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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १३१ तलें, जोन स्थान विषे, वा मल मूत्र विषे असंख्याते मनुष्य उपजे हैं बहुरि दुग्ध द्वारा विर्षे वा सब शरीर विखें इस वा निगोद सदैव उपजो करें हैं । वा वाह्य तनके मैल विष लीख जुवा अनेक उपजे हैं सो नितका उत देखिये है ही अरु केई निर्दई या मूरत वाको मारे भी है दया कर रहत है हृदय जाका सो देखो सराग प्रनामाका महातम ऐसी निधि स्त्रीको बड़े बड़े महंत पुरुष उत्कृष्ट निध जान सेवे है आपने कृतार्थ माने है वाका आलिंगन कर जन्म सफल माने है सो आचार्य कहें हैं धिक्कार होहु मोहकर्मके ताई अरु धिक्कार होहु ऐसी स्त्रीको मोक्ष माने ताको अरु सदा भयवान अत्यंत कायर स्थिल संका सहित स्वभाव जाका ऐसी स्त्रीको मोक्ष कैसे होय सोलवां स्वर्ग छटा नर्क आगे जाय नाहीं अंतका तीन ही संघनन उपरांत संघनन होय नाहीं अन्तका तीन होय है अरु भोगभूमयां जुगलियाके पुरुष वा स्त्री तियच वा मनषांके एक आदिका ही संघनन है तातै पुरुषार्थ कर रहित है तो ही तात वाके शुक्ल ध्याननकी सिद्ध नाहीं अरु शुक्लध्यान विना मोक्ष नाहीं सो यह निंद्यपना कही सो स्वाधीन रहित वा शील रहित स्त्री है ताका कहा है अरु सरधावान शीलवान स्त्री है सो निंद्या कर रहित है वाके गुन इन्द्रादिक देव गावे हैं अरु मुनि महाराज वा केवली भगवान भी शास्त्र विषै बड़ाई - करी है अरु स्वर्ग मोक्षकी पात्र है तो औरांकी कहा बात ऐसी निंद्य स्त्री भी तिनका सो निन धर्मका अनुग्रह कर ऐसी महमा पावे है। तो पुरुष धर्म साधे ताकी कहा पूछनी । वहु गुन आगे लघु ओगुनका जोर चले नाहीं । ये सर्वत्र न्याय है।
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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