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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । . १४४ ~ ~ ~ ~ ~ वा दुरबीन पदार्थाका स्वरूप छोटा बड़ा दीसे इत्यादि स्वरूप विप जानना । अरु सम्यक् ज्ञान हुआ वस्तूका स्वरूप जैसे जिनदेव देष्या है । तैसे ही सरधान करने में आवे । तातें पदार्थका स्वरूपका जानपना भी सम्यक् ज्ञानीके ही संसै विमोह विभृम रहित है। बहुरि संसे विमोह विभृमका स्वरूप कहीये जैसे चार पुरषां सीपके पंडका अवलोकन किया । सो एक पुरुष तो ऐसे कहने लागे न ज ने सुवर्न है न जाने रूपा है ताको संसो कहिये । बहुरि एक पुरुष ऐसे वहते भये यातें सीपका खंड है । ताको पूर्व प्रदोष रहित श्रुद्ध वस्तुका स्वरूप जैसा था तैसा ही जानपनाका धारी कहिये । त्यों ही सप्त तत्वके जानपना विर्षे वा अपर की जानवा विर्षे लगाय लैना सोई कहिए है। आत्मा कौन है वा पुगल कौन है ताको संप्तो कहिये बहुरिमें तो ररठा ही ही ताको बिमोह कहिये । बहुरिमें वनुक्षु ताको विभ्रम कहिये । बहुरिमें चिद्रूप आत्मा हूं ताको समयक् ज्ञान कहिये । मुखसो कहना ती माफिक मन वि धारना होय सों मनका धारन जैसा जैसा होय तैसा तैसा ही ज्ञान वाको कहिये है। ऐसे सभ्यकज्ञान का स्वरूप जानना। सम्यकज्ञान सम्यकदर्शनका सहचारी है । सहचारीका साथ ही विरले लाग्या है वा विना नाहीं होय । ताके उदै होता वाको भी उदै होय । वाका नास होते उनका भी नास होय । .ताको सहचारी कहिये । सो सम्मकदर्सना । होते सम्यकज्ञान भी होय । सम्यकदर्शनके नास होने सम्यकज्ञानका भी होय । सम्यकदर्शन विना सम्यकज्ञान होय नाहीं। सम्यकदर्सन सम्यकज्ञानको कारन है । ऐसे सम्यक
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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