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ज्ञानानन्द श्रावकाचार |
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आगे सम्यक ज्ञानका स्वरूप कहिये है । सो ज्ञान ज्ञेयके जाननेका नाम है। सो ज्ञानावर्नी दर्शनावन के क्षपोपसमतें जाननें । सम्यक्त सहित जानपनाको सम्यकज्ञान कहिये । सो मिथ्यातके उदै सहित जानपनाको मिथ्याज्ञान कहिये। यहां ज्ञान विषें दर्शनको गर्भित जानना | सामान्यकर दोन्याको समुदायको ज्ञान ही कहिये । सो सप्त तत्व जानपना विर्षे संसय विमोह विभ्रम होय ताको मिथ्या ज्ञान कहिये और उत्तरोत्तर पदार्थ वा अजथार्थ वा जाने तो वाके जान्याने ते समकित नाम वा मिथ्या नाम पावै नाहीं । तातें सप्त तत्व झल पदार्थका जानपना संसै विमोह विभ्रम कर रहित होय सम्यक ज्ञान नाम पावै है । अरु निश्चे विचारता मूल सदा तत्वका स्वरूप जान्या विना उत्तरोत्तर तत्वका स्वरूप जान्या जाय नाहीं कारन विपर्जे भेद त्रिपर्जे स्वरूप जेर कसर रह जाय । जैसे कोई पुरुष सोनाने सोना कहे है । रूपाने रूपा कहे है | पोटा परा रूपैयाकी परीक्षा करे है । इत्यादि लोकीक विषे घना ही पदार्थाका यथार्थ स्वरूप जाने हैं। परंतु कारन विप है । मूल कृत याका पुरकी परमानू चाहे । ताको जानता नाहीं । कोई परमेश्वरको कर्ता बतावे है कोई यास्त बतावै है । कोई पांच तत्व प्रथ्वी अप तेन वायु आकास मिल जीव नाना पदार्थकी उत्पत्ति कहे है । या प्रमान दा भिन्न भिन्न जुड़ा जुदा बनावे है । तातें कारन वि जानना | बहुरि जीव पुद्गल मिल मनुष्यादिक अनेक प्रकार अस्मन जातकी पर्याय बनी है। ताको एक ही वस्तु माने है । सो भेद विप है । बहुरि हू आकाश धरती लग्या दीमे । एगर छोटा दीसे, जोतषीदेवाका विमान छोटा दीसे । वा चसमा