वधे ताको वंध कहिये। वहुरि द्रव्य कर्मका उदैका अभाव होना । अरु साताका भी अभाव होना। आपका अनंत चतुष्टय स्वभाव प्रगट होना याको मोक्ष कहिये । मोक्ष नाम द्रव्य कर्म वा भाव कर्म संयुक्त होनेका वा रहित होनेका वा निर्वध होनेका वा निवृत्त होनेका है। सिद्धक्षेत्रके विषे जाय तिष्टे है आगे धर्मद्रव्यका अभाव है । तातें धर्मद्रव्यके सहकाकी विना आगे गमन करवेकी सामर्थ नाहीं । तात वाही स्थित भये उस क्षेत्रमें अरु इस क्षेत्रमें भेद नाहीं। वह क्षेत्र ही सुखका स्थानक होइ तो उस क्षेत्र विर्षे सर्व सिद्धोंनकी अवगाहना विर्षे पाचों जातके स्थावर सूक्ष्म वादर अनन्ते तिष्टें हैं । ते तो महा अज्ञानी एक अक्षरके अनन्तवें भाग Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १४३ ज्ञानके धारक तीव्र प्रचुर कर्मोंके उदै सहित सदीव तीन काल पर्यंत सास्वते तिष्टें हैं। ताते ये निश्रै करना सो सुख ज्ञान वोर्य आत्माका निज स्वभाव है । पर संजोगते नाहीं । अरु दुख अज्ञान वीरज ज्यो पराकर्मका नास होना । अरु मोह कषाय आदि जेतेक औदयिक भाव हैं । सो सर्व कर्मके उदैतें आत्मा विषे सक्त उत्पन्न होय है । सो ये स्वभाव भी जीवका है । या भावा रूप जीवही पर है। और द्रव्य परनमता नाहीं और द्रव्य तो जीवके निमित्त मात्र है । तातें जो परद्रव्यके निमित पाय जीवके शक्ति उत्पन्न ताको उपादीक विभावः । वा अशुद्ध वा विकल्प वा दुःखरूप भाव कहिये । भावार्थ । जीवको ज्ञानानंद तो असल भाव है। अज्ञान दुख आदि अशुद्ध भाव हैं पर द्रव्यके संजोगते हैं तातें कार्यके विषे कारनका उपचार कर परभाव ही कहिये । ऐसे सप्त तत्वका स्वरूप जानना या विषे पुन्य पाप मिलाइये ताको नव पदार्थ कहिये | सामान्य कर कर्म एक प्रकार है। विशेषकर पुन्य पाप रूप दोय प्रकार है । सो आश्रव भी पुन्य पाप कर दोय प्रकार है । ऐसे ही संवर निर्जरा बंध मोक्ष विषं भी दो भेद जानना । मूलभूत यांका षद्रव्य है । काल बिना पंचास्तिकाय है । ताका द्रव्य गुन पर्याय वा द्रव्यक्षेत्रकाल भाव वा परनाम जीव मूर्त आदि गाथाके अर्थको इहां जाने । सप्त तत्वका स्वरूप निर्मल भासे है । वा प्रमान - नय - नयनिक्षेप - अनुयोग - गुनस्थान - मार्गना- तीन लोकका स्वरूप वा मूल कर्म आठ वा उत्तर प्रकृति एकसै अड़तालीस तिनको गुनस्थान मार्गना विषे बंध उदीर्न सत्ता नाना जीव अपेक्षा वा एक जीव अपेक्षा वा नाना काल Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | अपेक्षा लगाइये वा त्रेपन भाव गुनस्थानके चढ़ने उतरनेको गैल इत्यादि । नाना प्रकार के उत्तरोत्तर तत्वका विशेष स्वरूप ज्यों ज्यों घना घना भेद भेद निमित नैमित्य आधार आधेय निश्चे विवहार हेय उपादेय इत्यादि ज्ञान विषै विशेष अवलोकन होय । त्यों त्यों सरधान निर्मल होइ । याहीको छायक सम्यक्तका घाताका काम तो सातवां गुनस्थान ही हुआ सो बारवां गुनस्थान पर्यंत तो क्षायक सम्यक्त ही नाम पाया । अरु केवल सिद्धोंके परम क्षायक सम्यक्त नाम पाया । तातैं सत्यक्तकी निर्मलता होनेको ज्ञान कारन है । तातैं तासों स सर्व विषै ज्ञान गुन ही ऐसा प्रश्न करे सप्त तत्व ही का कहा । और प्रकार क्यों न कहा ताका उत्तर कहिये है । जैसे कोई रोगी पुरुषको रोगकी निर्वृतिके अर्थ कोई स्याना वैद्य चिन्ह देखे सो प्रथम तो ऊ रोगीकी चाप देष पीछे रोगको निश्चे करें । पीछे यह रोग कौन कारन ते भया सो जानें। अरु कौन कारनसों रोग मिटे ताका उपाय विचार अरु रोग अनुक्रम सो कैसे घटे ताका उपाय जाने अरु इस रोगसों कैसा दुषी है । रोग गये कैसा सुखी होयगा । जैसे पूर्वे निज स्वभाव याका या तेंसाही मोकों रोगसों रहित कर देगा । ऐसे सानुत्रातके जाननहारे वैद्य होंय ताही सो रोग जाय अजान वैद्यसों रोग जाय नाहीं । अजान वैद्य जम समान है । तैसें ही आश्रवादि सदा तत्वका जानपना संभवै सो ही कहिये है । सो सर्व जीव सुखी हुवा चाहे हैं । सो संपूर्न सुखका कारन मोक्ष है । तातें मोक्ष ज्ञान - वधावना । ज्ञान ही प्रधान है । प्रधान है । इहां कोई सरधान करनेको मोक्षमार्ग Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १४५ AAAA विना कैसे बने बहुर मोक्ष तो बंधके अभाव होनेका नाम है। पूर्वे बंध होय तो मोक्ष होय । तातें बंधका स्वरूप बिशेष नानना। बहुर बंधका कारन आश्रव है। आश्रव विना बंध होता नाहीं। त.तें आश्वका स्वरूप नान्या विना कैसे बनें। बहुरि आश्रवका अभावने कारन संवर है। संवर विना आश्रवका निरोध होय नाहीं तो संवरको अवस्य जानना योज्ञ है । बहुरी बंधका अभाव निर्जरा विना होय नाहीं। तातै निर्जगका स्वरूप जानना । ऐसे तत्व जान्या विना नेमकर मोक्ष मारगकी सिद्धि कैसे होय । याही तें सूत्रजी विर्षे तत्वार्थ श्रद्धान सम्यक दरसन कहा है । सो यह सर्वत्र न्याय है। जी कारन कर उनका उपार्ष्या होय तिनसों विपर्ययकारन मेल्यां उलझाउ मिटै जैसे शीतके निमित्त कर बाई उत्पन्न भया। तो वाका विपर्ने उस्नके निमित्तते बाईकी निवृत्य होय । ऐंसा नाहीं के शीतका निमित कर उत्पन्न भया बायका रोगसो फेर सीतके निमित्त कर बाय मिटे सो मिटे नाहीं अधिक तीव्र बंध जाय । त्यों ही परदव्यातों रागहेप कर जीवनामा पदार्थ कर्मासू उलटो। सो वीतराग भाव किये विना सुलटे नाहीं । अरु वीतराग भाव होय सो सदा तत्वके स्वरूप जानने ते होय । तातें सप्त तत्वका जानपना ही निश्चे सम्यक होनेको ऐसा धारन आद्वैत एक ही कान कह्या। ऐसें सम्यक दरसनका खरूप जानना। ताते श्री आचार्य दयाबुद्ध कर कहें हैं वा हेतकर कहें हैं । सर्व जीव ही सम्यक दर्शनको धारो । सम्यक दर्शन विना त्रिकालमें मोक्ष नाहीं। चाहो तो तपश्चरन करो जी कार्य का ज्यों कारन होय ताही कारन तें वो कार्यकी. सिद्ध होय । ये सर्वत्र नेम है। इति सम्यक दर्सन प्ररूपन संपूर्ण। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | 1 आगे सम्यक ज्ञानका स्वरूप कहिये है । सो ज्ञान ज्ञेयके जाननेका नाम है। सो ज्ञानावर्नी दर्शनावन के क्षपोपसमतें जाननें । सम्यक्त सहित जानपनाको सम्यकज्ञान कहिये । सो मिथ्यातके उदै सहित जानपनाको मिथ्याज्ञान कहिये। यहां ज्ञान विषें दर्शनको गर्भित जानना | सामान्यकर दोन्याको समुदायको ज्ञान ही कहिये । सो सप्त तत्व जानपना विर्षे संसय विमोह विभ्रम होय ताको मिथ्या ज्ञान कहिये और उत्तरोत्तर पदार्थ वा अजथार्थ वा जाने तो वाके जान्याने ते समकित नाम वा मिथ्या नाम पावै नाहीं । तातें सप्त तत्व झल पदार्थका जानपना संसै विमोह विभ्रम कर रहित होय सम्यक ज्ञान नाम पावै है । अरु निश्चे विचारता मूल सदा तत्वका स्वरूप जान्या विना उत्तरोत्तर तत्वका स्वरूप जान्या जाय नाहीं कारन विपर्जे भेद त्रिपर्जे स्वरूप जेर कसर रह जाय । जैसे कोई पुरुष सोनाने सोना कहे है । रूपाने रूपा कहे है | पोटा परा रूपैयाकी परीक्षा करे है । इत्यादि लोकीक विषे घना ही पदार्थाका यथार्थ स्वरूप जाने हैं। परंतु कारन विप है । मूल कृत याका पुरकी परमानू चाहे । ताको जानता नाहीं । कोई परमेश्वरको कर्ता बतावे है कोई यास्त बतावै है । कोई पांच तत्व प्रथ्वी अप तेन वायु आकास मिल जीव नाना पदार्थकी उत्पत्ति कहे है । या प्रमान दा भिन्न भिन्न जुड़ा जुदा बनावे है । तातें कारन वि जानना | बहुरि जीव पुद्गल मिल मनुष्यादिक अनेक प्रकार अस्मन जातकी पर्याय बनी है। ताको एक ही वस्तु माने है । सो भेद विप है । बहुरि हू आकाश धरती लग्या दीमे । एगर छोटा दीसे, जोतषीदेवाका विमान छोटा दीसे । वा चसमा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । . १४४ ~ ~ ~ ~ ~ वा दुरबीन पदार्थाका स्वरूप छोटा बड़ा दीसे इत्यादि स्वरूप विप जानना । अरु सम्यक् ज्ञान हुआ वस्तूका स्वरूप जैसे जिनदेव देष्या है । तैसे ही सरधान करने में आवे । तातें पदार्थका स्वरूपका जानपना भी सम्यक् ज्ञानीके ही संसै विमोह विभृम रहित है। बहुरि संसे विमोह विभृमका स्वरूप कहीये जैसे चार पुरषां सीपके पंडका अवलोकन किया । सो एक पुरुष तो ऐसे कहने लागे न ज ने सुवर्न है न जाने रूपा है ताको संसो कहिये । बहुरि एक पुरुष ऐसे वहते भये यातें सीपका खंड है । ताको पूर्व प्रदोष रहित श्रुद्ध वस्तुका स्वरूप जैसा था तैसा ही जानपनाका धारी कहिये । त्यों ही सप्त तत्वके जानपना विर्षे वा अपर की जानवा विर्षे लगाय लैना सोई कहिए है। आत्मा कौन है वा पुगल कौन है ताको संप्तो कहिये बहुरिमें तो ररठा ही ही ताको बिमोह कहिये । बहुरिमें वनुक्षु ताको विभ्रम कहिये । बहुरिमें चिद्रूप आत्मा हूं ताको समयक् ज्ञान कहिये । मुखसो कहना ती माफिक मन वि धारना होय सों मनका धारन जैसा जैसा होय तैसा तैसा ही ज्ञान वाको कहिये है। ऐसे सभ्यकज्ञान का स्वरूप जानना। सम्यकज्ञान सम्यकदर्शनका सहचारी है । सहचारीका साथ ही विरले लाग्या है वा विना नाहीं होय । ताके उदै होता वाको भी उदै होय । वाका नास होते उनका भी नास होय । .ताको सहचारी कहिये । सो सम्मकदर्सना । होते सम्यकज्ञान भी होय । सम्यकदर्शनके नास होने सम्यकज्ञानका भी होय । सम्यकदर्शन विना सम्यकज्ञान होय नाहीं। सम्यकदर्सन सम्यकज्ञानको कारन है । ऐसे सम्यक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - • ज्ञानका स्वरूप जथार्थ जानना । इति सम्यकज्ञान संपूर्ण | आगे सम्यक चारित्रका स्वरूप कहिये है । चारित्र नाम सावध जोगके त्यामका है । सो सम्यकज्ञान सहित त्याग किये सम्यक चारित्र नाम पावे है । सो सम्यकदृष्टिके सरघानमें वीतराग है । प्रवृत्तिमें किंचित गग भी है । ताको चारित्र मोह कारन अरु सरधानके भावाको दर्सन मोह कारन । सो सम्यकदृष्टिके अल्प कषाय नाहीं गनि वीतराग भाव ही कहिये । तातें सम्यकदृष्टिको बंध निबंध निराश्रव ही कहिये है तो दोष नाहीं विवस्था जान लेनी। या कथा एक जायगा सास्त्र विर्षे कही है । मिथ्यादृष्टिके. सरधानमें वीतराग भाव नाहीं । वीतराग भाव विना निबंध निश्रव नाहीं। निबंध निराश्रव विना सावध जोगका त्याग कारजकारी नाहीं । सुरगादिकने तो कारन है। परन्तु मोक्षने कारन नाहीं । तातें संसारका ही कारन कहिये । जे जे भाव संसारका कारन हैं ते ते आश्रव हैं। यह कार्यकारी है। अरु सम्यक् विना सावध जोगका त्याग करे है सो नरकादिकके भयका दुःख थकी करे है । परन्तु अंतरंग विषे कोई द्रव्य इष्ट लागे नाहीं । केई द्रव्य अनिष्ट लागे है । तति सरधान विषे रागद्वेष प्रचुर जीवे है । सम्यकदृष्टि पर द्रव्यने अप्तार जान तजे है । ये परद्रव्य कोई सुख दुखने कारन नाहीं निमित्त भूत हैं । दुखने कारन तो अपने अज्ञादिक भाव हैं। सुखने कारन अपने ज्ञानादिक भाव हैं । ऐसा जान सरधान विर्षे पर द्रव्यका त्यागी, हुवा है । तात याके पर द्रव्य सो राग नाहीं। जैसे फटकरी लोदकर कषायला किया वस्तर वाके Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । 1/ ही रंग चढ़े । विना कषायला किया वस्तर दीर्घकाल पर्यंत रंगके समूहमें भीगा रहे तो भी वाके रंग लागे नाहीं। ऊपर ऊपर ही दीस्या करे । वा वस्त्रको पानीमें धोइये तो रंगत उतर जाय । कषायला किया वस्त्र रंग्या हुआ ता रंग कोई प्रकार उतरे नाहीं । त्यों ही सम्यक दृष्टिके कषाय कर रहित जीवका प्रनाम है । ताके दीर्घ काल पर्यंत परिग्रहके भारमे रहें तो भी कर्म मल लागे नाहीं। यह मिथ्या दृष्टिके कषायकर प्रनाम कषायला है । तातें कर्माकर सदीव लिषत होय है । बहुरि साह गुमस्ता माता धाय बालकको एकसा पलावे एकसा लाडपाल करे । परन्तु अंतरंग विर्षे राग भावाका विषेश पड़त है । त्योंही सम्थकदृष्टि मिथ्या दृष्टिके अंतरंग भावाका अल्प बहुत्व विषेश जानना तातें वीतराग भावा सहित सावध योगका त्याग सोही सम्यक चारित्र जानना । इति चारित्र कथन संपून । आगे वारा अनुपेक्षाका स्वरूप कहिये है । बारा नाम बारहका है अनुपेक्षा नाम चितवन करनेका है । सो इहां बारा प्रकार वस्तुका स्वरूप निरंतर विचारना और नाहींके वारयांका स्वरूप जान स्थित होइ पर हरना । भावार्थ । यह जीव भृम बुद्धिकर अनादि कालसे वारा स्थान विर्षे आसक्त हुआ है । तात याकी आसक्तता छुड़ावनेके अर्थ परम वीतराग गुरू यह बारा प्रकार भावना याके आसक्तता सुभावसू विरुद्ध दिखाय छुटाया है। जैसे मदवा हस्ती सुछंद हुआ जहां जहां स्थानक विषे अटके । अपना वा. विराना हिमार बहुत करे ताकों चरषा वा भालावारे सांट मार बहुत हस्तीको बहुत मार देय छुड़ावै हैं। सोई कहिये Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । है प्रथम तो जीव संसारका स्वरूप थिर मान रमत्या है। ताको अध्रुव भावना कर संसारका स्वरूप अथिर दिखाया । शरीर सों उदास किया । बहुरि ये जीव माता पिता कुटुम्ब राजा देव इन्द्र आदि बहुत सुभटनकी मरन वांक्षता संता निरभै अमर सुखी हुवा चाहै है । काल करम सो डरप थकी सरन वांक्षे है। ताको असरन भावना कर सर्वत्र लोकके पदार्थ ताको असरन दिखाय सरन एक निश्चे चिद्रूप आत्मा ही दिखाया । बहुरि ये जीव जगत जो संसार वा चतुर गत ताके दुःखका याको खबर नाहीं । संसार विर्षे कैसा कैसा दुःखे है। ताको जगत भावना कर नरकादि संसारके भयंकर तीवृ दुःखकी वेदनाको सहे ई दिखाय संसार दुःख सों भयभीत किया । अरु संसारके दुःखकी निवृतः होनेका कारन परम धर्म ताका सेवन किया । बहुरि यह जीव कुटुम्ब सेवा कर पुत्र कलित्र धन धान्य शरीर आदि अपने माने है। ताको एकत्व भावना कर एक कोई जीवका नाहीं । जीव अनाद कालका एकला ही है । नरक गया तो एकला तिर्यंच गतिमें गया तो एकला, मनुप्य गतिमें गया तो एकला, देवगतिमें गया तो एकला। पुन्य पापकी सार्थ है । और कोई याके साथ जाय आवे नाहीं तातें जीव सदा एकला है। ऐसा जान कुटुम्ब परवारादिकका ममत्व छुड़ाया । बहुरि यह जीव शरीरने अरु आपने एक ही मान रहा है । ताको असत्य भावनाको वस करतें न्यारा दिखाया जीवका द्रव्य गुन पर्याय न्यारा बताया। पुद्गलका द्रव्य गुन पर्याय न्यारा बताया । इत्यादि अनेक तरहसो भिन्न भिन्न दिखाय निनः स्वरूपकी प्रतीत अनाई । बहुरि ये जीव शरीरको बहुत पवित्र Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५१ माने है । पवित्र मान्या सो बहुत असक्त होय । ताकी आसक्तता छुड़ावने अर्थ अशुभ भाव ताकरि शरीर विर्षे हाड़-मांस-रुधिर चाम-नसा जाल वाय पित्त कफ मल मूत्र आदि सप्त धात वा सप्त. उपधातमय शरीरका पिंड दिखाया । शरीर सों उदास किये अरु अपना चिद्रूप शरीर महापवित्र शुच निर्मल पर्म ज्ञान सुखका पुन अनन्त महमा भंडार अवनासी अपंड केवल कलोल कर दैदीपमान निःकषाय शांत मूरत सबको प्यारा सिद्ध स्वरूप देवाधिदेव ऐसा अद्वैत ध्रुव त्रिलोक कर पूज्य निज स्वरूप दिखाय आप विषै ममत्व भाव कराया । बहुरि यह जीव संतावन आश्रव कर पाप पुन्य जल कर डूबे है । ताको आश्रव भावनाका स्वरूप दिखाया । आश्रव है तिनतै भयभीत किया । बहुरि यह जीव आश्रवके छिद्र मूंदनेका उपाय नाहीं जानता संता ताको संवर भावनाका स्वरूप दिखाया। संतावन संवरके कारण केस्या सो कहिये । दसलक्षनीक धर्म । बारा तप । बाईस परीसह । तेरा प्रकार चारित्र । नाकर संतावन किये । आश्रवके मूंदनेका उपाय बताया । बहुरि यह जीव पूर्वोक्त कर्म बंध होते ताका निर्जरा होनेका उपाय न जानता संता ताके निर्जरा भावनाका स्वरूप दिखाय चिद्रूप आत्माका ध्यान होसी । भया पर्म तप ताका उपाय बताया । बहुरि संसार विषे मोह कर्मका उदय कर संसारी जीवके यह मिथ्या भ्रम लग रहा है। केईकतो ईश्वरकर्ता माने हैं । केई नास्ति माने हैं। केई पुन्य माने हैं । केई वास किये जाके आधार इत्यादि नाना प्रकारके भ्रम सोई हुवा मोह अंधकार जीव भ्रम रहा ताके भृम दूर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । करनेको कांत भावनास्वरूप दिखाय मोह भ्रम जिनवानी किरन्या कर दूर किया। तीन लोकका करता षट् द्रव्य है । षट् द्रव्य समुदायका नाम लोक है । जहां षट् द्रव्य नाहीं एक आकास ही है ताका नाम अलोक है । इस लोक एक पदार्थ करता नाम ही ए लोक अनादि निधन अक्रतम है। अवन्य जी सास्वता स्वयं सिद्ध है। बहुरि ये जीव अधर्म विषे लग रहा है अधर्म कर्ता तृती होता नाहीं । अधर्म क्रियाका बुरा होय है महा क्लेस पाये है । ऐसे ही अनादिकाल वीता परन्तु याके धर्म रुच कवहुं न भई तातें अधर्म छुड़ावनेके अर्थ धर्म भावना स्वरूप दिखाय धर्ममें लगाय अरु धर्मको सार दिखाया और सब असार दिखाया । धर्म विना या जीवका कबहुं भला होय नाहीं तात सर्व जीव धर्म चाहें हैं। परन्तु मोहके उदय कर धर्मका स्वरूप जाने नाहीं धर्मका लक्षन तनक ज्ञान वैराज्ञ है । अरु यह जीव अज्ञानी हुआ सराग भावा विषं धर्म चाहे है अरु परम सुखकी वक्षा करे है । सो यह वांक्षा कैसे है जैसे कोई अज्ञानी सर्पके मुखसों अमृत पान चाहे वा जल विलोय वृत काड्या चाहे वा वजानि विर्षे कमलके बीज वोय वाकी छाया विर्षे विश्राम किया चाहे । अथवा वांझ स्त्रीके पुत्रके विभावके विर्षे आकासके पुण्यका सेहरा गूंथ मुवा पीछे वाकी सोभा देख्या चाहे है । तो वाकी मनोर्थ कैसे सिद्ध होय । अथवा सूरज पच्छिम विर्षे उदय होय, चंद्रमा उस्न होय । सुमेर चलाचल होय । समुद्र मर्यादा लोपे वा सूख जाय । वा सिला ऊपरे कमल ऊंगे। अग्नि शीतल होइ । पानी उस्न होय । वांझके पुत्र होय । आकासके पुष्प लागें। सर्प निर्विष होय । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५३ अमृत विष रूप होय इत्यादि इन वस्तुका सुभाव विपर्जे हुआ न - होय न होसी परन्तु कदाच ए तो विपर्जे रूप होंय तो होंय । परन्तु सराग भावने कारन जीवकी दया आदि राग भाव में धर्म कदाचि न होय । यह जिनराजकी आज्ञा है । तातें सर्व जीवा सराग भावने छोड़ वीतराग भावने भजो । वीतराग भाव है सो ही धर्म है । और धर्म है सो ही दया है । दयामें अरु वीतराग भावमें भेद नाहीं । सराग भाव है सो ही अधर्म है । और धर्म मांडी यह नेम हैं। सराग भाव सो हिंसा जाननी । और जेता धर्मका अंग है सो वीतराग भावने अनुसारता है । वा वीतराग भावाने कारन है । ताही तें धर्म नाम पावे है । और जेता सराग भाव है सो पापका अंग है वा है। ते अधर्म नाम शबे हैं । और अन्य बाह्य कारन विषं धर्म होय व न होय । जेवा क्रिया विषें वीतराग भाव मिलें तो ता विषं धर्म होय । और वीतराग भाव नाहीं मिलें तो धर्म नाहीं । अरु हिंसा अस्त आदि बाह्य क्रिया विषं कषाय अंस मिले तो पाप उपजे नाहीं । तातें यह नेम ठहरया वीतराग भाव ही धर्म है । वीतराग भावने कारन रत्नत्रय धर्म है । रत्नत्रय धर्म और अनेक कारन हैं। तातें वीतराग भावांके मुलाझे । कारनका करन उत्तरोतर सर्व कारनको धर्म कहिये तो दोष नाहीं । ऐसे ही सराग भाव ही अधर्म है । याको कारन मिथ्या दर्शन ज्ञान चारित्र वाको उत्तरोतर ये कारन अनेक हैं । ताको अधर्म कहिये तो दोष नाहीं । सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान वीतराग भाव यह तो जीवका निज स्वभाव है । सो मोक्ष पर्यंत सास्वता तीच भावका विभाव है। सो ही संसार मार्ग है स्वभाव रहे है । यासों उल्टा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। मोक्ष मार्ग है। अरु मोक्षरूपी भी सम्यक चारित्र मोक्ष मार्ग है । मोक्षरूपी नाहीं । तातै सिद्धाके नहीं कह्या है । अरु सयोग अयोग केवलीके चारित्र कहया है । सो ही उपचार मात्र कहा है । चारित्र नाम सावध योगके त्यागका है । वीतराग भावाने कारन है । वीतराग भाव कार्य ही कारजकी सिद्ध हुआ पाछे कारन रहित नाहीं । तातें ज्ञानकी छयोपसम अवस्था वारवां गुनस्थान ही है। ताही ते ही हेय उपादेयका विचार है । तब ही हेय उपादेयका विचार संभवे केवली रुत हुआ कारज करनो छो सो करि चुक्या । तासों वाके सावद्ययोगका त्याग संभवे नाहीं । ऐसा मोक्ष मार्ग धर्म ताही के प्रसाद कर जीव परम सुखी होय है । ऐसे अधर्मको छुड़ाय धर्म भी सन्मुख कीया । बहुरि यह जीव सम्यकज्ञानको सुलभ माने है । ताको दुर्लभ भावनाका स्वरूप दिखाय सम्यकज्ञान विर्षे सन्मुख किया सो कहिये है । प्रथम तो सर्व जीवाका घर अनादि ते नित्य निगोद है । तिन मांहीसू निकरना महा दुर्लभ है। उहांसे निकलनेका कोई प्रकार उपाव नाहीं। जीव हीन सक्त भया है आत्मा जाका सो सक्तहीन जीव मूं कैसे निसर्नेका उपाय आवे । एक अक्षरके अनन्तमें भाग ज्ञानका क्षयोपसम रहा है। अरु अनेक पाप प्रकृति समूहका उदय पाइये है । अरु वहां सो छे महीना आठ समयोंमें छेसौ आठ जीव निकरे हैं। ता उपरांत अधिक हीन मीसरे ही अनादिकालके ऐसे निकर व्यवहार राशि विषं आवें हैं। उतना ही विवहार राशिमें सौ मोक्ष जाय हैं। सो यह काल लब्धि महात्म. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५९ जानूं पूर्वै अनादि कालके जेते सिद्ध भये वा नित्य निगोद में सो निकसे विनतें अनन्त गुन एक समै विषें अनादि काल सो लगाय सास्वते नित्य निगोद में सूं निकसवो करें । तो भी एक निगोदके सरीर मांहि ता जीवका अनन्तवें भाग एक ऐसे में खाली होय नाहीं । तो कहो राजमारग बटवारा माफिक निगोद मांसू जीवका निकसना कैसे होय । अरु कोई भाग उठे वहां सो निकसता आगे भी अनेक घाटा उलंघ मनुष्य विषे भी ऊच कुल, सुक्षेत्र वास, निरोग शरीर, पांचों इंद्री वा निर्मल दीर्घ आयु, संगति जिनधर्मकी प्राप्ति इत्यादि परंपरनामों की महमा कहा कहिये । ऐसी सामग्री पाय सम्यकदर्शन रत्नको नाहीं वांक्षे है । तिन दुर्बुधीका कहा पूछनो । अरु वाके अपजसकी कहा पूछनों । तीसूं एकेन्द्री पर्यायसूं पंचेन्द्री पर्याय पावना महादुर्लभ है । वे इन्द्री पर्यायसूं इन्द्री पर्याय होना महादुर्लभ है । पर्यायसूं चौइन्द्री पर्याय पावना अति कठिन है। चौइन्द्री पर्यायसूं पंचेन्द्री असेनी पर्याय पावना अनि कठिन है । असेनी सेनी तामें भी गर्भज पर्याप्तन होना महादुर्लभ है । सो ये पर्याय अनुक्रमसों महादुर्लभ था सो भी अनन्त वार पाया । परन्तु सम्यकज्ञान अनादकाल लेय अन्तक एकवार भी नाहीं पाया। सो सम्यकज्ञान पाया होता तो विषें क्यों रहता मोक्षके सुखको भी जाय प्राप्त होता । तीनों भव्य जीव शीघ्र ही सम्यक ज्ञान परम चिन्तामनि रत्न महा अमोलक परम मंगल कारन मंगल रूप सुखकी आकृत पंच परम गुरुकर सेवनीक त्रिलोक के पूज्य मोक्ष सुखके पात्र ऐसा सर्वोत्कृष्ट सम्यकज्ञान महादुर्लभ, 1 संसार Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । परम उतकृष्ट परम पवित्र ऊंचा जान याको भजो । घनी कहा कहा कहिये कदाचित ऐसा मोसर पायकर ईहसों चूकता भया तो बहुरि ऐसा मोसर मिलनेका नाहीं । अवर और सामनी तो सर्व · पाइये है एक रुच करनी ही रही है । सो तू या पाया विना ऐसी सामग्री पाई हुई अहली जाय । तो याका दरेग सत्पुरुष कैसे न करें । अरु कैसे सम्यकज्ञान होनेके अर्थ उद्यम नाहीं करें परन्तु करे ही करें । यह जीव फेर एकेन्द्री पर्याय विर्षे जाय पड़े तो असंख्यात पुद्गल परवर्तन पर्यंत अनुत्कृष्ट रहै । एक पुद्गल परवर्तनकी संख्या अनन्त है । अनंते सागर अनन्ते सर्पनी वा काल चक्र अनन्तानन्त प्रमान एक पुद्गल पर्वर्तनके अनन्तमें भाग एक अंस भी पूर्न होय नाहीं । अरु एकेन्द्री पर्याय विषं दुःखका समुद्र अप्रमित है। नरकतें भी अधिक दुख पाइये है सो ऐसा अपरंपार दुःख ऐसे दीर्घकाल पर्यंत सास्वदा कैसे भोगे जांय । परंतु कर्मके वस पड्या जीव कहा उपाय टरे । उहा अनेक रोग विर्षे कोई काल विषे एक रोगकी वेदना उदै होय । ताके दुख कर जीव कैसो आकुल व्याकुल परनवे है । अपघान कर मुवा चाहे सोये सताई पर्याय वि सर्वमाही ही प्रवर्ते है । वा सर्व तिर्यंच पुन्यहीन पुरुष दुखःमई प्रत्यक्ष देखने में आवे हैं। तिनके एक एक दुःखका अनुभवन करऐ तो भोजन रुचे नाहीं । परन्तु यह जीव अज्ञान बुद्धिकर मोह मदरापान कर भूल रहा है । सो कहुं एकांत बैठ विचार ही करे नाहीं । जे जे पर्याय वर्तमान विष पावे तिन पर्याय सों तनमय होय एकत्व बुद्धि कर परनमें है पूर्वापर कुछ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५७ विचार नाहीं ऐसा जाने नाहीं के यह वा अन्य जीव कह अवस्थामें वा सर्व पूर्व अनन्त वेर भोगी है । अरु धर्म विना बहुरि भोगेगा। यह पर्याय छूटा पाछे । धर्म विना नीच पर्याय ही पावना होयगी । तातै गाफल न रह, नाहीं तो गाफल बहु दगा खाय है। मारा जाय दुःख पावे है और वैरी वस परे छे इत्यादि विचार कर सम्यकज्ञान सम्यकचारित्र रत्नत्रय धर्म पर्म निधान है सर्वोत्कृष्ट उपाध्येय जान महा दुर्लभ याकी प्राप्ति जान जिह तिहि प्रकार रत्नत्रय धर्मका सेवन करना । ऐसे दुर्लभ भावना सम्पूर्ण । इति वारानुपेक्षा स्वरूप वर्णन सम्पूर्ण । - ___ आगे बारा प्रकार तपका स्वरूप कहिये है तप अनसन कहिये इनका अर्थ चार प्रकार, असन । पान । खादि । स्वादि । असन नाम पेटभर खानेका है। पान नाम जलदुग्धादि पीवनेका है । खादि नाम सोपाड़ीका है। स्वाद नाम मुखसोदिका. है। यह चार जिह्वा इन्द्रीका भी विषय जानना और इन्द्रियनका नाहीं और इन्द्रीनका विर्षे और है । बहुरि आमोदर्य कहिये क्षुधा निवृत्य विवे एक ग्रास घाट दोय ग्रास घाट आदि घटिता घटिता एक ग्राम पर्यंत भोजनकी पूर्णता विष ऊन भोजन करे ताको ऊनोदर तप कहिये । आज इहि बिध भोजन मिले तो लेनी । नाहीं मिले तो हमारे आहार पानीका त्याग है । ऐसी अटपटी प्रतिज्ञा करे । मन बोले वाके अर्थि आदि छहों रस पर्यंतका त्याग है ताको रस परित्याग कहिये ।' बहुरि आराम प्रमुख छोड़िये कथनका विषं जाय बैठे ताको विविसन कहिये । बहुरि सीत काल विर्षे नदी तलाव चौपटा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaa ANA १५८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आदि सीत विशेष परनेका स्थानक तिष्टे विषे, ग्रीष्मकाल विषे पर्वतके सिखिर, रेतके स्थान वा चोपट आदि मारग विर्षे तिष्टे । वरपाकाल विषे वृक्ष तले तिष्टे इत्यादि तीनों रितके उपाय कर मन भी कस्या जाय है । परन्तु किंचित् कसा कहा जाय है। मनके कसे विना तो तप नाम पावे नाहीं। अरु अभ्यंतर तप कर मन संपूर्ण कस्या जाय है। तातें बाह्य तप बीच अभ्यंतरके तपका फल विषेश कहा है। ऐसा अर्थ जानना। आगे छह प्रकारके अभ्यंतर तपका स्वरूप कहिये है। तिन विषं अप. नसू आखड़ी व्रत संयम वि भूलवाजान कर अल्प बहुत दोष लागे है। ताको श्री गुरू पास जी प्रकार मन वचन कर कृत कारित अनुमोदना कर पाप लागा होय ताको ज्योंका त्यों गुराने . कहें है। अस मात्र भी दोष छिपावे नाहीं । पाछे श्री गुरुनो दंड दें ताको अंगीकार कर फेरसू आखड़ी व्रत संनमादिकका छेद हुए स्थापन करें। ताको प्रायश्चित् तप कहिये । बहुरि श्री अरहंतदेव आदि पंच परमगुरु वा जिनवानी, जिन धर्म, जिन मंदिर, जिनविम्ब तिनका परम उत्कृष्ट विनय करे । वा मुनि अर्निका श्रावक श्राविका चतुर प्रकार संघ ताका विनय करें। वा दस प्रकार संघताया विनय करे । वा आपसूं गुना कर अधिक होय, अव्रत सम्यकदृष्टि आदि धर्मात्मा पुरुष होय ताका विनय करिये । ताको विनय तप कहिये । बहुरि आप सो गुनाकर अधिक होय ताको वैयाकृत तप करिये । वाकी पग चापी आदि चाकरी करिये आहार दीजिये। नाका उनके खेद होय ताको जीती प्रकार निवृत्य करिये। रोग होय तो ओषद दीजिये इत्यादि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५९ विषेश चाकरी करिये ताको वैयावृत तप कहिये । बहुरि वांचना | प्रक्षना, अनुपेक्षा, आमनाय, धर्मोपदेश | ये पांच प्रकार स्वाध्यायके भेद हैं । सो वांचना कहिये शास्त्रको वाच जाना, प्रक्षना कहिये प्रश्न करना, अनुपेक्षा कहिये काव्य श्लोक आदि जो पाठ ताका वारंवार कंठाय करनेके अर्थ घोखना । आम्नाय कहिये जी काल जोग स्वाध्याय होय । वा जो शास्त्रपाउ पहने जोग्य होय । तिनका तिन काल विर्षे अध्ययन करे । और धर्मोपदेश कहिये धर्मका उपदेश देना ऐसे पंच प्रकार स्वाध्याय करना ताको तप कहिये । बहुरि जब जीव वा प्रमान शरीरका त्याग करना, त्याग कहिये शरीरका ममत्व छोड़ना । बाहुबलि मुनकी सी नाई शरीर का कोई प्रकार शोक सर नाहीं करना । अंग उपंगको चलाचल अपनी इच्छा करना ताको विउत्सर्ग व उत्सर्ग तप कहिये | बहुरि एकाग्र चित्त निरोधोध्यान इसका अर्थ यह है । आरत रौद्र ध्यानको छोड़ धर्म ध्यान शुक्रोधायका करना ताको ध्यान तप कहिये । ऐसें बारा प्रकार स्वरूप जानना | आगे बरा प्रकार तप तिनका फल कहिये है । आगां अनसनादि चार प्रकारके तप कर यह जीव स्वर्ग विषे कल्पवासी देव पुनीत पावे है । थोड़ीसी भोग सामग्री मनुष्य पर्याय विषं छोड़सी ताको फल अनन्त पायो । सो असंख्यात कालपर्यंत निर्विघ्रपने रहसी । अरु महा सुन्दर शरीर अमृतके भोगकर ऋप्त असंख्यातका पर्यंत निरोग एकसा गुलाब के फूल साहस्य महा मनोज्ञ डहडात करत आयु पर्यंत निर्मै रहसी । ताकी महमा वचना अगोचर है कहां लो कहिये । आगे स्वर्गनके सुखका विशेष वर्णन करेंगे तहां ते Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | जान ले । बहुरि विव्यक्त सैयासन काय क्लेस येक कर अत्यंत अतसेवंत महा दैदीप तेज प्रताप संयुक्त इन्द्र चक्रवर्त कामदेव वा महत पुरुषका शरीर पावै है । यह तो बाह्य प्रकार घटू तप तिन विषं प्रायश्चितका फल है । बाह्यके तप कर तो शरीर दया जाये है । अरु शरीर दम्याकर किंचित् मन दमा जाय है । ताही भीत नाम पावे है । अरु मन नाहीं दम्या जाय तो एकः शरीरको दुव्यां तप नाम पावे नाहीं । धर्मात्मा पुरुष एक मनकी बुद्धि ताके अर्थ वहरंग तप करे हैं । अरु आनमती शरीर में तो घनों ही कसो है । पुन मन अंस मात्र दम्या जाय नाहीं । तातें वाको असमात्र भी ता न कहा । अरु अभ्यंतर के तप कर मन दम्या जाय है । मनके दमवाकर कपायरूपी पर्वत गले है । ज्यों ज्यों कर्माकी हीनता विषेश जान तपकर होय है । त्योंही तपका फल विशेष जानना । जिन धर्म विषे कर्माकी मंदता सो ही परनामाकी विशुद्वता ताहीका नाम तप है धर्म है । वे ही मोक्ष मार्ग है वो ही कर्मा बालवाने ध्यानानि छे संपूर्न सर्व सास्त्रांका रहस्य कर मोह कर्मके मंद पाड़नेका वास्ता नास करने का है । और जेता संयम ध्यानाध्ययन ज्ञान वैराज्ञ आदि अनेक कारन बताये हैं । सो एक रागादिक भावां सो वधे हैं । अरु वीतराग भावांकर खुले हैं। तातें सर्व प्रकार तीन काल तीन लोक विवें एक वीतराग भाव है सोई मोक्ष मार्ग है। सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्रको मोक्ष मार्ग कहा है । सो यह वीतराग भावांने कारन है तातें कारनके विषे कार्यको उपचार कहा है । कारन विना कार्यकी सिद्धि होय नाहीं । तातें कारन प्रधान है सो प्रतक्ष यह बात अनुभव में Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - आवे है। आगममें ठौर ठौर सर्व सिद्धान्त ता विषं एक सिद्धान्त भाव ही है। कर्म वर्गना सों तीन लोक घीका घड़ावत भरया है । सो कर्म वर्गनासों ही बंध होय है तो सिद्ध महाराजके होय । अरु विर्षे भोग परिग्रहके समूहसों ही बंध होय तो अवृत सम्यकदृष्टि चक्रवर्त तीर्थकर आदि ताके होय । भरत चक्रवर्त क्षायक सम्यकदृष्टि था, तातै सम्यक्तिके महात्म कर षट् खंडकी विभूत छियानवे हजार स्त्री योगने कर ही बंध निराश्रव ही रहा ताही तें दिक्षा धरे पछे अंतमुहुर्तकाल व ने केवलज्ञान उपाा सो सम्यकका महात्म अदभुत है। यहां प्रश्न तुम कहते हो मुनि महाराज अवृत सम्यकदृष्टिके बंध नाहीं। तो चौथा गुनस्थानसूं लगाय दसवां गुनस्थान पर्यंत अनुक्रमतें घटता घटता बंध कैसे कह्या । जाकर उतर यह कथन है । सो तुरति सम्यक्त की अपेक्षे है । सो बंधने मूलभूत कारन एक दर्शन मोह है । जैसा दर्शन मोहते बंध है तातें नाहींगने । निश्च विचारता दसमां गुनस्थान पर्यंत रागादिकोंमें बंध पाइये है । यह भी शास्त्र विषे कहा है। सो यह न्याय ही है । जी जी स्थानक विर्षे जेता रागभाव है । तेता तेता ही बंध है यह बात सिद्ध भई । एक असाधारन कारन अष्टकर्म बंधनेको मोहकर्म है ताते एक मोह हीको नास करनको प्रायश्चित तप विर्षे धर्मबुद्धि विषेश होय है। अरु जाके बर्मबुद्धि विषेश होय संसारके दुखका भय होय सोई गुरुनपे जाय प्रायश्चित दंड लेय याका मनकी बात कौन जाने था याके आखड़ी भंग गई है। परन्तु यह धर्मात्मा परलोकका भय थकी प्रायश्चित्त अंगीकार करें हैं। यातें अनन्त गुनाफल विनय तपका है। या Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । विषे मन विषेश लगे है । यातें अनन्त गुनाफल स्वाध्याय तपका है । या विषे च्यारू कषाय मोह सहित विषेश गले है । अरु पाचों इन्द्री वस होय हैं । मन वस होय है । चित्तकी एकाग्रता 1 होय है सोही ध्यान है । ध्यानसों मोक्ष विशेष है । संम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र निर्मल होय है । अरु पुन्यका संचय अतिशय सहित होय है । जेता धर्मका अंग है ते सर्व ज्ञान चारित्र निर्मल होय है । अरु पुन्यका संचय अतिशय सहित होय है । तेता धर्मका अंग है ते सर्व ज्ञानभ्यास ते जान्या जाय है । तातें सर्व धर्मका मूल एक सास्त्रभ्यास है । याका फल केवल ज्ञान है । बहुरि स्वाध्याय ने व्युतसर्ग अरु ध्यान चाका फल भी अनंतानंत गुना है । याका फल मुख्यपने एक. मोक्ष ही है । बहुरि बाह्य तप कहें हैं सो भी कषाय घटावनाके अर्थ कहें हैं । कषाय सहित बड़ा तप करे तो वह तप संसारका ही बीज है । मोक्षका बीज नाहीं ताहीं ते अज्ञान तप कहा है । सो ही आन मतमें है । जिन मतमें नाहीं । ऐसे वारा प्रकारके तप ताके फल जानना । अगे तपका फल विशेष कहिये है । सो देखो आनमत बारे वा तिथंच मंद मंद कषाय के महात्म कर सोलवा स्वर्ग पर्यंत जय हैं। तो जिन धर्मके सरधानी कर्म काट मोक्षको न जाय । तातें तप कर कर्मोका निर्जरा विशेष होय है । सो ही दस सूत्र विषें कहा है । तपतें निर्जरा तातें अवश्य आभ्यंतर वा बाह्य बारा प्रकारके तप तिनको अंगीकार करना । तप विना कदाचि कर्म करें नाहीं । ऐसा तात्पर्य जानना । एवं संपूर्न / आगे बार प्रकार संयम कहिये 1 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ~~ ~~ ~~ ~~~ ~ ~~ ~ है। ताका स्वरूप कहिये है। संनमे तिया. संयम सो संयम दोय प्रकार है। एक इंद्रिय संयम एक दूसरा प्रान संयम सो इन्द्रिय संयम छः प्रकार है अरु प्रान संयम भी छः प्रकार है । पांच इन्द्री छटा मनको निरोध करे । षट्र कायकी हिंसा त्यागे ताको इन्द्रिया संयम प्रान संयम निःकषाया होनेको कारन है। निःकषाय है सो ही मोक्षका मारग है । संयम विना कदाचि निःकषाय होय नाहीं । निःकषाय विना बंध उदै सत्ताका अभाव होय नाहीं । तातै संयम ग्रहन करना योग है। एवं संयमका स्वरूप संपूर्न । आगे जिनबिम्बका दर्सन तथा नमस्कार कर कहा भेंट धरिये कैसे अस्तुत वा विनय करिये ताका स्वरूप विशेष कर कहिये है। दोहा-मैं वन्दों जिन देवको कर अति निर्मल भाव । करम बंधके छेदने और न कोई उपाव । या भांत चितवन कर प्रभातकी समायक किये पीछे लघु दीर्घ वाधा मेटि जल शुच करि पवित्र वस्त्र पहरे । अरु मनोज्ञ पवित्र य दोय - आदि अष्ट द्रव्य पर्यंत रकेवी विषे धर तंदुल धो रकेबीमें ले आप उ वयनायगा । चाम उनका स्पर्श विना महा हर्ष संयुक्त जिन मंदिर आवे । अरु जिन मंदिरमें घसता तीन सब्द ऐसे उच्चारे । जय निःसही । जय निःसही। जय निःसही। ताका अर्थ यह जो देवादिक कोई गुप्त तिष्टे होंय ते दूर हो । बहुरि तीन सब्द पीछे ऐसे उच्चारे । जय, जय, जय, पीछे श्रीजीके सन्मुख खड़ा होय । जो द्रव्य ल्याये तिनको रकेबीमें घर तीन वार फेर श्रीनीके सन्मुख खेपिये। पीछे रकेबीको दूर मेल दोनों हस्त जोड़ न्याले अरु पोले हाथ राख तीन आ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । बर्तन कर एक श्रोनित कीजे पीछे अष्टांग नमस्कार ताका अर्थ तीन । मन वचन काय शुद्ध, दोय हाथ, दोय पग अरु. माथो नवावे वाको. अष्टांग नमस्कार कहिये । नमस्कार कीजे अरु तीन प्रदक्षना पहली दीजे । भावार्थ-अष्ट कर्मको ही नवाइये । अष्ट अंग कोन तिनके नाम । हाथ दोय । पग दोय । मस्तग। मन। वचन । काय । तीन ऐसे आठ अंग ताके उत्तर अघय अवयव मुख आंख कान अंगुली आदि उपंग जानने । भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं तासको सर्व ही अंग उपंग नमाय नमस्कार करिये । सर्वोत्कृष्ट बिनै संधै है। बहुरि जिनवानी वा निग्रन्थ गुरू तिनको पंचांग नमस्कार करिये। पंचांग कौन दोन्यों गोड्या धरती सू लगाय दोन्यो हस्त जोड़ मस्तकसो लगाय हस्त सहित मस्तक भूम सू लगाय । यामें छाती पीठ नितंब विना पंच ही अंग नए तातै पंचांग कहिये। बहुरि पीछा खड़ा होय तीन प्रदक्षना दीजे एक एक प्रति एक दिसाकी तरफ पहली तीन आवर्त सहित एक एक श्रोनित कीजिये । पीछे सन्मुख खड़ा होय । स्तुत्यादि पाठ पढ़िये । पीछे अष्टांग दंडोतकर पीछे पगाही पगा होय । अपने घरको उठ आइथे । अरु निर्ग्रन्थ गुरू विराजे होंय तो नमोस्तु कीजे वाका मुख थकी धर्मोपदेस सुनीजे प्रस्नका निवारन करीजे अरु मंदिर विषं निनबानीका उच्चार होता होय तो सरधानी पुरुष मुख थकी शास्त्र श्रवन कर अपने डेरे आइये । असरधानी पुरुषका मुखसों शास्त्र सुनना जोग्य नाहीं। शास्त्र श्रवन किये विना न आइये । भावार्थ-जिन दर्शनकी क्रिया विषं तो अष्टांग नमस्कारवाला श्रोनित छत्तीस आवति Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । करिये । अब स्तुति करनेका विधान कहिये । जैसे राजादिक बड़े महंत पुरुष निकट कोई दीन पुरुष अपने दुःखकी निर्वृति अर्थ जाय सन्मुख खड़ा होय मुख आगे भैट धर ऐसे वचनालाप करे। पहिले तो राजाकी बड़ाई करे पीछे निकट जाय है आपको दुःख होय तो के वार युक्तकर कहे। पीछे वाकी निर्वृतको वांक्षता संता ऐसे कहे । ये मेरे दुःखकी निवृति करो सो ही ये संसारी परम दुखित आत्मा दीन मोह कर पीड़ा हुवा श्रीनीके निकट जाय खड़ा होय भेट आगे धर पहले तो श्रीनीकी महमा वर्णन करे। गुनांवाद श्रीजीका मावे । पीछे आपको अनाद कालको मोहकर्म घोरान घोर निगोद नर्कादिकके दुःख देवे ताका निर्नय करे। पीछे वाकी निवृतिके अर्थ ये प्रार्थना करे । सो हे भगवान यह अण्टकर्म मेरी लार लागे है । मोको महा तीव्र वेदना उपनावे है। मेरा स्वभावको घात मेली है । ताके दुःखकी बातमें कालों कहूं सो अब ऐसे दुःखनका निपान करिये। अरु मोकों निर्मोह स्थान मोक्ष ताको दीजिये । सो मैं चिरकाल पर्यंत सुखी हूं। पीछे भमवानका प्रताप कर यह जीव सहजा ही सुखी होय है । अरु मोहकर्म सहज ही गले है । अबै याका विशेष वर्नन करिये है। जय जय त्वं च जय त्वं च जय जय भगवान जय प्रभूजय नाथमय करुनानिधि जय त्रिलोकनाथ जय संसारसमुद्रतारक जय भोगसूं परान्मुख जय वीतसग जय देव जय साचा देव जय सत्यवादी जय अनोपम जय बाधा रहित जय सर्वत्र प्रकाशिक केवल ज्ञान मूरत जय त्रिलोकित्रलोक जय सांत मूरत जय अविनासी जय निरंजन जय निराकार जय निर्लोभ जय अतुल महमा भंडार जय Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान अनंत वीर्य अनंत सुखकर मंडित संसार सिरोमणि गनधरदेवा कर वासौ जातके इन्द्रांकरि पूज्य तुम जय वंत प्रवर्ती तुम्हारी जय होय तुम बड़ा वृद्धि होहु जय परमेश्वर जय पर्म ईश्वर जय जय अनंदपुंज मय अनंदमूर्ति जय कल्यान पुंज जय संसार समुद्रके पारगामी जय भव जलद जिहाज जय मुकति कामनी कंत जय केवल ज्ञान केवल दर्शन लोचन परम पुरुष परमात्मा जय अवनाशी जय टंकोतकीर्ण जय विस्वरूप जय विस्वत्यागी विस्व ज्ञायक जय ज्ञान कर लोकालोक प्रमान वा तीन काल प्रमान अनन्त गुण खान जय चोसट रिद्धि भंडार अनन्त गुनके ईश्वर जय सुख सरोवर मान जय संपूर्न सुखकर ति सर्व दोष दुखकर रहित जय अज्ञान तिमिरके विध्वंसक जय मिथ्या वज्रके फोड़नेको चकचूर करनेको परम वज्र जय त्वंग शीस जय त्वंग ज्ञानानंद वरसाने भव तापको दूरवाने वा भव्य जीव खेती के पोषने या भव्य जीव खेतीके ज्ञानदर्सन सुख वीर्य आंगो पांग तीन लोकके अग्रभाग तिष्टे हैं । परन्तु तीन लोकने एक प्रमानके भाग मात्र खेद नाहीं उपजावें हैं । भगवानके उपगारने नाहीं भूलें हैं । तातें बुद्धिकर अल्प तिष्टे हैं । तव में भगवानके अनन्तवीर्य जाके भार मस्तग ऊपर कैसे धारोगे । याका भार मेरे बूते कैसे रहा जायगा भगवान अनन्त वली में असंख्यात वली असंख्तातवली ऊपर अनन्त वलीका भार कैसे ठहरे । तिन अगारू जाय भगवानकी सेवा कहिये तो भगवान परम दयाल हैं । सो मेरे ताई खेद न उपजायेंगे । सो अबै प्रत्यक्ष देखिये भगवान वृद्धि होनेको मेघ सादृश्य है । अहो भगावनजी 1 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १६७ Vvvvvvvvvvv आकास विषे ये सूरज तिष्ठे है । सो कहिये है मानो तुम्हारी ध्यानरूपी अग्निका कनका ही है । अथवा तुम्हारे नखकी ललाई आकाशरूपी आरसी विषं ये प्रतिबिंब ही । अरु हो भगवानजी तुम्हारे मस्तग ऊपरै तीन क्षत्र सोभे हैं। सो मानू छत्रका मिस कर तीन लोक ही सेवनेको आये हैं । अरु हो भगवानजी तुम्हारे ऊपर चौसट चमर दुरे हैं सो मानू चमरीका मिसकर इन्द्रके समूह गोप्य ही नमस्कार करें हैं । अहा भगवानजी जे तेरे सिंहासन कैसे सोभे हैं यह सिंहासन नाहीं मानू ये तीम लोकका समुदाय एक लोक होय तुम्हारे चरनकमल सेवनेको आये हैं । सो कैसे होत संते सेवे हैं । यह भगवान अनन्त चतुष्टयको प्राप्त भये हैं । सो सिद्ध अवस्था विषं मेरे ऊपर तिठेगे । अहो भगवान नी तेरे असोक वृक्ष ऊपर तिष्ठे है। सो त्रिलोकके जीवाने शोक रहित करे है । बहुरि हे भगवाननी आपके शरीरकी क्रांत जैसा जैसा शरीर होय तैसा तैसा ही भामंडल कियो दसों दिसाने उद्योत किया है । ता विर्षे सात तो देखने हारेका प्रतभासे है । बहुरि हे भगवाननी तुम्हारे आभ्यंतरके आत्मीक गुन तो अनंतानंत हैं। ताकी महमा तो कौनपै कही जाई है। परंत आपाके प्रतिसय कर शरीर भी ऐसा अतिशयरूप प्रणम्या है । ताका दर्शन किये विकार भाव विले जाय । काम उपसांत होय । मोह जड़ मूलो उड जाइ । ज्ञानावरनादि घातिया कर्म सिथिल होंय । पाप प्रकृति प्रलेतें प्राप्त होय । सम्यकदर्शन मोक्षका वीर्य उत्पन्न होय । इत्यादि सर्व आभ्यंतर बाह्य विप्र विलै जाइ । सो हे भगवान ऐसे शरीरकी महमा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ -ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सहस्र जिह्वां कर इन्द्रादिक देव क्यों नाहीं करें। अरु हजार नेत्र कर तुम्हारे स्वरूपका निरूपन क्यों नाहीं करें। अरु इन्द्रायाका समुह अनेक सरीर बनाई भक्त आन दरसकी भीगी क्यों नाहीं नृत्य करें । बहुरि केसो है तुम्हारा शरीर ता विषं एक हजार आठ लक्षने पाइये है। तिनका प्रतबिम्ब आकाश रूपी आरसी विर्षे मानू नाहीं परया है। सो तुमारे गुनोंका प्रतिबिम्ब तारेनके समूह प्रतभासे है । बहुरि हे जिनेन्द्र देव तुम्हारे चरनारबिंदके नखकी ललाई कैसी है मानू केवल ज्ञान दिसका उदय करवाने सूरज ही उहां. ऊगा है। वा भव्य जीवके वर्म काष्ट वाने तुमा नाग्निके तिन ज्ञान होय आन नाहीं प्राप्त भया वा मंगल वृक्ष तिनके कूपल ही नाहीं है। वा तप रूपी गन ताके मस्तगका तिलक ही नाहीं हैं । अथवा चिन्ता मन रत्न कल्पवृक्ष चित्रामवेल कामधेन रसकूप पारस वा इन्द्र धर्नेन्द्र नारायण बलभद्र तीर्थकर चतुर प्रकारके देव राजाने समूह यह समस्त उल्लष्ट पदार्थ अरु मोक्ष देनेका एक भानन परम उत्कृष्ट निधान ही है । भावार्थ । सर्वोत्कृष्ट वस्तुकी प्राप्ति तुमारे चरनाके आराध्याये मिलै है । तातै तुमारे चरन ही उत्कृष्ट निध हैं । बहुरि भगवानजी तेरा हृदय विस्तीरन कैसे सोभे है मान् लोकालोकके पदार्थ ही अभ्यंतर समाय गये हैं। बातें विस्तीर्न है । अरु तुमारी नासका ऐसी सोभे है मानू मोक्ष चढ़नेकी नसेनी है । अरु तुमारा मुख ऐसा सोहे है मानू गुलाबका फूल ही विगस्या है अरु तुमारे नेत्र ऐसे सोभे हैं मानू रक्त कमल विकसायमान है । अरु तुम्हारे नेत्रामें ऐसा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १६९ आनंदरस है। ताके एक अंस मात्र भी आनंदका निर्मापन ताकर जानके देव तिनके शरीर उत्पन्न भये हैं । इत्यादिक तुम्हारे शरीरकी महमा कहने समर्थ त्रिलोकमें कोई नाहीं। लाड़ला पुत्र माता पिताकू चाहे त्यों बोले पीछे माता पिता वापे बालग जानकर वासू प्रीति ही करे । अरु मन वंक्षित मिष्ट वस्तु वान खावा मगाय देय । तासू हे भगवान तुम हमारे उधित माता पिता हो। अरु में लघु पुत्र हों सो लघु बालक जान मोपर क्षिमा करिये। हे प्रभूजी तुम समान मेरे और वल्लभ नाहीं । अरु हे भगवानजी मोक्ष लक्षमीके कंथ थें ही हो । अरु जगतका उधारक थेई हीं अर भव्य जीवाने उद्धारवां समर्थ थेई हो। तुमारे चरनारबिन्दको सेय सेय अनेक जीव तिरे और तिरेंगे अरु तिरे हैं । अहो भगवान दुख दूर करने थेई समर्थ हो । अरु हे भगवान हे प्रभू हे जिनेन्द्र तुम्हारी महमा अगम्य है । अरु हे भगवान समोसरन लक्ष्मीसू विरक्त थेई हो । कामवानके विध्वंसक थेई हो। मोह मल्लको जीतवाने अभूत मल्ल हो । अरु जरा वा मरनसू रहित होइ कालरूप दानाका जपने तुम ही प्राप्त भया हो। काल निर्दई अनाद कालको त्रिलोकका जीवाने निगलतो निपात करतो सो जाका निवारवाने कोई समर्थ नाहीं समस्त त्रैलोक्यके जीव कालका गालमें वसे है । तिनकू निर्भे वो दातातें चगल चगल नगलै है। खोभी त्रिप्त नाहीं होय । ताकी दुष्टता अरु प्रलबताने जीतवा कोई समर्थ नाहीं ताको तुम छिन मात्रमें जीता सो हे भगवान तुमकू हमारा नमस्कार होहु । बहुरि हे भगवाननी तुमारे चरनक सन्मुख आवता मेरा पग पवित्र भया अर तुम आगे हस्त Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NARANA ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जोड़ता हाथ पवित्र भया अरु तुमारा रूप अवलोकन करता नेत्र पवित्र भया । तुमारे गुनकी महमा वा स्तुति करता जिह्वा पवित्र भई । अरु तुमारे गुननकी पंकति सुमरन करता मन पवित्र भया । तुमारे गुनानुवाद श्रवन करता श्रवन पवित्र भया । तुमारे गुननका अनमोदना कर मन पवित्र भया । तुमारे चरननकू अष्टांग नमस्कार करता सर्वांग पवित्र भया । हो जिनेन्द्रदेव धन्य आजकी घड़ी धन्य आजका दिन धन्य आनका मास वा संवत्सर सो या कालमें दर्शन करनेकू सन्मुख भया । हे परमेश्वरजी मेरे आपका दर्सन करता ऐसा आनन्द भया मानू निधि पाई। चिन्तामन रत्न पाया वा कामधेन वा चित्रावेल घरमें आई । मानू कल्प वृक्ष मेरे द्वारे भया । वा पारसकी प्राप्ति हुई । सम्यक रतन तो मेरे सहन ही उत्पन्न भया । सो ऐसे सुखकी महमा मैं कौन कहों । अहो भगवानजी तुमारे गुनकी महमा करता जिह्वा त्रप्ति होय नाहीं। तुम्हारे गुन अनमोदना करता मन त्रप्ति होय नाहीं । अरु तुमारे रूपको अवलोकन करता नेत्र त्रप्ति होंय नाहीं । हे भगवाननी मेरे ऐसा उत्कृष्ट पुन्य उदय आया अरु ऐसी काल लब्धि आय प्राप्त भई जाके निमित्तकर सर्वोत्कृष्ट त्रैलोक्यं पूज्य सो आज ऐसे देव पाये । सो धन्य मेरा मनुष्य भव सो आपके दर्शनकर सफल भया । पूर्वं अनन्त पर्याय तुमारे दर्शन विना विफल गये । अहो प्रभूजी तुम पूर्वं तीन लोक पूज्य पवित्र नव तू छोड़ संसार देहसू विरक्त होय भो भगवान भोग भाव असार जान मोक्ष उपादेय मान स्वमेव अहंती दिक्षा धरी । ततकाल ही मन पर्यय ग्यान भया। पीछे शीघ्र ही केवल ज्ञान सूर्यका-निरावर्न Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १७१ उदै होय । लोकालोकके अनन्ते तत्व पदार्थ द्रव्य गुन पर्याय संयुक्त द्रव्य क्षेत्र काल भावने लिया तीन काल मध्य चराचर पदार्थ एक समयमें तुम्हारे ज्ञान रूपी आरसीमें स्वयमेव ही विना इन्द्रिय आन झलका ताकी महमा कहवाने सहस्र जिह्वासु इन्द्र भी समरथ नाहीं। वा वचनवल रिद्धके धारक गनधरादि महा जोगीसुर भी नाहीं। बहुरि भव्यजीवाका पुन्यके उदयते तुमारी दिव्यध्वनि निकसी सो एक अंत महूर्तमें ऐसा तत्वोपदेस खिरे ताकी रचना शास्त्रमें लिखिये । तो उन शास्त्रोंसो अनन्त लोक पून होयं । हे भगवान तुम्हारे गुनकी महमा कैसे करिये । बहुरि हे भगवान तुमारी वानीका अतिशय कहा कहिये । जो ऐसा खिरे. अनक्षर रूप अनेक भेद लिया पीवे भव्यके कर्न संपुष्टमें पुद्गलकी वर्गना सब्द रूप प्रवर्ते । असंख्यात ऐसे चतुरन कायके देव देवांगना असंख्यात वर्ष पर्यंत प्रश्न विचारे थे । अरु असंख्याते मनुष्य वा तिर्यंच घना काल पर्यंत प्रश्न विचारें थे तिनको अपनी भाषामें प्रश्नके उत्तर हुवे और जिन उपरान्त अनेक वाक्यका उपदेश देय तिस उपरान्त अनन्तानन्त तत्वके निरूपन अहला गया जूंघ त्यूं अपरंपार एक जातके जलरूप वर्षा करे पीछे आम नारियल इत्यादि अनेक वृक्ष अपनी अपनी समर्थ माफिक जलका ग्रहन करे । अपने अपन स्वभाव रूप परनवे । बहुरि दर्याव तलाव कुआ वावड़ी आदि निवान अपने अपने माफिक जलका ग्रहन को अरु अवषेश मेघका जल योंही जाय है। त्यों ही जिनवानीका उपदेश जानना बहुरि ता विषे हे भगवानजी तुम ऐसा उपदेश दिया। ये षटद्रव्य अनादि निधन हैं। तामें पांच द्रव्य तो Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | थिर ध्रुव तिष्टें दुहरा तीन अचेतन जड़ है। जीव नाम द्रव्य चेतन है तामे पुद्गल मूर्तीक है अवशेष पांच अमूर्तीक हैं । येही छहों द्रव्यका समुदाय सो ही लोक कहिये । जहां एक आकास द्रव्य ही पाइये पांच न पाइये -तासू अलोक कहिये । लोक अलोकका समुदाय आकाश एक अनन्त प्रदेशी तीन लोक प्रमान असंख्यात प्रदेशी एक एक धर्म अधर्म द्रव्य है । अरु कालकी कालानु असंख्यात एक एक प्रदेस मात्र है । जीव द्रव्य एक एक तीन लोकके प्रमान असंख्यात प्रदेश समूह तें है जिनसो अनन्तगुने एक प्रदेस आकाशको धेरै पुद्गल द्रव्य अनंत है । सो चार द्रव्य अनादुके हैं । जीव पुद्गल ये गमनागमन भी करें हैं । सो लोक आकास द्रव्यके बीच तिष्ठे है । याका करता कोई और नाहीं । ये छहों द्रव्य अनन्तकाल पर्यंत स्वयं सिद्ध बन रहे हैं । अरु जीवनके रागभावन करि पुद्गल पिन्डरूप प्रकृति प्रदेस स्थित अनुभाग चार प्रकार बंध तासूं जीव बंधे है । वाके उपदेसने जीवकी दशा एक विभावरूप होय है । निजभाव ज्ञानानंदमय धारया जाय है । जीव अनन्त सुखका पुंज है । कर्मके उदयतें महा आकुलतारूप परनवे है ताके दुखकी वार्ताको कहनेको समर्थ नाहीं । या दुखकू निवारवे अर्थ सम्यकदर्सन ज्ञानचारित्रका उपदेस भगवान देते भये । तुमही संचार समुद्र में डूबते प्रानीनको हस्ता लंवन हो । तुमारा उपदेस न होता तो ए सर्व प्रानी संसार में डुबे हीं रहते तो बड़ा नल लहो तांतै तुम धन्य हो अरु तिहारा उपदेश धन्य है । अरु तुमारा सासन धन्य है । • तुमारा बताया मोक्षका मार्ग धन्य है । अरु धन्य तुमारे अनुसारी Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | १७३ 1 मुन्यादिक सत्पुरुष ताकी महमा करने समर्थ हम नाहीं । कहां तो नर्क वा निगोदादिकके दुख वा ज्ञान वीरजकी नूनता अरु कहां मोक्षका सुख अरु ज्ञान वीर्यादिककी अनन्तता सोहे भगवान तुमारे प्रसाद कर यह जीव चतुर गतिके दुखको छोड़ सुख है । ऐसे परम उपगारी तुम ही हो । तातें हम तुमारे ताई वारंबार नमस्कार करें है। बहुरि भगवानर्जी म ऐसा तत्वोपदेसका व्याख्यान किया ये अधो लोक है, ये मध्य लोक है, यह ऊर्द्ध लोक है, तीन बात विलैकर वेष्टित है । वा तीन लोकका एक महा स्कंध है । ता विषें अष्ट प्रतमा स्वर्ग विमान जड़ रहे है । बहुरि एकेन्द्री जीव वे इन्द्री जीव ऐते इन्द्री ऐते पंचेन्द्री ऐने तिर्यंच ऐते मनुष्य ऐते देव ऐते पर्याप्त ऐते अपर्याप्त ऐते सुक्ष्म वा बादर ऐते नित्य निगोदके जीव ऐते अतीत कालके समय अनन्ते तासु अनन्त वर्गना स्था गुने जीव रासका प्रमान है । अरु तासो अनन्त वर्गना स्थाना गुने पुद्गल रासका प्रमान है अरु तासू अनन्त वर्गना स्थान गुने अनन्त कालका प्रमान है । तासू अनन्त वर्गना स्थान गुने आकास द्रव्यका प्रदेसनका प्रमान है । तातें अनन्त वर्गना स्थान गुने धर्म द्रव्य अधर्मं द्रव्यका अगुर लघु नामा गुन ताका अविभाग प्रतिक्षेद है । तातें अनन्त वर्गना स्थान गुने सूक्ष्म निगोदिया अलब्धि अपर्याप्तनके सर्व जीवांसू घाटि घाटि एक छोटे अक्षरके अनन्तवें भाग ज्ञान कोई ऐसा निरास पाइये है । ताका नाम पर्याय ज्ञान है वासूं कोईके ज्ञान त्रिकाल त्रिलोकमें घाट न होय । वह ज्ञान निरावरन रहे है वापर ज्ञानावरनीका Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आवरन आवे नाहीं । जे आवरन आवे तो सर्व ज्ञान घात्या जाय । सर्व ज्ञान घातवा कर जड़ होय जाय सो होय नाहीं । सो वह पर्जाय ज्ञान विषे अविभाग प्रतिक्षेप पाइये है । तातें अनन्त वर्गना स्थान गुने जघन्य छायक सम्यक के अविभाग प्रतिछेद पाइये है । तातें अनन्त वर्गना स्थान गुने केवल ज्ञान केवल दर्शनका आविभाग प्रतिछेद पाइये है । सो ऐसा भी उपदेश तुम ही देते भये और भात उपदेस तुम दिया जो एक सुईकी अनीका डागला ऊपर असंख्यात लोक प्रमान अषध पाइये है। एक एक सखंद में असंख्यात लोक प्रमान अंडर पाइये है । एक एक अंडा विषे असंख्यात लोक प्रमान आवास पाइये है। एक एक आवामें असंख्यात लोकप्रमान पुलवी पाइये है । एक एक पुलवी विषे असंख्यात लोक प्रमान शरीर पाइये है । एक एक शरीर विषै अंतकालके समयासूं अनंतानन्त वर्ग स्थान गुन जीव नामा पदार्थ पाइये । एक एक जीवके अनन्त अनन्त कर्म चर्गना लागी है । एक वर्गना विषें अनन्त अनन्त परमान पाइये है । एक एक परमानूके साथ अक्रम निसर सो पचये जीव राससो अनंतानन्त गुनी प्रमान विषं अनन्त अनन्त गुण वा पर्याय पाइये है । एक एक गुन वा पर्यायका अनन्त अविभाग प्रतिछेद है । ऐसी विवित्रता एक सुईकी अनीका डागरा ऊपर निगोद रासके जीवा विषे पाइये है । सो ऐसे जीव ऐसो परमानू कर वेढ़त वा वर्गना कर अक्षादित जीवां तीन लोक घीका घड़ावत अतिसय कर पूर्न भरया है । सो एक निगोद शरीर माहिला जीव ताके अनन्तव 1 भाग भी निरंतर मोक्ष जाने कर तीन कालमें घटे नाहीं और • Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १७५ ऐसा उपदेस भी तुम ही देते भये । बहुरि वेई सुईकी अनीका डागला ऊपर पूर्वे कहे जीव तीन लोकके लाया कर्म व अकर्भ रूप अनंता अनन्त गुनी प्रमान वा एक सुईकी अनीका डागला ऊपर आकास पाइये है। ता विर्षे अनन्तानंत प्रमान वापुली तिष्टें हैं । अनंता सखंध दो दो प्रमान वाका तिष्टे है। ऐसे है। एक एक परमानू अधिक अधिक स्कंध तीन परमानू वाका स्कंध सो लगाय अनंत परमानू वाका स्कंध पर्यंत अनंत जातके सकंध एक एक जातके स्कंध सो भी अनंत अनंत सुईका अग्र भागमें अनंत परजाय अनंत गुण अनंत अविभाग प्रतिछेद तीन काल सम्बंधी उत्पाद व्यय ध्रुवकी अवस्था सहित एक समयमें मिनेन्द्रदेव तुमही देखे अरु तुमही जाने अरु तुमही कहे। अरु या परमानू वाके परस्पर रुख सचिखन दूनाका दि वार्ता नाहीं। दो दो अंसांसू अधिकता ये संग कर सज्रबंध विषयबंध सुनातिबंध विनातिबंध ऐसे परमानू वाका परस्पर बंध । वा निः कारन रूख सचिकन अंसाका समूह ताकी परपाटी लियां बंधने कारन है । वा अकारनका स्वरूप भी तुमारे ज्ञान विषं झलके। अरु दिव्यध्वनि कर कहते भये सो हे जिनेन्द्रदेव तुमारा ज्ञान रूपी आरसी कैसी बड़ी है । ताकी महमा कहा लग कहिये । बहुरि हे भगवान हे कल्याननिध हे दयामूरत हम कहा करे प्रथम तो हमारे सरूप ही हमने दीसे नाहीं । अरु हमने दुःख देनेवारे दीसे नाहीं। अरु वाका कहा अपराध हम पूर्वं किया । ताकर हमारे ताई कर्म तीव्र दुःख देहें । अरु ये कर्म किसी भांत सों उपसांत होंय सो ही हमने दीसे नाहीं। अरु हमारा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । निज स्वरूप कहा है । कैसा हमारा ज्ञान है कैसा हमारा दर्सन है। कैसा हमारा सुखवीर्य गुन हम कौन हैं । हमारा द्रव्य गुन पर्याय कहा है । पूर्वं हम किस क्षेत्रमें किस पर्यायकू धरै तिष्टे थे । अब इस क्षेत्र ई पर्यायमें कौन मित्रने ल्याय प्राप्त किये। अरु. अब हम कहा कर्तव्य करें हैं अरु कौनका परनाया परनवे हैं । सो जाके फल अच्छे.लागेंगे वा बुरे लागेंगे हम कहां जायगे कैसी कैसी पर्याय धरेंगे सो हम किछू मानते नाहीं । तो हमारे खुशीका उपाय जो ज्ञान सो कैसे पावें जो हमारे ही ऐता ज्ञानका क्षयोंपसम होते परम सुखी होनेका उपाय भासे नाही तो एकेन्द्री आदि अज्ञानी तिर्यंच जीव वा नारकी महा कलेस कर पीड़त जाके आंखके फरकने मात्र भी निराकुलताका कारन नाहीं । तो उन जीवनकू कहा दोष परन्तु धन्य है आपकी दयालुता। धन्य है आपका सर्वज्ञ ज्ञान । धन्य है आपका अतिशय अरु धन्य है आपकी परम पवित्र बुद्धि । धन्य आपकी प्रवीणता अरु विचक्षनता सो आप दया बुद्धि कर सर्व ही वस्तुको भिन्न भिन्न बतावो हो । अरु आत्माका निज स्वरूप अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान अनन्त सुख अनन्तवीर्यका धनी आप साढस्य बताया अरु द्रव्यसों रागादिक भावको उपजावन बताओ । रागद्वेष मोह भावनकर कर्मनसू जीव बंधते आये । पीछे वा काल विर्षे जीव महा दुखी होते दिखाये। वीतरागता कर कर्मनसू निबंध निराश्रव होना दिखाया । वीतराग भावोंसू ही पूर्व संचित दीर्घकालके कर्म ताकी निर्जरा होजी बताई। निर्जराके कारन कर निज आत्माकी जाति केवलज्ञान केवल सुख प्रमट होना दिखाया। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ताहीका नाम मोक्ष है। बंध आश्रवतें छूटनेका नाम मोक्ष है । वा मुक्त है । वा हित है वा भिन्य कहो । अरु नर्क तिष्ठते जीव तिने मोक्ष की सिद्ध होतो तो सर्व सिद्धांकी अवगाहना विषे अनन्ते पाच थावर सूक्ष्म वादर बताइये है तो महा दुखी क्यों होते । तातें निरनै कर आपना ज्ञानानंद सुभाव धारया गया छे । वाहीका नाम बंध था सो ज्ञानावर्नादिक कर्म अभाव होतें सु 1 रायमान हुआ जैसे सूर्जका प्रकाश वादर सूं रुक रहा था ) वादल के अभाव होते संपूर्ण प्रकास विगसाय मान होय त्यों ही कर्म पटल विगसे ते ज्ञान सूर्य विगसाय मान भया अरु ऊर्ध जाय तिष्टा सो जीवाका ऊर्द्ध गमन स्वभाव है तातें ऊर्ध गमन किया । अरु आगे धर्म द्रव्य नाहीं । तें धर्म द्रव्यके कारन विना आगे गमन किया । उहां ही तिष्टे सो अनंतकाल पर्यंत साता सुख रूप तीन लोकके नेत्र वा तीन काल लोकालोकके देखने रूप ये ज्ञान दर्शन नेत्र अनंत बल अनंत सुखके धारी सिद्ध महाराज तीन लोक कर तीन काल पर्यंत पूजित तिष्टसी सो हे भगवान ऐसा उपदेश भी तुमही दिया सो प्रभू इह उपगारकी महमा कहा तांई कहिये अरु कहा तुमारी भगत पूजा वंदना स्तुति करें। तातैं हम सर्व प्रकार करनेको असमर्थ हैं । अरु तुमतो परम दयाल हो तांतें मो पर क्षिमा करो । तासों हे भगवान मेतो और किछू समझता नाहीं । में तो महा अज्ञान महा मूर्ख अविवेकी तुमारी कहा भक्ति करें यह मेरे तांई बड़ी असंभव फिकर है। जो हम तुमारी स्तुति महमा करने लज्जायमान हों हैं । परन्तु कहा करें तुमारी भक्ति महा हठ पने कर जौवरी वाचाल करे है । सो तुमारे चरनारविंद विषे नम्री -- १२ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - भूत करे है । तातें तुमारा चरनाने वारंवार नमस्कार होहु । ये ही चरन जुगल मोने संसार सन्द्र विषं परसी राषसी । बहुरि अग्नि कायके जीव असंख्यात लोक प्रदेस समान है । तात असंख्यात लोक वर्ग स्थान एक निगोदके शरीरके प्रमान है । तातें असंख्यात लोक वर्ग स्थान गये निगोद एक शरीरकी स्थितका प्रमान है । तात असंख्यात लोक वर्ग स्थान गये योगाके अविभाग प्रतिच्छेद है । सो भी असंख्यातके ही भेद हैं। सो हे भगवाननी ऐसा उपदेश तुमही दिया । बहुरि जे असंख्याते दीप समुद्र हैं । ए अढाई दीप प्रमान मनुष्य क्षेत्र है ताका भी निरूपन तुमही किया । यह जोतिक पटल है। ताके प्रमान जुदे जुदे दीप समुद्र तुमही कहे । बहुरि पुद्गल परमानू वा इनका स्कंधका प्रमान महां स्कंध पर्यंत तुम कहा इत्यादि अनंत द्रव्योंके तीन काल संबंधी द्रव्य गुनपर्याय वा द्रव्यके क्षेत्रकाल भाव सहित और स्थान लिये अनंत विचित्रता एक समयमें लोकालोककी तुमही देखी । सो तुमारे ग्यानकी अद्भुत महिमा तुम्हारे ही ज्ञान गम्य है। ताते तुमारे ही ज्ञानकू फेर भी हमारा नमस्कार होहु । अहो भगवान तुम्हारी महिमा अथवा तुम्हारे गुणनकी महमा देख अति अचरज उपजै है । अरु आनन्दका समूह उपजै है । ता करि हम अति त्रप्त हैं। तातें हे भगवान जीव दया अमृत कर भव्य जीवांने तुमही पोखो हो। तुमही त्रप्ति करो हो तुमरे वचन विना सर्व ही लोक अलोक सून्य भये हैं। तातै समस्त जीव भी सून्य हो गये सो अबै तुमारे वचन रूप किरनन कर अनादका मोह तिमिर मेरा विलय गया अब मोने तुमारे Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । wwwwwwe .......... प्रशाद कर तत्व अतत्वका स्वरूप प्रतिभासो। ज्ञान लोचन मेरे उघटे ताके सुखकी महिमा मोपे न कही जाय । तासू हे भगवानजी संसार संकटसे निकालनेको निःकारन परम वैद्य थे मोने अद्भुत दीखो हो तातें तुमारे चरनार बिन्दु सू बहुत अनुराग वतॆ है। सो भव भवके विर्षे पर्याय पर्यायके विर्षे एक तुमारा चरननकी सेवा ही पाउं जे पुरुष धन्य है जो तुमारे चरनाने सेवे हैं। तुमारे गुनाकी अनुमोदना करें हैं। तुमारे रूपने देखें हैं तुमरे गुनानुवाद गावें हैं। तुमरा वचनका नाम सुने हैं। मनविर्षे निश्चे धारे हैं। तुमारा चरन पूजें हैं। तुमारा ध्यान करें हैं। तुमारे गुनानुवाद गावें हैं तुमारा वचनका नाम सुने हैं। मनविर्षे निश्चै धारें हैं। तुमारा चरनाने अर्घ दे हैं तुमारी महमा भावे हैं । तुमारे चरना लताकी रज व गंधोदक मस्तकादि नाभि पर्यंत उत्तम अंग तामें लगावें हैं । तुमारे सन्मुख खड़े होय हस्तांजुली जोड़ नमस्कार करें हैं । अरु तुम ऊपर चमर ढोरे हैं ते पुरुष धन्य हैं । वाकी महमा इन्द्रादिक देव गावें । वे ही कृत कृत्य हैं वे ही पवित्र हैं। वाहीने मनुष्य जनम सफल किया । ताही ने भवविलांकू जला जल दिया बहुरि हे जिनेन्द्र देव हे कल्यानके पुंज हे त्रैलोकके तिलक अनंत महमा लाईक परम भट्टारक केवल ज्ञान केवल दर्शन ये जुगल नेत्रके धारक सर्वज्ञ वीतराग तुम जयवंत प्रवर्ती तुमारी महमा जयवंत प्रवर्ती तुमारा सासन जयवंत प्रवर्ती धन्य यह मेरी परजाइ में तुम सारचे अद्भुत पदार्थ पाये ताकी अद्भुत महिमा कौन कर सके अरु तुमही माता. तुमही पिता तुमही बंधव तुमही मित्र तुमही परम उपगारी तुमही, मैं Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ज्ञानानन्द श्रावकाचार। कायकी पीर हरी तुमही भवसमुद्रमें पड़ते प्रानीनको आधार हो और कोई त्रैकालमें नाहीं। आवागमन सों रहित करवाने तुमही समर्थ हो । मोह पर्वतके फोड़वाने तुम वजायुध हो घातिया कर्मनका चूर करवाने तुम अनन्त बली हो अहो भगवान तुम दोऊ हाथ लांबा किया अरु भव्य नीवाने संसार समुद्रमाहींसू काढ़िवाने हस्तालंवन दिया है। बहुरि हे परमेश्वर हे पर्मजोति हे चिद्रूपमूर्ति अनन्त चतुष्टयकर मंडित अनन्त गुनाकर पूरित तुमारी कैसी वीतराग मूरत आनन्दमय आनन्द रसकर अहलादित महामनोग अद्वैत अकृत अनादि निधन त्रिलोकपूज्य कैसी सोहे ताका अवलोकन कर मन वा नेत्र सीघ्र होय हैं। बहुरि हे केवलज्ञान सून षट द्रव्य नव पदार्थ पंचास्तिकाय सप्त तत्व चौदह गुनस्थान चौदह मार्गना वीस प्ररूपना चौवीस ठाना ग्यारा प्रतिमा बारा वृत दप लक्षनीक धर्म षोडस भावना बारा अनुपेक्षा चार भावना अठाईस मूल गुन चौरासी लाख उत्तर गुन तीनसै छत्तीस मतिज्ञानके भेद अठारा हजार सीलके भेद साढ़ा सेतीस हजार प्रमादके भेद अरहन्त के छयालीस गुन आचार्यके छत्तीस गुन उपाध्यायके पच्चीस गुन साधुके अट्ठाईस गुन श्रावकके एकवीस गुन समुकितके आठ अंग तिनके पच्चीस दोष मुनि आहारके छयालीस दोष तिनमें बत्तीस अंतराय चौदह मलदोष नोधा भक्ति दातारके सप्त गुन चार प्रकार आहार चार प्रकार दान तीन प्रकार पात्र एकसो अड़तालीस कर्मप्रकृति बंध उदय सत्ता उदीरना अरु आश्रवका सत्तावन भेद अरु त्रेपन क्रिया इनके घट त्रिभंगी सो पाप प्रकृति अड़सट पुन्य प्रकृति संतालीस अघातिया प्रकृति एकसो एक घातिया प्रकृति Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । -- Vvvvvvvvvvvv ~ ~ इकवीस सर्व घातिया छवीस देसघातियाकी प्रकृति षेत्रविपाकी चार भवविपाकी चार वहत्तर जीवविपाकी उनसठ पुद्गलविपाकी प्रकृति दस कर्नचूलका नव प्रस्तचूलका पाच प्रकार भागाहार प्रति प्रदेस संस्थित अनुभाग बंध इत्यादिक इनका भिन्न भिन्न सरूप तुमही प्रगट किया अरु उपदेस देते भये । बहुरि प्रथमानुयोग करनानुयोग चरनानुयोग द्रव्यानुयोग चार सुकथा चार विकथा तीनसे त्रेसठ कुवाद वा कुवादके धारक जोतिक वैद्यक मंत्र यंत्र पांच वा आठ प्रकार निमित्तज्ञान, न्याय नीत छंद व्याकन गनित अलंकार आगम अध्यात्म शास्त्र निरूपन भी तुमही करते भये चौदे धारा तेईस वर्गना जोतिगी व्यंतर भवनवासी कल्पवासी सप्तनर्क तिनका पूर्वला पराक्रम सुखदुखका विशेष निरूपन तुमही करते भये । अढाईद्वीपके छेत्र कुलाचल द्रह कुंड नदी पर्वत नव क्षेत्रकी मर्यादा आर्य अनार्य कर्मभूमि भोगभूमि कुभोगभूमिकी रचना आचरन अवससर्पनी उत्सर्पनी कालकी फिरन पल्य सागर आदि आठ असंख्यात संख्यात अनन्तके इकीस भेद पंच प्रकार परवर्तन इनका निरूपन भी तुमही कहते भये । मनुष्यक्षेत्र त्रसनाड़ी सिद्धक्षेत्र लोक अलोकके भेद तुमही कहते भये । सो हे भगवान हे जिनेन्द देव हे अरहंत देव हे त्रैलोक गुरु तुमारा ज्ञान कैसा है ऐता ज्ञान तुमारे एक समय में कैसे भया मेरे या बातका आश्चर्य तुमारे ज्ञानके अतिशयकी महमा हनार जिह्वा कर न कही जाय हम तो एक ज्ञेयने ऐके काल तुच्छ वस्तु ने नीउ जान सके ताते हे दया मूरत आप सारषे हमकू भी कीजिये मेरे ज्ञानकी बहुत चाह है । तुम परम दयालु हो मनवंक्षित वस्तूके देनहारे हो । तातें मेरा मनोरथ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सिद्धि कीजिये । या बात मैं ढील न करोगे हे संसार समुद्र के तारक मोह मल्लके विजई घातिया कर्मके विध्वंसक काम सत्रुके नाशक समोसरन लक्ष्मी सों विरक्त आपको सर्व प्रकार समर्थ जान तारन वृद्धिकू मान आपके चरननकी सरन आयो हूं सो जगत बंध हे सरनागत प्रतिपाल हे पितर हे दया भंडार मोने चरनकी सरन जान रक्ष रक्ष मोह कर्मते छुड़ाय छुड़ाय कैसा है मोह कर्म लोकका समस्त जीवाने आपना पौर पकर ज्ञानानंद पराक्रम आदि समस्त जीवांका स्वभाव निधि लक्ष्मीको लूट शक्ति हीन कर जेल में राख दिये केईक तो एकेन्द्री जात भावसी में परे छे महा घोरान घोर दुख पावे है ताके दुखका अर्थ के तो ज्ञानी पुरुषाने मासे है । वचनन कर न कहा जाय अरु केईक जीव 1 इन्द्री पर्याय में महा दुखद हैं । केईक जीवांने ते इन्द्री चौइन्द्री असेनी सन्मूर्छन ताके महादुख भोगवे है सो तो दुख प्रत्यक्ष इन्द्री गोचर आवे हैं । सो तुम ही सिद्धांत में दुखनका निरूप किया तातें तुमारे वचन अनुमान प्रमानकर सत्य जान्या बहुरि कैई जीव नर्क में पड़े पड़े बहुत विल्लावे हैं रोवे हैं हाय हाय शब्द करें है । आपतो आनकू मारे हैं । औरां कर आप हत्या जाइ है । तहां छेदन भेदन मारन तारन तापन सूलारोपन ऐ पांच प्रकारके दुखकर अत्यंत पीड़ित भूमिकी दुःस्सह वेदना कर परम आकुलता पाइए हैं। कोटान रोग कर शरीर दग्ध होय है ऐसे दुख सहने नारकी असमर्थ हैं कायर हैं दीर्घ आयु सागरा पर्यंत दुःख भोगवे हैं । ऐसे मोह दुष्टके वसी हूआ फेर मोह ही करे है । अरु मोह हीने भला माने है । मोह ही के सरन रहा चाहे Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १८३ है । अरु परम सुखने बांधे है । सो यह भूल केवल तुमारे उपदेश विना वा तुमारे गुन जाने बिना तुमारी आज्ञा सिरपर धारे बिना त्रिकाल त्रिलोकने दुखका कारसा मोह ताने जीत सके नाहीं । अरु मोहने जीत्या बिना दुखकी निर्वृति होय नाहीं निराकुल सुखकी प्राप्ति नाहीं तातें तुम शीघ्र ही मेरा परम वैरी मोह ताका विनाश करो, यह कारज आपहीने करनो आयो, ताका विचार कहा करना अरु मो औगुन दिस कहा देखना, में तो औगुनका पुंज हूं सो अनादिका बन्या हूं । सो मेरा औगुन देखो तो परम कल्यान कारकी सिद्धि नास हुई। औगुन ऊपर गुन तुम हीसे सत्पुरुष करें है । कुदेवादिक नीच पुरुष हैं ते गुन ऊपर औगुन ही किया में तो वाने भला जान सेया पूज्या वंद्या स्तुति कीनों तो भी मोने अनन्त संसार में रुलाय महा त्रास दीनो ती वेदनाकी चारता बचनान कर न कही जाय सो कैसे हैं सत्पुरुष ताका दिष्टान्त दीने हैं । तैसे पारसने लोहका घन सो ठोके सो पारस ऊने सुवर्णमई करे | चंदनने ज्यूं ज्यूं घिसे त्यूं त्यूं सुवास देय ईखने ज्यूं ज्यूं छेदे त्यूं त्यूं अमृत रस देय । जल आपले दुग्धने वचाय लेय । सो ऐसा जाका जात सुभाव है । काहूका मेटा मिटे नाहीं सर्प दुग्ध दधि पिये परन्तु वह प्रान ही हरे सन आपना चाम उपड़ाइ अन्यकू बांधे माखी अपना प्रान देय ओराने बाधा उपजावे सो ये कुदेवादिक जे दुर्जन पुरुष ताके स्वभाव सम जानना याका सुभाव भी मिटै नाहीं । मंत्र यंत्र तंत्र नाहीं तातैं सुभाव तर्कनासे सो अब जिनेन्द्रदेव तुमारे प्रसाद कर कुदेवादिकका स्वरूप भली भांति जान्या सो Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...१८४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। अब हम बिध रिचतु दूर हीने तज्या धिकार होहु ऐसा विषफल खावाने अरु कुदेवादिकका आचरने अरु हमारी भी पूर्व अवस्थाने धिकार होय अरु अब मेरे हे जिनेन्द्र देव थाकी सरधा आई सो मेरी बुद्धि धन्य है अरु मैं धन्य हों मेरा जनम सफल भया में कृत कृत्य भया मेरे चाह थी सोई भई अब कार्य करना कछु रहा नाहीं । संसारके दुखते तीन चूल जल दिया ऐसा तीन लोकमें वा तीन कालमें पार कौन है, सो भगवानका दर्सनने वा पूजा वा ध्यानतें वा सुमरनतें वा स्तुतिते नमस्कारतें अरु ज्ञानतें निन सासनका सेवन जाय नाहीं । ज्यों कोई अज्ञानी मूर्ख मोहकर ठगाई है बुद्धि जाकी ऐसे अरहन्तदेवकू छोड़ कुदेवादिकने सेवे हैं वा पूजे हैं अरु मन आक्षत फलने चाहे हैं सो मनुष्य नाहीं पसु हैं या लोकमें वा परलोकमें ताका बुरा होना है । जैसे कोई अज्ञानी अमृतने छोड़ व चिन्तामनने छोड़ काच खंडने पल्ले बांधे कल्पवृक्षने छोड़ धतूरो बोवे त्योंही मिथ्यादृष्टि श्री जिनेन्द्रने छोड़ कुदेवादिकका सेवन करे हैं घनी कहा कहिये बहुरि हे भगवान ऐसी करहु जो गर्भ जन्म मरनका दुखकी निर्वृत्य होय अब मेरे बूते दुख सहा जाता नाहीं वाका सुमरन किये ही दुख अपने तो सहा कैसे जाय ताते कोट बातकी एक बात ये है मेरा अवगुन निवारिये अष्ट कर्मा ते मोक्ष करिये केवल ज्ञान केवल दर्शन केवल सुख अनंत वीर्य यह मेरा चतुष्टय स्वरूप धाता गया है। सो ही घातिया नासने प्राप्त होहु मेरे सुर्गादिककी चाह नाहीं मेंतो परमानू पर्यंतका त्यागी हूं मेरे तो त्रैलोकमें स्वर्ग चक्रीपद कामदेव तीर्थकर पद पर्यंत चाह नाहीं। मेरे तो मेरा स्वभावकी वाक्षां है। चाहे जैसे स्वभा-- Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १८५ वकी प्राप्ति होय । सुख छ सो आत्म स्वभाबमें छे सो में स्वभाव सुखका अर्थी हूं तातै निज स्वभावकी प्राप्तिको अवश्य चाहूं हूं सो तुमारे अनुग्रह विना व सहकारी विना यह कार्य सिद्ध होय नाहीं तातैं और सर्व कुदेवादिकने छोड़ तुम्हारे ही सरन प्राप्त भया हूं मेरा करतव्य था सों तो कर चुकया अब करतव्य तुम्हारा है। तुमने तरन तारन विरध धरया है सो अपना विरध राष्या चाहो हो तो मोने अवश्य तारो त्यों तारने तेंही तुमारी कीर्ति लोकमें फैली है । आगे अनंत काल पर्यंत रहेगी सो हे प्रभू आप उद्धत विरध धरयो है । अरु अनंत जीवाने मोक्षदीनी अंजनचोर सारखा अधम पुरुष ताको थोड़े ही कालमें शीघ्र ही मोक्ष पहुंचाया और भरत चक्रवर्त सारखा बहु परिगृही ताने एक अंतर महूर्तमें केवलज्ञान पाया श्रेणिक महारानने गुरूका अविनय किया मुनका कंठ विषं सर्प डारया बौधमती हूवो ता पाप कर सातवां नर्ककी आयु बंधी ताकू तुम मिहरवानी कर आप सारखा एका भवतारी कर लिया इत्यादि घनाही जीवांने तारे सो अब प्रभूजी मेरी वेर क्यों ढील कर राखी है । सो यह कारन कहा है। हमने जाने तुम वीतराग परमदयालु कहावो सो मेरी दया क्यों न करो मेरी वेर ऐसा कठोर परनाम क्यों किया सो आपने यह उचित नाहीं । अरु में घना पापी था तो भी तुम पाप्त पूर्वेही क्षमा कराई तातें मेरा अपराध क्यों भी रहा नाहीं। तीसों अबमें नेम कर ऐसा जानो हो । जो मेरे भी थोरे भव बाकी रहे हैं । सो परताप तुमारा ही है । सो तुमारे जस गायवेकर कैसे त्रप्त हूजिये सो धन्य तुमारा केवलज्ञान धन्य तुमारा केवल सुख Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । धन्य तुमारा अनन्त बीर्य धन्य तुमारी परम वीतरागता धन्य तुमारी उत्कृष्ट दयालुता धन्य तुमारा उपदेश धन्य तुमारा जि नसासन धन्य तुमारा रत्नत्रय धर्म धन्य तुमारे गनधरादि मुनि व श्रावक व इन्द्रादि. अवृत सम्यकदृष्टी देव मनुष्य सो तुमारी आज्ञा सिरपर धारे हैं। तुमारी महिमा गायें हैं तातै धनी महिमा तुम्हारी कहां तक कहिये । तुम जयवंत प्रवर्तो अरु हम भी तुमारे चरननके निकट सदैव तिष्टें महा प्रीतसों भी जयवंत प्रवर्तो । इति श्रीजिन दर्शन संपूर्न । बहुर मार्गमें जेती वार जिन मंदिर आगे होय निकसिये तेती वार श्रीजिनका दर्शन करे विना आगे न जाइये । अथवा बहुवार जिनमंदिरके निकट आह्या समागवन करना पड़े तब बहुवार दर्शनका साधन सधे नाहीं तो बाह्य सों नमस्कार कर आगे जाना नमस्कार करे विन न जाना अरु मंदिरके विर्षे जेतीवार प्रतिमानी आमू सामू गमन करता दृष्टि पड़ें तेतीवार दोनों हस्तक मस्तकको लमाय नमस्कार करिये । बहुरि जो असवारी चढ़ आया होय अरु जिनमंदिर दृष्टि पड़े तो असवारी तें उतर पयादे गमन करे अरु चढ़ा निनमंदिर पर्यंत चला जाय तो यामें बड़ा अविनय है । अरु अविनय सोई महापाप है । अरु विनय सोई धर्म है देवगुरु अरु धर्म इनके अविनय उपरान्त अरु कुदेवादिकके विनय उपरान्त पाप तीन लोकमें हुवा न होसी न है । त्यों ही जासू उल्टा देवगुरु धर्मका विनय उपरान्त अरु कुदेवादिककी अवज्ञा उपरान्त धर्म तीन लोक तीन कालमें हुवो न होसी न है । तीसों देव गुरु धर्मके अविनयका विशेष भय राखना यामें चूके कही ठीकाना नाहीं । घनी कहा लिखिये । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । namanna कोड़ उपवास किये कैसा फल एक जिनदर्शन किया होय है। अरु कोड़ वार जिनदर्शन किये बराबर एक दिन पूजन किये कर फल होय है । तातै निकट भव्य जीव हैं ते श्रीजीका नित दर्शन पूजन करो दर्शन किया बिन कदाच भोजन करना उचित नाहीं। अरु दर्शन किया बिन कोई मूढ़ बुद्धि सठ अज्ञानी रोटी खाय है सो वाका मुख सेत खाना बराबर है। अथवा सर्पकी वामी बराबर है जिह्वा है सोई सर्पनी है मुख है सो विलहै अरु कुभेषी कुलिंगी मिनमंदिर विषं रहते होंय ते वा मंदिर विषं भूलकर भी जियें नाहीं । वहां गये सरधानरूपी रतन जाता रहे वहां विशेष अविनय होय सो अविनय देखवे कर महापाप उपजे जहां जहां जो भेषी रहे तहां श्रीजीकी विनयका अभाव है। सो विनय सहित एक ही वार श्रीजीका दर्शन करिये तो महा पुन्य बंध होय अरु अविनय सहित ज्यों ज्यों घनीवार दर्शन करे त्यों त्यों घना घना पाप उपजे अपने माता पिताने कोई दुष्ट पुरुष अविनय करे जो आप समर्थ होय तो वाका निग्रह करे अरु अपने माता पिताने छुड़ाय विशेष बिनय करे अरु. जो अपनी समर्थता न होय तो वा मार्ग न जाय वाका बहुत दरेग करिये तैसे ही श्री वीतराग देवका जिनबिम्बका कोई दुष्ट पुरुष अविनय करे तो वाका निग्रहकर जिनबिम्बका विशेष विनय करिये । अरु अपनी समर्थता न होय तो वा अविनयके स्थान कदाच न जैये । जहां कुवेष्या रहै तहां घोर अनेक तरहको पाफ होय है । उहां जाने वारे कुवेष्याके पास गृहस्थ भी वाका उपदेश पाय वा सारखे ही अज्ञानी मूढ कषाई वज्रमिथ्याती होय Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८८ . ज्ञानानन्द श्रावकाचार । हैं । ताते वाका संसर्ग दूर ही ते तनना योग्य है जो पूर्वं हल्का मिथ्यात कमाइ होय तो वहां गये अपूर्व तीव्र होय जाय तो धर्म कहां ते होय धर्मका लुटेरा यसु कोई धर्म चाहे तो वह मोहकर बावला होय जाय जैसे सर्पकू दूध प्याय वाका मुखसेती अमृत चाहे सो अमृतकी प्राप्ति कैसे होय । त्योही कुवेष्याकी संगतिसों अधर्म होय वे धर्मके निंदक परमवैरी हैं अधर्मके पोषक मिथ्यातका सहायक हैं एक अंसमात्र प्रतिमाजीका अविनय होय तो नेमकर नर्कका बंध पड़े अरु जाके घोरानघोर अनेक तरहका अविनय पाइये तो वाका कहा होनहार है। सो हम न जाने सर्वज्ञ जाने अरु भेषी या कहे हैं के प्रतिमाजीके केसर चन्दन लगायवो योग्य है ताका नाम विलेपन है । अनेक सास्त्रनमें कहा है । अरु भवानी भेरु आदि कुंदेवादिक की मूरत आगे स्थाप पहले वाका पूजन करे नमस्कार करे अरु प्रतिमानी• गने भी नाहीं । आप सिंहासन ऊपर बैठ जगतमें पुजावे अरु मालीनसे अनछान्या पानी मगाय मैला कपड़ासू प्रतिमाका प्रक्षाल करे जेते पुरुष स्त्री आवे तेता सर्व विर्षे कषायकी वार्ता करे धर्मका लेस भी नाही इत्यादिक अविनयका वर्नन कहां लग करिये सो पूर्व विशेष वर्नन कहा है । अरु प्रतक्ष देखने में आवे है । ताकू कहा लिखिये सुभूम चक्रवर्त हनुमंतकी माता अंजनी श्रेनिक महाराज नवकार प्रतिमा निग्रंथ गुरु ताका तनक सा अविनय किया था सो वाकू कैसा पाप उपज्या अरु मिड़क वा माली शूद्रकी कन्या श्री जिनके आगे फूल चढ़ाया सो योग्य ही है । सो फूल चढ़ायवाका वाके तनकसा अनुराग Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। १८९ था सो स्वर्गका पद पाया तीसू जिन धर्मका महात्म अलौकीक है । ताते प्रतिमाजीका वा सास्त्रका वा निग्रंथ गुरूका इनके अविनयका विशेष भय राखना । कोई यह प्रश्न करे प्रतिमाजी तो अचेतन हैं ताके पूजे काई फल निपनै ताका सामाधान मंत्र तंत्र मंत्र औषद चिन्तामन रतन कामधेन चित्रावेल पारस कल्प वृक्षने अचेतन हैं अरु वांछितफल दे हैं अरु चित्रामका स्त्री विकार भ व उपजावे हैं पीछे वा का फल नर्कादिक लागे है । त्योंही प्रतिमा जान निर्विकार शांति मुद्रा ध्यान दशाकू धरै तिनका दर्शन किये वा पूजन किये मोह कर्म गले राग दोष विलय जाय ध्यानका स्वरूप जान्या जाय तीर्थंकर महारान वा समान केवलीकी छवी याद आवे है सो वाके निमित्तकर ज्ञान वैराज्ञकी विशेष वृद्धि है । ज्ञान वैराज्ञ ही मोक्ष मार्ग है । अरु शास्त्र भी अचेतन है। ताका अवलोकन कर आत्म ज्ञान वैराज्ञकी वृद्धि होती देखिये है । जे ते धर्मके अंग हैं ते ते सर्व शास्त्रनतें जानिये ता जानवे कर यह वस्तु त्यांग सहज ही होय जाय उपादेयका ग्रहन कर लेय पीछे मोक्ष होय जाय सो वह निर्वान अविनेस्वर है । तात यह बात सिद्ध भई । इष्ट अनिष्ट फल कारन एक शुभाशुभ परनाम हैं । अरु इन , परनामनके कारन अनेक ज्ञेय पदार्थ हैं। कारन बिना कारजकी सिद्धि त्रिकालमें नहीं जैसा कारन मिले तैसा कार्य निपजै तातै प्रतिमाजीका पूजन सुमरन ध्यान अविषेक परम उछव विशेष महिमा करनी उचित ही है । जो कोई मूर्ख अज्ञानी अवज्ञा करे ते अनन्त संसार विषं भ्रमें हैं । चतुर गतिके जीवकू मुख्य धर्म श्री जिन प्रतिमाका पूजन कहा है । तातें सर्व Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - प्रकार त्यारा वारंवार त्रैलोकमें जिनबिम्ब है। तिनकू नमस्कार होहु अरु भवभवमें इनहीका सरन होहु । याहीकी सेवा प्राप्ति होहु याकी सेवा विन एक समय भी मत जावो मोनें अनादि कालते संसार में भृमन करता भाग्य उदें काल लब्धिके जोगतें यह निध पाई सो दीरघ कालका दरिद्री चिन्तामन रतनतें पाय सुखी होय त्यों में श्री जिन धर्म पाय सुखी इवो सो अब मोक्ष होने पर्यंत यह जिन धर्म मेरा हृदामें सदैव अंतर रहित तिष्टो यह मेरी प्रार्थन श्री जिन बिम्ब पूर्न करो घनी कहा अर्जी करै दयालु पुरुष थोड़ी अर्जी किये बहुत मांगेगे । इति दर्शन संपूर्ण । आगे अपने इष्टदेवकू विनयपूर्वक नमस्कार कर सामायिकका स्वरूप कहे हैं। सो हे भव्य तू सुन । दोहा-सात भाव जुत वंदके तत्व प्रकाशन सार । वे गुरु मम हिरदे वसो भवदधि पार उतार ।। सो सामायिक नाम समभावका है । सामायिक कहो भावे समभाव कहो । भावे सुद्धोपयोग कहो भावे वीतराग भाव कहो । भावे निकषाय कहो ये सब एकार्थ हैं । सो यह कारन कार्यकी सिद्धि होनेके अर्थ बाह्यकी क्रिया साधन कारनभूत है । कारन विना कार्यकी सिद्ध नाहीं । तातें बाह्य कारनका संजोग अवश्य करना योग्य है । सो द्रव्य क्षेत्र काल भाव चार प्रकार है । द्रव्य तो श्रावक एक लंगोट तथा एक औछीस बड़ा पनाकी तीन हाथकी धोवती अरु एक मोरपिछका राखे बहुरि सीतकालमें सीतकी परीषह उघड़ा शरीर सों न सही जाय । एक स्वेत वस्तर इह नोटे सूतका तासू डील · ढांके यह उपरान्त परिग्रह राखे नाहीं चौकी बा पड़ाषा शुद्ध भूमपर बैठकर सामायिक करे अरु शुद्धक्षेत्र जामे कोलाहल शब्द न होय Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १९१ बहुरि पुरुष स्त्री तिर्यंच इनका संचार न होय । अगल बगल भी इनका शब्द न होय । ऐसा एकान्त निजतु स्थान अपनी अटारीमें व जिनमंदिरमें वा सूना ग्रहमें वा वन पर्वत गुफा विर्षे ऐसे शुद्धक्षेत्रमें सामायिक करे अरु कालका प्रमान कर लीनिये जा क्षेत्रमें तिष्टा होय सो क्षेत्र उठना बैठना नमस्कार करता दसों दिसा सपर्सनमें आवे । सो तो क्षेत्र मोकलो होय सो अपने प्रमाणसू उपरान्त क्षेत्रका सामायिक काल पर्यंत त्यागे अरु काल जघन्य दोय घड़ी मध्य चार घड़ी उल्लष्ट छह घड़ी प्रमान करे, प्रभात एक घड़ीका तड़कानूं लेय एक घड़ी दिन चढ़े पर्यंत वा दोय घड़ीका तड़कातूं लेय दोय घड़ी दिन चढ़े पर्यंत वा तीन घड़ी दिन चढ़े पर्यंत जघन्न मध्य उत्कृष्ट सामायकका काल है । ही मध्यान समै एक घड़ीसू लगाय तीन घड़ी पर्यंत पूर्वक सोम भांत करें । अरु सांझ ममय एक घड़ी दिनसु एक घासत पर्यंत वा दोय घड़ी दिनमू दोय घड़ी रात पर्यंत ऐसे स मय करे या भांत तीन काल सामायक करे कालकी जेती प्रमिला लेनी होय तासू सिवाय सवाया टोटा अधिका काल वीते ही वहां अपना पन निश्चल होय तत्र सामायक नाम पावै बहुरिया विष आरौिद्र ध्यानने छोड़े धर्मध्यान वा शुक्ल ध्यानकू भावे ऐसे द्रव्य क्षेत्र काल भावकी शुद्धता जाननी बहुरि पद्मासन वा कायोत्सर्ग आसन राखे अंगने चलाचल न करे इत उत देखे नाही अंग संकोचे नांहीं घूमे नाहीं उँघे नाहीं उतावला बोले नाहीं ऐसे शब्द करे धीरा जो आपका शब्द आपही सुने और का शब्द आप रागभाव कर न सुने औरकू राग भाव सहित देखे नाहीं आंगुली Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | उठावे नाहीं इत्यादि शरीरकी प्रमाद क्रिया छोड़े अरु सामायक विषें मौन राखे जिन वानी विना ओर कछू पड़े नाहीं विशेष विनय सहित सामायिक करे सामायिक करनेका अगाऊ उक्षव रहै कि ये पीछे पढिताय दोय चार घड़ी निरर्थक काल गमाया ऐसा भाव न करे जो एती वेर लागी नातर कछू गृहस्तीका कार्य सिद्ध करना अरु ऐसा भाव राखे मैं अवार वृथा ही उठा अवे मेरा: परनाम घना शुद्धता जो बैठा रहाता तो कर्मनकी निर्जरा विशेष होती बहुरि सामायिक में दोयवार पंच नमस्कार पंच परमगुरुः कोकरे बारा आवृतन सहित चार श्रोत्रित करे नो वार नमोकार मंत्र पढ़े ऐते काल पर्यंत एकवार खड़ा होय कायोत्सर्ग करे सो नमस्कार तो सामायिकका आदि अंत में करे । भावार्थ । चार श्रीनित वारा अवृतन सहित अरु एक कायोत्सर्ग ये तीनों क्रिया सामायिकका मध्यकाल विषे ताकी व्यौरा सामायिक पाठका चोईस संस्कृत वा प्राकृत पाठी है । तामें या विध है तासूं समझ लेना बहुरि सामा1 यक करती वार प्रभातका सामायक करने बैठती वेर रात्र सम्बन्धी कुशीलादिक क्रिया कर उत्पन्न भया जो पाप ताके निर्वृत्यके अर्थ श्री अरहन्त देवसूं छिमा करावे अपनी निन्दा करे में महा पापी छू मो इह पाप कार्य छूटतावे में कब आवेगा जबमें जाका जन करूंगा याका फल उदें आये अत्यंत कटुक लागेगा सो हे जीव तू कैसे भोगसी यह तो तनकसी वेदना सहवेकूं असमर्थ है । तो परभ में नरकादिक घोरान घोर तीव्र वेदनाके दुःसह दुःख दीर्घ काल पर्यंत कैसे सहेगा जीवका पर्याय छाड़ने ते तास होता नाहीं यह तो अनादि निधन अविनाशी ताने परलोक अवश्य आपही कूं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १९३ भोगने परेंगे। परलोकका गमन ऐसे हैं जैसे गावसो गावान्तर क्षेत्रसो क्षेत्रान्तर देससो देसान्तर कोई कारजकू गमन करिये सो जो क्षेत्र छोड़ा तहा तो किछू उस पुरुषका अस्तित्व रहा नाहीं अरु जो क्षेत्र में जाय प्राप्त भया तहां उस पुरुषका अस्तित्व ज्योंका त्यों है तो वह पुरुषकूं क्षेत्र छोड़े कछू वा पुरुषका तो नाश न भया अरु कोई क्षेत्र विषं जाय प्राप्त भया तो तहां तिसकूं उपजान कहिये परजायकी पलटन है पूर्व क्षेत्र विषे तो वृद्ध हुवा उत्तर क्षेत्र में बालक भया अथवा पूर्वे दुःखी था पीछे सुखी भया अथवा पूर्वे सुखी था पीछे दुःखी भया ऐते ही परभवके शरीरका स्वरूप जानना । पूर्वे मनुष्य क्षेत्र में था पीक्षे नर्क क्षेत्रमें गया पूर्वे सुखमई पर्याय थी अब ये दुखमई पर्याय भई पूर्वे कोई मनु यभवमें दुखी था अब पीछे देव पर्याय में सुखी भया ऐसे ही भव भवमें अनेक पर्यायकी फिरन जाननी जीव पदारथ सास्वता है तीसों हे जीव ये पाप कार्य छोड़े तो भला ही है। ऐसा दरेग करता संता दोऊ हस्त जोड़ मस्तकने लगाय श्री जिनेन्द्र देवकूं परोक्ष नमस्कार कर ऐसे प्रार्थना करे हे भगवान ये मेरे पाप निर्वृत्य करो तुम परम दयालु हो सो मेरे औगुन न हेरो मेरी दया ही करो मोने दीन . था मोपे छिमाही करो माता पिता आप ही हो सो पुत्र चाहे जैसा औगुनग्राही होय परन्तु माता पिता छिमा ही करे । अरु वाका सिंह सिंह प्रकार मला ही करे सो ए जिनेश एजिनेन्द्र देव मोपर अनुग्रह करो । अरु यह पाप मलिनताको हरो तुमारे अनुग्रह विना पाप पर्वत गले नाहीं तार्ते मो ऊपर विशेष प्रीत १३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ . ज्ञानानन्द श्रावकाचार । करो सर्व पापनका छय करो ऐसे पूर्वले पापकू हल्का पाड़ जरित कर पीछे द्रव्य क्षेत्र काल भावका मानवा स्वरूप पूर्वे यहां ही कह आये ताके अनुसारपूर्वक त्याग कर पूर्व दिसाने वा उत्तर दिसाने मुख कर पीछी कर भूमि सोध पंच परम गुरुने नमस्कार करे पद्मासन मांड बैठ जाय पीछे तत्वनका चिन्तवन करे वारानुपेक्षाका चिन्तवन करे आपा पर का भेद विज्ञान करे निन स्वरूपका भेदरूप वा अभेदरूप अनुभवन करे वा संसारका स्वरूप दुखमई विचारे सिंसारे सो भयभीत होय बहुरि वैराज्ञ दसा आदरे अरु मोक्षका उपाय चिन्तवे संसारके दुखकी निर्वृति वांच्छता संता पंच परम पदने सुमरे ताके गुनकी वारंबार अनुमोदना करे गुनानुवाद गावे वाका स्त्रोत्र पढ़े वाका आत्म ध्यान करे वा विषेश वैराज्ञ विचारे म्हारे कोई नाहीं में या संसारके घोरान घोर भयानक दुःख सों कब छूटों वो समय मेरे कब होसी तब दिगम्बरी दीक्षा घर परिग्रहके भयानक दुख सो छूदसी परिग्रहके भारने पटक निर्दुद होसी. पान पात्र अहार करसी, बाईस परीसह जीतसी दुद्धर, तप आदरसी मोह बजने फोर पंचा चार्ज करसी अरु अपने निन सुद्र स्वरूपको अनुभवन करसों ताका अतसय कर वीतराग भावांकी वृद्धि होसी तब मोह कर्म गलसी घातिया कर्म सिथिल होसी वा खिर जासी अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान अनन्त सुख अनन्त वीर्य ये अनंत चतुष्टय प्रगट होसी सो में सिद्ध साढस्य लोकालोकका देखन जानन हारा अनन्त सुख वीर्यका पुंज कर्म कलंक सूं रहित महा निराकुल आनन्दमय सर्व दुःखोंसों रहित कब होसी कहां तो मेरी यह दशा नर्क निगोदादि महा पापकी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १९५ मूर्ति दुखमई आकुलताका पुन नाना प्रकार पायके धरन हारे । सो जिनधर्मके अनुग्रह बिना अनादि कालसू लेय सिंह सर्प काग कूकर चिटी कबूतर कीड़ी मकोड़ी आदि महां भृष्ट पर्याय सर्व धारी एक पर्याय अनन्त अनन्तन बेर धरी तो भी जिन धर्म बिना संसारके दुखका अन्त न आया अब कोई महा भाग्यके उदै श्री जिनधर्म सर्वोत्कृष्ट पर्म रसायन अद्भुत अपूर्व पाया ताकी महमा कौन कह सके केतो मैंने जान्या के सर्वज्ञ जाने सो यह वीतराग परनतमय निनधर्म जयवंत प्रवर्तो नंदो वृद्धो म्हांने समुद्र सों काढो घनी कहा अर्ज करें ऐसा चिन्तवनकर महा वैराज्ञ भाव सहित सामायक काल पूर्ण करे कोई प्रकार राग द्वेष न करे । आरत ध्यान रौद्र ध्यानकू छोड़ आपा परकी सम्हार कर यह साक्षात चिन्मूर्ति सबका देख नहारा ज्ञाता दृष्टा अमूर्तीक आनन्दमई सुखका पुन स्वसंख्यात प्रदेशी तीन लोक प्रमान परद्रव्यसूं भिन्य अपने निज स्वभावका का भोगता परद्रव्यका अफर्ता ऐमा मेरा स्वसंवेदन स्वरूप ताकी महमा कौनकूः कहिये यह जीव पुद्गल द्रव्यका पिण्ड ताका कती भोगता माहीं मोह कर्मके उदै कर्मकी बुद्धिकर जहां ही अपना जाने था ताकर भव भवमें नर्कादिक परम क्लेसने प्राप्त भया सो अब में सर्व प्रकार पर वस्तुका ममत्व छोड़ हुई पुद्गल द्रव्य चाहों त्यों परनवो मेरे ऐसा रागद्वेष नाहीं सोये पुद्गल द्रव्यका पसारा है। सो मावे क्षीनो भावे न क्षीनो भावे प्रलय होय भावे. एकट्ठा होय जा कामें मुनाम नाहीं। याके ममत्व सो मेरे ज्ञानानंदकी बुद्धि नाही ज्ञानानन्द तो मेरा निन स्वभाव है सो वृथा पर द्रव्यके ममत्व सूघाता Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | गया ज्यों ज्यों परद्रव्यका निर्वृत्य होय त्यों त्यों ज्ञानानंद स्वरूपकी वृद्धि होय सो प्रतक्ष अनुमानमें आवे है । तातें विवहार मात्र मेरे वैरी चार घातिया कर्म हैं । निश्चे विचारतें मेरा अज्ञानभाव वैरी है । मेरा मैं ही वैरी मेरा में ही मित्र सो मैं अज्ञान भावां कर कार्य किया सो ताके वल तेंसा ही आकुलतामय फल निपज्या ताकर मैं दुखी भया सो वे दुखकी बात कौनसे मित्रसो कहिये सर्व जगतके जीव मोह कर्मरूप परनमें हैं । भ्रम कर ही अत्यंत प्रचुर अनादि कालका ही महा दुख पावें मैं भी वाही के साथ अनादकालका दुख पावूं था अब कोई महा शुभ भागके उसे श्री अरहंत देव के अनुग्रह कर श्री जिनवानी के प्रतापसे मुनि महाराजने आदि दे परम धर्मात्मा दयालु पुरुषनका मिलाफ भया अरु वाके वचनरूपी अमृत पान कराया ताके अतय कर मोह जुर मिट कषायनकी आताप मिटी अरु सांत परनामतें कामरूपी पिशाच भाग गया अरु इन्द्रीं भी ज्ञानरूपी जालतें पकरी गई अरु पांच अवृतनका नाश भया अरु संयम भावकर आत्मा शीतल भया सत्यकूदृष्टि ज्ञान लोचनतें मोक्षका सुख लख्या अब हम धीरज घर शीघ्र ही मोक्षमार्गकूं चाहूं हूं मोहकी सेन्या लुट जाय है । घातिया कर्मनका जोर घटता जाय है मेरी ज्ञान जोति उदै होय है । मेरा अमूर्तीक निर्मल असंख्यात प्रदेश ता ऊपरसूं कर्म रज उड़ती जाय है । ताकर मेरा स्वभाव हंस अंस उज्जल होता जाय है । सो अत्र में जती पद लेसी ताकर मोहका 1 नाश होसी तपरूपी वज्रकर मोहरूपी पर्वतका खंड खंड नासकरसी घातिया कर्मनकूं परवार सहित ध्यानरूप अग्निमें भस्म करूंगा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १९७ ऐसे मेरे परम उछाह प्रवर्ते है । केवल लक्ष्मीका देखवांकी अत्यंत अभलाषा भई है । सो कब यह मेरा मनोरथ सिद्ध होय मैं या 'घररूप वंदी गृहने छोड़ निवृत्य होय । अनन्त चतुष्टय संयुक्त तीन लोकका अग्र भाग विषे सिद्ध भगवान मेरा कुटुम्ब तहां जाय तिष्टोंगा अरु लोकालोकके तीन काल संबंधी द्रव्य गुण पर्याय सहित समस्त षद्रव्य नव पदार्थ ताका एक समय में अवलोकन करूंगा ऐसी मेरी दसा कब होयगीनो ऐसा में परम जोतिमय आप द्रव्य ताकू देख औरकौनकू देखू और तो समस्त गेय पदार्थ जड़ हैं। तिन सू कैसा स्नेह अरु उनसू कहा प्रयोजन जैसे की संगति करे तैसा फल लागे सो जड़सू प्यार किया सो मुझने भी जड़ सारखा करना कहां तो मेरा केवल ज्ञान स्वभाव अरु कहां एक अक्षरके अनन्तवें भाग ज्ञान अरु कहां पूर्न सास्वता सुख अरु कहां नर्क पर्यायमें सागरा पर्यंत आकुलतामें दुख अरु कहां वीर्य अंतरायके नास भये केवल दसा भये अनन्त वीर्य पराक्रम अनंतानंत लोकके उपाय लेवे सारखा सामर्थ कहां एकेंद्री पर्यायका वीर्य सो रुई के तारके अग्रभाग ताके असंख्यातवें भाग सूक्ष्म एकेन्द्रीका सरीर सो इन्द्री गोचर नाहीं। वजादिक पदार्थमें अटके नाहीं। अग्नितें जले नाहीं। पानीते गले नाहीं। इन्द्र महाराजके वज दंड कर हन्या जाय नहीं ऐसा सूक्ष्म शरीर तावं लेवा समर्थ एकेन्द्री नाहीं । यां कारन कर याकू थावर संज्ञा है। अरु वेइन्द्री आद पंचेन्द्री पर्यंत ज्यों ज्यों वीर्य अंतरायका क्षयोपसम भया त्यों त्यों वीर्य प्रगट भया सो वेइन्द्री अपना सरीरकू ले चाले अरु किंचित मात्र अपना मुखमें वा वाका वस्तु भी ले चाले ऐसे ही सर्वार्थ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सिद्धके देव वा तीर्थंकर महाराज वा रिद्ध धारी मुनि इन पर्यंत वीर्य की अधिकता जाननी सोई केवली भगवान के संपूर्ण वीर्यकी प्राप्ति जानना जेता आकाश द्रव्यका प्रमान है जेते मनका लोक होय तो भी ऐसे अनंतानंत लोक के उठायचे की सामर्थता सिद्ध महाराजके है। एती ही सामर्थता सब केवलीन के है। दोनों हीके वीर्य अन्तराय के नास होने ते संपूर्ण सुख प्रगट भया है । सो मेरे स्वरूपकी महिमा भी ऐसी है सो मेरे प्रगट होय । अब तक मेरी अज्ञानताने अनर्थ किया कैसी पर्याय धार पर्म दुःखी भया धिक्कार होहु यह मेरी भूलकूं अरु मिथ्यात्मतीनकी संगतिकं अरु धन्य है यह जिनधर्म अरु पंच परम गुरु अरु सरधानी पुरुष इनके अनुग्रह कर मैं अपूर्व मोक्षमार्ग स्वाधीन है । तानें अत्यंत सुगम है मैं तो महा कटिन जान्या परन्तु श्री गुरु सुगम बताया सो अब मोकूं यह मारग चालता खेद नाहीं । में भ्रम कर खेद माने था अहो परम गुरू थांरी महिमा वा अनमोदना कहा करों । मैं मेरी महिमा सिद्ध साहस्य तुमारे निमित्त ते जानी । ॐ नमः सिद्धेभ्यः । आगे अपने परम इष्ट देवकूं विधि पूर्वक नमस्कार वा गुनस्तवन कर सामान्यपने स्वर्गनकी महमा वर्नन करिए है । सो हे भव्य सावधान होय सुन दोहा। जिन चोवीसों बंदके बंदों सारद मात । गुरु निर्ग्रथ सुबंद पुन ता सेवें अघ जात ॥ पुन पुन कर्म विकारतें भये देव सुर राय । आनन्दमय कीड़ा करे बहुविध भेष बनाय ॥ स्वर्ग संपदा लक्ष्मीको कव कहे बनाय । गनधर भी जाने नहीं जाने सब जिंनर || श्री गुरुसों शिष्य प्रश्न करे है । विनयवान होय काई प्रश्न करे है । सोई कहिए है है स्वामी, हे नाथ, पा- 1 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | १९९. निध परम उपगारी है। संसार समुद्र के तारक हे दयामूर्ति हे कल्यान पुंज, हे आनन्दस्वरूप सर्व तत्व ज्ञायक हे मोक्ष लक्ष्मी अभिलाषी संसार सूं परान्मुख परम वीतराग जगत बंध कायके पिता मोह विजई अमरन सरन मोपर अनुग्रह कर स्वर्गन के सुखका स्वरूप कहो सो का है । सिप्य परम विनयवान है आम कल्यानका अर्थी है संसारके दुखतें भयभीत है व्याकुल भया है वचन जाका कंपायमान है मन जाका वा कोमल गया है मन जाका ऐसे होत संता श्री गुरुकी प्रदक्षना देय हस्तं जुगल जोर मस्तक लगान श्रीगुरांके चरननकू वारंवार नमस्कार कर मस्तग उनके चरन निकट धरया है अरु चरन तलकी रज मस्तको लगावे है । आपने धन्य माने है । वा कृत कृत्य माने है विनय पूर्वक हस्त जोड़ सन्मुख खड़ा है । पीछे श्री गुरांका मोसर पाय बारंबार दीनपनाका वचन प्रकाश स्वर्गनके सुखका स्वरूप बूझे बहुरि कैसा है सिप्य अत्यंत पुन्यके फल सुन वाकी अभिलाषा जाकी जब ऐसा प्रश्न होते संते अब वे श्री गुरु अमृतरूप वचन कर कहे हैं बहुरि कैसे हैं परम निथ बनवासी दया कर भीज्या है चित्त जाका या भांत कहते भये हे पुत्र हे शिष्य हे भव्य हे आर्ज तेने बहुत अच्छा प्रश्न किया बहुत भली करी अब सावधान होइ सुन में तोह जिनवानीके अनुसार कहूं हूं । ए जीव श्री जिनधर्मके प्रभाव कर स्वर्गके विमानन में जाय उपजे है यहां की पर्यायका नास कर अंतमुहर्तकाल में उत्पन्न होय है । जैसे मेघ पटल विघटते देदीपमान सूर्य वादल बाहर निकसे तैसे उपपादक सिज्याके पट दूर • Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । होते वह पुन्याधिकारी संपूर्न कला संयुक्त जोतिका पुन आनंद सौम्य मूर्ति सबको प्यारा सुन्दर देव उपजे है बहुरि जैसे बारा बरसका राजहंस महाअमोलक आभूषन पहरे निद्रा ते जाग उठे कैसा है वह देव संपूर्न छहों पर्याप्ति पूर्न कर शरीरकी क्रान्ति सहित रतनमय आभूषन वस्त्र पहिरें सूर्न वत उदय होय है अनेक प्रकारकी विभूतिको देख विसमय सहित दसों दिसानकू आलोकन करे मनमें यह विचारे मैं कौन हूं कहां था ? कहां आया यह स्थानक कौन है ? यह अपूर्व और रमनीक अलौकिक मन रमनेका कारन अद्भुत सुखका निवास ऐसा अद्भुत स्थान कौन है । यह जगमग रत्नोंकी जोति कर उद्योत हो रहा है अरु मेरा देव सारखा सुन्दर आकार काहेतें भया अरु जहां तहां ये सुन्दराकार मनोज्ञ मनकू प्यारा देवन सारखा कौन है । अरु विना बुलाये मेरी स्तुति करे है । नम्रीभूत होय नमस्कार करे हैं अरु मीठा विनयपूर्वक वचन बोले हैं। सो ये कौन है सो यह संदेह कैसे मिटे ऐसी सामग्री कदाच साची होय अरु कैसे है ये स्त्री पुरुष गुलाबके फूल सारखे मुख जिनके अरु चन्द्रमा सादृस्य है सौम्य मूर्ति जिनकी सूर्य सादृस्य है प्रकाश जिनका रूप लावन्य कर अद्भुत है 6बहीकी दृष्टि एकाग्र मो तरफ है मोने स्वामी साढस्य मान हाथ जोड़ खड़े हैं अरु अमृतमई म ठा कोमल विनय सहित म्हारा मन माफके वचन बोले है । ताकी महमा कौनकू कहिये धन्य है ए स्थान अरु धन्य ये पुरुष वा स्त्री धन्य हैयाका रूप धन्य है । प्रवीनता धन्य याका विनय गुन वा सजनता वात्सल्यता बहुरि कैसे हैं पुरुष स्त्री पुरुष तो सर्व कामदेव साढस्य अरु Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ..... . - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २०१ स्त्री इन्द्रानी सादृस्य तिनकी सुगंध फैल रही है । तिनके शरीरका प्रकाश कर सर्व ओर उद्योत है । जहां तहां रतन मानिक पन्ना हीरा चिन्तामन रतन पारस कामधेनु चित्रावेल कल्पवृक्ष इत्यादिक अमोलक अपूर्व निधके समूह दीसे हैं । अरु अनेक प्रकारके मंगलीक वादित्र बाजे हैं। केई गान करें हैं केई ताल मृदंग बनावें हैं, केई नृत्य करे हैं, केई अद्भुत कौतूहल करें हैं । केई रतनके चून कर मंगलीक देवांगणान सो स्थान पूरे हैं । केई उत्सव वर्ते हैं केई जस गावें हैं केई धर्मकी महिमा गावे हैं केई धर्मका उत्सव करें हैं सो बड़ा आश्चर्य है । ए कहा है, मैं न जानू ऐसी अद्भुत चेष्टा आनन्दकारी अपूर्व अब तक देखनेमें न आई । सुनने में न आई मानू यह परमेश्वरपुरी है वा परमेश्वरका निवास ही है । अथवा मेरे तांई भ्रम उपज्या है । ऐसा विचार करते संते वे पुन्याधिकारी देवताके सर्व आत्म प्रदेशों वि सो उपग्रही अवधिज्ञान फुरायमान है ताके होते पूर्वला भवकू निश्चय करि यथार्थ देखें है। ताके देखवे कर सर्व भ्रम विलय जाय तब फेर ऐसा विचार है। में पूर्व जिनधर्म सेवन किया था ताका ये फल है सुम्न तो नाहीं अरु भ्रम भी नाहीं इन्द्रनाल भी नाहीं। मरा पीछे प्रत्यक्षमें कलेवरकू ले जाय कुटुम्ब परवारके लोग मसान भूममें दग्ध करें हैं। ऐसा निसंदेह है यामें संदेह है नाहीं बहुरि कैसे हैं वे देव देवांगना अरु कैसा है विभूत अरु कैसे हैं मंगलाचरन कैसे हैं जन्मका जान शीघ्र ही उछव संयुक्त अवता भया अरु. . दीनपनाका विनयपूर्वक वचन लघुताई कर प्रकासता भया कैसा वचन प्रकासता भया जय जय स्वामिन जय नाथ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । wwwwwwwwwwwwwwww जय प्रभू थे जयवंत प्रवर्ती नंदो वृद्धो आजकी घड़ी धन्य जामें उत्पन्न भये हम ऐते दिन अनाथ रहे सो अब सनाथ भया अरु अब मैं तुम्हारा दर्सन कर हत कृत्य भया पवित्र भया सो हे प्रभू संपदा तुम्हारी अरू यह राज तुम्हारा अरू यह विमान तुम्हारे अरु ये देवां नानके समूह तुमारे अ.ये हाती घोड़ा तुम्हारे अरु विद्या नाटशाला आभूषन सुगंध माला ये मर छत्र ये वस्त्र रतनादि सर्व तुम्हारा ऐ सात जातिको सेन्या वा गुनं चास जातकी सेना ये रतननके मंदिर ये दस जातके देव ये गिलमई विछाई रतनानके भंडार तुमारा है । हे प्रभू हे नाथ हम तुमारा दास हैं। सो म्हां ऊ र आज्ञा कीजे सोई हमने प्रमान है । हे प्रभू हे नाथ दयामूर्ति हे स्वामिन कल्यान पुन तुमने पूर्वे कौन पुन्य किया था अरु कौन शील पाल्या कौन सुपात्रनें दान दिया कौन पूजन किया कौन सामायिक वा प्रोषध उपवास किया कौन षट् कायकी दया पाली कौन सरधानका ठीक किया अरु कौन अनुव्रत वा महाव्रत पाल्या कैसा सास्त्र अभ्यास किया के एकाविहारी होय ध्यान किया के तीर्थ जात्रामें गमन किया के वनोवास हो तपश्चरन किया वा वाईस परीसह सही वा जिन गुनमें अनुरक्त भया के जिनवानीका माथा ऊपर सरधा राखी इत्य दि जिन प्रनीत जिन धर्म ताके बहुरि अंग आचरन किये वाके प्रसाद कर तुम हमारे नाथ अवतरे सो हे प्रभू ये स्वर्ग स्थान है अरु हम देव देवांगना हैं। तुम पुग्यके फल कर मनुष्य लोकसू जिन धर्मके प्रभाव कर पर्याय पाई है। जामें संदेह मत करो सो अब हये काई कहां आपही अवधि ज्ञान कर सारो वृतान्त जानोगे धन्य आपकी बुद्धि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २०३ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ अरु वह मनुप्य भव धन्य जो संसार असार जान निज आत्म कल्यानके अर्थ श्री जिन धर्म आराध्या ताका फल अब ऐसा पाया धन्य है यह जिनधर्म ताके प्रसाद कर सर्वोत्कृष्ट वस्तु पाई है। जिन धर्म उपरान्त संसार में और पदार्थ नाहीं तात संसार सुख है सो एक जिन धर्म ही तें है । तातै परम कल्यान रूप एक जिन धर्म है । ताकी महमा वचन अगोचर है । सहस्र मिला कर सुरेन्द्र भी पार पावे नाहीं । वा मुनेन्द्र भी पार न पावें सो यह काई आश्चर्य है जिनधर्मका फल तो सर्वोत्कृष्ट मोक्ष ही है तहां अनन्त काल पर्यंत अविनासी अतेन्द्री अनोपम बाधारहित निराकुलित म्वाधीन संपूर्न सुख पाजे अरु लोकालोक प्रकाशक ज्ञान पाजे ऐसे अनन्त चतुष्टय संयुक्त आनन्द पुंज अरहन्त सिद्ध ऐसे मोक्ष सुख अंतर रहित भोगवें हैं । ताकर अत्यंत त्रप्त है । जगत पूज हैं । वाके पूजने वारे वा सारखे हे हैं। सो हे प्रभू जिनधर्मकी महमा हमतें न कही जाय । अरु धन्य हो आप, सो ऐसे जिनधर्मको पूर्वे आराधा ताके फल कर यहां आय अवतार लिया सो आपकी पूर्व कमाई ताको फल जानो ताकू निर्भे चित्त कर अंगीकार करो अरु मनवंछित देवो पुनीत सुखने भोगवो अरु मनकी संका दूर ही तें. तनो हे प्रभू हे नाथ परमदयालु जिनधर्म वात्सल्य सबको प्यारा म्हां सारखे देवनकर पूज्य असंख्यात देवदेवांगना के स्वामी अब तुम होहु. अपने किया कार्यका फल अवधारो हे प्रभू हे सुन्दराकार हे देवनके प्यारे हमपर आग्या करो सोई हम सिर ऊपर धारेगें अरु ये असंख्यात देवांगना आपके दास हैं। तिनकू अपने जान अहंकारो यह जिनधर्म विना ऐसी संपदाको पावे नाहीं जासू हे प्रभू अब शीघ्र ही Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । -~~ ~ ~ ~uan ~~wnwww अमृतके कुंडमें स्नान कर अनोपम वस्त्र आभूषन पहिर अन्य अमृतके कुण्डमें रतनमई जारी भर और उत्कृष्ट देवों पुनीत अष्ट द्रव्यकू हस्त जुगलमें धार मन वचन कायकी शुद्धता कर महाअनुराग संयुक्त महाआडंबरसू निनपूननकू पहली चालो पीछे और कार्य करो जासू पहिले निनपूजन कर पाछे अपनी संपदाकू सम्हार अपने आधीन करो सो अपने निन कुटुम्बका उपदेश पाय वा पूर्वली धर्मवासना सों स्व इच्छासू उठ महा उछाहसों जिन पूजनकू जिनमंदिर विर्षे जाता हुआ सो कैसा है जिनमंदिर अरु निनबिम्ब सोई कहिये है । सौ जोननं लांबा पचास जोजन चौड़ा अरु पचहतर जोनन ऊंचा ऐसा उतंग निनमंदिर अद्भुत सोभे है । ताके अभ्यंतर एक सो आठ गर्भग्रह हैं । एक एक गर्भग्रहमें तीन कटनी ऊपर गंधकुटी निर्मापित है तामें एक एक जुदे जुदे श्रीनी पांचसै धनुष प्रमान उतंग पद्मासन सिंहासन ऊपर विराजमान हैं बहुरि वेदी ऊपर वना अष्ट' मंगल द्रव्य धर्म चक्र आदि अनेक अचरजकारी वस्तुके समूह पाइये है । ऐसी गंधकुटीमें श्रीनी अद्भुत सोभा सहित विराजे हैं। एक एक गर्भग्रह विर्षे एक एक सास्वते अनादि निधन अक्रतम निनबिम्ब स्थित हैं सो कैसे हैं जिनबिम्ब समचतुरसंस्थान है। अरु कोट सूर्यकी जोतिने मात करता तिष्टे हैं गुलाबके फूल सारखे महामनोज्ञ हैं । शान्त मूर्ति ध्यान अवस्थाकू घरे नासा दृष्टिकू धारे परम वीतराग मुद्रा आनन्दमय अति सोभे है। सो कैसे हैं जिन विम्ब ताया सोना सारखी रक्त, जिव्हा वा होंठ वा हथेली वा पगतली हैं। फटक मन सारखे दांतोंकी पंकति वा हस्त Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - २०५ पगके नख अत्यंत उज्जल निर्मल हैं । अरु स्याम मनमई महां नरम महां सुगंध ऐसे मस्तकपै केसकी अमी है । मुखकी वक्र रेखा तीर्थंकरवत् सोभे है। बहुरि कैसे है जिनविम्ब केई तो सुवर्नमई हैं । केई रक्तमणिके हैं केई नील वनके है । केई पन्नाके हैं केई स्याम वर्नके हैं। केई स्वेत फटक मनके मस्तक ऊपर तीन छत्र विराजे हैं मानू छत्रके मिस कर तीन लोक ही सेवाने आये हैं। चौसठ यक्ष जातके देवताका रत्नमई आकार है । ताके हस्त विषं चोसठ चमर हैं । सो श्री जी ऊपर बत्तीस दाहनी तरफ बत्तीस वाईं तरफ लियें खड़े हैं । अनेक हजारा धूपका घड़ा धरया है। लाखा कोड्या रत्न मई क्षुद्र घंटका है लाखा कोड्या रत्नके दंड रत्नमई कोमल वस्त्र सहित महा अनंग सोभे है । अनेक चंद्रकांत मणि सिलानकी वावड़ी वा सरोवर कुंड नदी पर्वत महलोंकी पंक्ति सहित वन वा पुप्प वटी निनमंदिर सोभे हैं। बहुरि कैसे निनमंदिर एक बड़ा दरवाजा पूर्वदिसा सन्मुख चौखुटा है दोय दरवाजा दक्षिन उत्तर दिसी चौखूटा है बहुरि पूर्व सन्मुख रचना सैकड़ा हमारा जोजन पर्यंत आगाने चली गई है। विशेष इतना पूर्वके द्वारा आदि रचनाका लांबा चौड़ा उतंगका प्रमान है। तातें आधा दक्षिन उत्तर द्वार आदिका प्रमान है । ताही ते दक्षिन उत्तर द्वारको मूल्यहार कहें हैं । बहुरि सर्व रचना कर बाहु चार चार द्वार सहित तीन महा उतंग कोट हैं। वहुरि तिन मंदिरके लाखा कोड्या अनेक रत्नान सहित निर्मापित महा उतंग स्थंभ लागे हैं । बहुरि तीन तरफ अनेक प्रकारके सैकड़ा हजारां योजन पर्यंत रचना चली गई है। कठै ईतो सामान्य मंडप है कहीं Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सभा मंडप है । कहीं ध्यान मंडप है । कहीं जिनगुन गान वा चरचा स्थान है । कहीं छत्र है कहीं महलनकी पंक्ति हैं। कहीं रतननके चौतरा हैं दरवाजेके तोरन द्वार हैं। कहीं द्वाराके आगे मानस्थंभ हैं । तिनकू देखते महां मानीनका मान दूर होय है । ताते अत्यंत ऊंचे हैं । आकास• सपर्से हैं । सब जाइगा हजारां सेनाकी रतनानकी माला लूमे हैं । जहां हजारा धूप घड़ानमें धूप खेवें हैं जागा जागा हजारां महलोंकी पंक्ति वा धुजानकी पंक्ति सोभै हैं । कैसी ध्वजा अरु कैसा है महल स्वर्ग लोकके इन्द्रादिक देवनकों वस्त्रके हालने कर मानूं सेनकर बुलावे है । कहाकर बुलावे है। कहे यहां आवो यहां आवो श्रीजीका दर्सन करो महां पुन्य उपार्ज पूर्वला कर्म कलंकने धोवो, कहीं रतनानका पुंज जगमगाट करे है कहीं हीरानकी भूमि है कहीं मानिककी कहीं सोनाकी कहीं रूपाकी कहीं पांच सात वर्न रतनानकी भूमिका है । कोई महलके थंभ हीराका है । कोईके पन्नाका कोईके मानिकका कोईके अनेक रतनाका कोईके सोना रूपाका कोई स्थानमें कल्प वृक्षोंका बन है । कहीं समान वृक्षोंका बन हैं । कहीं पहुप वाड़ी छे तिनमें रतनानका पर्वत सिला महल वावड़ी सरोवर नदी सोभे है । चार चार अंगुल हरयाली दूव पन्ना साढस्य महा सुगंध कोमल मीठी सोभे है । मानों श्रावन भादोंकी हरयाली साहस्य है । अथवा आनंदके अंकूरा ही हैं । कहीं जिनगुन गावे हैं कहीं नृत्य करे हैं । कहीं राम अलाप जिनस्तुति करे हैं। कहीं देव द्रव्यकी चरचा करे है कहीं ध्यान करें कहीं मध्य लोकके 'धर्मात्मा पुरुष वा स्त्रीका गुनाकी बड़ाई करे ऐसे जिन मंदिरमें Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - संख्यात व असंख्यात देवांगना दर्सन वास्ते आवे व जांय हैं। ताकी महमा वचन अगोचर है देखतेही आवे ताते ऐसे जिन देवकू हमारा नमस्कार होय वारंवार घनी कहवाकर पूनता होहु, बहरि कैसे हैं जिनबिम्ब मानू बोले हैं कि मुलकें हैं कि हंसे हैं कि स्वभावमें तिष्टे हैं। मानूं ऐसा स्यात तीर्थकर ही हैं। भावार्थनख सिख पर्यंत जिनविम्बका पुद्गल स्कंध तीर्थकरके शरीरवत अंग उपंग शरीरकी अवयव हाथ पग मस्तक आदि सर्वांग बर्न गुन लक्षनमय स्वयमेव अनादि निधन परनवे है । तातै तीर्थकर सादृश्य है विशेष तीर्थंकर महारानके शरीर विर्षे केवल ज्ञानमय आत्मा द्रव्य लोकालोकके ज्ञायक अनन्त चतुष्टय पंडित विराने हैं। जिन बिम्बको वे देव पूजे हैं । अरु मैं भी पुज्यूं हूं और भी भव्यजीव पूनन करो एक नयकर तीर्थंकरका पूजने बीच प्रतिमाजीके पूजनेका फल बहुत है । सो कसो कहिये है । जैसे कोई पुरुष तो राजाकी विद्यमान सेवा करे है । अरु कोई पुरुष रानाकी छबीकू पूजे तब राना देशान्तरसे आवे तब ई पुरुष सो बहुत रानी होय अरु या विचारे जाने हमारी छबीकी सेवा करी सो हमारी. करे ही करे तातें ऐसा भक्त जान बहुत प्रसन्न होय । त्योंही प्रतिमाजीके पूजनमें बहुत अनुराग सूचे है । फल है सो एक परनामाकी विसुद्धताका ही है । अरु परनाम होंय सो कारनके निमित्तसे होंय जैसा कारन मिले तैसा कार्य उत्पन्न होय निःकषाय पुरुषके निमित्त ते पूर्व कषाय गल जाय जैसे अग्निके निमित्तसे दूध उवल भाजनमें सू निकसे अरु जलके संयोगसे भाजनमें निरूप पररनमें त्योंही प्रतिमाजीके सांत दसाने देख निर्मल परनाम निर्विकार Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । 1 सांत रूप हो है । सोई परम लाभ जानना ऐसा ही अनाद निधन निमित्त नैमित्तने लिया वस्तुका स्वभाव स्वयमेव बने है । जाके निवारने समर्थ कोई नाहीं । बहुरि और भी उदाहरन कहिये है । जैसे जलकी बूंद ताता तवा ऊपर परे तो नासने प्राप्त होय अरु सर्पका मुखने पड़े तो विष होय । कमलका पात्र ऊपर पड़े तो मोती सादृस्य सोभे सीपमें पड़े तो मोती ही होय । अमृत कुण्ड में पड़े तो अमृत होय इत्यादि अनेक निमित्त कर अनेक प्रकार जलकी बूंद परनवती देखिये । और भी अनेक पदार्थ नाना प्रकार के कारन कर और सों और परनवते देखिये है ताक अद्भुत विचित्रता केवली भगवान ही जाने लेस मात्र सम्यक दृष्टि पुरुष ही जाने यहां कोई प्रश्न करे प्रतिमाजी तो जड़ अचेतन हैं स्वर्ग मोक्ष कैसे देसी ताकूं कहिये है रे भाई प्रत्यक्ष ही संसार में अचेतन पदार्थ फलदाई देखिये है । चि तामन पारस कामधेनु चित्रावेल नव निधि जे अनेक वस्तु देते देखिये है बहुरि भोजन खाये क्षुधा मिटे है जल पिये तृषा मिटे औषधके निमित्तकर अनेक रोग सांत होय पाचों इन्द्रीनके विषयसे ये सुख होय चित्रामकी वा काष्ठकी पाषानकी अचेतन मूर्ति देखने में चेतन स्त्रीके निमितवत विकार परनाम होय हैं । साची स्त्री सरीखा पाप लागे है । त्योंही प्रतिमाजीकी पूजा स्तुति करना है । सो तीर्थकर महाराजके गुनाकी अनुमोदना है । जा पुरुषके गुनाकी अनुमोदना करे तो वाके गुन सादृस्य फल उत्पन्न होय औगुनवान पुरुषकी अनुमोदना किये पापका फल नरकादिक लागे त्यों ही धर्मात्मा पुरुषकी अनुमोदना किये धर्मका फल स्वर्ग मोक्ष Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ___२०९ लागे तातै प्रतिमा जो साक्षात तीर्थंकर महाराजकी छवी है ताकी, पूजा भक्ति किये महा फल उपजे है । यहां कोई फेर प्रश्न करे जो अनुमोदना करे तो वाका सुमरन ही करवो करे मूर्ति काहेको बनावे ताको कहिये है सुमरन किये तो वाका परोक्ष दर्सन होय। साहस्य आकार बनाये प्रतिदर्शन होय सो परोक्ष बीच प्रतक्ष विर्षे अनुराग विशेष उपनै है। अरु आत्मा द्रव्य है । सो डीला कभी दीसे नाहीं डीलाका भी वीतराग मुद्रा स्वरूप शरीर ही दीसे है ताते भक्त पुरुषने तो मुखपनों वीतराग सरीर ही का उपगार है। भावे जंगम प्रतमा होय भावे थावर प्रतमा होय दोन्याका उपगार साहस्य है । जंगम नाम तीर्थंकरका है। थावर नाम प्रतमाका है । जैसे नारद रावन ने सीताका रूपकी वार्ता कही तबतो रावन थोरा आसक्त भया प्रीछे वाका चित्रपट दिखाया तर विशेष आसक्त भया ऐसा प्रतक्षं परोक्षका तातपर्ज जानना सो वे तो चित्रपट जथावत न था अरु प्रतिमाजीका यथावत रूप है । तातै प्रतिमाजीका दर्सन किये तीर्थंकरका स्वरूप आद आवे है । ऐसा परमेश्वरकी पूजा कर बहुरि वे देव कांई करे अरु कैसा कहे है सो कहिये है । जैसे बारा वरसका राजहंस पुत्र सोभायमान दीसे है। तासूं भी असंख्यात असंख्यात. अनन्त गुना तेज प्रतापकू लिया सोभे है बहुरि कैसे है शरीर जाका हाड़ मास मल मूत्रके संसर्ग कर रहित कोट सूर्यकी जोतने लिया महा सुन्दर शरीर हैं । वा वहु मोलो अन्तर तासूं भी अनन्त गुनी सुगंधमई शरीर है। अरु ऐसे ही सुगन्धमई उस्वास आवे है । बहुरि सोवर्नमई पीत तपाया सोना समान लाल अथवा १४ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ऊगता सुर्य समान लाल वा फटक मन मई स्वेत ऐमा है वर्न जाका बहुरि अनेक प्रकारके आभूषन रतनमई पहिरे है। अरु मस्तक ऊपर मुकट सो धारे हैं। अरु हजारां वरस पीछे मानसीक अमृतमई अहार ले हैं । अरु केतेक मास पीछे सांस उस्वास ले हैं । अरु कोड्या चक्रवर्त सारखे वल है । अरु अवधि ज्ञानकर . आगला पीछला भवके वा दूरवर्ती पदार्थका वा गृह पदार्थकू वा. सूक्ष्म पदार्थकू निर्मल पुष्ट जाने है । अरु आठरिद्ध वा अनेक विद्या वा वैक्रियाकर संयुक्त है जैसी इच्छा होय तैसा ही करे । बहुरि रेशम सों असंख्यात गुनी विमानकी भूमिका है अरु अनेक प्रकार रतनीका चून साढस्य कोमल चूल है । अरु गुलाब अंबरी केवड़ा केतुकी चमेली जाय सेवती नर्गसराय वेलसोन जुही मोगरा सुगंधरा चंपा आदि दे पहुपनका चून समान सुगंधमई रज है । अरु कहीं अनेक प्रकारके फूल तिनकी वाड़ी सुगंध वाड़ी सोभे है । अरु कोटक सूर्य सारखो ता रहित सात मई प्रकाश है । अरु मंद सुगंधि पवन बाजे है मानू पवन नाहीं बाजे देवतानके आनन्द उपजावे हैं । अनेक प्रकारके रतनमई चित्राम हैं । अरु अनेक प्रकारके रतन भी सोभे हैं । तेठे वनमें अनेक बावड़ी निवान पर्वत सिला सोभे हैं । तेठे देव कीड़ा करें हैं। बहुरि देवनके मंदिरके अनेक प्रकारके रतन लागे हैं। रतनमई है । महामनोहर दंडनपर लागी धुना हाले हैं । सो मानूं धर्मात्मा पुरुषनकू सेनकर बुलावे है । कांई कह बुलावे हैं या कहे है आवो आवो ऐसा यहां सुख है जो और ठौर दुर्लभ जासूं इठां आय सुख भोगो आपना किया करतव्य ताका फल ल्यो बहुरि, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कोड्या जातके वादिन बातें हैं अरु नृत्य होय है अरु नाटक होंय हैं अरु अनेक कला चतुराई वा हावभाव कटाक्ष करि देवांगना कोमल हैं । शरीर निर्मल सुगंधमई है अरु चन्द्रमाकी किरनसूं असंख्यात गुना निर्मल प्रकाशमई मुख है । बहुरि कैसी है देवांगना महा तीक्षन कोकला सारखा केट जिनका अरु मीठा मधुर वचन बोले हैं अरु तीक्षन मृग सारखा नेत्र है अरु चीता सारखी कट है अरु फटकमनी समान दंत अरु ऊगता सूर्य हथेली वा पग थली है बहुरि कैसी है देवांगना जैसे बारा वरसकी राजपुत्री सोभे तासूं असंख्यात गुना अतुलने लियां पर्यंत एकादस रूप रहे है । भावार्थ-यह तरुन वा वृद्धपनाने न प्राप्त होय बालदसा साढस्य ही रहे है बहुरि कैसी हैं देवांगना मानूं यह सर्व सुख बोयके पिन्ड ही है। सर्व गुनानके समूह हैं सर्व विद्याके ईश्वर हैं सर्व कला चतुराईकी अधपति है। सर्व लक्ष्मीके स्वामी हैं। अनेक सूर्यकी क्रांतिको जीते हैं। अनेक कामका निवास है शरीर जिनका बहुरि केसे हैं देव देवी देवता तो देवीनके मनकू हरे हैं अरु देवी देवनके मनकू हरे हैं हंसनीकी चालक जीतें हैं चाल जिनकी अनेक विक्रियामय है शरीर जिनका अनेक तरह सू नृत्य करें हैं अरु देव अनेक शरीर बनाया पुषत अनेक देवांगनासू अनेक भोग भोगवे हैं । अरु जुदे महान महासुगंधमई कोटक चन्द्रमा सास्य सातमई मनकू रंजाय मान करवावाले महादैदीप्यमान अनेक प्रकारके कल्पवृक्ष तिनके फूलन कर भूसित ऐसी सेज ऊपर देव तिष्ठं हैं । पीछे देवांगना अनेक आभूषन पहिरे जुदे जुदे महलनमें नाय हैं । पीछे दूर होते हस्त Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जोर सीस नमाय तीन नमस्कार करे हैं। पीछे देवकी आज्ञा पाइ सेज्या ऊपर जाय तिष्टे है । पीछे देव कभी गोद पर धोर हस्तादिक सपर्से वा नृत्य करने आज्ञा करे पीछे देव देवांगना अनेक प्रकारके शरीर बनाय व नृत्य करे वा गांन करें तामें ऐसा भाव ल्या हे प्रभो हे नाथ मैं कामवान कर दग्ध हूं ताकू भोगदान. कर सांत करो आप म्हांके कामदाह मेटवेकू मेघ साढस्य हौ । बहुरि कभी वे देवका गुनानुवाद गावें हैं। कभी कटाक्ष कर जानी रहे है । कभी आइ एकठी होय कभी याइ तले लोटै जाय कभी बुलाय बुलाय भी न आवे सो पहर आंका मायाचार जात स्वभाव ही है। मनमें तो अत्यंत बाह्य अरु वाहू अचाह दिखावे बहुरि कभी नृत्य करती धरतीमें झुक जाइ है। आकाशमें उठ जाय वा चकफेरी देइ वा भूम ऊपर पगांकू अति शीघ्र चलावे व कभी देव दिसाप्रति हेरे । वा तली दृष्टि देखे देवांगना वस्त्र कर मुख आछादित कर देय वा उघाड़ देय जैसे चन्द्रमा वादल कर आछादित होय कभी वादल सो रहित दिखाई देय बहुरि कभी देव देवांगना ऊपर उछाले सो वे भयकर भाग जाइ पीछे अनुराग कर देवके शरीरसू आय लिपटे फेर दूर जाय है कभी इन्द्र सहित देवांगना मिल चकफेरी देय कभी ताल मृदंग वीन बजाय देवकू रिजावे कभी सेजपर लोट जाय कभी उठ भागे पीछे आकासमें नृत्य करे । मानू आकासमें विजुली चमके अथवा आकाशमें तारान सहित चन्द्रमा सोभे है । अथवा चन्द्रमा साथ चन्द्रकला गमन करती सोभे । तैसें देवके साथ देवांगना मिल कौतूहल करे बहुरि देवांगना नृत्य करती थकी पावन भूमि ऊपर वा आकासमें नेवर आदि पगनके अनुराग का जाय है - रिजावे कसी करी देय Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २१३ गहने ताके झनकार सहित चलावे है सो कहिये है। झिम झिम झिन झिन छिन छिन तिन तिन आदि शब्दनके समूह अनेक रागने लियां गातके गहनेनके शब्द होय मानूं देवकी स्तुति करें हैं । पीछे कोमल सेजपर देवका आलिंगन करें सो परस्पर देवका संयोग कर ऐसे सुख उपजे मानूं नेत्र मूंद कर सुखने आचरे है । अरु तिर्यच मनुष्यकी नाई भोग किये सिथिल होय नाहीं । अत्यंत त्रप्त होय जैसे पंचामृत पिये होय । बहुरि वह देवमें ऐसी सक्ति पाइये कभी तो शरीरकू सूक्ष्म कर लेय कभी हल्का शरीर करे कभी भारी शरीर करे कभी आंखके पल मात्रमें असंख्यात् जोजन चाले कभी विदेह क्षेत्रमें जाय तीर्थंकर देवकू वंदे हैं स्तुति करे हैं । कोई स्तुति करे है जय जय भगवानकी जय प्रभूकी जय त्रिलोकी नाथकी जय करुनानंदनी जय संमार समुद्र तारक जय परम वीतराग जय ज्ञानानंद जय ज्ञान स्वरूप जय परम उपगारी जय लोकालोक प्रकाशक जय सुभावमय मोदित जय । स्वपर प्रकाशक जय ज्ञान स्वरूप जय मोक्ष लक्ष्मीके कंत जय सिद्ध स्वरूप जय आनन्द स्वभाव जय चेतन्य जय अखंड सुधारसपून जय ज्वलित मुचलित योति जय निरंजनजय मिराकारजय अमूर्तीक जय परमानंदैककारन जय सहन सुभाव जय सहन स्वरूप जय सर्व विन्ननासक जय सर्व दोषरहित जय निःकलंक जय परम सुभाव नित्यं जय भव्य जीव तारक जय अष्ट कर्म रहित जय ध्यानारूढ़ जय चैतन्य मूर्ति जय सुधारसमई जय ज्ञान मई जय अनन्त सुख मई जय अनन्त दर्शनमई जय अनन्त वीर्यमई जय अतुल जय अव नाती जय अनूपम जय सुखपिन्डजय सर्व तत्व ज्ञायक जय Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ~ ~ ~ ~ MAAVAVANAANNA अनन्त गुनभंडार जय निज परनतिमें रमनहार जय भव समुद्रके तरनहार जय सर्व दोषके हरनहार जय धर्मचक्रके धरनहार हे प्रभूनी परम देव थें ही हो अरु हो प्रभूनी देवांका देव थे ही हो आनमतके खंडनहार थें ही हो अरु हो प्रभूजी मोक्षमारगके चलावनहारे थें ही हो। भव्य जीवनकू प्रफुल्लत थे ही हो अहो प्रभूजी जगतका उद्धारक थें ही हो । जगतका नाथ थें ही हो अरु कल्यानके कर्ता थेई हो दयाभंडार थें ही हो अहो प्रभूजी समोसरनको लक्ष्मीसू विरक्त थेई हो । प्रभूजी जगत मोहत्राने समर्थ थेई हो अरु उद्धार करवाने भी थेंई समर्थ हो प्रभूजी थाका रूप देखकर नेत्र त्रिप्त न होयं अहो भगवानजी आजकी घड़ी धन्य है । आजका दिन धन्य है। सो में थांको दर्शन पायो सो दरसन करवा थकी बहु कृत कृत्य हूवो अरु पवित्र ह्वो कारन करनो हो आज में कियो । अब कार्य करनों क्यों रहो नाहीं। अहो भगवानजी थाकी स्तुति कर जिह्वा पवित्र भई अरु बानी सुन श्रवन पवित्र भयो अरु दर्शन कर नेत्र पवित्र हुआ अरु ध्यान कर मन पवित्र हुआ अष्टांग नमस्कार कर सर्व अंग पवित्र हूवो और हे भगवाननी मेरे ताई ऐते प्रश्नका उत्तर कहो आपके मुखारविन्द तें सुन्या चाहूं हूं सोई कहिये है हे प्रभू हे देव सप्त तत्वका स्वरूप कहो अरु पंचास्तिकायका स्वरूप कहो अरु पट द्रव्य नव पदार्थका स्वरूप अरु चौदह गुनस्थ न वा चौदह मार्गनाका स्वरूप अरु अष्टकम स्वरूप वा उत्तर कर्म का स्वरूप हे स्वामी मोने कहो । प्रथमानुयोग करनानुयोग चरनानुयोग द्रव्यानु योग इनका स्वरूप कहो स्वामी तीन काल वा तीन लोकका स्व Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २१५ रूप श्रावक मुनिका आचरन वा मोक्षका मारग हे स्वामी थें कहो पुन्य पापका स्वरूप वा चार गतिका स्वरूप वा जीवदयाका स्वरूप वा देव गुरु धर्मका स्वरूप वा कुदेव कुगुरु कुधर्मका स्वरूप हे नाथ मोने कहो सम्यकदर्शक ज्ञान चारित्रका खरूप अतेन्द्री आनन्दमय निराकुलित अनोपम वाधा रहित अखंडित सास्वतो अवनासी आत्मीक सुखका स्वरूप हे भगवानजी थेहीं कहो धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान आरतध्यान रौद्रध्यान हे प्रभूजी इनका स्वरूप कहो । जोतिष वा वैदिक वा मंत्र तंत्र जंत्र इनका स्वरूप कहो वा चौसठ रिद्ध वा तीनसे त्रेसठ कुवादिका स्वरूप भी कहो। अरु वारा अनुपेक्षा दसलक्षनी षोडस भावनाका स्वरूप अरु नोनय वा सप्तभंगी वानी अरु द्रव्यका सामान्यगुन अरु विसेष गुन ताका स्वरूप कहो वा अधोलोक वा मध्यलोक वा ऊर्धलोक ताकी रचना वा द्वादशांगका स्वरूप वा केवलका स्वरूप याने आदि दे सर्व तत्वका रूप जान्या चाहूं हूं अरु हे भगवानजी नर्क किसा पाप सो जाय है। तिर्यंच कैसा पाप सूं होय मनुष्य कैसा परनाम सूं होय । देव पर्याय कैसे परमान सू होय निगोद क्यों कर जाय एकेन्द्री विकलत्रय क्यों कर होय असैनी कैसा पाप सू होय सन्मूर्छन अलब्धि पर्याप्त सूक्ष्म वादर कैसा खोटा परनाम सूं होय आंधों बहरो गूगो लूलो कैसा पाप कर होय वावन कूवड़ो विकलिंगी अधिक अंगी कैसा पाप कर होय कोढ़ी दीर्घ रोमी दरिद्री कुरूपी शरीर कसा पाप सूं होय मिथ्याती कुविस्नी अन्यायमार्गी चोर निर्दई अदयावान धर्मसू परान्मुख पाप कार्यसो आसक्त अधोगामी कैसा पाप सूं होय । शीलवान संतोषी दयावान संयमी त्यागी वैरागी कुल Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२१६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । वान पुन्यवान रूपवान निरोगी विचक्षन बुद्धिमान पंडित अनेक शास्त्रको पारगामी धीर वीर साहसी सज्जन सबका मन मोहन सबकूं प्यारा दानेश्वरी अर्हत देवका भक्ति सुगतिगामी कैसा पुन्य सों होय इत्यादि प्रश्नका दिव्यध्वनि करि स्वरूप सुन्या चाहूं हूं । सो मो पर अनुग्रह कर वा दया कर मेरे ताईं कहो अहो भगवानजी हमारा पूर्वला भव कहो अरु अनागत भव कहो अरु हे भगवानजी अब मेरे संसार के तो बाकी रहा अरु दिक्षा घर कब थां सारखा होहुंगा सो मो यथार्थ कहो हमारे यह जानवाकी घनी वांछा है । वा घनी अभिलाषा है। ऐसा प्रश्न पइ श्रीभगवाननीकी वानी खिरती हुईं अरु सर्व प्रश्नका उत्तर एक साथ ज्ञानमें भाषता भया ताके मुखकर सुनि अत्यंत तृप्ति भया पीछे स्वर्ग लोक गया पीछे कभी नन्दीसुरद्वीपमें जाय वा मेरुका चैत्याला जाइ प्रतिमाजीने बंद कभी अनेक प्रकारका भोग भोगवे कभी सभा में सिंहासन पर बैठे अरु राज्यकान करै कभी धर्मकथा करै । कभी चार जात वा सात जातकी सेन्या सज भगवानका पंचकल्याणकमें जाय वा वनादिमें क्रीड़ा करवाने जाय कभी देवांगना देव अंगुष्ट ऊपर नृत्य करें । कभी हथेली ऊपर कभी भुजा ऊपर कभी आंखकी भोंह ऊपर कभी आकाश में नृत्य करें कभी धरती में झुक जाय कभी अनेक शरीर बनाय लेय कभी बालक हो जाय कभी देवकी स्तुति करे । कांई स्तुति करे हे देव थाने देखवा कर नेत्र त्रप्त न होंय हे देव थांका गुनका चिन्तवन कर मन त्रप्ति नाहीं होंय । अरु हे देव था विना म्हांने कौन प्रीति उपजावे है । हे देव थांका दर्शन कर अत्यंत त्रप्ति होय । हे देव थांका संयोगको अंतर कभी मत करो। थांकी सेवा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जयवंती प्रवर्तो अरु थें जयवन्ता प्रवर्तो थे म्हाने कल्यानके कर्ता हो । अरु थे म्हांका मन वांछित मनोरथने पूरो । बहुरि कैसे हैं देव देवांगना जाके आंखका टमकार होय नाहीं । अरु शरीरकी छाया नाहीं अरु क्षुधा तृषा रोग नाही हजार वरस पीछे किंचित् मात्र क्षुधा लागे सो मनहीकर त्रप्ति होय हैं तातें क्षुधा नाहीं वे केई देव अनेक तरेका स्वांग ल्यावे अरु केईक देव सुगंधमई जल वरावे हैं । अरु केई इन्द्र ऊपर चमर ढोरे हैं। कैसे ढोरे मानू चमरके मिसकर नमस्कार करै हैं। कईक छत्र लिया केई देव आयुध लिये दरवाजा तिष्टें है। कैईक देव माहली सभामें तिष्टें । कैईक वारली सभामें तिष्टें कैईक विरदावली बोलें हैं। कैईक देव स्तुति करें हैं कैईक हाथ जोड़ वीनती करें हैं । कैईक देव अमोलक निधि ल्याइ नजर करें हैं। कैईक देव ऐसे कहें हैं हे प्रभो कौन धर्म किया था तातूं ऐसी रिद्ध पाई अरु मैं भी कौन पुन्य किया था ताकर ऐसा नाथ पाया अरु कैई देव तीखा कण्ठ सों राग गावें सो रागने गावे मानू या कहें हैं हे प्रभूजी म्हांपर प्रसन्न होहु हमारी सेवा दिस दखो अरु कैईक प्रश्न करे हैं हे प्रभू जीवको कल्यान कौन बात कर होय सो मोने कहो थें सबनमें ज्ञाता हो अरु विशेष पुन्यवान हो याने आदि देय अनेक प्रकारके कौतूहल कर वा नृत्य करवावै गान करि स्तुति करि अपन स्वामीने रिझावे या जानेके कोई प्रकार देव म्हांपर प्रसन्न होय बहुरि स्वर्ग में रातदिनका भेद नाहीं रतननकी जोति वा कल्पवृक्षनकी जोति वा सुभाव कर आकास निर्मलताके प्रभाव एकसां कोट्यां सूर्यका प्रकासने लियां सास्वता है । कैसा Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । vvwwwwwwwwwwrnvvvvvvvvvvvvvvo है प्रकास मानो यह प्रकास नाहीं आनन्द बर्षे है । मानूं देवका पुन्य एकठा होय आया है कि मानू त्रैलोककी सुभ परमानू आन एकठी भई है । बहुरि कभी वे देव धर्मकी चरचा कर अपना देवांने पोषि न करे है । अरु आनन्द उपनावे है अरु महा मनोहर वचन बोले अरु या जाने है के ऐ देव म्हारा चाकर है । मैं याका स्वामी हों सो मोने याकी रक्षा कर करनी हूं या देवकर सोभायमान दीसू देखो यो धर्मको महातम तीसू विना बुलाया वा विना प्रेरचा देव आन स्तुति करै है । अरु सेवा करे है यो अद्भुत कोतूहल स्वर्ग लोक विना और ठौर तो नाहीं होती। देखो या विमानकी सोभा और देखो देवांगनाकी सोभा अरु देखो राग वा नृत्य वादित्र वा सुगन्ध उत्कृष्ट ऐठे ही आन एकठी हुई है। कैसे ईकठी हुई है। कहीं तो देवांगना नृत्यगान करे कहीं क्रीड़ा करे कहीं देवांगना आन इकट्ठी भई हैं। कि मानू सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र ग्रह ताराकी अंकित एकठी होय दसों दिसा प्रकासित कीनी हैं कहीं देवांगना रतनोंका चूरन कर मंगलीक साथिया पूरे हैं । कोई देवांगना मीठा मीठा सुरमू मंगल गावे ___ मानू मंगलके मिसकर मध्य लोकसू धर्मात्मा पुरुषाने बुलावे हैं । कोई देवांगना देव आगे हाथ जोड़े ऊभी है । कोई देवांगना हाथ जोड़े स्तुति करे हैं। कोई हाथ जोड़ प्रार्थना करे हैं कोई देवांगना लज्याकर नीची दृष्टि करे है कोई देवांगना देवका तेज प्रतापने देख भयवान होय है। कोई देवांगना थरथर धुनती जाय है । हाथ जोड़े मधुर मधुर वचन बोलती जाय हैं । अरु कैई देवांगना या कहे हैं । हे प्रभू हे नाथ हे दया Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २१९ in मूर्ति कीड़ा करवा चालो म्हाने त्रप्ति करो बहुरि कैसा है स्वर्ग कहीं तो धूपकी सुगन्ध फैली है। कहूं देवांगनाका समूह विचरे है । कहीं धुजानका समूह चाले है । कहीं पन्ना साढस्य हरयाली होय रही है । कहीं पहुपवाड़ी फूल रही है कहीं भ्रमर गुंजार कर रहे हैं । कहीं चंद्रक्रांति मनिकी सिलानकर सौभित है । तामें देव तिष्टे हैं । कहीं कांच साढस्य निर्मल वा जल साढस्य निर्मल पृथ्वी सोभे हैं। मानू जलके दर आयुती है। ताके अवलोकन करतें ऐसी संका उपजे हैं । मतं यामें डूब जाय कहीं मानिक सारखी लाल सोना सारखी पीत भूमि वा सिला सोभे है कहीं तेल कर मथो काजल साढस्य वा काली वादरी साढस्य भूमि सोभे मानू पापके छिपावे पापकी माता ? इत्यादि नाना प्रकारके वर्न लियां स्वर्गाकी भूमि देवताके मनकू रमावे हैं। ओर सर्वत्र पन्ना सारखे हरी अमृत सारखी मीठी रेशम सारखी कोमल वावन चंदन सारखा सुगन्ध सावन भादवांकी हरयाली साहस्य पृथ्वी सोभे सदा एकसी रहे है। बहुरि ठौर ठौर ज्योतिषी देवनका विमान साहस्य उज्जल आनन्द मंदिर वा . सिला वा पर्वतनके समूह तामें देव तिष्टं हैं । कहीं सोवन रूपाके पर्वत सोभे हैं । कहीं वैडूर्यमन पुष्पराग मोतनके समूह नानके ढेरवत परे हैं । कहीं आनन्दमंडप है कहीं कीड़ा मंडप है। कहीं सभामंडप है कहीं चरचा मंडप हैं कहीं केल मंडप है कहीं ध्यान मंडप है। कहीं चित्रामवेल कहीं कामधेनु कहीं रसकूप कहीं अमृत कुंड भरया है। कहीं नील मन आदि मन्यांके ढेर परे हैं। ऐसे सोभाके समूह कर व्याप्त हैं। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । बहुत सुगंध वा अगनित वादित्र कर विमान व्याप्त हैं । सो याने आदि दे सुख सामग्री स्वर्ग में सर्व है और खोटी सामग्रीका अभाव है। ऐसी सुख सामग्री संसारमें नाहीं। जोमें स्वर्गमें पाजे अवे तो मध्यलोक आदि विषं सुख सामग्री है से स्वर्ग लोककी नकल एक अंसमात्र इहां पुन्यके फल लेस मात्र दिखावा निपजा है । सो स्वर्ग लोकका सुख बर्नन करवां समर्थ श्री गनधर देव भी नाहीं केवल ज्ञान गम्य है । सो यो जीव धर्मका प्रभाव कर सागरां पर्यंत ऐसा सुख पावे है, जांसू हे भाई तू धर्म सेवन निरंतर कर धर्म विना ऐसा भोग कदाच न पावे तासूं अपना हित वांक्षने पुरुषको धर्म सेवना जोग्य छ । कैसो छे धर्म परंपराय मोक्षको कारन छे सो ऐसा सुखमई आयुने पूरा कर पुन्य पूरा होवे कर ऊठा सोचवे है सो मास छै आयुमें बाकी रहे तब वह देवता अपना मरन जाने है । सो माला व मुकट व शरीरकी क्रान्ति मंद पड़वा थकी सो देव मरन जान बहुत झूरे है । कैसे झूरे है हाय हाय अब मैं मर जासी ये भोग सामग्री कौन भोगसी अरु मैं कौन गत जासी मोने राखवा समर्थ कोई नाहीं। अब में कांई करूं कौनकी सरन जाऊं हमारो रक्षक कोई नाही हमारा दुखकी बात कोनें कहूं । ये भोग हमारा वैरी था सो सब एकठा होय मोनें दुख देवे आया है । सो योनके सारखो यो मानसीक दुख कैसे भोगऊं । कहां तो ये स्वर्ग सारखा सुख अरु कहां एकेन्द्री आदि पर्यायका दुख सो कौड़ीके अनन्ता जीवके अरु कहां हाड़ान सू छेदे हैं हाड़ी मेरा वा राधे सो ऐसी पर्यायमें पावासी हाय हाय यो काई हूवो। ऐसानकी ऐसी दसा होय जाय है। फेर वह देव अपने परवारके Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wand ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २२१ देवनसों कहे हैं देव हो आज मो ऊपर कालका किंकर कोप्या सो मोपर सों ऐसा सुरपदका सुख छुड़ावे है अरु खोटी गतिमें नाखे छै ई दुख सहवाने में समर्थ नाहीं। धनीमें काई काई कहूं म्हारा दुखकी बात सर्वज्ञ देव जाने छै और जानवा सक नाहीं ऐसा दीनपनाका वचन सुन परवारका देव तामें कोई बुद्धिवान देव शास्त्रका परगामी कहता हूवो हे नाथ हे स्वामी हे प्रभो ऐसा दीनपनाका वचन क्यों कहो । या दसा तो सबन की होनी ही है। जो कालसू काहूको जोर नाहीं ई कालका बस त्रैलोकका जीव है । जासू अब एक धर्म ही सरण है। सो थें भी धर्मको सरन लेहु आरतने छोड़ो आर्तध्यान तिर्यंच गतको कारण छै । अरु परंपराय अनन्त संसार करे छै तीसू अबार किछू गयो नाहीं अब सावधानी सहित भगवानकी पूजा करो । वारा अनुपेक्षाको चिंतवन करो अरु अहंत देवको सुमरन करो। अरु आपना सहनानन्दका सम्हार करो स्वरसने पीवो जासू जामन मरनका दुख विलय जाय अरु सास्वता सुखने पावो ई संसारसू श्री तीर्थकर देव भी डरया शीघ्रतासूं राजसंपदाने छोड़ बनमें जाय वस्या, तीसों थाने भी यो करनो जोग्य है । अरु सोक करनो जोग्य नाहीं पीछे वारंवार श्रीनीने याद करता हवा अरु धर्ममय बुद्धि करता भया अरु वारा अनुपेक्षा चिंतवतो वो । काई चिन्तवतो हूवो देखो भाई कुटुम्ब परवार है सो बादरकी नाई विलय जासी तथा जैसे साझ समै वृक्षपे दसू दिससू अनेक पक्षी आन बसे प्रात समैं दसू दिस जाते रहे अथवा जैसे हाटमें अनेक व्यापारी हटया भेले. होय पीछे दोय चार दिनमें नाका काम होय Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सोई जाता रहे अरु तमासगीर हू जाते रहें तैसे कुटुम्ब परवारका चरित्र है । अरु माया है सो विजुलीके चमत्कार समान चंचल है । अरु जोवन है सो सांझकी ललाई समान है। सो जाने आदि दे सर्व ठाठ विनासीक है छिन भंगुर हैं कर्मजनित हैं पराधीन हैं। ई सामग्रीमें हमारो कोई नाहीं। हमारो चैतन्य स्वरूप सासतो अविनासी है । हूं कौनको सोच करूं और कौन सो राच्यों अब असरन अनुपेक्षा चिन्तवे छै । देखो भाई था संसारमें देव विद्याधर वा इन्द्र धरणेन्द्र वा नारायन प्रति नारायन वा बल्देव वा रुद्र वा चक्री कामदेवने आदि दे कोई सरन नाहीं। ऐ भी सबकालके बस हैं। तो और कौने सरन राखसी तासू वाह्य मोने पंचपरमेष्टी सरन है। अरु निश्च सरन हमारो निन स्वरूप है । और त्रिकालमें सरन नाहीं। अब संसारानुपेक्षा चिंतवे हैं । देखो भाई यो जीव भूलकर मोहके बस इवो ई संसारमें जामन मरनादि दुख सहे है। तासूं या संसारमूं उदास होय निश्चे धर्म हीको निरंतर सेवन करनो । अब एकत्वानुपेक्षाको चितवन करें हैं। देखो भाई यो जीव अकेलो है ईके कुटुम्ब परवार है नाहीं नर्क गयो तो अकेलो ऐठा आयो तो एकलो अरु ऐठासूं भी एकलो जासी तीसू हमारे अनन्त दर्शन अनन्तज्ञान अनन्तसुख अनंतवीर्य यो परवार सास्वती छै । सो म्हारे साथ छै । अब अनित्यानुपेक्षाको चिन्तवन करे छे । देखो भाई छहों द्रव्य अनादि निधन अरु न्यारा न्यारा एक क्षेत्र अवगाही भेला तिष्टे है । कोई द्रव्य काहूं सो मिले नाहीं । ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है जामें संदेह नाहीं । चैतन्य स्वरूप अमूर्तीक अरु जो Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २२३ शरीर जड़ मूर्तीक तासू मेरा काई मेल ईको स्वभाव न्यारो म्हारो स्वभाव न्यारो ईका प्रदेश न्यारा म्हारा प्रदेश न्यारा ईका द्रव्य गुन पर्याय न्यारा म्हारा द्रव्य गुन पर्याय न्यारा । तासूमें यासू भिन्न त्रिकालका हूं। अब अशुचित्वानुपेक्षाका चित्तवन करें हैं । देखो भाई यो सरीर महा असुच है । अरु धिनावनो है । ऐता दिन या सरीरने पोषता भया काम पड्यो तब दगा ही दिया ई सरीरने सागर भरपानी सो धोवो तो भी पवित्र न होय । यो जड़ अचेतन ही रहे तासू बुधजन ऐसा सरीर सू कैसे प्रीति करें कदाचि न करें । अब आश्रवानुपेक्षाको चिन्तवन करें हैं । देखो भाई यो जीव मिथ्यात अवि. रति प्रमाद कषाय योग इनकर उपना जो भावत द्रव्यत कर्म ताकर संसार समुद्रमें डूवे हैं । कैसे डूबे है जैसे छिद्र सहित जिहाज जलमें डूबे । अब संवरानुपेक्षा चिन्तवें हैं । देखो भाई जिहाजका छिद्र मुंदे जल न आवे तैसे तप संयम धर्म कर संवर होय है । अब निर्जरानुपेक्षाको चिन्तवन करे है। देखो भाई आत्माका चिन्तवन कर पूर्वला कर्म नाप्सर्वं प्राप्त होय । जैसे जिहाजमेंका पानी उछाल दीजे निहाज तीर पार होय वैसे आत्माकू कर्मरूप बोझ करि रहित कर मुक्तिकी प्राप्त करे । अबलोकानुपेक्षाका चितवन करें हैं। देखो भाई यह लोक षट् द्रव्यनका पप्तार है । कोईका किया नाहीं। अब धर्मानुपेक्षाका चितवन करें। देखो भाई धर्म ही संसारमें सार है । अरु धर्म ही मित्र है । अरु धर्म ही बड़ो हितू है । अरु धर्म विना कोई सरन नाहीं तातै धर्म हीको साधन करनो अरु धर्म ही आराधनों जेता. त्रैलोकमें उत्कृष्ट सुख है सो धर्म हीका प्रसाद कर पाते है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । अरु धर्म ही कर मुक्ति पावे सो धर्म ही हमारो निन लक्षन है । निज स्वरूप है म्हारो स्वभाव है । सोई म्हाने गृहन करनो और कर प्रयोजन नाहीं । अब दुर्लभानुपेक्षाकू चिन्तवे छै । देखो भाई संसारमें एकेन्द्री पर्याय सूं वेन्द्री दुर्लभ है । वेन्द्रीसूं तेन्द्री, तेन्द्री सूं चौन्द्री, चौन्द्री सूं पंचेन्द्री तामें मनुष्य पर्याय में भी धर्मीनकी संगति धर्म संयोग यह अनुक्रमसे दुर्लभसे दुर्लभ जानना, तामें भी सम्यक ज्ञान महां दुर्लभ जानना ऐसे वह देव भावना भावता हुवा पीछे आयु पूनकर मनुष्य पर्यायमें उच्च पद पावता हुवा अरु विना धर्म वेइन्द्रीन कर घटे है। ताते हे भाई हे पुत्र हे वक्ष धर्मका सेवन निरंतर कर धर्म ही संसामें सार है धर्म समान और हितू नाहीं । अरु मित्र नाहीं तातें सीघ्र ही पाप कार्यने छोड़ अपना हित वांक्षित पुरुषाने धर्म ही सेवनो ढील न करनो घनी बातकर कांई । ऐसे गुरु उत्तर दिया सुन्दर उपदेस कर आसीर्वाद दिया यह सुभावकू ज्ञाता जाने हैं । इति स्वर्ग वर्नन संपूर्न । ॐ नमः सिद्धेभ्यः । आगे अपने इष्टदेवको नमस्कार कर समाधि मरनका स्वरूप वर्नन करिये है। सो हे भव्य तू सुन | सोई अब लक्षन वर्नन करिये है। सो समाधि नाम कषायका सांत परनामका है । ऐसा याका स्वरूप जानना आगे और विशेष कहिये है । जे सम्यकज्ञानी पुरुष हैं ताका यह सहज सुभाव है । जो समाधि मरन ही कू चाहे हैं ऐसी निरंतर सदैव भावना वर्ते पाछे मरन समय निकट आवे तब ऐसा सावधान होय. मानूं सूता जो सिंह ताके ताई कोई सुरुष ललकार ऐसा कहे है। सिंह अपना पुरषार्थ सम्हार थां पर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ज्ञानानन्द श्रावकाचारः । २२९ वैरीनकी फौज आई, सो गुफा माह सूं निकसो, जेते वैंरीनका वृंद कहिये समूह केतीक दूर है ते ते तुम सावधान होय वैरीनं जीतो महंत पुरुषां की यही रीति है । जो वैरी आया कायर न होय सो सिंह ततक्षन ही उठतो हूवो अरु ऐसो गुंजारो मानो असाड़ माह में मेघ गानो सो ऐसा सिंहका शब्द सुन वैरीनकी फौजका हस्ती घोड़ा पुरुष सबही कंपायमान भया वा सिंहका जीतवाने असमर्थ भया हस्तीका समूह आगे पांव न धारता हुआ कैसा हस्ती डरया मानूं याका हृदाने सिंहका आकार पैठ गया है। सो हस्तीनका धीरज न रहा क्षिन क्षिन मोने हार करे तापरि सिंहका पराक्रम सहा न जाय । तैसे ही सम्यक ज्ञानी पुरुष सोई भय सिंह ताके अष्टकर्मी वरी सो मरन समय कर्म जीत वाका उद्यम विशेष करे वह सम्यकज्ञानी सिंह समान सावधान होय कायरपनाने दूर ही ते छोड़े बहुरि कैसा है सम्यक् दृष्टि पुरुष ताका हृदामें आत्माखरूप दीपमान प्रगट प्रत्यक्ष भास्या है कैसा मास्या है ज्ञान ज्योतिने लिया आनन्द रस भर तो ऐसा साक्षात पृरुषाकार अमूर्तीक चैतन्य धातुको पिन्ड अनन्त गुनकर पूर्ण ऐसा चैतन्य देव आपको जाने ताका अतिशय कर पर द्रव्यसूं अंसमात्र भी रंजिन कहिये रागी न होय है । क्यों न होय है । अपना निज स्वरूप तो वीतराग ज्ञाता दृष्टा परद्रव्य सों भिन्न स्वास्वता अविनासीक जान्या है । अरु परद्रव्यका गलन पूर्व छिन भंगुर असाता अपना स्वभाव भिन्न भलीभांति नीके जान्या है । सातें सम्यक ज्ञानी मरनतें कैसे डरे अरु वह ज्ञानी पुरुष मरन समय ऐसा विचारे अब इस शरीरका आयु तुक्ष रहा है । ऐ चिन्ह मोने प्रत्यक्ष भासे । तातें १५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - Cr o c ~ ~ ~ ~ ~ अब सावधान होना उचित है । ढील करना उचित नाही नैसे सुभट पुरुष रनभेरी सुन्या पीछे वैरीन ऊपर जावामें ढील छिन मात्र भीत करे अरु घना रोप्त चढ़ आवे ततछिन जाय झुके अरु वैरीका समूहने जाय जीते ऐसा जाका चित्त अभिलाषी है त्योंही हमारे भी अभिप्राय कालका जीतवाको है । सो हे कुटुम्बके लोक तुम सुनो अरु देखो ये पुद्गल पर्यायका चरित्र जो देखता देखता ही उत्पन्य भया अरु देखता देखता ही अब विलय जायगा सो में तो पहिले ही याका विनासीक सुभाव जान्या था सोई अब औसर पाय विलय जासी अब याका आयु तुक्ष रहा है तामें भी समय समय गलता जाय है । सो में ज्ञाता दृष्टी भया देखों हों। में याका पड़ोसी हो सो में अब देखो या शरीरकी आयु कैसे पूर्न होय । अरु कैसे नस जाय सो या हेतु कर रहा हो। अरु जाकर तमासगीर ही याका चरित्र देखों हों । जो असंख्यात कुलकी परमानू एकठी होय सरीर निपज्या है । अरु मेरा स्वरूप चैतन्य स्वभाव सास्वता अविनासी है। ताकी अद्भुत महिमां सो मैं कौनळू कई बहुरि देखो इस पुद्गल पर्यायका महातम जो अनंत पुल परमानुका एकसा परनमन ऐते दिन रहा। सो यह बड़ा विसमय है म्रो अब यह पुद्गल परमानू भिन्य भिन्य होंय और रूप पस्नमेंगे सो जाका आश्चर्य नाहीं। जैसे लाखों मनुष्य एकठे होय मेला नाम पर्यायकू बनावे अरु केताइक काल पर्यत मेला नाम पर्याय बन्या रहे तो याका आश्चर्य गिनिये ऐता दिन ताई लाख्यां मनुष्यनका परिनाम एकसा रहा । ऐसा विचार देखनेवाले Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । .२२७ पुरुषनकू अचरज उपजै है । पीछे मेलाके पुरुष जुदा देसने गमन कर जांय तब मेला नास होय सो ऐते मनुष्यनका अन्य अन्य परनाम छां ऐता काल एकसा रहा सो अचरज है । त्यों ही यह शरीर और भांति परनवे है । सो या सुभाव ही है थिर कैसे रहे। अब यह शरीरका राखवाने कोई समर्थ नाहीं। सो क्यों समर्थ नाहीं सोई कहिये है । जेते त्रिलोकमें पदार्थ है सो अपना स्वभावरूप परनमें हैं। कोई किसीकू परनमावे नाहीं । अरु कोई फिसीका भोक्ता नाहीं आप ही आवे आप ही जाय आप ही विठुरे आप ही गले आप ही पूरे तो मैं इसका कर्ता भोगता कैसे मेरा राख्या शरीर कैसे रहे अरु मेरा दूर कहा यह शरीर दूर कैसे होय । मेरा कर्तव्य कछू है नांहीं आगे झूठा ही कर्तव्य माने छा मैं तो अनादिकालका खेद खिन्न आकुल व्याकुल होय महां दुख पावू था सो यह बात न्याय ही है । जाफा कर्तव्य तो क्यों चले नाहीं । वे परद्रव्यका कर्ता होय परद्रव्यकू आपना स्वभावके अनुसार परनमामें ते खेद पावे ही पावे तातै मैं तो एक ज्ञायक स्वभाव ही का कर्ता अरु भोक्ता अरु ताहीकू वहु अरु ताहीको अनुभवो यूँ अब जा शरीरके जाते मेरा किछू बिगार नाहीं अरु शरीरके रहे मेरा सुधार नाही यह तो परद्रव्य जैसा काठ पाखानमें भेद नाहीं शरीरमें यह जानपनेका चमत्कार है सो मेरा गुण शरीरका गुन नाहीं शरीर तो प्रत्यक्ष मुरदा है । जो मैं शरीरसं निकसा सो याकों मुर्दा जान दग्ध किया मेरे ईके मिलाप तें जाका जगत आदर करे हैं । जगतके ताई ऐसी खबर नाहीं जो आत्मा म्यारा है अरु शरीर न्यारा है । तातै जगत भ्रम कर ई शरीरको Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । अपना जान ममत्व करे हैं । अरु जाके जाते बहुत झूरें हैं अरु विशेष शोक करे हैं कांई शोक करे हैं हाय हाय मारा पुत्र तूं कहां गया हाय हाय म्हारा खामिंद तू कहां गया हाय हाय पुत्री तू कहां ई हाय हाय माता तू कहां गई हाय हाय पिता तू कहां गया हाय हाय द्रष्ट भ्राता तू कहां गया इत्यादि वे अज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करे हैं अहो कौनका पुत्र कौनकी पुत्री कौन का खावंद कौनकी स्त्री कौनकी माता कौनका पिता कौनकी हवेली कौनका मंदिर कौनका धन कौनका माल कौनका आभरन कौनका वस्त्र इत्यादि सर्व सामग्री झूठी है। ऐ सामग्री किछू वस्तु नाहीं जैसे सुवा को राज वा इन्द्रजालका तमासा जैसे भूतकी माया जैसे आकास विषे वादरानकी सोभा ये सामग्री देखते तो नीकी लागे परन्तु वस्तु स्वभाव विचार तांकू भी नाहीं । जो वस्तु होती तो थिर होती नासने प्राप्त न होती तासूं मैं ऐसा जान सर्व त्रैलोक में पुलकीजेती ईक पर्याय है । ताका ममत्वने छोड़ हूं तैसे ही सरीरका ममत्व छोडू हूं जा सरीरके जाते मेरा परनाम में अस मात्र भी खेद नाहीं । ऐ सरीर दसा सामग्री है। सो चाहो ज्यों परनमों मेरा कछू भी परोजन नाहीं भावे क्षीजो भावे भजो भावे पर लेने प्राप्त होय भावे एकठां आन मिलो भावे जाती रहो हमारी क्यों भी मतलब नाहीं । अहो देखो मोहका महातम परतक्ष यह सामग्री पर वस्तु हैं । अरु तामें विनासीक है । अरु पर भवमें दुखदाई है । तो भी यह संसारी जीव अपना मान राख्या चा है । सो यह चरित्र मैं ज्ञाता भया देखूं हूं मेरा तो क्षोक्षा ज्ञान मात्र है ताह अवलोकों हों । अरु कालके आगमन सूं नाहीं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २२९ - A डरूं हूं। काल तो या शरीरका ग्राहक है मेरा ग्राहक नाहीं। जैसे माखी दौड़ दौड़ मीठी वस्तुपै बैठे अरु अगनिमें कदाच बैठे नाहीं त्योंही यह काल दौड़ दौड़ शरीरकू ग्रसे है अरु मोसू. दूर भागे मैं तो अनादि कालका अविनासी चैतन्य देव त्रलोक कर पूज्य ऐसा पदार्थ हूं । तापर कालका जोर नाहीं सो अब कौन मरे कोन जीवे । कौन मरनका भय करे म्हांने तो मरन दीसता नाहीं । मरे छै सो पहिले ही मुवा क्षा अरु जीवे छै सो. पहले ही जीवे क्षा जीवे सो मरे नाहीं मरे सो जीवे नाहीं मोह दृष्टि कर अन्यथा भासे छै अब मेरे मोह कर्म क्षय भया सो जैसा ही वस्तुका स्वभाव था तैसा ही मोकों प्रतिभास्या ताके जामन मरन सुख दुःख देख्या नाहीं । तो मैं अब काहेका सोच करों मैं तो एक चैतन्य मूर्ति सास्वता बन्या हूं। ताका अवलोकन करना, मरनादिकका दुख कैसे व्यापे बहुरि कैसा हूं मैं ज्ञानानंद रस कर पूर्ण भरा हूं अरु सुद्धोपयोगी हुवा ज्ञान रसने आरू चाहूं वा ज्ञान अंजुली कर अमृतने पीवू हूं यह सुधामृत मेरा स्वभाव थकी उत्पन्न भया है । तातें स्वाधीन है पराधीन नाही बहुरि कैसा हू मैं अपना निज स्वभावने स्थित हो अडौल हूं अकंप हूं बहुरि कैसा हूं मैं स्वरस कर निरभर कहिये अतिशय कर भरया हूं अरु ज्वलित कहिये दैदीपमान ज्ञान जोतकर प्रगट अपने ही निज स्वभाव मैं तिष्ट्र हूं देखो अद्भुत ई चैयन्य स्वरूपकी. महिमा ताका ज्ञान स्वभावमें समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलके हैं। पर ज्ञेयरूप नाहीं परनवे हैं ताके जानता विकल्प कास्ता अंस भी न होय है। तातै निर्विकल्प अभोगति अतेन्द्री अनोपम Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - am वाधारहित अखंडित सुख उपजे है । अरु परवस्तु कर संसारमें दुख ही है । सुखका आभास अज्ञानी जीवांकू भासे है । बहुरि कैसा हूँ मैं ज्ञानादि गुण कर पूर्न भरया हूं। सो ज्ञान अनन्त गुनकी खान है । बहुरि कैसा है मेरा चैतन्य स्वरूप जहां तहां चैतन्य सर्वांग व्यापी है । जैसे लूनकी डलीका पिन्डमें सर्वांग खार रस व्याप्त है । अथवा जैसे सकराकी डलीका पिन्डमें सर्वांग मीठा कहिए अमृत रस व्याप्त रहा है। वे सकराकी डली एक क्षोक्षा ज्ञानका पुन है। मोमें सर्वांग ज्ञान ही ज्ञान है विविहारमें शरीर प्रमाण हूं । निश्च नयकर विचार सेती तीन लोक प्रमान मेरा आकार है । अवगाहन सक्ति कर आकास समान हूं । एक प्रदेशमें असंख्यात प्रदेश भिन्न भिन्न तिष्ठे हैं। सर्वज्ञ देव जुदा जुदा देखे हैं जीवमें संकोच विस्तार सक्ति है । बहुरि कै है मेरा निज स्वरूप अनन्त आत्मीक सुखका भोक्ता है । एक सुख ही की मूर्ति हों चैतन्य पुरुषाकार हों । जैसे माटीका सांचामें एक सुद्द रूपामय धातुका बिम्ब निर्मापिये है। तैसे ही आत्माका स्वभाव शरीरमें जानना माटीका सांचा काल पाई गल जाय वरजाय फूट जाय तब बिम्ब ज्योंका त्यों आवर्न रहित प्रत्यक्ष दीसे सांचेका नास होते बिम्बका नास नाहीं वस्तु पहले दो ही थीं एकका नास होते दूनीका नास कैसे होय त्योंहीं काल पाइ शरीर गले तो गलो मेरे स्वभावका विनास है नाहीं । मैं काहेका सोच करूं । बहुरि कैसा है चैतन्य स्वरूप आकासवत निर्मल है। आकासमें कोई जातका विकार नाहीं एक स्वक्ष निर्मलताका पिण्ड है । अरु कोई आकाशने खड़ग कर क्षेदा भेदा चाहे अरु अग्नकर Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । . २३१: पाल्या चाहे पानी में घोल्या चाहे तो आकास कैसे क्षेदा भेदा जाय अरु कैसे जले गले कदाच आकासका नास नाहीं बहुरि कोई आकास केतांई पकड़ा चाहे तोडा चाहे सो कैसे तोड़ा पकड़ा जाय त्योंही मैं आकाशवत अमूर्तीक निर्मल निराकार स्वच्छताका पिण्ड हों । मेरा नाम निसी काल कोई प्रकार होय नाहीं। यह नेम है जो आकासका नास होय तो मेरा भी नास होय ऐसा जानना पन आकासमें अरु मेरे स्वभावमें एक विशेष है। आकास तो जड़ अमूर्तीक है अरु मैं चैतन्य अमूर्तीक पदार्थ हों। जो मैं चैतन्य था तो ऐसा विचार भया सो यह आकास जड़ है अरु मैं चैतन्य हूं मेरे विद्यमान यह जानपना दीसे है। आकासमें दीसे नाहीं यह निसंदेह है बहुरि मैं कैसा हूं जैसा निर्मल दर्पन होय । वाका निर्मल शक्ति स्वयमैव ही घट पटादि पदार्थ आन झलकें हैं। तैसे ही मैं एक स्वच्छ सक्ति प्रगट हों मेरा निर्मल ज्ञानमय समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलके है। ऐसी स्वक्ष सक्तिसू तदात्म व्याप्ति कर स्वभावमें तिष्ठं हूं सर्वांग स्वक्षता भर रही है अरु ज्ञेय पदार्थ न्यारा है। सो तुक्षताका यह स्वभाव ही है। जो सर्वते न्यारा रहे उस विषं सकल पदार्थ प्रतिबिम्बत हैं। बहुरि कैसा हूं मैं अत्यंत अतिशय कर निर्मल साक्षात प्रगट ज्ञानका पुन हूं अरु अत्यंत शांति रस कर पूर्न भरया हूं । अरु भेद निराकुल कर व्याप्त हूं। बहुरि कैसा हूं मैं चैतन्य स्वरूप अपनी अनंत महिमा कर व्राजमान हूं कोईका सहाय नाहीं चाहूं हूं। ऐसा स्वभावने धरूं हूं स्वयंभू हूं अखंड ज्ञान मूरत पर द्रव्य सू भिन्य सास्वता अविनासी परम देव हूं। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । और ई उपरांत उत्कृष्ट देव कौनकूं मानिये। जो त्रिलोक त्रिकाल विषें होय तो मानिये बहुरि कैसा है यह ज्ञान स्वरूप अपने स्वभावकूं छोड़ अन्य रूप नाहीं परनवे है । निज स्वभावकी मर्यादा नहीं है जैसे समुद्र जलके समूह कर पूर्ण भरया है । पन स्वभावक छोड़ और ठौर गमन करे नाहीं। अपनी तरंगावली जो लहर ता कर अपने स्वभाव ही में भ्रमन करे है त्यों ही यह ज्ञान समुद्र सुद्ध परनत तरंगावली सहित अपने सहज स्वभावमें भ्रमन करे है । ऐसा अभूत महिमा कर ब्राजमान मेरा स्वरूप परम देव ई शरीर सूं न्यारा अनादि कालका तिष्टे है। मेरे अरु ई शरीर के पड़ोसी कैसा संजोग है । मेरा स्वभाव अन्य प्रकार याका स्वभाव अन्य प्रकार याका परनमन अन्य प्रकार सो अब इस शरीर गलन स्वभाव रूप परनवे है । तो मैं काहेका सोक करूं अरु काहेका दुख करूं मैं तो तमासगीर पड़ोसी हूवा तिष्टों हों इस शरीर सों राम द्वेष नाहीं सो जगतमें अरु परलोकमें महां दुःखदाई है । यह रागद्वेष एक मोह हीने उपजे है जाका मोह विग्य गया ताका राग द्वेष भी विलय गया । मोह कर पर द्रव्य विषें अहंकार ममकार उपजे है । सो ये द्रव्य हैं सो ही मैं हूं ऐसा तो अहंकार अरु ये द्रव्य मेरा है ऐसा ममकार उपजे वे सामग्री चाहे तो मिले नाहीं । अरु दूर किये जाय नाहीं । तब यह आत्मा खेद खिन्न होय है अरु जे सर्व सामग्री पर जानें तो काहेका विकलप उपजे तातें मेरा मोह पहले विले गया अरु पहिले ही सरीरादिक सामग्री विरानी जानी हैं। तो अब भी मेरे ई शरीरके जाते काहेका विकल्प उपजै | कदाच न उपजे विकलप उपजानेवाला मोह ताका 1 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।. २३३ AoNN ~vvvvvvvvvvviwwww नाश किया तासू मैं निर्विकल्प आनन्दमय जिन स्वरूपने वारंवार संभालता वा आदि करता स्वभावमें तिष्ट्रं हूं। यहां कोई कहे यह शरीर तुमारा तो नाहीं । परन्तु याके निमित्त कर इही मनुष्य पर्यायमें शुद्धोपयोगका सा धन भली भांति होय तासू याका यह उपगार जान्याकू पोषना उचित है । यामें टोटो नाहीं ताकू कहिये है हे भाई तू ऐसा कहा सो या बात हम भी जाने हैं मनुष्य पर्याय विषे सुद्धोपयोगका साधन अरु जानका साधन अरु वैरागकी बधवारी इत्यादि अनेक गुनाकी प्राप्ति होय है ऐसा अन्य पर्यायमें दुर्लभ है परन्तु अपना संयम गुन रहा अरु शरीर है तो भला ही है। म्हांके कोई जा शरीर सूं वैर नाहीं अरु न रहे छे तो अपना संयमादि निर्विघ्नपने राखना अरु शरीरका ममत्व अवश्य छोड़ना शरीरके वास्ते संयमादि गुन कदाच खोवना नाहीं। जैसे कोई पुरुष रतनका लोभी परदेश जो रतन दीपमें फूसकी झोंपड़ी. बनावे अरु उस झोंपड़ीमें रतन ल्याय ल्याय एकटा करे अरु जो उस झोंपड़ीके आग लागे तो वह विचक्षन पुरुष ऐसा विचार करे जो कोई इलाज कर अग्नि दुझावनी अरु रतन सहित झोंपड़ीकू राखनी जो यह झोंपड़ी रहसी तो फेर या झोंपड़ीके आसरे फेर भी रतन भेला कर सू । सो वह पुरुष झोंपड़ी बुझती जाने तो रतन राख बुझावे अरु कोई कारन ऐसा देखे जो रतन गया झोपड़ी रहे तो कदाच भी झोंपड़ी राखनेका उपाय न करे जो झोंपड़ीने वरवा देय अरु अपना सर्व रतन ले घर उठ आवे पांछे एक दोय रतनने बेंच अनेक तरहकी विभूतने भोगवे अनेक प्रकारके सुवर्न रूपामई मंदिर कराय महल वा हवेली वा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।। गादि बनवावै पांछे वामें थितकर रागरंग सुख वोई संयुक्त आनन्द क्रीड़ा करे अरु निर्भे भया अत्यंत सुखसू तिष्टे सोई भेद वा ज्ञानी पुरुष है ते शरीरके रहने वास्ते । संयमादि गुननमें अतीचार भी लगावे नाहीं ऐसा विचारे · संयमादि . गुन रहसी तामें विदेह क्षेत्रामें जाय औतार लेघां अरु जन्म जन्मका संचित पाप ताका अतिशय कर नास करस्या अरु अनेक प्रकारके संयम ताका ग्रहन करस्यूं अरु श्री तीर्थकर केवली भगवान ताका चरनार विद विर्षे क्षा एक सम्यक्तका ग्रहण करस्यूं अरु अनेक प्रकारके मन वंक्षित प्रश्न करस्यू अरु तिनके अनेक प्रकारके यथार्थ तत्वाको स्वरूप जानसू । अरु राग द्वेष संसारका कारन ताकू शीवपने अतिशय कर जरा मूलसों नास करतूं । अरु परम दयालु आनन्दमय केवल लक्ष्मी कर संयुक्त ऐसा जिनेन्द्र देव ताका स्वरूपके देख देख दरसनरूपी अमृत ताका अतिशय कर आचमन करस्यूं । ताका अरचन कर हमारा कर्म कलंक धोया जासी तब मैं पवित्र होसी ताका अतिशय कर शुद्धोपयोग अत्यंत निर्मल होसी तब निजरू ने अत्यंत लागसी तब क्षपक श्रेनी चढ़वाने सन्मुख होसी पीछे कर्म सत्रूसों रारकर भव भवके कर्म जड़ मूरसों नास कर केवल ज्ञान उपवासू । पीछे एक समय में समस्त लोकालोकके त्रिकाल संबंधी समस्त पदार्थ देखस्यू । पीछे ऐसा ही स्वभाव सास्वता रहसी ऐसी लक्ष्मीका स्वामी है तो ई शरीर सू ममत्व कैसे रहे । सम्यक ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करता तिप्टे है। हमारे दोनों ही तरह आनन्द है । अब जो शरीर रहसी तो फेर सुद्धो Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २३५ पयोगने आराधसी सो हमारे कोई प्रकारसे सुद्धोपयोगका सेवनमें कमी नाहीं तो हम रे परनामोंमें संकलेसता कोईकी न उपजे अरु म्हारा परनाम सुद्धरवरूपसू अत्यंत आसक्त ताकू छुड़ावने ब्रह्मा विश्नु महेश इन्द्र धरनेन्द्र आदि कोई चलावाने समर्थ नाहीं । एक मोह कर्म समर्थ था त्याने तो मैं पहि लेही हत्या सो अब मेरे तो त्रैलोक्यमें कोई वैरी रहो नाहीं। अरे वैरी नाहीं तो त्रिलोक त्रिकालमें दुख नाहीं। तोहे कुटुम्बके लोग हो मेरे इस मरनका भय कैसे होय तासों मैं आज सर्व प्रकार निभै भया हूं थें या बात नीके कर जानों अरु जामें संदेह मत जानों ऐसे सुद्धोपयोगी पुरुष शरीरकी स्थित पूरन जानें। तब ऐसा विचार कर आनंदमें रहें हैं । कोई तरह की आकुलता उपजावे नाहीं । आकुलता है सोई संसारका बीज है । इस ही नीति कर संसारकी स्थित है। आकुलता कर अनेक कालका संच्या हुवा संजमादि गुन अग्निमें रूई भस्म होय तैसे भस्म होय है तातें सम्यकदृष्टि पुरुष हैं ताके कोई प्रकार आकुलता होय नाहीं निश्चे एक स्वरूप हीका वारंवार विचार करना वाहीकू वारंवार देखना वाहीके गुण• चिंतवन करना वाहीकी पर्यायका विचार करना अरु वाहीका सुमरन करना वाही विषं थिर रहना कदाच सुद्ध स्वरूप सू उपजोग चले तो ऐसा विचार करे यह संसार अनित्य है। ई संसारमें कोईका सरन नाहीं । जो सार होता तो तीर्थंकर देव क्यों छोड़ता तासू मेरे निश्चे तो हमारो स्वरूप ही सरन है । बाह्य परमेष्ठी जिनवानी वा रत्नत्रय धर्म सरन है। अरु कदाच स्वप्न मात्र भी वा भूले विसरे हमारे और कोई Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । nayaparvvvvvvvvvvvvvvvvsnnnnn सरन नाहीं । हमारे यह नेम है ऐसा विचार कर फेर स्वरूपमें उपजोग लगावे. फेर वहांसू उपयोग चले तो अरहन्त सिद्ध ताका द्रव्य गुन पर्याय विचारे तन वाका द्रा गुन विचारता उपयोग निर्मल होय तब फेर आपना स्वरूपमें लगावे अरु आपना स्वरूप सारखा अरहंत सिद्ध जाने सो कैसे द्रव्यत्व स्वभाव में फेर नाहीं है । अरु पर्याय स्वभाव विर्षे फेर है । अरु मैं हूं सो द्रव्यत्व स्वमावका ग्राहक हूं तासूं अरहंतका ध्यान करता आत्माका ध्यान भली भांति सधे अरहंतका स्वरूपमें अरु आत्म स्वरूपमें फेर नाही भावे तो अरहन्तका ध्यान करो भावे आत्माने ध्वावो ऐसा विचार करे तो सम्यकदृष्टि पुरुष सावधान हूवो स्वभावमें तिष्ठे हैं । आगे अब काई विचार करें अरु कैसे कुटुम्ब परवारादिकसों ममत्व छुड़ावें सोई कहिये है । अहो ई शरीरके माता तुम नीके कर जानों यह शरीर एते दिन तुम्हारा क्षा अब तुम्हारा नाहीं अब जाका आयु पूर्न भया सो कौनका राख्या रहे कभी न रहे याकी येही स्थित थी सो अब जासों ममत्व छोड़ो अब जासों ममत्व करवा कर काई अब जासों प्रीति करवो दुखका कारन छै अरु शरीर तो इन्द्रादिक देवांको भी बिनसे छै जब मरन समय आवे तब इन्द्रादिक देव जुलक जुलक मुख चोघताई रहे सर्व देवाका समूह देखता कालका किंकर ले जाई ऐसो न सुनो जो कोई कालसू बचायो यो काल सर्वभक्षी छै अरु जे अज्ञान ताकर कालके वस रहसी त्याकी याही गति होसी सो थे मोहके वसकर संसारको झूठो चरित्र देखो नाहीं। अब थें मोहका वसकर विनासीक शरीरसू ममत्व करो छो । अरु जाने एक चाहो सो Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २३७ 5 पैलाको शरीर तो राख वोई दूर रही थे थांको शरीर तो पहिले राखो पाछे और का राखवाको उपाय कीजो था कीया भरम बुद्धि छे सो वृथा दुख हीके अर्थ छै थांने प्रत्यक्ष दीसे नाहीं । आज पहले ही लेही संसारमें कालसों कोई बचो अरु आगे बचसी हाय हाय देखो आश्चर्य की बात थे निर्मै भया तिष्ठों हो सो थांके कौन अज्ञानपनो छै अरु थांको कोई होनहार छें तामें थाने छू हूं थांने आपपरकी किछू खबर छै जो मैं कौन छा अरु किठासूं आया छा अरु पर्याय पूरी कर कहां जासी अरु पुत्रादिकसूं प्रीत करे छा सो कौन छा ऐते दिन पुत्र किठे छो अरु म्हांके. पुत्रकी क्षति हुई ताकर याका वियोगको म्हाने सोक उपजो, तासं अब थें सावधान होय विचार करो भूममें मन परो थें अपनो कार्य विचारो ताका सुख पावो परको कार्य अकार्य पेलाके हाथ है। थारों करतव्य क्यों भी नाहीं थें वृथा ही खेद खिन्न क्यो भया अरु थें अपनो आत्मा मोह कर संसारमें क्यों डूब्यो है संसार विर्षे नरकादिक दुख सब थेंने ही सहना पडेला जाका बदले किछू और न होसी जिनधर्मको ऐसो उपदेश है नाहीं | जो पाप करे कोई और भोगवे कोई और तासों मोने अपूठी थांकी दया आवे है । सो थें हमारी उपदेश ग्रहन करो थांने महा दुखदाई होय लो कैसे दुखदाई है । सो कहिये है म्हे तो यथार्थ जिन धर्मको स्वरूप जानो छो तीसों थांने भी मोह दुख देय छे अरु मैं मोह जिन धर्मका प्रताप कर सुलभपने जीतो सो यह जिन धर्मका अतिशय जानो तासों थाने भी जिन धर्मको स्वरूप विचारको कार्यकारी छै । देखो थें प्रतक्ष ज्ञाता दृष्टा छो अरु ये शरीरादि 1 1 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । maroon परवस्तु छे आपना स्वभावरूप स्वयमेव परनवे छे काहूका राख्या है नाहीं भोला जीव भरम खाय छे तासों थे भरम बुद्धि छोड़ो अरु आपा परकी ठीक एकता करो । तासों अपनो हित सधे सोई करो । विचक्षन पुरुषांकी याही रीति छे एक आपना हितने ही चाहें । विना प्रयोजन एक पैंड भी धरे नाहीं अरु थें मोह सों ममत्व जे तो घनो करस्यो ते तो घनो दुख होसी जो जीव अनन्तवार अनन्त पर्यायमें न्यारा न्यारा माता पिता पाया, सो अब वे कहां गया अरु अनन्तवार ई जीवकी स्त्री पुत्र पुत्रीका संजोग भया सो वे कहां गया अरु पर्याय पर्यायमें भ्राताकुं आप माने अरु पर्याय सूं तनमय होय रहो या जाने जो विनासीक पर्याय स्वभाव छ । अरु म्हाको स्वरूप सास्वतो अविनासी छै ऐसो विचार उपजे नाहीं सो थांने दूषन काई नाहीं यो मोहको महांतम छे परतक्ष सांची वस्तु झूठी दीसे अरु झूठी वस्तुने साची देखे अरु जाको मोह गल गयो ऐसो भेद वेज्ञानी पुरुष छ । तेई पर्यायसं कैसे आयो माने अरु कैसे याकू सत्य जाने अरु कौनको चलायो चले कदाच भी न चले तासूं मेरे ज्ञान यथार्थ भया है अरु आपा 'पर ठीकता भई सो मो ठगवाने कौन समर्थ है। अनादि काल सो पर्याय पर्यायमें घनों ही ठगायो ताहीतें मव भवमें जन्म मरनका दुःख सहा तासूं थे अब नीका कर जानो थांको अरु म्हांको ऐते दिनको संबंध छो । सो अब पूरो हूवो सो थानें भी अब आतम काज करवों जोग छे जो मोह करनो उचित नाही तातै निज स्वरूप अपनो सास्वतो छे । त्याने सम्हालो तामें कोई तरहको खेद नाही अशा ही घटमें महां अमौलिक निधि है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २३९ त्यांने जाने जन्म जन्मका दुख जाय त्यों जेई संसारमें दुख छे तेता आप्य जान्या तांसू एक ज्ञानने ही ध्यावो ज्ञानमई ही आपनो निज स्वभाव छे ताकू पाया ही महां सुख छ। ताके पाया विन महां दुखी छे । तामू यो परतक्ष देखने जानने हारा ज्ञायक पुरुष शरीरसू भिन्न ऐसो अपनो स्वभाव ताने छोड़ और किस वस्तुसू प्रीत उपजे जैसे सोला स्वर्गको कल्पवासी देव कौतुक वास्ते मध्य लोकमें आय एक रंक पुरुषको भेष धर रहो फेर वे रंक कैसी क्रिया करवां लागो काई क्रिया करवां लागो कभी तो काठका भार माथे धर बजारमें बेचवां जाय अरु कभी माटीको कथोरा माथे मेल स्त्रियां कने रोटी मागवा जाय । कभी मार्गमें दीनताका वचन कह रोवे । कभी राजापे जाय या भांति कहे महाराज आ जीवका कर महां दुखी छु हमारी प्रत पालना करो कभी दांतरोले घास काटवां जाय कभी भायाकर वृथा ही रोवे अरु ऐसा वचन कहे वाहरे वाहरे अब में कांई करूं हमारा धन चोर ले गया मैं नीठ नीठ कमाइ कमाइ भेले कियो छो सो आज जातो रहो सो अब हूं कैसे काल पूरो करस्यों अरु कभी नग्रमें भाग न पड़े तब वे पुरुष एक लड़काकू काधे चढ़ावे अरु लड़कीकी आंगरी पकरें अरु स्त्रीकू आगे कर ताका माथा पर क्षाजलो रांधवाकी हांडी झारवांकी बुहारि आदि सामग्री टोकरो भर दीयो अरु आपने गोदड़ा गुदड़ीकी पोट माथा लीनी । पाछे आधी रात नम सू निकस्या पाछे मार्गमें कोई वेढो ईतें पूछता हूवा रे भाई तू कठे चाल्या तब पुरुष कहे ई नम्र विषे बैरियोंकी फौन आई सो मैं आपनो धन लेय भागू छू Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जासों और नगर जाय गुजरान करसू इत्यादि नाना भांसि चरित्र कर तो वह कल्पवासी देव आपना सोलह स्वर्गकी विभूति ताने छिन मात्र भी न विसारे । वह विभूतका अवलोकन कर महां सुखी हूवां विचरै है । वे रंक पुरुषकी पर्यायमें भई जे नाना प्रकारकी विवस्था ता विर्षे कदाच अहंकार ममकार करे नाहीं। सो वे सोलवें स्वर्गकी देवांगना आदि विभृत अरु आपना देवो पुनीत सुख ता विर्षे नमस्कार आवे है। सोई में सिद्ध समान आत्म द्रव्य पर्यायमें नाना प्रकार की चेष्टा करता थका अपनी मोक्ष लक्ष्मीने नाहीं विसरू छु । तो हो लोक हो मैं काहे । भय करो अब ऐठां स्त्री सूं ममत्व छुड़ावें हैं, अहो शरीरकी स्त्री तू ई शरीरसों ममत्व छोड़ तेरा अरु इस शरीरका ऐता ही संयोग था सो अब पूरा हुवा तेरी गर्न ई शरीरसू अवे सरे नाई तासुं तू अब मोह छोड़ बिना प्रयोजन अब खेद मत करे, जो थांरा राखया यो शरीर रहे तो राख में बरजों नाहीं विना प्रयोजन खेद क्यों करूं अरु जो तूं विचार कर देखे तो तू भी आत्मा है। अरु मैं भी आत्मा हों स्त्री पुरुष पर्याय सो पुद्गली कहै तासूं कैसी प्रीति । ये जड़ आत्मा चैतन्य ऊट बैल कैसा जोड़ा सो यह संयोग कैसे बनें। तेरा पर्याय है सो भी तू चंचल जानता तूं आपना हित क्यों न विचारे थे ऐते दिन भोग किया ताकर काई सिद्ध हुई अरु अब सिद्ध काई होनी छे वृथा ही भोगां कर आत्माने संसारमें डुबोयो जो मरन समय जानों नाहीं । अर मुवां पीछे तीन लोककी संपदा झूठी तासू हमारी पर्यायको सोक करतो जोग्य नाहीं। नो तूं प्यारी म्हाकी छे तो म्हाने धर्म उपदेश द्यो या धर्म साधवाकी Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २४१ विरिया छ । अरु जो तू मतलबकी संगी छे तो थांरी तू जानें मैं थारा डिगाया क्यूं डिगशी म्हें तो थांरी दया कर तूने उपदेश दियो छे माने तो मान न मानें तो थांरी होनहार होसी सोही म्हारो तो कछू मतलब नाहीं । तासू अब तू म्हारा नषासुं जावो अपना परनाम शांत राख आकुलता मत करे । आकुलता ही संसारका कारन छे ऐसे स्त्री समझाकर सीख दीनी अब निज कुटुम्ब परवारको बुलाय समझावे अहो कुटुम्ब परवारके अब ई शरीरकी आयु तुच्छ रही है । अब म्हारे परलोक नजीक छे तासू अब में थाने कहा छा ते म्हांने कोई. बातका राग करो मति थांके अरु म्हांके चार दिनका मिलाप छ । जादा छे नाहीं। जैसे सराईके विषे राहगीर रात्रि भेला तिष्टे पछे वीछुरता दुख करे यह कौन सयान तासू छिमा भाव धारते सघला आनन्द रूप तष्टो अनुक्रम थकी सारानकी यही रीति होनी छे । सो यह संसारको चरित्र जान ऐसा बुद्धिवान कौन है सो जासूं प्रीति करै । ऐसे कुटुम्ब परवारकू समझाय सीख दीनी अब पुत्रकू बुलाय सम्झावे है । अहो पुत्र ते स्याना छै म्हासों कोई तरहको मोह कीनो मत अरु श्रींजिनेश्वरको भाषो धर्मनीके पालनो। थाने धर्म ही सुखकारी होयगो माता पिता सुखकारी नाहीं। अरु कोई मातापिताने सुखका कर्ता माने छे सो यह भी मोहका महातम छ । कोई किसीका कर्ता नाहीं कोई किसीका भोक्ता नाहीं सर्व ही पदार्थ अपना अपना स्वभावका भोगता करता छे। तासूं अब म्हें थांने कहा छा जो थें विवहार मात्र हमारी आज्ञा मानो छो तो मैं कहो सो. करों प्रथम थे देव अरु गुरु धर्मकी अब गाढ़ी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । maminnnnn.. प्रतीत करो । अरु साधर्मीनसू मित्रता करो अरु दान तप शील संयम इन सों अनुराग करो अरु स्वपर भेद विज्ञान ताका उपाय करो । अरु संसारी पुरुषासू प्रीत कहिये ममत्व भाव ताकू छोड़ो। अरु सरागी जीवाकी संगति छोड़ो अरु धर्मात्मा पुरुषांकी संगति करो यह लोक परलोकमें धर्मात्मा पुरुषांका संगति सुखदाई छ । ई लोकमें तो निराकुलता सुखकी प्राप्ति होय अरु जसकी प्राप्ति होय अरु परलोकमें स्वर्गादिकका सुखने पाइ मोक्षमें सिव रमनीको पति होय । निराकुल अतेन्द्री अनोपम बाधा रहित सास्वता अविनासी सुखने भोगवो जासू हे पुत्र थाने म्हारा वचन सत्य दीसे अरु यामें थांको भला होवो दीखे तो ये वचन अंगीकार करो अरु थाने म्हांको वचन झूठा दीखे अरु यामें थाको भलो होवो न दीसे तो म्हांको वचन मत मानो म्हारो तो थासू कछू बातको प्रयोजन नाहीं । दया बुद्धि कर थाने उपदेस दियो थो मानो तो मानो न मानो तो थांकी थें जानों । अब वे सम्यक दृष्टि पुरुष अपनी आयु तुच्छ जाने तब दान पुन्य करनो होय सो अपना हाथसू करें हैं । पाछे जेता पुरुषासों बतलावना होय तिनसू बतलाय निसल्ल होय है पाछे सर्व कर्मका नाता काजे पुरुष स्त्रीनिने आप निकटतें सीख देय अरु धर्मका ताका पुरुषाने आपना निकट राखे । अरु आपना आयु निःकपट पूरा हूवा जाने तो सर्व प्रकार परिग्रहका जीवन पर्यंत त्याग करे । अरु चार प्रकारके अहारका त्याग करे । सर्व घरका भार पुत्रनपै डालकर आप विशेषपने निशल्य होय वीतराग परनाम धरे, अरु आफ्ना आयुका नेम जाने पूरा होय या न होय यह संदेह रहे तो दोय Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २४३ चार घटी आदि कालका मर्यादा कर त्याग करे | जावत जीवे तावत धीरां धीरां त्यागे जब खाट तें उतर भूमिमें सिंहकी नाई नि तिष्टे जैसे वैरीनके जीतवेको शुभट उद्यमी होय रनभूमिमें 'तिष्टे कोई जातकी अंस मात्र भी आकुलता न उपजावे । बहुरि कैसा है वह सुद्धोपयोगी सम्यक दृष्टि जाके मोक्ष लक्ष्मीका पाणिगृहनकी वाक्षां वरते छे ऐसा अनुराग है जो अवार ही मोक्षकं जाय वरों ताका हृदामें मोक्ष लक्ष्मीका आकार वर्ते है । ताकी प्राप्तिकं शीघ्र चाहे है । अरु ताहीका भय थकी राग परनतिको आवने देय है ऐसा विचारे है जो कदाच हमारा स्वभाव विषै राग परनतिने प्रवेश किया तो मोक्ष लक्ष्मी मोने वर कूं सन्मुख हुई है सो जाती रहसी तातें मैं राग परनतिकूं दूर ही तैं छोड़ो हों ऐसा विचार करतो काल पूर्न करे ताका परनामों में निराकुलित आनन्द रस वरसे है । तो सांतीक रस कर तामें तृप्ति है । ताके आत्मीक सुख विना कोई बातकी वाक्षां नाहीं । एक अतेन्द्री अभोगत सुखकी वाक्षां है । ताहीकूं भोगवे है अरु स्वाधीन सुख है सो यद्यपि साधर्मी संयोग है । सो मेरा यो पास है । ऐसे आनन्द मई तिष्टतो सांत परनामों संयुक्त समाधि मरन करे पाछे समाधिमरनका फल थकी इन्द्रादिक विभूतिने पावे पाछे वहां थकी चय कर राजाधिराज होय पाछें केताइक काल राजविभूतने भोग अर्हती दीक्षा धेरै । पाछे चार घातिया कर्मोंको नास करके केवल ज्ञान है तामें समस्त लोकालोकके पदार्थ तीन काल आन झलके हैं । ता सुखकी महिमा वचन क्षपक श्रेणी चह लक्ष्मीने पावे कैसा संबंधी एक समय में अगोचर है । इति Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । Smama समाधि मरन स्वरूप संपूर्न । आगे मोक्षका सुख वरनन करिये है । श्री गुरां पास शिष्य प्रश्न करै है। कांई प्रश्न करे है हे प्रभू हे स्वामिन हे नाथ हे कृपानिधान हे दयानिधि हे परम उपगारी हे संसार समुद्रके तारक भोगनासू परान्मुख आत्मीक. सुखमें लीन तुम मेरे ताई सिद्ध परमेष्ठी सुखनका स्वरूप कहो, कैसा है शिप्य महां भक्तिवान है अरु विनयवान है । अरु मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्तिका अभिलाषी है । सो वह श्रीगुरांका तीन प्रदक्षना देय हस्त कमल मस्तकके लगाय हस्त जोर गुरांका मौसरने पाइ वारंवार दीनपनाका वचन विनयपूर्वक प्रकासितो हूवो अरु मोक्ष लक्ष्मीका सुखने पूछतो हूवो तब श्री गुरु कहें हे शिष्य हे पुत्र हे भव्य हे आर्य तें बहुत भला प्रश्न किया अब तू सावधान होय कर सुन यह जीव सुद्धोपयोगका महात्म कर केवल ज्ञान उपाय सिद्ध क्षेत्रमें जाय तिष्टं सो चरम शरीरते किंचित ऊन प्रदेशोंकी आकृतनै धरे सास्वतो मोक्ष विषे तिष्टे है सो कैसे हैं सिद्ध एक एक सिद्धकी अवगाहनामें अनन्त अनन्त सिद्ध भगवान न्यारे न्यारे तिप्टे हैं कोई काहूसों मिले नाहीं। वहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान तिनके आत्मीक ज्ञानमें लोकालोकके समस्त पदार्थ तीन काल संबंधी द्रव्य गुन पर्यायने लियां एक समयमें जुगपत आइ झलकें हैं । ताके चरन जुगलकूँ मैं नमस्कार करूं हूं बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान परम पवित्र हैं परम शुद्ध हैं अरु आत्मीक स्वभावमें लीन छै अरु परम अतेन्द्री अनोपम बाधारहित निराकुल रसने निरंतर पीवें हैं तामें अन्तर परे नाहीं बहुरि कैसा हैं सिद्ध भगवान असंख्यात Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। २४५ - चैतन्य धातुके पिन्ड न गुरु न लघु अमूर्तीक हैं सर्वज्ञ देवने प्रत्यक्ष विद्यमान न्यारे न्यारे देखें हैं बहुरि कैसे हैं सिद्ध प्रभू निःकषाय आचरन रहित हैं । बहुरि कैसे हैं सिद्ध महाराज जिन धोया है घातिया अघातिया कर्मरूप मल बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान अपना ज्ञाइक स्वभावने प्रगट किया है । अरु समय समय पट: गुनी हानि वृद्धिरूप समुद्रकी लहरवत परनमें हैं अनंतानंत आत्मीक सुखकू आचरे हैं वा अस्वादे हैं पर तृप्ति नाहीं तोई वा अत्यंत तृप्ति हैं अब कछू चाह रही नाहीं । बहुर कैसे हैं परमात्मा देव अखंड हैं। अजर हैं अमर हैं निर्मल हैं शुद्ध हैं चैतन्य खरूप हैं ज्ञान मूर्ति हैं.। ज्ञाइक हैं वीतराग हैं — सर्वज्ञ हैं सब तत्वके जानन हारे हैं अरु सहनानन्द हैं। सर्व कल्यानके पुंज हैं त्रैलोक कर पूज्य हैं । सर्व विघ्नके हरन हारे हैं। श्री तीर्थंकरदेव ताकू नमस्कार करें हैं। सो मैं भी वारंवार हस्त मस्तककें लगाय नमस्कार करूं हूं। सो क्या वास्ते नमस्कार करूं हूं वाहीके गुनाकी प्राप्तिके अर्थ बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान देवाधिदेव हैं । सो संज्ञा सिद्ध भगवान विषे ही शोभे है अरु चार परमेष्टीने गुरु संज्ञा है देव संज्ञा नाहीं । बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान सर्व तत्वके प्रकाश ज्ञेयरूप नाहीं परनमे हैं । आपना स्वभाव रूप ही रहें हैं अरु ज्ञेयको जाने हैं । कैसे जाने हैं । समस्त ज्ञेय पदार्थ हैं सो मानूं सिद्ध ज्ञानमें पैठ गया है। मानूं उखारने लग गया है। कि मानूं अव गाहनास्ति कर समाय गया है । कि मानूं आचमन कर लिया . कि मानूं स्वभावमें आन वसा है। कि मानूं तदात्म होय परनमें Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । है। कि मानूं प्रतिबिम्बित है । कि मानूं पाषानके उकीर काढ़े है । कि मानूं चित्रामकी चितेरें है कि मानूं स्वभावमें आन प्रवेश किया है कि माने स्वभावमें आन झलके है कि मानूं अभिन्न रूप ही प्रतिभासे है ऐसा स्वभावने लियां श्री सिद्ध भगवान आपना स्वच्छ निर्मल स्वभावरूप परनवे है। बहुरि कैसे हैं सिद्ध महाराज सांतीक रस कर असंख्यात प्रदेश भरे हैं । अरु ज्ञानरस कर आहलादित हैं । अरु सुद्ध अमृत कर श्रवें हैं प्रदेस जाका व अखंड धारा प्रभाव वहे है । बहुरि कैसे हैं चंद्रमाका विमानमें सूं अमृत अवे है । अरु औरांकू अहलादित बढ़ावे अरु आताप दूर करे अरु मन प्रफुल्ल करे है त्यों ही सिद्ध महाराज आप तो ज्ञानामृत पीवें आचरे अरु औरांने आनन्दकारी ताको नाम लेत ही वा ध्यान करता ही भवताप विलय जाय अरु परनाम सांत होय आपा परकी शुद्धता होय अरु ज्ञानामृतनें पीवे अरु निजस्वरूपकी प्राप्ति होय सो ऐसा सिद्ध भगवानके हमारा नमस्कार होहु । अरु सिद्ध भगवान जयवंत होहु अरु हमें संसार समुद्रतें काढ़ो । अरु म्हांकी संसारमें पड़वातें रक्षा करो अरु म्हारा अष्ट कर्मने हरो अरु हमारा कल्यानका कर्ता होहु । अरु म्हाने मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्ति करो अरु हमारे हृदय में निरंतर वसो । अरु म्हांने आप सारखो करो बहुरि कैसा है सिद्ध भगवान जाके जन्म मरन नाहीं । जाके शरीर नाही ज्ञान वा जीवका प्रदेश है । बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान अस्तित्व वस्तुत्व वा प्रमेयत्व व अमेयत्व प्रदेसवत्व अगुरुलघुत्व चैतन्यत्व अमूर्तिक निरंजन निराकार भोगतृत्व अभोगतृत्व द्रव्यत्व याने आदि देय, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २४७ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ अनन्त गुनाकर पूरन भरया है । तातें औगुन आवने जागा नाहीं । ऐसे सिद्ध भगवानकू फेर भी हमारा नमस्कार होहु । ऐसे श्री गुरयां शिष्यने सिद्धाका स्वरूप बताया अरु ऐसा उपदेश दिया अरु आसीर्वाद दिया हे शिष्य हे पुत्र तू सिद्ध साहस्य है यामें संदेह मत करे, सिद्धनका स्वरूपमें अरु थारा स्वरूपमें फेर नहीं। जैसा सिद्ध है तसा ही तू है तू निश्चे विचार कर देख सिद्ध समान छे की नाहीं । देखता ही परम अनोपम आनन्द उपजेलो । सो कहवामें आवे नाहीं । तासू तू अब सावधान होय एकचित्त कर साक्षात् ज्ञाता दृष्टा तूं परका देखन जाननहारा तू देख ढील मत कर ऐसा अमृत रूप वचन श्री गुरुका सुन अरु शीघ्र ही अपना स्वरूपको विचार शिप्य करतो वो श्री गुरु परम दयालु वारंवार मुने याही बात कहा अरु योही उपदेश दियो सो याके कई प्रयोजन छे एक म्हारा भला करवाका प्रयोजन छ । तासू मोने वारंवार कहे छे सो देखो हूं सिद्ध समान हूं विना ही देखो यो नीव मरन समै ई शरीर माहिं सू निकस परगतिमें जाय तब ई शरीरका आंगोपांग हाथ पग आंख कान नाकादि सर्व चिन्ह ज्योंका त्योंही रहे है। अरु चैतन्य रहे तातें यह जान्या गया, देखवांवाला जानवांवाला कोई और ही था या शरीरमें चैतन्य शक्ति नाहीं । यह निर्धार भया ई बातमें चेतनपनाकी शक्ति अवश्य आई बहुरि देखो मरन समै यह जीव परगतिमें जाय तब कुटुम्ब परवारका मिलई घनो पकड़ पकड़ कर राखे अरु ऊड़ा भोहरामें गाड़ा किबाड़ जड़ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। राखे अरु वह आत्मा सर्व कुटुम्बको देखते ही घर फोड़ निकर जाय । सो किसीने भी देखे नाहीं तातें यह जान्या गया कि आत्मा अमूर्तीक छ । जो मूर्तीक होता तो शरीरकी नाई पकड़ा रह जाता तातें आत्मा प्रत्यक्ष अमूर्तीक ही है। यामें संसय नाहीं यह आत्मा नेत्र इन्द्रीके द्वारा पांच प्रकारके वर्णकं देखे हैं । अरु श्रोत इन्द्रीके द्वारा तीन प्रकार वा सात प्रकार शब्दोंकी परिक्षा करे है । बहुरि यह आत्मा नःसिका इन्द्र के द्वारा दोय प्रकारकी सुगन्ध दुर्गंध ताकू जाने है । बहुरि रसना कर पांच प्रकारके रसकू स्वादे है । बहुरि यह आत्मा सपरस इन्द्रीके द्वारा आठ प्रकारके सपरसकू वेदे है वा अनुभवे है वा निरधार करे है । सो ऐसा जानपना ज्ञायक स्वभाव विना इन्द्रीनमें नांही । इन्द्री तो जड़ हैं अनन्त पुद्गलकी परमानूं मिल कर बन्या है । सो जहां जहां इन्द्रियोंके द्वार दर्सनज्ञान उपयोग आवता है सो वह उपयोगमय मैं हूं और नाहीं भरमतें और भासे छे । तब श्री गुरांके प्रसाद कर मेरा भरम विलय गया मैं प्रत्यक्ष ज्ञाता दृष्टा अमूर्तीक सिद्ध साढस्य देखू हूं अरु नानू हूं अनुभवू हूं । सो अनुभवनमें कोई निराकुलत्व सुख शान्तीक रस उपजे है । अरु आनन्द अवे है सो यह आनन्द प्रभाव मेरे अखंड असंख्यात आत्मीक प्रदेशमें धारा प्रवाहरूप होय चले है। ताकी अद्भुत महिमा मैं जानू हूं के सर्वज्ञदेव जाने वचनगोचर नाहीं । बहुरि देखो मैं बहुत ओंड़ा तैखानामें बैठ कर विचारूं मेरे ताई वज मइ भीति फोड़ कर पदार्थ दीसे है ऐसा विचार होते मेरी यह हवेली देखो Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २४९ प्रत्यक्ष मोने मनद्वार कर दीखे । अरु यह नगर प्रत्यक्ष दीखे यह भरतक्षेत्र मोनें दीसे अरु असंख्यात दीपक समुद्र मोने दीखें । अरु पृथ्वी तले तिष्ठता नारकी जीव मोनें दीसे वा सोला स्वर्ग वा नवग्रेवक व उत्तर वा सर्वार्थसिद्धि वा सिद्धक्षेत्र विर्षे तिष्ठते अन्तिानंत सिद्ध महाराज वा समस्त त्रैलोक वा अमूर्तीक धर्म द्रव्य वा ऐते ही मान अमूर्तीक एक अधर्म द्रव्य वा ऐते ही मान एक एक प्रदेश विर्षे ऐक ऐक अमूर्तीक कालानु द्रव्य एक एक प्रदेश मात्र तिष्टें हैं । बहुरि अनन्तान्त निगोदके जीवनसू त्रैलोक भरया है । बहुरि चारों जातिके सूक्ष्म स्थावरनसू त्रैलोक भरया है । बहुरि जात चारके त्रस त्रसनाड़ीमें तिष्टें हैं । अरु नरक विर्षे नारकीनके महादुःख है । अरु स्वर्गन विषे स्वर्गवासी देव कीड़ा करें हैं । अरु इन्द्री जनित सुखकू भोगवे हैं । अरु एक एक समयमें अनन्त जीव मरते उपजते दीसें हैं। बहुरि एक दोय प्रमानूका स्कंध आदि देय अनन्त प्रमानूं वा त्रैलोक प्रमानूका महास्कंध पर्यंत नाना प्रकारके पुद्गल पर्याय मोडूं दीखें हैं । अरु समै समे अनेक स्वभावने लियां परनवता दीसे हैं । अरु दसों दिसाने अवलोकाकास सर्वव्यापी दीसे है । अरु तीन कालके सम्बन्धी सर्व पदार्थके पर्यायकी पलटनी दीसे है। केवल ज्ञानका जान पना प्रत्यक्ष मोकू दीसे है। सो ऐसा ज्ञानका धनी कौन है ऐसा ज्ञान किनके भया ऐसा नायक पुरुष तो प्रत्यक्ष साक्षात विद्यमान मोने दीसे है अरु यह जहां तहां ज्ञान ही ज्ञानका प्रकाश मोनें दीसे है। किसू शरीरका ही सो ऐसा जानपनाका स्वामी और नाहीं। मैंही हूं जो और होता तो मेरे तांई ऐसी खबर कैसे Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । होती औरका देख्या और कैसे जाने तातें यह जानपना मेरे ही उपज्या है । अथवा यह जानपना है सो मैं हूं । तातें जानपनामें अरु मोनें दुजायगी नाहीं । मैं एक ज्ञानका निर्मल शुद्ध पिन्ड बन्या हूं। जैसे नोनकी डली खारका पिन्ड बन्या है। अथवा जैसे सर्कराकी डली मिष्टान अमृतका पिंड बन्या है । तैसे ही मैं साक्षात प्रगट शरीर भिन्न ज्ञायक स्वभाव लोकालोकका प्रकाशक चैतन्य धातु सुखका पिंड अखंड अमूर्तीक अनन्त गुन कर पूरन बन्या हूं। यामें संदेह नाहीं देखो मेरे ज्ञानकी महिमा सो अवार हमारे कोई केवल ज्ञान नाहीं। कोई मनपर्यय ज्ञान नाहीं कोई अवधि ज्ञान नाहीं। मति श्रुतज्ञान प.वजे छे सो भी पूरा नाहीं। ताका अनन्तवें भाग क्षयोपसम भया है । ताही तें ऐसा ज्ञानका प्रकाश भया अरु ताही माफिक आनन्द भया सो या ज्ञानकी महिमा मैं कौनकू कहूं । सो यह आश्चर्यकारी स्वरूप हमारो छे । कोई और को नाहीं । ऐसा अपना निज मित्रने अवलोक और कौनसू प्रीति करूं कौनकू आराधू अरु कौनको सेवन करूं अरु कौन पास जाय जाचना यरूं ईश्वर रूप पाया विना मैं करना था सो किया सो यह मोहका प्रभाव छो मेरा स्वभाव नाहीं। मेरा स्वभाव तो एक टंकोत्कीर्न ज्ञायक चैतन्य लक्षन सर्व तत्वका जाननहारा निज परनतका रमन हारा स्वस्थानका वस करनहारा राग द्वेषका हरनहारा संसार समुद्रका तारनहारा स्वरसका पीवनहारा ज्ञानपनाका करनहारा निरावाध विराग मन निरंजन निराकार अभोगत ज्ञान रसका भोगता वा परस्वभावका अकरता निज स्वभावका कर्ता सास्वता अब शरीरसूं भिन्न अमूर्तीक निर्मल पिन्ड पुरुषाकार Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार 1 २५१ ऐसा देवाधिदेव मैं ही हूं ताकी निरंतर सेवा करवो मोने जोज्ञ है । ताके सन्मुख रहना अरु वार वार अवलोकन करना सो ताका अवलोकन करता हीं सांत रस धारा रूप अमृतकी छटा उछले अरु आनन्द श्रवे ताके रसकूं मैं पीकर अमर हुवा चाहूं हूं | सो यह मेरा स्वरूप जयवंत प्रवर्तो अरु इसका अवलोकन वा ध्यान जयवन्त प्रवर्ती इस कर अंतर छिन मात्र हूमत होहु ई स्वरूपकी प्राप्त विना कैसे सुखी होहु | कदाच न होय बहुरि जैसे काठकी गनगोरकुं आकाशमें थापिये सो स्थापित प्रमाण आकाश तो गनगोरके प्रदेश में पैठ जाय अरु गनगोर आकाश में पैठ जाय सो क्षेत्रकी अपेक्षा एकमेक होय तिष्टे भेला ही समै सबै परनवे मन स्वभावकी अपेक्षा न्यारा न्यारा भाव लिये तिष्टे । जुदा जुदा परनवे कैसे परनमे जो आकास तो समै समै अपना निर्मल अमूर्तीक स्वभावरूप परनवे सो काठकी गनगोर आकास के प्रदेशों में सो उठाय दूर स्थापे तो आकासका प्रदेश तो वहांका वहां ही रहे काठका प्रदे१ चला जाय आकासका प्रदेश एक भी ताकी लार लागे नाहीं । तासू जे भिन्न भिन्न स्वभावरूप परनमे ते न्यारा न्यारा करता न्यारा हूवा तैसे मैं भी ई शरीरसूं क्षेत्रकी अपेक्षा एक क्षेत्र अवगाही होय भेला तिष्ट्रं हूं । पन स्वभावकी अपेक्षा न्यारो छे ईं को स्वरूप न्यारो छे ये तो परतक्ष जड़ अचेतन अमूर्तिक गलानि पूर्न स्वभावने लियां समै समै परनमें अरु मैं चेतन अमूर्तीक निर्मल ज्ञायक सुखमई आनन्द स्वभावने लियां समै पर नमुं छू । अरु शरीरकूं न्यारा होते न्यारा हूँ । शरीरके अरु हमारे भिन्नपनो प्रत्यक्ष हैं । जो ईका द्रव्य गुन पर्याय न्यास म्हारा द्रव्य Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - VA गुन पर्याय न्यारा ईका प्रदेश न्यारा म्हारा प्रदेश न्यारा ईका स्वभाव न्यारा हमारा स्वभाव न्यारा और कोई ऐसे कहे पुद्गल दव्यसों तो वारंवार भिन्नपनो भयो पन अवशेष चार द्रव्यासों अथवा परजीव द्रव्यसों तो भिन्नपनो भयो नाहीं । ताका. उत्तर ऐ हे वे चार द्रव्य तो अनादि कालसे ठिकाना बांध अडोल तिष्टे हैं। पर जीवांका संयोग प्रत न्यारा है । सो भिन्न होय तासों कांई भिन्न कहिये एक पुद्गल द्रव्य ही का उरझाव है । तात याही कू भिन्न करना उचित है। घना विकल्प कर काई जानवावाला थोड़ा हीमें जानें । अरु न जानवावाला घनीमें भो न जाने तातें यह बात सिद्ध भई यह बात कला कर साध्य है । बलकर साध नाहीं। बहुरि यह आत्मा शरीरमें बसता इंद्रियोंके द्वार अरु मनके द्वार कैसे जाने । सोई कहिये है जैसे एक राजाळू काहू बलवान वैरीने बड़ा महलमांहि बंदीखाने दिया सो उस महलमें पांच तो झरोखा है । अरु एक बीचमें सिंहासन हैं । सो कैसे है झरोखा अरु सिंहासन सो ऊ झरोखाके ऐसी शक्तिने लिया चसमा लगा है । अरु ऐसी सक्तने लियां सिंहासनके रतन लागा है सो कहिये है । सो राजा अनुक्रम सो सिंहासन पर बैठो हुवो झरोखा ओर देखतो हूवो सो प्रथम झरोखामांहिं देखता तो सपरसके आठ गुनने लियां पदार्थ दीसे है । अरु सेस पदार्थ दीसें नाहीं। बहुरि दूना झरोखा मांहि निरखो सिंहासन ऊपर बैठ तब पांच जातके रस दीसे हैं । अवशेष और कछू न दीसा बहुरि सिंघासन ऊपर बैठ तीजा झरोखा माह देखो तब गंध जातके दोय पदार्थ देखे शेष देख्या नाहीं । बहुरि चौथा झरोखामाहिं देखा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २५३ तब पांच जातके वर्न देख्या । अवशेष कछू न देखा । बहुरि पांचमां झरोखा सिंहासन ऊपर बैठा देख्या तब सात जातके शब्द देख्या अवशेष किछू न देख्या सो जब सिंहासन ऊपर बैठ दृष्टि पसार बिचारे तब वासूं जाके पदार्थ तो यह मूर्तीक अरु आकार अमूर्तीक सर्व द से। अरु झरोखा बिना वा सिंहासन बिना कोई पदार्थनें जानें नाहीं । अरु वह राजा जब बंदीखाने छोड़ा अरु महलबारें काढें तो वे राजानें दसूं दिसाका पदार्थ अरु मूर्तीक अमूर्ती विना विचार सर्व प्रतभासे सो ये स्वभाव देखवाका राजाका है । कोई महल ताको नाहीं । अपूठा महलका निमित्त कर ज्ञान आछाद्या जाय है । अरु कोई इक ऐसी निर्मल जातकी परमानूं वा झरोखा अरु सिंहासन के लागी है। ताका निमित्त कर किंचित् मात्र जानपना रहे है । दूजा महलका प्रभाव तो सर्व ज्ञानको घातवा का ही है । त्योंही ई शरीररूपी महल विषें यह आत्मा कर्मन कर बन्दीखाने दिया है । त्योंही ऐंठें पांच इन्द्रीरूप तो झरोखा हैं । अरु मनरूप सिंहासन है । तब यह आत्मा जो इन्द्रीके: द्वार अवलोकन करे तिहिं तिहि इन्द्रीके विषें ई माफक पदार्थकुं देखे अरु मनके द्वार अवलोकन करे तब मूर्तीक व अमूर्तीक सर्व पदार्थ प्रतिभासे है अरु यह आत्मा शरीर रूपी बंदीखाने रहित हो तब मूर्तीक अमूर्तीक लोकके त्रिकालमें बंधी चराचर पदार्थ एक समय में युगतीय प्रतभासें है ये स्वभाव आत्माका है कोई शरीरका तो नाहीं । शरीरका निमित्त कर अपूठा ज्ञान घाता जाय है । अरु इन्द्री मनका निमित्त कर किंचित मात्र खुलया रहे हैं। ऐसे ही निर्मल जातकी परमानूं इन्द्री वा मनकूं लागी हैं। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।। ताकर किंचित मात्र दीसे है। अरु शरीरका स्वभावका ज्ञानकू भी घातवा काही हैं। बहुरि जातें निज आत्माका स्वरूप जान्या है। ताका यह चहु होय है । सो और तो गुन आत्मामें घना ही है। अरु घना हीनें जानें है। परन्तु तीन गुण विशेष हैं । ताको जानें तो आपना खरूप जानें ही जाने अरु ताका जान्या विना कदाच त्रिकालमें भी स्वरूपकी प्राप्ति होय नाहीं अथवा तीन गुन विना दोय गुन ही को नीका जाने तो भी निन सहनानंदकी पिछान होय गुनकी पिछान विना स्वरूपकी प्राप्ति नाहीं सोई कहिये है । प्रथम तो आत्माका स्वरूप ज्ञाता दृष्टा जानें यह जानपना है। सोई मैं हूं सोई जानपना है । ऐसा निःसंदेह अनुभवनमें आवे है सो तो यह अरु दूना यह जाने यह तो रागी द्वेषीरूप आकूल होय परनवे है । सोई मैं हूँ कर्मनका निमित्त पाय कषायरूप परनाम हुवा है । अरु कर्म निमित्त हलका पड़े तब परनाम सांतरूप परनमें हैं । जैसे नलका म्वभाव निर्मल है सो अग्निका निमित्त पाइ जल उप्नरूप परनवे कदाचका निमित्त है याय वह जल गंधरूप परनवे त्योंही यह आत्माका ज्ञानावरनादिका निमित्त कर ज्ञान घाता जाय अरु कषायनका निमित्त कर निराकुलित गुन घाता जाय है ज्यों ज्यों ज्ञानावरनादिका निमित्त हल्कापरे त्यों त्यों निराकुलित परनाम होता जाय । सो यह खभाव जिननें प्रत्यक्ष जान्या अरु अनुभवा सो ही सम्यक दृष्टि निजस्वरूपका भोगता है । बहुरि तीना स्वभाव यह भी जाने कि मैं असंख्यात प्रदेशी अमूर्तीक आकार हूं । जैसा आकास अमूर्तीक है तैसा ही मैं अमूर्तीक हूं परन्तु आकास सनड़ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । है. मैं चैतन्य हूं। सो कैसा है आकाश काटा कटे नाहीं तोड़ा टूटे नाहीं पकड़ा आवे नाहीं रोका रुके नाहीं छेदा छिदे नाहीं भेदा भिदे नाहीं गाला गले नाहीं बाल्या बले नाहों याने आदिदे कोई प्रकार, भी नास नाहीं । मैं असंख्यात प्रदेशी प्रत्यक्ष वस्तू छू अरु मेरा ज्ञान गुन अरु परनमन गुन प्रदेसनके आश्रय है जे देश नाहीं होंय तो गुन किसके आसरे रहें । प्रदेश विना गुनकी नाश होय तब स्वभावकी नास होय जैसे आकासके विर्षे कोई वस्तु नाहीं त्यों होय जाय सो मैं छू नाहीं । मैं साक्षात् अमूर्तीक अखंड पदने धरचा हूं । अरु ता विषं ज्ञान गुनकू लिया हूं, ऐसी तीन प्रकार लक्षन संयुक्त मैं मेरा शरीरकू नीका जानूं हूं । अनभवू हूं कैसे अनभवू हूं । सो या तीन गुनाकी मेरे आज्ञा कर प्रतीत है। अरु ज्ञान अरु परनामनकी मेरे अनुभवन कर प्रतीत है कैसे प्रतीत है सोई कहिये है कोई मेरे ताई आय ऐसा झूठ ही कहे के तूं चैतन्य स्वरूप नाहीं यह बात फलाना ग्रन्थमें कही है। ऐसा मोकू कहे तब मैं उसकुँ ऐसे कहूं रे दुरबुद्धि रे बुद्धि कर रहित रे मोह कर ठगाया हुवा तेरे ताई कछू सुध नाहीं । तेरी बुद्धि ठगी गई है तब वह कहे मैं कांई करूं फलाना ग्रन्थमें कही है ऐसा कहे तो भी प्रतक्ष चैतन्य वस्तु परका देखन जाननहारा सो कैसे मानूं तब यह जानें जो शास्त्रमें ऐसा मिथ्या कहे नाहीं अरु आगे होसी नाहीं अरु मेरे ताई या कहे “आन सूर्न शीतल ऊगा तो मैं कैसे मानूं फिर कदाच या तो मानूं परन्तु मेरे ताईं झूठा कहे तू चैतन्य नाहीं तेरे परनमन शक्ति नाहीं । सो कदाच मानें नाहीं ये दोई गुनका Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - - मेरे अनुभव है । ये दो गुन ही का मैं पिन्ड हूं । सो या दोय गुणाकी मेरे आज्ञाकर भी प्रतीत है । अरु अनुभवन कर प्रमान है । कैसो मैं या जानूं सर्वज्ञका वचन झूठा नाहीं। तातें तो आज्ञा प्रमान है अरु मैं या जानूं मेरे ताई मेरा अमूर्तीक आकार मोकू दीसता नाहीं तो आज्ञा प्रमान है परन्तु मैं अनुमान कर ऐसा प्रदेसनके आश्रय विना चैतन्य गुन किसके. आसरे होइ । प्रदेश विना गुन कदाच भी न होय । यह नेम है जैसे भौमिका विना. रूखादिक किसके आश्रय होंय त्यों ही प्रदेश विना गुन किसके आश्रय होय ऐसा विचार कर अनुभवनमें भी आवे है अरु आज्ञा कर प्रमान ह बहुरि प्रमान है । बहुरि कोई मेरे ताई आनकर झूठी कहे फलाना ग्रन्थमें या कही है। ये आगे तीन लोक प्रमान आत्म प्रदेशका श्रद्वान किया था मैं ऐसे निःसहाय जो आत्माका प्रदेश धर्म द्रव्यका प्रदेशा सों घाट है । तो मैं ऐसा विचारूं सामान्य शास्त्र सो विशेष शास्त्र बलवान है । सो ऐसा होयगा मेरे अनुभवनमें तो कोई निरधार होता नाहीं अरु विशेष ज्ञानी यहां दीसे नाहीं । तातै सर्वज्ञका वचन प्रमाण करू हूं। परंतु मेरे ताईं या कहे तूं जड़ अचेतन है वा मूर्तीक है। वा परिनमनते रहित है तो यामें किछू मानें नाहीं यह मेरे संदेह है। जासों ब्रह्मा विष्णु नारायन रुद्र कोड़ कोड़ आय कहैं । यामें याही जानों कि ये सब बावला भया है। के मोने डिगावा आया है। के मेरी परीक्षा लेहे मैं ऐसा मानूं । भावार्थ-यह जो ज्ञान परनति आपहीके होय है । सो जाकू जानें सोई सम्यकदृष्टि है । याकू जाने विना-मिथ्यादृष्टि है । और अनेक प्रकार गुनाका स्वरूप व Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २५७ पर्यायका स्वरूप ज्यों ज्यों२ ज्ञान होइ त्यों जानवो कार्यकारी है। परन्तु मुख्यपने या दोयका तो जानपना तो अवश्य चाहिये। ऐसा लक्षन जानना बहुरि विशेष गुन ऐसें जानना सो एक गुनमें अनन्त गुन हैं । अरु अनन्त गुनमें एक है । मुन गुनसो मिले नाहीं। अरु सब गुनमें मिल्या है जैसे सोवर्नमें पीला च कनाने आद देय अनेक गुन हैं । सो क्षेत्रकी अपेक्षा तो सर्व गुनामें तो पीला गुन पाइये । अरु पीला गुनमें क्षेत्रकी अपेक्षा सर्व गुन पाइये । अरु क्षेत्रकी अपेक्षा गुनसो गुन मिल रहा है। अरु सर्वका प्रदेश एक ही है । अरु स्वभावकी अपेक्षा सर्व न्यारे न्यारे हैं । सो पीलाका स्वभाव और ही है अरु चीकनाका स्वभाव और ही है। सो ऐसे आत्मामें जानना वा ऐसा द्रव्यामें भी जानना वा अनेक प्रकार अर्थ पर्याय वा विनन पर्यायका स्वरूप यथार्थ शास्त्रोंके अनुसार जानना उचित है । अबसेस जानपना कर सम्यक निर्मल होता जाय है । बहुरि या जीवके सुखकी बधवारी वा घरबारी दोय प्रकार होय है सोई कहिये है । जेता ज्ञान है तेता सुख ही है । सो ज्ञानावरनादिका उदय होते तो सुख दुख दोन्यो का नास होय अरु ज्ञानावरनादिकका तो क्षयोपशम होय अरु मोह कर्मका उदय होय तब या जीवकें दुख विशेष उत्पन्न होय सो सुख तो आत्माके निज गुन कर्म उदय विना है । अरु दुख कर्मीका निमित्तकर होय है सो जीवसक्ति कर्म उदय दब गई अरु दुखसक्ति कर्मका उदय ते प्रगट होय है तातै वस्तुका द्रव्यत्व स्वभाव है । बहुरि फेर शिप्य प्रश्न करे है । हे स्वामी हे प्रभू तेरे ताई Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । % 25 द्रव्यकर्म वा नोकर्मसों तो मेरा स्वरूप भिन्न तुम्हारे प्रसाद कर दरस्या अब मेरे ताई रागद्वेष सूं न्यारा दिखावो सो अब श्रीगुरु कहे हैं हे शिष्य तू सुन जैसे जलका स्वभाव तो शीतल है अरु अग्निके निमित्त कर उस्न होय तब अपना शीतल गुनने खोवे आताप रूप होय परनवे औराने भी आताप उपनावे पाछे काल पाय अग्निका संयोग मिटे त्यों जलको स्वभाव शीतल होय औरांकू आनन्दकारी होय त्योंही यह आत्मा कषायोंका निमित्त कर आकुल व्याकुल होय परनमें तब निराकुलित गुन दवि जाय तब अनिष्ट रूप लागे बहुरि ज्यों ज्यों कषायाका निमित्त मिटता जाय त्यों त्यों निराकुलित गुन प्रगट होय तब इष्टरूप लागे सो थोड़ासा कषायको मेटनेतें भी ऐसा शान्तीक सुख प्रगट होय तो न जाने परमात्मा देवके संपूर्न कषाय मिटे अरु अनन्त चतुष्टय प्रगट भया कैसा सुख होगी अरु थोड़ासा निराकुलित स्वभावको जान्या संपून निराकुलित स्वभावकी प्रतीत आये सुद्धात्माके ऐसा संपूर्ण निरालित स्वभाव होसी ऐसा अनुभवनमें नीका आवे है । बहुरि फेर शिष्य प्रश्न करे है हे प्रभू बाह्य आत्मा अन्तर आत्मा परमात्मा इनका प्रगट चिन्ह कहा ताका स्वरूप क हो सो गुरु कहे हैं । जैसे कोई जनम ताई बालकने तैखानामें राख्या तैठा ही बधायो केताक दिन पीछे रात्र समय बारें काढ़ो अरु बालकने पूछो सूर्य किस दिसाने ऊँगे छे ताको प्रकास कैसो होय छे अरु सूर्य केसो छ । तब वे कहें मैं तो न जानो दिसा व प्रकास व सूर्यका विम्ब कहा कहावे । तब हठकर पूछो तब और सू और बतावे पाछे सूर्य ऊगो तब फेर कही तब वाने कही जहां Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । . २५९ पहिले प्रकाश भयो ते तौ पूर्व दिसा छे, अरु तेठी यह सूर्य है सो सून विना ऐसा प्रकाश होता नाहीं । त्यों त्यों सूर्य ऊंचा चढे है त्यों त्यों प्रकास निर्मल होता जाय है । कोई आइने जा कहे सूर्य दक्षिन दिसामें है अठीने सूर्य नाहीं तो कदाच मानें नाहीं औरनकुं बावला गिने कि प्रतक्ष राह सूर्यका प्रकास दीसे है । मैं याका कहा कैसे मानूं यह मेरे संदेह है । सूर्यका बिम्ब तो मेरे ताई निनर आवता नाहीं पन ई प्रकार सूर्यका अस्त होय है । सो नियमकर सूर्य आठा ही हैं ऐसी अब गाढ़ प्रतीत आवे है। बहुरि फेर सूर्यका बिम्ब संपूर्ण महातेज प्रतापने लियां देदीपमान प्रष्ट भया तब प्रकास भी संपूर्ण भया पदार्थ भी जैसा था जैसा प्रतिभासवा लागा तब पूंछना ताछना रहा नाहीं । निर्विकल्प होय चुक्या ऐसे दृष्टाके अनुसार दृष्टान्त जानना सोई कहिये है मिथ्यात अवस्थामें पुरुषने पूंछा तू चैतन्य है ज्ञानमई है तब वे कहें चैतन्य ज्ञान कहा कहावे का चैतन्य ज्ञानमई हूगो काई था शरीर में अरु मोमें क्या भेद है । शरीर है सोई मैं हूं वा सर्वज्ञका ये ये अस हूं वा छिन छिनमें उपजे विनसे है वा सून्य है। तो ऐसे ही मानें ऐसे होयगा मेरे ताई किछू खबर नाहीं यह हिरात्माका लक्षन है। बहुरि काई गुरुका उपदेश कर ऐसा श्रद्धान आवे जो मैं प्रगट ज्ञानमई आत्मा यह मेरा ज्ञानका प्रकाश प्रगट सबका देखन जाननहारा मैं ज्ञान विना ऐसा जानपना शरीरमें तो नाहीं। यह ज्ञानका प्रकास जहांसू अ या है। तहां ही आत्मा है ज्यों ज्यों ज्ञान प्रकास बधता जाय त्यों त्यों तत्वका जानपना निर्मल होय. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६० ज्ञानानन्द श्रावकाचार। - - wwwwww ऐसा श्रद्धानवे सो अंतरआत्मा है। बहुरि केवल ज्ञानरूपी सूर्य देदीपमान (उदोत) होय तब लोकालोकके चराचर पदार्थ निर्मल जैसाका तैसा प्रतिभासे है । अरु अपना असंख्यात प्रदेस भी त्यों. का त्यों प्रतिभासे सो यह परमात्माका लक्षन है । ऐसा तीन प्रकार आत्माका स्वरूप जानना बहुरि फेर शिष्य प्रश्न करे है हे प्रभू मोक्षमें और सुख तो छ पन इन्द्रीननित सुख नाहीं तब श्री गुरु कहे हैं । हे शिष्य संपूर्न इन्द्रीननित सुख मुक्तिमें संपून छ । ऐसो और ठौर नाहीं। कैसे है सो कहें हैं। इन्द्रीनको सुख ज्ञानते जानों तब सुख होय सो सिद्ध महारानके संपूर्न जानपना छ इन्द्रीनका विषय व मनका विषयरूपी पदार्थ एक समयमें सर्व जाने हैं। सो इनका सुख औरनके न जानना तब फेर शिप्य कहे है हे प्रभू आत्मज्ञान ऐसा ही है सो बारबार ज्ञाता दृष्टांकू अवलोकना । भावार्थ-जो आत्माको ज्ञान में देखना इह देखन जाननहारा है सोई मैं हूं। मैं हूं सोई देखन जाननहारा है। मोमैं अरु जामें दुनायगी नाहीं । एकत्व तदात्मपना है। जैसा अवलोकन निरंतर लगा रहे । फेर फेर बाहीकू देखे जैसे गाय अपना वक्षाको देखता छिनमात्र भी नाहीं भूले वारंवार वाहीकू देखे ज्यों ज्यों देखे त्यों त्यों अत्यंत आनन्द ही होय । सो आनन्दकी बात गौही जाने तैसे सम्यकदृष्टि वारंवार अपना रूपने देखतो तृप्ति नाहीं । अरु अपना स्वरूपका अवलोकन करता गदगद शब्द होय अश्रुपात चल आवे अरु रोमांच होय अरु चित्त शान्ति होय मानूं ग्रीष्म ऋतुमें मेघ छूटा ऐसी शान्तिता होय आवे सो ज्ञान ही गम्य है कहवां मात्र नाहीं और शिष्य प्रश्न करे है हे प्रभू Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । Ca आत्माके कर्म कैसे बंधहैं । श्रीगुरु कहे हैं जैसे एक सिंह उजाड़में तिष्टे था तहां एक मंत्रवादी अपनी इच्छा सों भ्रमें छो सो सिंह वह मंत्रवादीकू देख कोपित हो। तब मंत्रवादी एक धूलकी चिमटी मंत्री नाहरका सरीर ऊपर नाख दीनी सो ताकर नाहरकी देखन शक्ति विलय गई । अरु दूसरी चिमटी कर बावलो सारखो हूवो या जाने मैं स्याल हूं। एक चिमटी कर चलनशक्ति नास गई सो चल न सके अरु एक चिमटीका निमित कर नाहरको आकार ही और भयो अरु एक चिमटीका निमित्त कर नाहर आपने नीच ऊंच मानवा लागो अरु एक चिमटीका निमित्त कर अपना वीर्य क्षीन जानतो हूबो ऐसे आठ प्रकार ज्ञानावरनादि कर्म जीव रागद्वेष कर जीवाका ज्ञानादि आठ गुनको घाते हैं। ऐसे जानना ऐसे शिष्यने प्रश्न किया ताका गुरु उत्तर दिया सो ऐसे भव्य जीवांने अपना स्वरूप विषे लीन होनों उचित है । सिद्धांका स्वरूपमें आपना रूपमें साढस्यपनो है । सो सिद्धांका स्वरूपने ध्याय अरु निज स्वरूपका ध्यान करना घनी कहवांकर काईं ऐसे ज्ञाता स्वभावकू ज्ञाता जाने हैं । संपूर्न । आगे कुदेवादिकका स्वरूप निर्णय करिये है । सो हे भव्य तुं सूण सो देखो जगमें भी यह न्याय है । के तो आपसों गुनकर अधिक होयके आपनो उपगारी होय ताकों नमस्कार करिये वा पूजिये जैसे राजादिक तो गुणाकर अधिक हैं । अरु माता पिता उपगारी हैं । ताकरि जगत पूजे है अरु वंदे है । ऐसा नाहीं कि राजादिक बड़े पुरुष रैयत वा रंक पुरुषने वंदे वा पूजे अरु माता पिता पुत्रादिककू वंदे या पूर्ने सो तो देखिये नाही अरु कदाच मतिकी मंदता Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कर रानादिक बड़े पुरुष होय कर नीच पुरुषको पूजे अरु मातापिता भी बुद्धिकी हीनता कर पुत्रादिकळू पूजे तो वह जगतमें हास्यकर निन्दाकू पावे कौन दृष्टान्त जैसे सिंह होय अरु स्यालकी सरन चाहे । तो वह हास्यने पावे ही पावे यह जुगत है ही तामं धर्ममें अरहंतादिक उत्कृष्ट देवने छोड़ अरु कुदेवने पूजे तो काई ई लोकमें हास्यने न पावे पावे ही पावे । अरु परलोकमें नाना प्रकारके नर्कादिकके दुख अरु क्लेसकू नाहीं सहे अवस्य सहे । सो क्यों सहे सो कहिये है । जो आठ कर्मों में मोह नामा कर्म सर्व कर्मोका राना है। ताके दोय भेद हैं एक तो चारित्रमोह एक दर्शनमोह सो चारित्रमोह तो ई जीवको नाना प्रकारकी कषायां कर आकुलता उपजावे है । सो कैसी है आकुलता और कैसा है याका फल सो कोई जीव नाना प्रकार संयम कर संयुक्त है। अरु वा विर्षे कपाय पावजे हैं तो दीर्घकालके संयमादिक कर संचित पुन्य जैसे अग्निमें रुई भस्म होय तैसे कषायरूपी अग्नि विषे पुन्यरूपी रुई भस्म होय है अरु कषायवान पुरुष ई जगतमें महां निन्दाने पावे है । बहुरि कैसी है कषाय षोटी स्त्रीका सेवनमूं भी ताका पाप अनन्त गुना पाप मिथ्यातका है । अरु यो जीव अनादिकालको एक मिथ्यात कर ई संसार वि. भ्रमें है । सो मिथ्यात उपरान्त और संसार विर्षे उत्कृष्ट पाप है नाहीं । अरु सास्त्रों वि एक मिथ्यातको ही पाप लिख्या है । सो जाने मिथ्यात्वका नास किया ताने सर्व पाप नास किया अरु संसारका नास किया सो ऐसा 'जान सर्व प्रकार कुदेव कुगुरु कुशास्त्रका त्याग करना । सो त्याग कहा कि देव अर्हत गुरु निग्रंथ तिल तुस मात्र परिग्रहसों रहित ऐसे Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २६३ अरु धर्म निनप्रनीत दयामयी वीतराग सिवाय सर्वको दूर ही ते तनना प्रान जाय तो जावो पन नमस्कार करना उचित नाहीं। आगे अहंतादिकका स्वरूप वर्नन करिये है। सो कैसे हैं अरहन्त प्रथम तो सर्वज्ञ हैं। जाका ज्ञानमें समस्त लोकालोकके चराचर पदार्थ तीन काल संबंधी एक सययमें झलके हैं। ऐसी तो ज्ञानकी प्रभुत्व शक्ति है । अरु वीतराग हैं। सर्वज्ञ होता अरु वीतराग न होता तो राग द्वेष कर पदार्थका सरूप .. और सू और कहता तो वा विर्षे परमेश्वरपना संभवता नाहीं। अरु वीतराग होता सर्वज्ञ न होता तो भी पदार्थका स्वरूप यथार्थ न कहता तो ऐसा दोष कर संयुक्त ताको परमेश्वर कौन मानता तासू तामें ये दोष होय एक तो रागद्वेष अरु अज्ञानपनों ते परमेश्वर नाहीं तातें ये दोषन कर रहित अहंत देव ही हैं । सोई उत्कृष्ट हैं सोई सर्व प्रकार पूज्य हैं । अरु सर्वज्ञ वीतराग होता अरु तारवाने समर्थ न होता तो भी प्रभुत्वपनामें कसर पड़ती। सो तो जामें तारन शक्ति ऐसी है । जो कोई जीव तो भगवानका सुमरन कर ही भव समुद्रतें तिरे कैई भक्ति कर तिरें कैई स्तुति कर तिरे इत्यादि एक एक गुन• आराध मुक्ति पधारें परन्तु प्रभूकू खेद रंच भी न भया सो महंत पुरषनकी अचिंत सक्ति है । जो आपने तो उपाय करनी पड़े नाहीं । अरु ताका अतिशय कर सेवकजनाका स्वयमेव भला हो जाय । अरु प्रतिकूल पुरषांका स्वयमेव बुरा हो जाय अरु शक्तिहीन पुरुष हैं ते डीला जांय अरु पेलाका भला बुरा करे तब वेसूं कार्य सिद्ध होय । सो भी नेम नाहीं होय व न भी होय । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ . ज्ञानानन्द श्रावकाचार । इत्यादि अहन्तदेव अनेक गुन कर सोभित हैं । बहुरि आगे जिनवानीके अनुसार ऐसा जो जैन सिद्धान्त सर्व दोष कर रहित ता विषे सर्व जीगंका हितकारी उपदेस है । अरु तामें सर्वतत्वका निरूपन है। अरु ता विर्षे मोक्षमार्गका मोक्षस्वरूपका वर्नन है । अरु पूर्वापरि. दोष कर रहित है इत्यादि अनेक महिमां कर सोभित मिन सासन है। आगे निर्ग्रन्थ गुरुका स्वरूप कहिये है सो राजलक्ष्मीने छोड़ मोक्षके अर्थ दीक्षा धरी है। अरु अणिमा महिमा आदि दे रिद्धि जाके फुरी हैं । अरु मति श्रुति अवधि मनःपर्यय ज्ञान कर संयुक्त है । अरु महां दुद्धर तपकर संयुक्त है । अरु निःकषाय है दयालु है छयालीस दोष टाल आहार लेहे। अरु अठाइस मूल गुन ता विषं अतीचार भी न लगावे है ईर्या समितिने पालता थका साड़ा तीन हाथ धरती सोधता विहार करे। भावार्थ-काहू जीवने विरोधे नाहीं । भाषा समिति कर हित मित वचन बोले है । ताका वचन कर कोई जीव दुख न पावे ऐसे सर्व जीवाकी रक्षा विषं तत्पर है ऐसा सर्वोत्कृष्ट गुरु देव धर्म ताने छोड़ विचिक्षन पुरुष हैं ते कुदेवादिकने कैसे पूजे परतक्षही जग तके विषं जाकी हीनता देखिये है । जे जे जगतमें रागद्वेष आदि औगुन हैं ते ते सर्वसे हिंसा झूठ चोरी कुसील आरंभ परिग्रह आदि जे महां पाप ताकर ही स्वर्गादिकका सुखने पावे तो नर्कादिकका दुख कौन कर पावे सो तो देखिये नाहीं। और कहिये है देखो भाई जगतमें उत्कृष्ट उत्कृष्ट वस्तु थोरी है। सो प्रतक्ष देखिये है। हीरा मानिक पन्ना जगतमें थोड़ा है कंकर पत्थर बहुत है । बहुरि राजा पातशाह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आदि महंत पुरुष थोड़ा है रंक आदि शूद्र पुरुष बहुत हैं । अरु धर्मात्मा पुरुष थोड़ा हैं पापी पुरुष बहुत हैं ऐसा ऐसा अनादि निधन वस्तुका स्वभाव स्वयमेव बन्या है । ता स्वभाव मेंटना सक कोई नाहीं । तासों तीर्थंकर देव उत्कृष्ट हैं सो एक क्षेत्रमें एक कोई कालमें एक पाजे अरु कुदेवादिकका वृंद कहिये समूह वर्तमान कालमें बहुत पाजे । कैसा कैसा कुदेवाने पूजे छ । परस्पर रागी द्वेषी वे तो कहे मोनें पूनो अरु पूजवावाला कने खावांकू मांगे अरु जा कहे मैं घना दिनका भूखा छ् । सो वे ही भूखा तो औराने उत्कृष्ट वस्तु देवां समर्थ कैसे होंय । जैसे कोई रंक पुरुष क्षुधा कर पीड़ित घर घर अन्यका दाना वा रोटीका ढूंक झूठा मांगता फिरे । अरु कोई अज्ञानी पुरुष वा कने उत्कृष्ट धनादिक सामग्री मांगे वाके अर्थ वाकी सेवा करे तो वह पुरुष जगतमें हास्य न पावै पावै ही तासू श्रीगुरु कहे हैं । हे भाई तू मोहके बस कर आंख्या देखी वस्तुने झूठी मत माने यह जीव ऐसी भ्रम बुद्धि कर अनादि कालका संसारमें भूला रुले कैसे रुले है । जैसे कोई पुरुषके दाहज्वरका तीव्र रोग होय ताकों कोई अज्ञानी कुवैद्य तीव्र उष्ण औषध देय तो वह रागी कैसे शान्तिता पावे त्यों ही ये जीव अनादि तैं मोहकर दग्ध भया है । सो मोहकी वासना तो या जीवके सर्वस बिना उपदेसा ही बनी रहे है। ताकर तो आकुल व्याकुल महादुखी है ही। फेर.ऊपर सों ग्रहीत मिथ्यातका फल अनन्त गुना खोटा है। सो तो गृहीत मिथ्यात द्रव्य लिंगी मुनि सर्व प्रकार छोड़े हैं अरु ग्रहीत मिथ्यात ताके भी अनन्तवें भाग ऐसा हलका अग्रहीत मिथ्यात ताके पावजे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । है अरु नाना प्रकार दुद्धर दुद्धर तपश्चरन करे है । अरु अठाईस मूल गुन पाले है वाईस परीसह सहे हैं । अरु छयालीस दोष टार आहार ले है अरु अंसमात्र कषाय न करे । सर्व जीवाके रक्षपाल होय जगतमें प्रवत अरु नाना प्रकारके शील संयमादि गुन कर भूषित है । अरु नदी पर्वत गुफा मसान निर्जन सूका बन तामें जाय ध्यान करें । अरु जाके एक मोक्षहीकी अभिलाषा अरु संसार सों भयभीत एक मोक्षहीके अर्थ ही रानविभूतिने छोड़ दिक्षा धरी है । ऐसे होते संते भी मोक्ष कदाच पावे नाहीं । करना ही पावे याके महां सूक्ष्म केवलज्ञान गम्य ऐसा मिथ्यातका अंस लगा है । तातै मोक्ष पावे नाहीं झूठा ही भ्रम वुद्धिकर मान्या तो गर्न सरे नाहीं। कौन दृष्टान्त जैसे बाल अज्ञान माटीका हाथी घोड़ा बैल बनावे अरु वाको सांचा मानकर वासू बहुत प्रीत करे अरुंवा सामग्रीकू पाय बहुत खुमी होय पाछे वाकों कोई फोड़े ले जाय तो बहुत सोक करे रोवे छाती माथा आदि कूटे वाके ऐसा ज्ञान नाहीं कि ये तो झूठा विकल्प हैं । त्यों ही यह अज्ञानी पुरुष सोई हुवा बालक सो कुदेवादिकने तारन तरन जान सेवे है । ऐसा ज्ञान नाहीं के ऐही तिरवाने असमर्थ तो हमें कैसे तारसी । बहुरि और दृष्टान्त कहिये है। कोई पुरुष कांच खडने पाइवा विषे चिन्तामन रत्नकी बुद्धि करै है अरु या जानें यह चिन्तामन रतन है । सो मोनें बहुत सुखकारी होसी यइ मोने मनवांछित फल देसी सो भ्रम बुद्धि कर कांचने चिन्तामन मानो ता कर काई हूवो अरु काई वेसू मनवांछित फलकी सिद्ध हुई कदाचि न होई काम पड़वा पर बजारमें Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । बेचसी तो कौड़ी भी प्राप्त न होसी । त्योंही कुदेवादिकने आछा जान जीव सेवें हैं । पन वासू किछू भी गरज सरे नाही। अपूठा परलोकमें नाना प्रकारके नरकादिकके दुःख सहना पड़े तासों कुदेवादिकका सेवन तो दूर ही रहो परन्तु वा निकट रहना भी उचित नाहीं । जैसे सादिक क्रूर जनावराका संसर्ग उचित नाहीं । त्योंही कुदेवादिकका संसर्ग उचित नाहीं। सो सादिकमें कुदेवादिकमें इतना विशेष है। सर्पादिकका संगति सु इही प्रान नास होय अरु कुदेवादिकके सेवनतें पर्याय पर्यायमें अनन्त वार प्रानका नास होय । अरु नाना प्रकार जीव नरक निगोदके दुखकुं महे । तातें सर्पादिकक सेवन श्रेष्ठ है अरु कुदेवादिकका सेवन अनिष्ट जानना तातै विचक्षन पुरुष अपना हेतने वांक्षते शीघ्र ही कुदेवादिकका सेवन जो बहुरि देखो ये संसार में ये जीव ऐमा म्याना है जो दमड़ीकी हाड़ी खरीदे तो तीन टंकार दे सर्व ठौर साजी देख ग्रहण करे अरु धर्म सारखी उत्कृष्ट वस्तुका सेवन कर अनंत संसारके दुःरूसू छूटे ताका अंगीकार करनेमें अंसमात्र भी परिक्षा करे नाहीं। सो लोकमें गाड़री प्रवाहकी नाई और लोक पूजें । तैसे ही ये भी पूजें सो कैसा है गाड़री प्रवाह जो गाड़रके ऐसा विचार नहीं जो आगे खाई है कि कूपते कि सिंह है कि व्याघ्र है ऐसा विचार विना एक गाड़रीके पीछे सर्व गाड़री चली जाय । सो अगली गाड़र खाई कूपमें पड़े तो पिछली भी जाय पड़े अरु जे अगली गाड़र नाहर व्याघ्रका स्थानकमें जाय पड़े त्यों ही पिछली भी जाय पड़े त्योंही ये संसारी जीव हैं । जो कुलका Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । आगे खोटे मारग चाल्या तो ये भी खोटे मारग चाले । अरु बड़ा आछा मारग चाले तो आछा चाले पन याके ऐसा ज्ञान नाहीं के आछा मारग कौन अरु. खोटा मारग कौन ऐसा ज्ञान हो तो खोटाकू छोड़ आछा ग्रहण करे । जगतमें एक ज्ञानहीकी बड़ाई है जामें ज्ञान विशेष है सोई जग कर 'पूज्य है । ताहीकू सब सेवे हैं अरु ज्ञान ही जीवनका निन स्वभाव है जासूं धर्म परीक्षा कर ग्रहन करनें । अब आगे कुदेवादिकका लक्षन कहिये है सो हे भव्य तूं जान जामें रागद्वेष होय सर्वज्ञपनाका अभाव होइ ते ते सर्व कुदेवादिक जानना कहां ताई याका वर्णन न करिये दोय चार दस बीस तरहके होयं तो कहना भी आवे । तातें ऐसा निश्चय करना सर्वज्ञ वीतराग हैं-तेई देव हैं । अरु ताहीका वचन अनुसार सास्त्र हैं। सो सास्त्रानुसार प्रवर्ते सो धर्म है अरु ताही अनुसार दस प्रकार बाह्य परिग्रह चौदह प्रकार अंतरंग परिग्रह रहित निग्रंथ बारके अग्रभागके सौमें भाग भी परिग्रह नाहीं। वीतराग स्वरूपके धारक तेई निग्रंथ गुरु हैं । आप भव समुदतै तिरे औरांने तारे धर्मसे ये इस लोकमें जस बड़ाई किछू चाहें नाहीं । अरु परलोकमें स्वर्गादिककू भी चाहें नाहीं । एक मुक्ति हू को चाहें ऐसा देव गुरु धर्म उपरान्त अवशेष रहा सो सर्व कुगुरु कुधर्म कुदेव जानना आगे और कहिये है। केई तो खुदाकू सर्व सृष्टि का करता माने हैं । कैइ ब्रह्मा, बिष्नु, महेशकू भेले - करता माने हैं । कोई एकला नारायनकू कर्ता माने हैं कैई एक शंकर कहिये महादेव ताकों करता माने हैं । कैई बड़ी भवानीकू Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । कर्ता माने हैं । केई परमब्रह्मकुं कर्ता माने हैं इत्यादि कर्ता माने ताको कहिये है । जैसा येही तीन लोकका कर्ता है तो एक नैं तीन लोकका कर्ता कैसे कहा अरु खुदा ही तीन लोकको कर्ता है तो हिन्दुयोंने क्यों किया अरु बिस्नु आदि ही तीन लोकका कर्ता है तो तुरक किसने किया हिन्दू तो खुदाकी निन्दा करे अरु तुरक बिस्नुकी निन्दा करे कोई कहे करती बार खबर न करी त कू कहिये है । करती बखत खबर न रही तो परमेश्वर क्यों कर ठहराया जाके एता ही भी ज्ञान नाहीं। अरु तीन लोकका कर्ता ही तो कोई दुःखी कोई सुखी कोई नर कोई तिर्यच कोई नारक कोई देव ऐसा नाना प्रकारका जीव पैदा क्यों किया तैसा तैसा ही सुख दुःख फल देवांके अनुसार पैदा किया तो यामें परमेश्वरका करतव्य कैसे रहा कर्महीका करतव्य रहा सो केतो परमेश्वरहीका करतव्य कहो के कर्मका ही करतव्य कहो के दोईका भेला ही करतव्य कहो । हमारी मां अरु बांझ ऐसे तो बने नाहीं । बहुरि जीव तो पहिली न होता शुभाशुभ कर्मकू न बांधा यामें भी कर्ताका अभाव भया बहुरि जगतमें दोई चार कार्य करिये । तो भी आकुलताका सद्भाव विशेष होय अरु आकुलता है तहां तहां बड़ा दुःख है । अरु जा परमेश्वरकू तीन लोकमें अनन्त जीव व अनन्त पुद्गलादि पदार्थ ताका कर्ता होता अरु अनेक प्रकार जुदा जुदा परनमता अरु ताकी जुदी जुदी याद राखनी अरु जुदा जुदा सुख दुःख देना अपना संकलेश परनाम करना,. ऐसा कर्ता होय ताका दुःखकी काई पूंछनी सर्वोत्कृष्ट दुःख ताहीके बाटें आया तो परमेश्वरपना काहेका रहा बहुरि एक पुरुषसू Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - ऐसा कार्य कैसे बने । कोई कहेगा जैसा रानाके जुदे जुदे चाकरन कर अनेक प्रकारका कार्य कर लेय अरु राजा सुखी भया महलमें तष्टें है । तैसे ही परमेश्वरके अनेक चाकर हैं । ते सृष्टिकू उपनावें हैं विनासें हैं । परमेश्वर सुखसू वैकुंठमें तिष्टे है तारूं कहिये है। रे भाई ऐसे संभवे नाहीं जाका चाकर कर्ता भया तो परमेश्वरको कर्ता काहेको कहिये अरु परमेश्वर वे कुटुम्बमें ही रास्ता तिष्टे है। तो ऐसा कैसे कहिये परमेश्वर मक्ष कक्ष आदि बैरियोंका मारवां वास्ते वा भक्तन की -सहाई वास्ते चौबीस अवतार धरया अरु घना भक्तिको खेत आन पनायो अरु नरसिंह भक्ति आय दर्सन दियो अरु द्रौपतीको चीर बढ़ायो अरु टीटईके अंडाका सहाई कर अरु हस्तीने कीचमेंसो निकालो । अरु भी नीका उसेया फल खाया इत्यादि कार्य ऐठे आया विना कूने किया सो ऐमा विरुद्ध वचन यहां संभवे नाहीं बहरि कोई यह कहसी परमेश्वरकी ऐसी ही लीला छे ताको कहिये है। रे भाई लीला तो सो कहिये जामें महानन्द उपजे सो सर्व जन... प्रिय लागे परमेश्वरकू तो ऐसा चाहिये जो सर्व हीका भला करै । ऐसा नाहीं के वाहीकू तो पैदा करे वाहीकू नास करे यह परमेश्वरपना कैसा सामान्य पुरुष भी ऐसा कार्य न विचारे बहुरि कोई सर्व जगतकू शून्य कहिये नाप्त माने है । ताकू कहिये है रे भाई तू सर्व जगत• नास माने तो तूं नास्तिका कहनहारा कोई वस्तु है । ऐसे ही अनन्त जीव अनन्त पुद्गलं आदि प्रमान कर वस्तु प्रतक्ष देखिये है ताकू नास्ति कैसे कहिये । बहुरि कोई ऐसे कहें हैं जीव तो छिन छिनमें उपनै अरु छिन छिनमें विनसे है। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २७१ त.कू कहिये है । रे भाई छिन छिनमें जीव उपजे है तो कालकी बात आजकूने जानी । अरु में फलाना छा सो मर देव हू छो ऐसा कूने कहा बहुरि कोई ऐसे कहे प्रथ्वी अप वायु तेन आकास ये पांच तत्व मिल एक चैतन्य शक्ति उपज वे है । जैसे हल्दी साजी मिल लाल रंग उपजावे । अथवा नील हरदी मिल हरा रंग उपजावे ताकू कहिये है रे भाई प्रथ्वी आदि पांचों तत्व तें कहा सो तो यह अचेतन द्रव्य है सोया कर अचेतन शक्ति उपजे है। यह नेम है । सो तो प्रत्यक्ष आखां देखिये है अरु नाना प्रकारके मंत्र जंत्र तंत्र आदिके धारक जे किप्त ही पुद्गल द्रव्यको नाना प्रकार परणवावे हैं, ऐसा आज पहिली कोई देख्यो नाहीं, फलानों देव विद्याधर मंत्र औषधि पंच आदि पुद्गलको चैतन्य रूप परनवायो सो तो देखो नाहीं अरु आकाश अमूर्तीक अरु प्रथ्वी आदि चारों तत्व मूर्तीक पदार्थ कैसे निपजै । ऐसे होय तो आकाश पुद्गलका तो नास होय अरु आकाश पुद्गलकी जांयगां सर्व चैतन्य द्रव्य होय जाय सो तो देखी नांही चैतन्य पुद्गल सर्व न्यारा २ पदार्थ आख्यां देखिये है । ताळू झूठा कैसे मानिये । बहुरि कोई ऐसे कहे हैं एक ब्रह्म सर्व व्यापी है। जलमें थलमें सर्व घट पटादि में एक ब्रह्मकी सत्ता है। ताकू कहिये है रे भाई ऐसा होय तो बड़ा दोष उपजै कई पदार्थचैतन्य देखिये है कई पदार्थ अचैतन्य हैं। सो एक पदार्थ चे तन अचेतन कैसे होय अरु चेतन पदार्थ भी नाना प्रकारके देखिये है अरु अचेतन पदार्थ भी बहुधा देखिये है। सो सबनकू एक कैसे मानिये बहुरि जो एक ही पदार्थ होय ताकू कहिये कि फलानो नरक गयो, पलानो स्वर्ग गयो, फलानो Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । मनुष्य भयो, कलानो तिर्यंच भयो, फलानो मुक्ति गयो, फलानो दुखी, फलानो सुखी, फलानो चैतन्य, फलानो अचैतन्य इत्यादि जुदे जुदे पदार्थ जगतमें देखिये है । ताळू झूठा कैसे कहिये अरु जे सर्व जीव पुद्गल एकसा होता तो एकके दुःखी होते सर्व दुःखी होते अरु एकका सुखी होते सारा ही सुखी होय । अरु चैतन्य पदार्थ छे ताके भी सुख दुःख होय सो तो देख्या नाहीं। बहुरि जे सर्व ही पदार्थकी एक सत्ता होय तो अनेक नामकू पावे अरु फलाना खोटा कर्म किया फलाना चोखा किया ऐसा क्यूंने कहना पड़े सर्व मई व्यापक एक पदार्थ हवा तो आपकू आप दुःख कैसे दिया । सो कोई त्रैलोकमें नाहीं जो आपकू आप दु ख दिया चाहे । जो आपकुँ आप दुःख देवामें सिद्ध होय तो सर्व जीव दुःखने कैसे चाहें तासू नाना प्रकारके जुदा जुदा पदार्थ स्वयमेव अनादि निधन बन्यां है । कोई किसीका कर्ता नाहीं सर्व व्यापी एक बृह्मका कहवामें बड़ी विपरीति प्रत्यक्ष दीखे है । ताते हे सूक्ष्म बुद्धि तेरा श्रद्ध न मिथ्या है प्रत्यक्ष वस्तु आख्यां देखिये तामें संदेह काई तामें प्रश्न काई आखां देखी वस्तुने भूले है । जो प्रत्यक्ष मर गया ताकू आन माने तो वा सारखा मूर्ख संसारमें और नाहीं । अरु तूं यह कहसी मैं काई करूं फलाना शास्त्रमें कही है यह सर्वज्ञका वचन है ताकू झूठा कैसे मानियें । ताकू कहिये है रे भाई प्रत्यक्ष प्रमान · विरुद्ध होय ताका आगम साक्षी नाहीं। अझ वे आगमका कर्ता प्रमानीक पुरुष नाहीं । यह निःसंदेह है जाका आगम प्रत्यक्ष प्रमाणसों मिले सो आगम प्रमान है अरु वह आगमका कर्ता पुरुष प्रमान है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। - २७३ - ~ ... ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ अरु पुरुष प्रमानका वचन प्रमान सो पुरुष प्रमान होय । तासों जो कोई सर्वज्ञ वीतराग है तेई पुरुष प्रमान करवो जोग्य है सो सर्वज्ञका वचनमें तो यो कहा है । जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल ये छहों द्रव्य मिल त्रैलोक निपजा है ये छहों द्रव्य अनादि निधन हैं इनका कोई कर्ता नाहीं। इनका कोई कर्ता होता तो कर्ता किसका किया था अरु कोई कहे कर्ता तो अनादि निधन हैं तो ये छहों द्रव्य भी अनादि निधन हैं। तासों यह नेम ठहरा कोई पदार्थ किसी पदार्थका कर्ता नाहीं। सारा पदार्थ अपने अपने स्वभावका कर्ता है । अरु अपने अपने स्वभाव रूप स्वयमेव परनवे है । चैतन्य द्रव्य तो चैतन्य रूप ही पर नवे अरु अचेतन मूर्तीक द्रव्य अचेतन रूप ही परनवे मूर्तीक द्रव्य रूप हे। अमूर्तीक द्रव्य अमूर्तीक रूप रहे अरु जीव द्रव्य चैतन्य रूप रहे पुद्गल द्रव्य जड़ स्वभाव है । धर्म द्रव्यका चलने में सहकारी स्वभाव है अरु अधर्म द्रव्यका स्थिरकरन स्वभाव है जीव द्रव्य तो अनन्त प्रदेशी है पुद्गल अवगाहन स्वभाव है । कालद्रव्यका वर्तना स्वभाव है जीव द्रव्य तो अनन्त है पुद्गल तासू अनन्तानंत गुना है। अधर्म द्रव्य धर्म द्रव्य एकही है। आकास द्रव्य भी एकही है। अरु कालकी अनु भी अस्थित है । एक एक जीव द्रव्यांका प्रदेस तीन तीन लोक प्रमान है । पन संकोच विस्तार शक्ति है। तातें कर्मके निमित्तकर सदैव शरीरका आकार प्रमान है। एक केवल समुद्घात पूरन समयमें तीन लोक प्रमान होय अन्यकालमें नेम कर शरीरके प्रमान रहे । अवगाहना शक्ति कर तीन लोक प्रमान आत्माका आकार शरीरकी अवगाहना दिवं समाय जाय । अरू Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । S 1 पुद्गलका आकार एक रुईका तारका अग्र भाग के असंख्यातवें भाग गोल षटकोन धरै है । अरु धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्यका आकार तीन लोक के प्रमान है । अरु आकास लोकालोक प्रमान है नांही वास्ते या सर्व व्यापी कहिये अरु काल अमूर्तीक पुद्गल सादृस्यकालानु धारे है । बहुरि जीव तो चैतन्य द्रव्य है अवशेष पांचों अचेतन द्रव्य हैं । बहुरि पुद्गल तो मूर्तीक द्रव्य है । बाकी पांचों अमूर्तीक द्रव्य हैं । बहुरि आकास लोक अलोक विषं सारे पावजे है । वा पांचों लोक विषे पावजे है । बहुरि जीव पुद्गल धर्म द्रव्यका निमित्त कर क्षेत्र सों क्षेत्रांतर गमनागमन करे है । अधर्म द्रव्यका निमित्त कर स्थित भी करे अरु जीव पुल विना अवशेष चार द्रव्य अनादि निधन ध्रुव कहिये स्थिर रूप तिष्टे हैं । बहुरि जीव पुद्गल तो स्वभाव विभाव रूप परनवे हैं । अवसेष चार द्रव्य स्वभाव रूप ही परनवें विभावतारूप नाहीं परनमें बहुरि जीव तो सुख दुखरूप परनमे हैं अवशेष पाचों सुख दुखरूप नाहीं परनवे हैं बहुरि जीव तो आप सहित सर्वका स्वभाव ताकों भिन्न भिन्न जाने है अवशेष पांचों द्रव्य आपको जाने न परको जानें बहुरि काल द्रव्यका निमित्त कर पांचों द्रव्य परन में है । अरु काल द्रव्य आपही कर आप परनवे हैं । बहुरि जीव पुद्गल द्रव्यका निमित्त कर रागादिक स्वभावरूप परनवे है । अरु पुद्गलका निमित्तकर जीव असुभभाव रूप परनवे है बहुरि जीव कर्माका निमित्त कर नाना प्रकारके दुखकूं सहे है । वा संसार विषे नाना प्रकारकी पर्यायकूं धरे है । अरु भ्रमन करे है अरु कर्मका निमित्त करही ज्ञान आक्षाया जाय है । ताहीको उपाधिक भाव कहिये है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ........... ....marriamarnamahamam a c0000 अरु कर्म रहित हूवा जीव केवल ज्ञान संयुक्त अनंत सुखका भोक्ता हो है । अरु तीन काल संबंधी समस्त चराचर पदार्थ एक समय विषे जुगपत जाने है । अरु दोई परमान आदि स्कंधकू असुद्ध पुद्गल कहिये है । अरु एकली परमानूने सुद्ध पुद्गलद्रव्य कहिये है । बहुरि तीन लोक पवनका वातविलाके आधार है,। अरु धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्यका सहाई कहिये निमित्त है। अरु तीन लोक परमानूनका एक महास्कंध नामा स्कंद है। ताकर तीन लोक जड़ रहा है । वे महास्कंध केताइक तो सूक्ष्मरूप हैं। केताइक बादर रूप हैं । ऐसा तीन लोकका कारन जानना यहां कोई कहे ताका कारन तो कहा पन ऐता तीन लोकका बोझ अधर से रहे । ताकू समझाइये है रे भाई ए नोतिषी देवांका असंख्यात विमान अधर देखिये है अर बड़ा बड़ा पखेरु अधर आकासमें उड़ता देखिये है । सो ये तो नीका बने हैं अरु वासुकीरानाके आधारलोक मानिये सो यह न संभवे । जो वासुकी विना आधार काहे पै रहे अरु जो कंदाच वासुकीकू औरके आधार माने तो यामें वासुकीका कहा करतव्य रहा अनुक्रमतें परंपराय आधारका अनुक्रम आया है । तातें यह नेम संभवै नाहीं पूर्व कहा सोई संभव है । ये छहों द्रव्यका रचना जाननी ये छहों द्रव्य उपरान्त और कोई नाहीं । अरु छहों द्रव्य मांहीसू एकको कर्ता नमानिये। तो बने नाहीं सो ये न्याय संभवै है । ऐसे ही अनुमान प्रमानमें आवै है । याही ते आज्ञा प्रधानीसे परिक्षा प्रधानी सिरे कहा है। अरु परिक्षा प्रधान पुरुषहीका कार्य सिद्ध होय है। ऐसे षट् मत विषे जुदा जुदा पदार्थों का स्वरूप कहा है। परन्तु Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । wnwe चुद्धिवान पुरुष ऐसे विचारे छहों मत विर्षे कोई एक मत. सांचा होसी । छहों तो सांचा नाहीं छहों में परस्पर विरुद्ध है। तातूं किसा आगमका आज्ञा मानिये सो यातो बनें नाहीं तासों परिक्षा करवो उचित है परिक्षा किया अनुमान बात मिलसी सोई प्रमान छ । सोई जो छहों मतमें कोई सर्वज्ञ वीतराग है। ताका मतमें पदार्थाका स्वरूप कहा छ सोई उनमें मिले है ताते सर्वज्ञ वीतरागका मत प्रमान है । और मतमें वस्तुका स्वरूफ. कहा है सो उन्मानमें तुलै नाहीं । ता अपमान है म्हारे तो रागद्वेषका अभाव छे । जैसा वस्तुका स्वरूप छा तैसा ही अनुमान प्रमान किया हमारे रागद्वेष होता तो मैं भी अन्यथा व्याख्यान करता रागद्वेष गया अन्यथा श्रद्धा। होय नाहीं जैमाने जैसा कहिये तो रागद्वेष नाहीं । रागद्वेष तो कहिये जो वस्तुका स्वरूप और अरु रागद्वेष कर कहे तो और सो म्हारे ज्ञानावरन कर्मका क्षयोपसम करि ज्ञान यथार्थ भया हैं । अरु मैं भी सर्वज्ञ हों केवल ज्ञानी सारसौ हमारो निजस्वरूप है। अवार चार दिन कर्माका उदय कर ज्ञानकी हीनता दीसे है । तो काई वो वस्तुका द्रव्यत्व स्वभावमें फेर नाहीं अब भी हमारे ज्ञान छे सो केवल ज्ञानको बीज छै । तातें म्हारी बुद्धि ठीक छे जामे संदेह नाहीं । ऐसा सामान्यपने पट मतका स्वरूप कहा आगे संसारी जीव चन्द्रमा सूर्य आदि देवकू तरनतारन माने है ताकू कहिये हैं ये चन्द्रमा सूर्य आदि जगतकों दीसे हैं। सो ये तो विमान है सो अनादि निधन सास्वता है। या ऊपर चन्द्रमा सूर्य अनन्ता होय गया चन्द्रमाका विमान सामानपने अठारासै कोस चौड़ा है। सुर्यका सौ कोस Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । चौड़ा है ! अरु ग्रह नक्षत्र ताराका विमान पांचसै कोस जघन्य सवासै कोस चौड़ा है । अरु आधा गोलाके आकार गोल है। अधोभागमें सकड़ा है ऊपर चौड़ा है । ये विमान पांचों ही जातिके जोतिषी देवनके हैं । रतनमई इन ऊपर नगर हैं जिनमें रतनमई खाई हैं । रतनमई कोट रतनमई दरवाजा रतनमई महल अनेक खन संयुक्त उंचा बड़ा विस्तारने लियां विमान विर्षे स्थित है। ता नगरमें असंख्यात देवांगना बसें हैं। ताका स्वामी ज्योतिषी देव हैं । बारा वरसके राजपुत्र पुत्री साहस्य मनुष्य कैसा आकार भोग भोगते तिष्टें हैं ऐता विशेष मनुष्यका शरीर हाड़ मांस लोहू मलमूत्र संयुक्त है ज्योतिषी देवका शरीर महां सुन्दर रतनमई सुगंधमई कोमल आदि अनेक गुनकर संयुक्त है । देवनके माथे मुकट है रतनमई वस्त्र पहरे हैं । वा अनेक रतनमई आभूषन पहिने वा रतनमई महां सुगंध पहुपनकी माला पहरें ताका शरीरमें क्षुधा तृषादि कोई प्रकारके रोग नाहीं। बाल दसावत आयु पनत देव देवांगनाकी एकसी दसा रहे है । भावार्थ- देवांके जरा न व्यापे है । बहुरि विमानकी भूमकामें नाना प्रकारकी पन्ना साहस्य हरयाली दीसे अरु नाना प्रकारके बन बावड़ी नदी तालाव कुंड पर्वत आदि अनेक प्रकारकी सोभा पाजे बहुरि कठे ही पहुप बाड़ी सोभे कहीं नव निधि वा चिन्तामन रतन सो) । कहीं पन्ना मानक हीरा आदि नानाप्रकारके रतन ताके पुंन सोमैं हैं । अरु अठे मध्यलोकमें बड़ा मंडलेश्वर राजा रान करे है । तैसे ही विमानमें जोतिषी देवराज करे हैं । ताका पुन्य चक्रवर्तसू अनन्तगुना अधिक है । ताका वनन कहां ताई कहिये Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Manparampan • २७८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ज्योतिषी देव भी असंख्यात वर्षका आयु पूरी कर चयें हैं सो मनुष्य वा तिर्यच आन उपजै हैं । सो ज्योतिषीदेव कोईने तारवा समर्थ नाहीं। सो आपही कालके बस औरांने कैसे राखें अरु कैसे औरांकी सहाइ करें सो वस्तुका स्वभाव तो ऐसे अरु जगतके. जीव भर्म बुद्धि कर मानें ऐसे सो चन्द्र सूर्यादिकका विमान आकासमें गमन करै है । सो बड़ा विमानसू या कहे है ये चन्द्रमा सूर्य गाड़ाके पैया समान है । अरु तारा कूड़ा समान है । सो म्हें चन्द्रमा सूर्यने प्रनाम करूं यह म्हांको सहाई करसी सो अज्ञानी जीवांके ऐसा विचार नाहीं । जो दोय चार कागदाकी गुद्दी आकासमें दोसै चारसै हाथ ऊंची उड़े है । सो भी नकसी कागला साढस्य दीसे तो सोला लाख कोस तो सूर्यका विमान ऊंचा है अरु सतरा लाख आठ हजार कोस चंद्रमाका विमान ऊंचा है अरु तारोंका विमान पन्द्रा लाख असी हजार कोस ऊंचा है। सो ऐती दूरसो गाड़ाका पैया समान वा. कूड़ाके प्रमान कैसे दीखती अरु ये आकास साहस्य हमारो भलो कैसे करसी और भी उदाहरन कहिये है सो देखो दोय तीन कोस वा पांच चार कोसका ऊंचा पर्वत धरतीमें नीचे तिष्ठे सो दस वीस कोस पर्यंत निजर आवे फेर न आवे । ऐसे इन्द्री ज्ञानकी ऐसी सक्ति है । तातै धनी दूर सों निर्मल दीखे नाहीं। केवल ज्ञान अवधि ज्ञान दूर प्रवर्ती सूक्ष्म वस्तु भी निर्मल दीसे है तो चन्द्रमा सूर्य ताराका विमान ऐसा छोय होय ऐती दूर सों कैसे दीसे यह नेम है । बहुरि कोई या कहे । यह जोतिषी देव ग्रह नक्षत्र है । अरु संसारी जीवाकू दुख देय हैं । सो जाने पूजा जाके अर्थ दान दिया सांतता होय है । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | 1 २७९ . ताकूं कहिये है रे भाई तेरे भरम बुद्धि है । ये जोतिषी देवांका विमान अढ़ाई द्वीपमें मेरुसूं दूर गोलके क्षेत्रमें प्रदक्षनारूप भ्रमन करे है। तो कोईका विमान तो शीघ्र गमन करे है कोईका मंद गमन करे है । ताकी चालकूं देख अरु वाकी चालकूं देख अरु वाकी चालवित्रे कोईका जन्मादिक हुआ देख विशेष ज्ञानी अगाऊ होतव्यता कूं बतावें हैं । जाका उदाहरनकू बतावें हैं । उदाहरन कहिये सामुद्रक चिन्हकूं देख वाका होतव्य बतावे तथा सोन असोंन बतावे तैसे ही होतंव्यता बतावे, आठ प्रकार के निमित्त ज्ञान हैं। तामें एक जोतिष निमित्त ज्ञान है। ये आठ प्रकारके निमित्त ज्ञान कोई ईति भीति करवाने समर्थ तो नाहीं । जो समर्थ होय तो पूजिये जैसे हिरन स्याल कलसई इत्यादिकका सगुन अगाऊ होतव्यताका बतावनेका कारन है । सोयाकों पूजिये तो काई होतव्यता मिटे कदाच न मिटे त्यों ही जोतिषी देवांने पूजवां ताका अर्थ दान दियां ईत भीत भी असमात्र मिटे नाहीं । उलटा अज्ञान ताकर महा कर्मका बंध होय ताकर विशेष दुख होय दुखका देवांवालानो असुभकर्म है सो जिनेश्वरदेवकुं पूज्या शान्ति होई और उपाय त्रिकाल त्रिलोक में नाहीं अरु जीवके भरम बुद्धि ऐसी है । जैसे कोई पुरुषके महा ī दावहै अरु फेर अनि आदि उनताका उपाय करे । तो पुरुष कैसे शान्तिता पावै त्यों ही मिथ्यात करतो जीव आगे ही ग्रसित हुआ अरु फेर मिथ्यात ही कूं सेवे तो कैसे सुख पावै । अरु कैसे याका कार्य होय बहुरि कोई महादेव कूं अजोनी शंभू मरन तारन माने है । अरु ताकर जग का नास मानें हैं । I Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - -~ ~ - ~ अरु याकू महा कामी मानें हैं सो कैसा कामी माने सोई कहिये है। महादेवका आधा शरीर स्त्रीका है आधा पुरुषका है। तासू याकानाम अगी कहिये ऐसो स्त्री सों रागी है । ताकू कहिये है रे भाई ऐसो दुष्ट सर्व सृष्टका मारवावाला अरु महां विरूप ऐसो पुरुष तारवा समर्थ कैसे होय । ताका नाम सुनता ही दुःख उपजै तो दर्सन कर कैसे सुख उपनै । यह जगतमें न्याय है जैसा कारन मिले तैसा ही कार्य निपजै ! सो उदाहरन कहिये है जैसे अग्निका संजोगसों दाह उपजे अरु जलका संजोगसों शीतल. ताही उपजें । अरु कुशीलवान स्त्रीका संजोगकर विकार भाव उपनै अरु शीलवान पुरुषका संजोगसू विकार भ व विलय जाय । अरु विषय कषाय कर प्रानका नास होय अरु अमृतका पीवांकर प्रानकी रक्षा होय । सिंह व्याघ्र हस्ती सर्प चोर आदिक संभोग कर भय ताप ही उपनै । अरु दय लु साधुननका संजोग कर निभै आनन्द ही उपनै । ऐसा नाहीं कि अग्निका संभोग कर तो शीतलता होय अरु जलका संजोग कर उस्नता होय । इत्यादिक जानना तासू हे भाई हम महादेवका असल निन स्वरूप जो है सो कहिये हैं सो ये महादेव कहिये रुद्र सो ये चौथा कालमें ज्ञारा (११) उपजे हैं। ताकी उत्पति कहिये है जो जैनका निर्ग्रन्थ गुरु अरु अर्जका ऐ दोऊ भ्रष्ट होय कुशील सेवें पाछे मुनि तो तत्क्षण ही प्रायश्चित्त लेय छे दोय स्थापन कर मुनिपदकू धर शुद्ध होय । अरु अर्जिकाकू गर्भ रहे । सो गर्भका निपात्त किया जाय नाहीं । ताते एक जायगा नव मास परत गर्भ बधाइ पीछे बालक भयो कोई स्त्री पुरुषने सोंप अर्जिका भी Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | २८१ पीछे वैसे ही दिक्षा धरे । अरु शुद्ध होय । पाछे वे बालक आठ दस वर्षका बड़ा होय तत्र याकूं न माय न बाप ऐसे लड़का बतलाइ हास्य करें | तब वह बालकजीके पले तीने जाय पूछें म्हारा माता पिता कौन है तब वे ज्यों का त्यों मुनि अर्जिकाका वृतान्त कहें। तब वह बालक आपना माता पिता मुनि अर्जिकाने जान वाही मुनि पास दिक्षा घरे - सो आगे तो मुनि अर्जिकाका वीर्य सों उपज्या तातें महा पराक्रमी था ही पाछे नाना प्रकार के मुनि संबंधी तपश्चरन कर अनेक रिद्ध फुरें वा अनेक विद्या सिद्ध होय पाछें केवली व अवधि ज्ञानी मुनि ताका मुख थकी या सुने यो महादेव स्त्री के संयोग कर मुनिपद भ्रष्ट होसी । पाछे यह महादेव पनि भ्रष्ट होवाका भय थकी एकान्त जायगा ध्यान धरे पाछे होनहारका जोग कर उठां ही विद्याधराकीं कन्या आवे तहां वे स्नान आदि कीड़ा करे । तब वे कन्या कहे हे का जाना हमारां पिता जाने । तब महादेव कहे थारा पिता परनावे तत्र भी थे परनोली तब उन कही परनसी तब ऐसो कौन -कराय वस्त्र दिया तब वे कन्या जाय अपने मातापिताने महादेव मुनिको सकल वृतान्त कहो । तब कन्याका माता पिता ने जानी यह महादेव महा पराक्रमी है । न परनायें तो महा उपद्रव करसी ऐसो जान कन्या परनाय पाछे वो महादेव सौ स्त्रीने भोगई सो महादेव महापराक्रमी है। सो महांदेवके वीर्यके तेज कर वे मर गईं । पाछें और भी राजपुत्री परन्या सो अनुक्रम कर सगली मर गई पाछे अन्त समय में एक पर्वतनामा राजाकी पुत्री पारवती परनी सोयाका भोग कर या टिकी सोई पारवतीने रातदिन चाहे Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २८२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । जबे भोगवे । कोईकी संका राखे नाहीं ताप्तों या विपरीतता सबै नगरका स्त्री पुरुष देखवा देस देसका राजा या बात सुन घनी दुखी हूवा अरु याका जीतवाने असमर्थ हुवा तातै निशेष दुखी पाछे पारवतीका माता पिता पारवतीने पूछी। तूने महादेवजीने पूंछथांसों विद्या कभी दूर रहे छे तब पारवती जानवेने पूछी. तब महादेव कही । एक भोग करती वार दुर रहे छे और कभी दूर न रहे है। ऐ समाचार पारवतीने पितासू कहा तब राजा परवत आपनी दाव जान महादेवने मारयो तब ईका इष्टदाता देव छानें नगरमें पीड़ा करी। अरु या कही म्हाका धनी थे मारया तव नगरका लोगा या कही मारो सो तो पीछो आवे नाहीं अब थे कहो सोही करो कब का व्यंतर देवां कही भग (योनि) सहित महादेवके लिंगकी पूजा करो तब पीड़ाका भय थकी नगरका लोग ऐसी ही आकार बनाय पूजा करवां लागा ऐसेही व्यंतरदेवांका भय थकी केताइक काल ताईं पूजता इवा पाछे गाड़री प्रवाह सारखो जगत है सो देखादेखी सारा मुलक पूजता हुवा सो वाही प्रवृत्त और चली आवे छे । अरु जगतके जीवांके ऐसो ज्ञान नाहीं जो मैं कौनने पूनों छों । अरु याको फल काई छै सो मिथ्यात्वकी प्रवर्ति विना चलाई चली आवे छै अरु धर्मकी प्रवर्ति चलाई चलाई चले नाहीं सो यह न्याय ही है । संसारमें तो घना जीवानें रहनों है अरु संसारसों रहित थोड़ा जीवाने होनों छै । अरु देखो स्त्रीका स्वभाव दगाबाज सो जगतके दिखावने ऐसी लज्या करे जो सरीरका आंगोपांग अंस मात्र भी दिखावे नाहीं। अरु माता पिता भाई Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3A 000 ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २८३ 2 आदिके देखता महादेवके लिंगकी अरु पारवतीकी भगकी चौहटे निसक पूजा करें । अरु काहूकी हटकी म नें नाहीं। सो यह बात न्याय ही है सर्व संसारी जीवाके विषयका आसक्तता तो स्वयमेव मोहकर्मका उदयकर विना सिखाई बन रहे है पाछे जामें विषय पोखया जाय ऐसा कोई बतावे धर्म तो वह क्यों न करे । पन ऐसा जीवाके ज्ञान नाहीं कि जामें विषय पोख्या जाय तामें धर्म कैसे होय जो विषय कषायमें धर्म होय पाप कौन बातमें होय सो यह श्रद्धान अयुक्त है । आगे और कहे हैं कृष्ण सृष्टिका कर्ता अरु परमेश्वर है अरु पाछे वाकू ऐसे कहे हैं । कृष्णनी ढोर चराया अरु माखन चोर खाया अरु परस्त्रीसू रमया परस्त्रीमें क्रीड़ा करी तासू कहिये हैं रे बड़ा महन्त पुरुष होय ऐसा नीच कार्य कभी न करे यह नेम है । नीच कार्य करे तो बड़ा पुरुष नाहीं कार्यके अनुसार पुरुषोंमें नीचपनों दीसे है । ऐसा नाहीं कि नीच कारज करें प्रभुता होय वा ऊंच कारज करतां प्रभुता घटे यह जगतमें प्रत्यक्ष दीखे हैं एक दोय गांवका ठाकुर होते भी ऐसा निन्द कार्य करे नाहीं । तो बड़ा प्रथ्वीपति राजा देव वा परमेश्वर होय कैसे करे यह प्रकृति स्वभाव है बालक होय तरुन अवस्था कैसा वा वृद्ध अवस्थाका कार्य न करै अरु तरुन. होय बाल वा वृद्ध अवस्था कैसा कार्य न करे । वा वृद्ध होय तरुन होय बाल अवस्था का कार्य न करै । इत्यादि ऐसे सर्वत्र जानना सो कृष्णनीका प्रभुत्व सक्तिका वर्नन जैन सिद्धान्त विर्षे .. . वर्नन किया है । और मतोंमें ऐसा वर्नन नाहीं। सो वह कृष्ण-... जी तीन खंडका स्वामी है अरु घनादेव विद्याधर अरु हजारां मुकट , Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । बंध राजा ताकी सेवा करें अरु कोटशिला उठावां सारखो यामें बल है। नाना प्रकारकी विभूति कर संयुक्त है । अरु निकट भव्य है। शीघ्र ही तीर्थकर पदको धर मोक्ष जासी सो भी रायराज अवस्था विर्षे नमस्कार करवो जोग्य नाहीं । नमस्कार करवा जोग्य दोय पद है। के तो निग्रंथ गुरुके केवलज्ञानी तासं मोक्षके अर्थ राजाने नमस्कार कैसे संभवे । और कृष्ननी गली गली में गोप्यां संयुक्त नाचता फिरा अरु वांसुरी बजावता फिरा इत्यादि नाना प्रकार क्रिया करी कहें सो कैसे हैं सोई कहिये है । भाईका सनेहकर बलभद्रनी स्वर्ग लोक सूं आप नाना प्रकारकी चेष्टा करी सो वह प्रवर्त चली आवे है । अरु जगतका यह स्वभाव है जैसी देखे जसी मानवा लाग जाइ नफा टोटा गिनें नाहीं सो अज्ञानताके बस जीव काई ये यथार्थ श्रद्धान न करै । अगे और कहे हैं कि ब्रह्मा विश्नु महेस तीनोंकी स्थापना छै तीन मिल सृष्टि रची है । कई या कहें हैं एक जोत छ तामाहि सों चोइन्द्री उतार निकस्या है कैई या कहें बड़ा बड़ी भई है कैई या कहै हैं कि चौवीस अवतार भये बतावे अरु चोईस पीर एकै कहै कहवा मात्र नामसंज्ञा है। पर वस्तु भेद नाहीं कैई गंगा जमुना सरस्वती गया गौमती इत्यादि सरताको तरन तारन माने हैं । कई तो पुष्कर प्रयाग आदिने तरनतारन माने हैं। कई गो आदिने तरन तारन माने हैं अरु गौ पूंछमें तेतीस कोट देव मानें कैई जल थल प्रथ्वी पवन वनसपति यानें परमेश्वरको रूप मानें कैईक भैरव क्षेत्रपाल हनूमान याने देव माने कैई गनेसने पारवतीको पुत्र माने अरु चन्द्रमा समुद्रको पुत्र मानें ऐसा विचारे नाहीं। जो गंगादि Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - - - - नदी जड़ अचेतन कैसे तारसी अरु गाय तिर्यंच कैसे तारसी अरू ताकी पूंछमें तेतीस कोड़ देव कैसे रहसी अरु पार्वतीके हाथी पुत्र कैसे भयो अरु समुद्र तो एकेन्द्री जल ताके चन्द्रमा पुत्र कैसे होसी । केईक हनूमानकों पवनका पुत्र बतावें सो एकेन्द्री पवनके पंचेन्द्री महापराक्रमी देव सारखा मनुष्य कैसे होसी यह हनूमान ही पवनंजयनामा मंडलेश्वर राना ताको पुत्र है । या बात संभवे है और बाल सुग्रीव हनूमानादि बांदर वंसी महापराक्रमी विद्याधर राना हैं । सो इनको पसु रूप बनावे सो इनके असी हजार विद्या हैं । ताकर अनेक अचरजकारी चेष्टा करें कैईक या कहें ये तो बांदर हैं सो ऐसा विचारें नाहीं कि तिर्यंचके ऐसा बल पराक्रम कैस होसी अरु संग्राममें लड़वाका वा रामचन्द्रादि रानान मूं बतलावाका ज्ञान कैसे होसी अरु मनुष्यन कैसी भाषा कैसे बोलसी अरु ऐसे ही रावनादि राक्षकवंसी विद्याधरोंका राजा अरु ताकी राक्षसी विद्या आदि हजारों विद्या ताकर बहु रूप बनाय नाना भांतिकी क्रीड़ा करे ताकू कहें ये राक्षस हैं अरु कोई या कहे कनककी लंका सो हनुमानने अग्नि सुं जारी ऐसा विचारे नाहीं सुवर्ण की छी तो अग्नि सो कैसे जरी अरु कोइ या कहे है कि. वासुकी राजा धरती फनपे धरै है अरु यह धरती सदा अचल है। अरु सुमेर भी अचल है परन्तु कृष्नजी सुमेरकू राई कीनी अरु वासुकी राजाको नोतो कियो अरु समुद्र मथो तामें सूं लक्ष्मीको स्तंभ मनि पारजातक कहिये फूल सुरा कहिये मदरा धनंतर वैद्य चन्द्रमा कामधेनु गाय ऐरापति हाथी रंभा कहिये देवांगना सात मुखको ओडो अमृत धनुष पंचायन संख विष ये चौदा रत्न काढ़या सो Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ऐसा विचारे नाहीं । वासुकी राजाने धरती तलेसू काड़ लियो जब धरती कौनके आधार रही अरु सुमेर उखारो तब सास्वतो क्यों रहो अरु चन्द्रमा आदि चौदा रत्न अब ताई समुद्रमाहीं छो ता चन्द्रमा विना आकासमें गमन कौन करै छो अरु चांदनी कौनकी छी अरु ऐकै रोज आदि पन्द्रह तिथि वा उजालो अधयारो व महीनो वरष याका प्रवर्त कौंन छी अरु लक्षमी विना धनवान पुरुष कैसे छा सोतो ए प्रत्यक्ष ही विरुद्ध सो सत्य कैसे संभवे और कैई कहे हैं । कोई राक्षस धरतीने पातालमें ले गयो पाछे वारह रूप ध र पृथ्वीका उधार किया सो ऐसा विचार नाहीं जो यह पृथ्वी सास्वती तो राक्षम हर कैसे ले गयो कोई जा कहे सूर्य तो कास्यप रानाको पुत्र छे । अरु बुन्हि चन्द्रमाको पुत्र छै अरू शनीचर सूर्यको पुत्र छे अरु हनूमान अंजनीकुमारके कानकी आड़ीमें हो जन्मा अरु दोपदीकू कहे यह महा सती है परन्तु याके पांच पांडव भरतार हैं । सो ऐसा विचारे नाहीं के कास्यप राजाके ऐते मनका विमान गर्भ में कैसे रहसी अरु ये चन्द्रमा सूर्य तो विमान हैं ताके शनिचर वा बुद्धि कैसे होसी अरु कुमारी स्त्रीके कानकी आड़ी पुत्र कैसे होसी अरु द्रोपदीके पांच भर्तार हुवा तो सतीपनो कैसे रहो सो ये भी प्रत्यक्ष विरुद्ध सो या बात सत्य कैसे होती इत्यादि भर्म बुद्धि कर जगत भरम रहा है। ताका वर्नन कहां ताईं कहिये सो या बात न्याय ही है । संसारी जीवांके भर्म बुद्धि न होय तो और कौनके होय कोई पंडित ज्ञानी पुरुषांके तो होवे नाहीं अरु ऐसे ही भरम बुद्धि पंडित ज्ञानी पुरुषांके होय तो संसारी जीवमें अरु पंडितोंमें विशेष काई धर्म छे Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - लोकान्तर छ। भावार्थ-लोककी रीतिसो धर्मकी प्रवृति उलटी है। लोककी प्रवृतिले अरु धर्मकी प्रवृत्तिके परस्पर विरुद्ध है। ऐसा जानना और भी आगे जगतकी विटंबना दिखाइये है। कैईकतो बड़ पीपर आंबरी आदि नाना प्रकारके वृक्ष एकेन्द्रि वनस्पति ताकू मनुष्य पंचेन्द्री होय पूजे हैं। अरु पूजवांका फल चाहे सो घनो फल पावसी तो पंचेन्द्री सों एकेन्दी होसी सेो यह जुक्त ही है । जो कोई हजार रुपयाको धनी है कोई वाकी घनी सेवा कर अरु वह घना संप्ट होय तो हजार रुपया दे घाले किछू और बध देवाने समर्थ नाहीं त्यों ही एकेन्द्रीकी पर्यायसों मर एकेन्द्री होसी अरु गाय हाथी घोड़ा बलद याने पूज्या या सारखा होसी सिवाय फल तो किछू मिले नाहीं । घट ही भले मिले, कैई लकड़ीके लत्ता लगाय गाड़े पाछे ईंधन चोर चोर काट छेना भेला करे ताईं माता कह पूजें बहुरि अग्नि कर जलावे महा बुरा गीत गावे माथामें धूल घाल विपरीतरूप नाचे मद खाय मदोन्मत्त होय काम विकाररूप प्रवर्ते माता मोसी बहिन भोजाई सब लान न करें अरु आप नाना प्रकार परकी मार खाय पेशाने धूल पानी कीच कर मारें । अरू गर्धवकी सवारी करें । अरु हर्षित होय काकी भोजाई वा छोटा भाईकी स्त्री इत्यादि परस्त्रीनमें नाना प्रकारकी क्रीड़ा करें। अरु कामचेष्टा कर आकुल व्याकुल होंय महा नर्कादिक पापने उपार्ने अरु आपकू धन्य माने अरु फेर परलोकमें ऐसा पाप कर शुभ फल चाहें ऐसे कहें म्हें होली माताने पूनां छां सो म्हांने आछो फल देसी ऐसी विटम्बना जगतमें आंखा देखिये है। सो ऐसा विचार संसारी जीव करें नाहीं । सो ऐसा महा पाप Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । mmmm कार्य कर आछो फल कैसे लागसी सो यह होली कौंन छै । सो होली एक साहूकारकी पुत्री छी सेो दामीका निमित्तसू पर पुरुषसो रति हुई सो वह पुरुषसू निरंतर रमे पाछे होलीने अपने मनमें विचारी जो जा बात और तो कोई जाने नाहीं दासी जानें है। सेो या भी कहीं कह देसी तो हमारो जमारो खराब होसी तातै दासीने मार नखों ऐसेो सो विचारकर पाछे ईने अनिमें जलाय दीनी सो दामी मर व्यंतरी हुई पाछे व्यंतरी अवधिकर पूर्वलों सारो वृतान्त जानों तब यह महा क्रोधकर नगरका सारा लोगांने रोग करि पीड़ित किया पाछे वेनगरके लोग वीनती करी जो भाई कोई देव होहु तो प्रगट होहु जो थे कहो सोई करतव्य करें तब जा प्रगट हुई अरु सारो पाछलो होलीको वृतान्त कहो तब नारके लोगां कही अब थें सबने आछा करो तूं कहे सो म्हें सब मिल करसी तक देवी इनकू नीका कर कही काठकी तो होली बना और घास फूस लगाय बाल द्यो सब मिल जाके अपवाद गावो अम याकों भाड़ करो अरु मांथे धूल घाल नाचो अरु जाकी वरस प्रति स्थापना करो तब वे भयका मारा नगरका लोग ऐसे ही करता भया सो जीवानें ऐसी विषय चेष्टा नीकी लागे ही तापर यह निमित्त मिल्या सर्व करवां लागा बहुरि सर्व देसोंमें फैल गई। सो अवारही चली आवे है । ऐसा जानना ऐसी गनगोर दिवाली राखी सांझी इत्यादि नाना प्रकारकी प्रवृति जगमें फैली छै ।। ताका निवारवाने कोई समर्थ नाहीं । और भी जीवांकी अज्ञानसाका स्वरूप कहिये है । जो शीतला वोहरी आदि शरीर विर्षे Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | - २८९ - - - - - लोहूका विकार है । तासूं अज्ञानी जीव कहें यह तो देवकी सक्ति उपजी है । इसी बुद्धि कर वाकू पजे पाछे पूजता पूनता ही पुत्र पुत्री मर ज य अरु कैई न पू तिनको जीवता देखिये है । तो भी अज्ञानी जीव वान देव ही माने और कहीं ए छादना कीलारोड़ी चाकी पनेड़ी दहेड़ी पथरवाड़ी गायकी वादनी दवात वही कुलदेवी चौथ गांज बीज अनन्त इत्यादिक धनी ही वस्तुने अनुराग कर पूजें हैं । अरु सती अउत पितर इत्यादिक कुदेवाका कहां ताई वर्नन करिये अब सर्व कुदेव तिनका सर्व पूजवांवाला तिनका कौन बुद्धिवान पंडित वर्नन कर सके एक सर्वज्ञ जानवाने ममर्थ छ । मो जा जीवने अज्ञान ताका बस कर वा लोभ दृष्टि कर कांई काई खोटा कार्ज करै और कौन कौन पर दीनता न भाषे अरु कौन कौन या मतमें मस्तक न धारे सो अवश्य नवावे ही नवावे सो यह मोहका महात्म है। अरु मोह कर अनादि कालको संसार विषं भ्रमे हैं । अरु नर्क निगोदादिकका दुख सहे है । त्या दुखको वर्नन करवां समर्थ श्री गनधर देव भी नाहीं । तातों श्री गुरु परमदयालु कहें हैं हे भाई हे पुत्र जो तू अपना हितने वाझं महा सुखी हूवा चाहे तो मिथ्यात्वका सेवन तन घनी कहवां कर काई विचक्षन पुरुष तो थोड़ामें ही समझ जाय अरु जे धीर पुरुष हैं त्यारने चाहे जितनो कहो वे एक भी न मांने सो यह न्याय ही है जैसी जीवकी होनहार होय तैसी ही बुद्धि उपनै । ऐसे संक्षेप मात्र कुदेवादिकका वर्नन किया आगे कुधर्मका वर्नन कहिये है। कुधर्म कोने कहिये जामें हिंसा झूठ चोरी वुशील परिग्रहकी वांक्षामें धर्मस्थामें और दुष्ट जीवं कू वैरयाकू सनम Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ज्ञानानन्द श्रावकाचार | करानी अरु भगताकी सहाई करनी अरु रागद्वेष रूप प्रवर्ति अरु अपनी बड़ाई परकी निन्दा ऐसा ज में वनन होय । पांचों इन्द्रियांके पोषनमें धर्म जानें । अरु तालाब कुआ बावड़ी आदि निवा नवा बागादि बनावनेमें धर्म माने अरु श्राद्धका करवामें अरु रात्रिभोजन करवा विषे धर्म माने अरु जग्य करवा वि धर्म माने ताका ना विर्षे वनन होय अरुयों कर प्राग आदि तीर्थका करवा विषे अरु विषय कर आसक्त नाना प्रकारके कदेव ताका पूनवां विषं धर्म मानें ताका जा विषं वर्नन होय अरु दस प्रकारका खोटा दान ताका व्योरो स्त्री दासी दासको दान हाथी घोड़ा ऊंट ऐमा बलध गाय मेंस अरु धरती ग्राम हवेली बहुरि छुरी कटारी बरछी तरव.र लाठी राहु केतु गृहके निमित्त लोह तिल तेल वस्त्रादि देना अरु गाढ़ा रथ वहल आदिका देना दंड वा रूपा सोना आदि धात वा ताका गहने बनाय देना काकड़ी खरबूनादिक फलका देना मरा सकरकंद सुरन आदि कंदमूलका देना अरु नाना प्रकार हरित कायका देना अरु ब्राह्मन भोजन करावना बहुरि कुल आदिन्यानकू निवावना लाहन आदिकका करना इत्यादि अनेक प्रकारके खोटा दान हैं । ताका जामें वर्नन होय या न जाने कि ये दान पापका कारन हैं । हिंसा कषाय विषयकी आसक्तता वा तीव्रता या दान दिया होय छे । तातें ये दान पापका कारन छै जाका फल नर्कादिक है और जामें अंगार गीत नृत्यादि अनेक प्रकारकी कला चतुराई हावभाव कटाक्ष जामें ताका वर्नन होय अरु वस्तुको स्वरूप और भांत अरु कहै और भांत ऐसा अनथार्थ पार्थमें बनन होय इत्यादि जीवको भव भवमें दुखके कारन ताका जामें दन । होसी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानगनन्द शावकाचार । A - - ~ - ~ ~ - ~ परमार्थका किछू कथन नाहीं । ऐसे शास्त्रका नाम कुशास्त्र है सो या शास्त्रकू सुन्यां अरु मान्यां जीवका नेमकर बुरा ही होय भला अंसमात्र भी नाहीं । ऐसे कुशास्त्रका स्वरूप कहा आगे कुगुरांका स्वरूप कहिये है । सो कैसे हैं कुगुरु कैईयक तो परिगृही ह कैईक महाक्रोधी हैं, कैईक महामानी हैं, कैईक महा मायाचारी हैं कैईक महां लोभी हैं, कई महां कामी परस्त्री भोगता सके नाहीं । बहुरि कैसे हैं कुगुरु कैई पंचानकर घना जीव बारें हैं। कैईक अनछाना पानी सूं सपड़ धर्म माने हैं । कैईक सारा शरीरकू खाक लगावें हैं । कैई जटा बधाबें हैं कैईक ठाड़ेस्वरी कहिये एक वा दोय हाथ ऊंचा किये हैं। कैईक अग्नि ऊपर ओंधा मुख किये हैं कैईक ग्रीष्म समय बालू रेतमें लोटे हैं कैई झझार कंथा पहरे हैं । कैईक बाघंवर धारें हैं । कैईक तिलक छापा धारे हैं। कैईक लंबी माला गले धारें कैईक खै का रंगा वस्त्र धारें । कईक स्वेत वस्त्र धारे हैं कैईक लाल वस्त्र धारें हैं । कैईक कटाटई धारें कई घासका कपड़ा धारें कईक मृगकी चाम धारें हैं । कैईक सिंहकी खाल धारे हैं। कैईक नग्न होय नाना प्रकारके वस्त्र धारें हैं । कैईक बनफल खाय हैं कैईक कूकरा आदि तियच राखे हैं। केईक मौन धारे हैं कैईक पवन चढ़ावें हैं कैईक जोतिस वैद्यक मंत्र यंत्र तंत्र करे हैं । केईक लोकनको दिखावनेके लिये ध्यान धारें हैं । कैईक आपकू महन्त माने हैं कैईक आपकू सिद्ध माने हैं । कैईक आरकू पुजाया चाहें कैईक राजादिकका पूज्या थका रानी होय हैं। कैईक न पूजे तापर क्रोध करे कैई कान फड़ाय भगुआ वस्त्र धारें कैईक मठ बंध है Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - vvvvvvvvv.. लाखों रुपैयाकी दौलत राखै हैं । अरु गुरुकी ठसक राखे हैं अरु भोला जीवोंने पगां पड़ाव हैं। इत्यादि नाना प्रकारके कूगुरु पाईये है । ताळू कहां ताई कहिये । और जुगति कहिये है। जो नंगा रहें कल्याण होय तो तिर्यंच सास्वता नंगा रहे हैं याका कल्यान क्यों न होसी जासों यथार्थ प्रतीत विना सर्व निर्फल है। जैसे एका विना बिंदी कामकी नाहीं और श्रीगुरु कहें हैं हे पुत्र तूने दोय बापको बेटो कहे तो दुख लगे। अरु दोय गुरु थारे कहे तो रंचमात्र भी दुख न लहै । सो माता पिता काइ स्वारथका सगा अरु बामुं एक पर्याय का सम्बन्ध ताकी तो प्यारे ऐसी ममत्व बुद्धि छै । अरु सुरु जाका सेवन जग मरनका दुख विलय जाय अरु स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति होय ताकी तुम्हारे या प्रतीत तासूं थारी परनति थाने दुखदाई नाहीं। तासूं गो तूं अपना हितने बांक्षे छै तो एक सर्वज्ञ वीतराग जो निनेश्वर देव ताका वचन अंगीकार कर अरु ताके बचनके अनुसार देव गुरू धर्मका श्रद्धान करि । इति कुदेवादिक वर्नन संपूर्ण भया । ॥ इति श्री पं० रायमल्लंजी कृत श्रीज्ञानानंद श्रावकाचार ग्रन्थ संपूर्ण । शुभं मंगः ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबोध रत्नाकर कार्यालय (सागर)में मिलने वाली पुस्तकों का सूचीपत्र। आदिपुराण (महापुगण पूर्ण) बड़े टाइप औ' मूल्य १६) हरिवंशपुराण-(जैन रामायण) पक्की जिल्द और मूल्य ६ भारतवर्षीय दि० जैन डारेक्टरी, मूल्य ८) रत्नकरण्डश्रावकाचार मूल्य ५) पद्मनंदिपच्चीसी मूल्य ५) ज्ञानार्णव पक्की जिल्द और मूल्य ४) स्याद्वादमंजरी संस्कृत और भाषाटीका सहित मूल्य ४) आराधना-कथाकोष-ट० ११६२, मूल्य सिर्फ ४) जैन संप्रदायशिक्षा-पक्की निल्द मू. ३॥1) अर्थ प्रकाशिका-उत्तम छपाइ, मोटे कागन और ३॥) प्रवचनसार-भाषाटीका मू. ३) । पुण्यास्रवकथाकोष-पृष्ठ ३ ४ ० मू० ३) सागारधर्मामृत (पं० आशाधरकृत पूर्ण ग्रंथ) मू० २॥) नाटक समयसार-मू० २) धर्मप्रश्नोत्तर (श्री सकलकीर्तिकृत ) मू० :) श्रेणिकमहारानका बृहत् जीवनचरित्र-मू, सिर्फ १॥) पाण्डव पुराण-छन्दबद्ध २) चारुदत्त चरित्र मू० १) क्रियाकोष- मू० १) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) दयानंदछलकपटदर्पण-(आर्यममाजका खंडन ) २) पुरुषार्थसिद्धयुपाय-भाषाटीकासहित । मूल्य १) पंचास्तिकाय-मूल्य २) सप्तभंगीतरंगिणी-भाषाटीकासहित । मू० १) बृहद्र्व्यसंग्रह-भाषाटीका । मू० २) गोम्मटसार-मूल्य जीवक ण्ड २॥) कर्मकाण्ड २) त्रिलोकसार-(भाषाटीका) पक्की जिल्द मूल्य ५॥) लब्धिसार (क्षपणासारगर्भित) मूल्य १॥) परमात्म-प्रकाश भाषाटीकासहित मूल्य ३) निनशतक-मूल्य ) तत्वज्ञानतरंगिणी-हिन्दी भाषाटीका मू० १॥) आत्मपबोध-हिन्दी अनुवाद मू० २।।) सुभाषितरत्नसन्दोह-भाषाटीका । मू० २॥) योगसार-भाषाटीका मूल्य २) परमाध्यात्मतरंगिणी-भाषावचनिका । मूल्य ३॥) मकरध्वनपराजय-हिन्दी अनुवाद । मू० ॥-) आराधनासार भाषाटीका-मू० १।) जिनदत्तचरित-मू. १) संस्कृत-प्रवेशिनी-मू० २) धर्मरत्नोद्योत-कविताग्रन्थ । मू० १). जैनबालबोधक-प्रथमभाग मू० ।) द्वितीयभाग |) भाषानित्यपाठसंग्रह-मू०|-) पंचपरमेष्ठीपूजा-मू० ।) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) त्रैवर्णिकाचार - मराठी टीका मू० ३) पंचाध्यायी - भाषाटीका सहित पक्की जिल्ड मू० ५ |) ज्ञानानंद श्रावकाचार - मू० १॥ ) भक्तामरकथा - मूल्य १ ) चन्द्रप्रभचरित - हिन्दी अनुवाद । मूल्य १) नेमिपुराण - हिन्दी में अनुवाद | मू० २ ) सम्यक्त्व - कौमुदी - मू० १ =) सुदर्शन चरित्र - मू० ॥ -) यशोधरचरित - मूल्य |) पवनदूत - हिन्दी अनुवाद | मू० !! श्रेणिकचरितसार - =) सुकुमारचरितसार-)|| अकलंकचरित्र - मूल्य =) नागकुमारचरित्र - मूल्य 1 ) चौवीसठाणा - चर्चा चौबीस दण्डकसहित । मूल्य || ) नियम पोथी ) || हिन्दी कल्याणमंदिर - 1 छहढालासार्थ-=) हिन्दी भक्तामर -- - ) | कर्मदहन विधान - मू० पांच आने अनुभवानन्द - अध्यात्म ग्रन्थ मू० ॥ सुशीला उपन्यास - मू० १1) गृहस्थ धर्म - मू० १ =) समयसार - शीतलप्रसादजी कृत | टीका मू० २ || ) दशलक्षण धर्म मू० (-) सोलहकारणधर्म मू० 1 ) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालचरित नंदीधरत्रतका अपूर्व मह त्म्य मू० ॥ महावीरचरित हिन्दी अनुगद मू० १॥) भारत दि० जेनयात्रादर्पण मू० २) धर्मसंग्रहश्रावकाचार भाषाटीका मू० २) जम्बूस्वामी चरित) षट्पाहुड़ मू. १) वसुनंदिश्रावकाचार मु० ॥) परमात्मप्रकाश मू० -) पुरुषार्थसिद्धयपाय भाष टीका मू: ।) आप्तपरीक्षा भाषाटीका मू० ।-) जैन तीर्थयात्रा विवरण नकशा सहित मू० /-) समयसार नाटक भाषाटीका सहित मू• २॥ सत्यार्थयज्ञ मू० ॥ संशयतिमिरप्रदीप (तेरहपंथका खण्डन) मु.॥ मनमोदन पंचशती मू० १०) सिद्धक्षेत्रपूनासंग्रह मू० ॥) पञ्चमंगल सार्थ मू० =) . पूनाविधानसंग्रह मू1) अठारहनाते मू० -) इन्द्रियपरानय शतक मूल और हिंदी अनुवाद मू० ) कल्याणमंदिर स्तोत्र मू. 1) मोक्षमार्गकी कहानियां मू०/-) बालबोधजैनधर्मशिक्षक प्रथम भाग - ॥, द्वितीयभाग - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) देवदर्शन मू० ) पंचामृत प्रक्षाल अर्थसहित मू० -)। प्रतिष्ठामारोद्वार मू० १॥-) तीसचौबीसी पाठ पं. वृदावनजीकृत मू० ३) परीक्षामुख भाषाटीका ।) हिंदी भक्तामर और प्राणप्रिय काव्य मू: - गिरनार-महात्म्य ||-) बालबोध जनधर्म प्रथम भाग)।, द्वितीय भाग -', तृतीय भाग-), चतुर्थ भाग ।-, सीताचरित-) प्रद्युम्नचरितसार ।) द्वादशानुप्रेक्षा ) यशोधरचरित भाषाटीका २) तेरहद्वीप पूनाविधान २॥) प्राचीन जैनइतिहास पहला भाग मू० ॥1) श्राविकाधर्म ) धन्यकुमारचरित्र ) पंचकल्याण विधान पं बखतावरलालकृत मू० ।-) जैनार्णव । १०० पाठों का संग्रह । मू० १) जैनसिद्ध न्त संग्रह-१०० विषयोंका संग्रह मू० १॥) सम्मेदशिखर महात्म्य -(पूनन विधान) मू० ।) आत्मानुशासन-पक्की निल्द २) चौवीसीपाठ मूल्य १८) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जिनेन्द्र पंचकल्याणक-मूल्य -) जैनपदसंग्रह पहला भाग-मू० =) जैनपदसंग्रह दूसरा भाग-मू० ।) . जैनविवाहविधि-मू० ) तत्वार्थसूत्रकी बालबोधिनी भाषाटीका-मूल्य ||-) दर्शनकथा-भारामल्लनीकत मू० साढे तीन आने दर्शनपाठ मू० -) भक्तामर और तत्वार्थसूत्र-मू० ) दानकथा- चार दानकथा) मू० ) द्रव्यसंग्रह-मू० पांच आने । द्यानतविलास-(धर्मविलास ) मू० १) निशिभोजनकथा-मू० ) निर्वाणकाण्ड-मू० ) नित्यनियमपूजा संस्कृत तथा भाषा-मू० ।) नियमसार-भाषाटीकासहित मू० २) । नेमिचरित-मूल्य ।) त्रेपन क्रिया विवरण -)11) न्यायदीपिका-मू० ॥) पार्श्वपुराण-मू० १) प्रबचनसार परमागम-मू० ११) भक्तामरस्तोत्र सार्थ मूल्य |-) भाषापूनासंग्रह-मू० ॥2) समाधिमरण और मृत्युमहोत्सव-मू० ।। मोक्षमार्गप्रकाशक-मू०१॥) रत्नकरंड श्रावकाचार सान्वयार्थ-मू० ) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) विनती संग्रह-मू० ।) वृन्दावन-विलास-मू० ) सामायिक पाठ और आलोचनापाट-मू० एक आना । सूक्तमुक्तावली मूल्य छह आना । ज्ञानसूर्योदय नाटक-मु० ॥ शत्रुनय पूजनादि गुटका -) जिनगुणगायनमंजरी ।) रविव्रत कथा -) सल्लेखना-मृत्युमहोत्सव ।) दीपमालिका विधान (दीवाली पूजन) -) बृहतस्वयंभूस्तोत्र (अर्थ सहित) ॥) बुधजन सतसई 1-) महावीर चरित्र (पूजन सहित) - ॥ जैन उपदेशी गायन (प्र० भाग) - द्वि० भाग 2) प्रातःस्मरण मंगल पाठ ) जैन स्त्रीशिक्षा प्र. भाग -)। द्वी. भाग =) श्राविका धर्म -) जैन नित्य पाठसंग्रह (रेशमी गुटका) ।। प्रभंजन चरित्र ) धर्मचर्चा संग्रह |) आराधना स्वरूप ।) केवल संस्कृत ग्रन्थ लघीयस्त्रयादिसंग्रह मू० (-) सागारधर्मामृत मू०/-) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) आचारमार-1-) त्रिलोकसार - १ |II) तत्त्वानुशासनादिसंह - मू० ||| - ) अष्टमस्री - मु० ३) विश्वलोचनकोश - मू० १ =) गोम्मटसार जीवकाण्ड मूल और संस्कृत छाया मू० =) सर्वार्थसिद्धि - २) तत्त्वार्थ राजवार्तिक मू० ४ || ) श्लोक वार्तिकालंकार - मूल्य ४ ) औषधिदान. चार प्रकारक औषधदान प्रधान । प्राण तो देय सब अभय अशन अरु ज्ञान ॥ "सागर में एक पारमार्थिक दिगंबर जैन औषधालय करीब २ सालसे स्थापित है इस औषधालय से सैकड़ो रोगी रोगसे निर्मुक्त हो रहे हैं जिन भाईयों को दवाइओंकी आवश्यकता हो निम्नलिखित पते पर रोगका नाम निदान आदि लिख कर मगा सकते हैं उनको सिर्फ डाक महसूल और पेकिंग खर्च देना पड़ेगा । इसके सिवाय जो महाशय औषधि दान करना चाहें अर्थात् सहायता देना चाहें वह भी इस पते पर सहायता प्रदान करें । पता - मंत्री जैन औषधालय, ठि० सदूबोध रत्नाकर कार्यालय-बड़ाबानार, सागर (सी० पी० ) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबोध रत्नाकर सिरीज़। 1. ज्ञानानंद श्रावकाचार-मूल्य 1 // ) 2. जैन सिद्धांत संग्रह-इसमें 100 पुस्तकोंका संग्रह है। ए. 400 मूल्य 1) 3. प्रद्युम्न चरित्र-श्री कृष्णाजीके ज्येष्ठ पुत्र प्रद्युम्न कुमारका संक्षिप्त चरित्र है। भाषा सरल और सुंदर है मूल्य ) 4. सीता चरित्र-इसकी भाषा सरल और मनोहारि है। प्रत्येक स्त्रीको एकवार अवश्य पढ़ना चाहिए / मूल्य 3) 5. द्वादशानुप्रेक्षा-बारह भावनाका वर्णन। मूल्य 1-) 6. बालशिक्षा-इसमें इष्टछत्तीसी, आलोचना पाठ, पंचकल्याणक पाठ और छः ढालाका संग्रह है। मूल्य ) 7. जिनगुणगाथनमंजरी--मूल्य / ) मिलनेका पता मूलचंद्र मैनेजर सबोध रत्नाकर कार्यालय बड़ाबाजार, सागर-(सी. पी.)