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________________ १०८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । मार्गकी तरफ बुलाये । अरु बानें कह्या तुम धन्य हौ सुत हमारे दया भाव पाय ऐसौ अब हम कहैं सो तुम करौ । सम्यक दर्शनज्ञान चारित्रके चिन्हकी तौ तीन तारकी कंठ सूत्र कहिये जनेऊ कंठ विधै धारो अरु पाक्षिक श्रावकके 'धर्मको धारौ अरु गृहस्थ कार्यकी धर्मकी प्रवृति चलावौ अरु दान लेवौ दान देवो यामें कोई प्रकार दोष नाही था महा कर माननीक हो सोथौ वेही करता हुवा । सो गृहस्थाचार्य कहाये पीछे ए ब्राह्मन स्थाप केताई काल पीछे श्री आदिनाथ भगवानकों पूछा यह कार्य उचित किया कै अनुचित किया। तब भगवानकी दिव्यध्वनि विषै ऐसा उपदेश हुआ यह कार्य विरुद्ध किया । आगे शीतलनाथ तीर्थकरकै समय सर्व भ्रष्ट होसी आनमती होय जिनधर्मका विरोधी होसी पीछे भरतनी मनके विषै बहुत खेद पाय कोप करि याका निराकरन करता हुवा । सो वे होतव्यके वश करि प्रचुर फैलै । विक्षित्ति नाहीं भई फेर भगवानकी दिव्यध्वनि विषै ऐसा उपदेश हुवा ऐतौ ऐसे ही होनहार है, खेद मत करौ ऐसे ब्राह्मण कुलकी उत्पत्ति भई जानना, सोई अवै विप्र रूप देखिये है । बहुर अंतिम तीर्थकरके समय भगवानका मौस्याईता भाई ग्यारा अंगके पाठी मसकपूरन नाम भया ताकों महा प्रज्वलित कषाय उपजी त्याणे मलेक्ष भाषा रची। अरु मलेक्ष तुरकीको मत चल.यौ, शास्त्रका नाम कुरान ठहरायौ । जाकी तीस अध्याय ताका नाम तीस सिपारा नाम ठहराया ऐसे घोरानघोर हिंसा ही में धर्म प्ररूप्या सो कालका दोष कर प्रचुर फैले जैसे प्रलय कालका पवन करि प्रलय कालकी अग्नि फैलै ऐसे तुरकोंकी मतकी उत्पत्ति
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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