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________________ १३० ज्ञानानन्द श्राकाचार । सर्म होय है सो काली कर नाषी । नाककी सरम होय है सो नाकने वेध काड्या अरु छातीकी गड़ास होय है सो आड़ी काचली पहिर लीनी अरु भुनाका पराक्रम होय है सो हाथ विषै चूड़ी पहरलीनी अरु लाषी नान्ह जानेका भय होय है सो मेधी कर लाल कर दीन्ही । काछकी सरम होय है सो काछ खोल नाखी अरु मनका गठास होय है सो मन मोहकर कामकर वेवल होय गया अरु मुषकी सर्म होय है सो मुख वस्त्रकर आक्षादन कीनी मानू ये मुष नाहीं आछादे है ऐसा भाव जनावे ह । सो कामी पुरुष मने मुषने देखकर नरक मत जावो अरु जंघाकी सर्म होय है सो घंघरा पहर लिया । इत्यादि वेसर्मके कारण घने ही है । सो कहां लग कहिये । तति स्त्री नपुंमक निर्लज्ज स्वभाव धरया है बाह्य तो ऐमी सर्म दिखावे सो अपने अंग सर्व कपड़ाकर आछादितके अरु पुत्र भ्राता माता पिता देवर जेठ सासु श्वसरा राना प्रना नगरका लोगां आदि लोग देखते गावे ता विखें मन मान्या विषे पोवे अंतरंगकी वासना कारन पाय बाहर झलके विना रहै नाहीं । बहुरि कैसी है स्त्री कामकर पीड़ित है मन इन्द्री जाकी अरु नषसूं ले रसना पर्यंत सप्त कुधातमई मूरत बनी है भीतर तो हाडका समूह है ताके ऊपर मांस अरु रुधिर भरया है ऊपर नसा जारकर वेढ़ी है । ता ऊपर केसनके झुंड है मुख विषे लटा साहस्य हाड़के दांत हैं । बहुरि भीतर वाय पित कफ मल मूत्र वीरन कर पूरित है उरा अग्र वा अनेक रोगकर ग्रसित है जरा अरु कालकर भयभीत है अनेक तरांके पराधीनताको धरया है। पेनी जायगा सन्मूर्छन उपजे है काख विषे, कुच नीचे, नाभि
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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