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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
स्तुति उचित है । अरु भव्य नीवनै मुख्यपनै शरीरकाही उपकार है तातें स्तुति वा नमस्कार करवौ उचित है । अर जैसे कुलाचलनके मध्य मेरु शोभे है । तैसे गणधरानके विर्षे वा इन्द्रोंके विर्षे श्री भगवान शोभै हैं। ऐसा श्री अरहंत देवाधिदेव या ग्रन्थकू पूरा करें। . आगे श्री सिद्ध परमेष्ठीकी स्तुति महिमा करि अष्ट कर्म हनूं हूं। सो कैसे हैं श्री सिद्ध परम देव जिन धोया है घातिया अघातिया कर्ममल निषपन्न भया जैसे सोला वानीका शुद्ध कंचन अंतकी आंचकर पचाया हुवा निषपन्न होय है । तैसे अपनी स्वच्छ शक्ति कर दैदीप्यमान प्रगट भया है स्वरूप जाका । सो प्रगट हीतै मानूं समस्त ज्ञेयको निगल गया है । बहुरि कैसे हैं सिद्ध एक एक सिद्धकी अवमाहना विर्षे अनंत अनंत सिद्ध न्यारे न्यारे अपनी अपनी सत्तासहित तिष्टें हैं । कोऊ सिद्ध महाराज काहु सिद्धसे मिलें नाहीं बहुरि कैसे हैं सिद्ध परम पवित्र हैं । अरु स्वयं सुद्ध हैं अरु आत्मीक स्वभाव विर्षे लीन हैं । परम अतेंद्री अनुपम बाधा रहित निराकुलित सुरसकू निरंतर अखंड पीवै हैं । तामै अंतर नाहीं पड़े है। बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान असंख्यात प्रदेश चैतन्य धातुके पिंड निवड़ घनरूप धरे हैं अरु अमूर्तीक चर्म शरीर हैं किंचित् ऊन हैं । सर्वज्ञ देवकों प्रत्यक्ष विद्यमान न्यारे न्यारे दीसै हैं बहुरि कैसे हैं सिद्ध भगवान अपना ज्ञायक स्वभावते प्रगट किया है । अरु समय २ षट् प्रकार हानि वृद्धि रूप अनंत अगुरु लघु गुणरूप परनवै हैं । अनंतानंत आत्मीक सुखकों आचरें हैं। वा आस्वाद हैं । अरु तृप्ति नाहीं होय हैं वा अत्यंत