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________________ २५४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।। ताकर किंचित मात्र दीसे है। अरु शरीरका स्वभावका ज्ञानकू भी घातवा काही हैं। बहुरि जातें निज आत्माका स्वरूप जान्या है। ताका यह चहु होय है । सो और तो गुन आत्मामें घना ही है। अरु घना हीनें जानें है। परन्तु तीन गुण विशेष हैं । ताको जानें तो आपना खरूप जानें ही जाने अरु ताका जान्या विना कदाच त्रिकालमें भी स्वरूपकी प्राप्ति होय नाहीं अथवा तीन गुन विना दोय गुन ही को नीका जाने तो भी निन सहनानंदकी पिछान होय गुनकी पिछान विना स्वरूपकी प्राप्ति नाहीं सोई कहिये है । प्रथम तो आत्माका स्वरूप ज्ञाता दृष्टा जानें यह जानपना है। सोई मैं हूं सोई जानपना है । ऐसा निःसंदेह अनुभवनमें आवे है सो तो यह अरु दूना यह जाने यह तो रागी द्वेषीरूप आकूल होय परनवे है । सोई मैं हूँ कर्मनका निमित्त पाय कषायरूप परनाम हुवा है । अरु कर्म निमित्त हलका पड़े तब परनाम सांतरूप परनमें हैं । जैसे नलका म्वभाव निर्मल है सो अग्निका निमित्त पाइ जल उप्नरूप परनवे कदाचका निमित्त है याय वह जल गंधरूप परनवे त्योंही यह आत्माका ज्ञानावरनादिका निमित्त कर ज्ञान घाता जाय अरु कषायनका निमित्त कर निराकुलित गुन घाता जाय है ज्यों ज्यों ज्ञानावरनादिका निमित्त हल्कापरे त्यों त्यों निराकुलित परनाम होता जाय । सो यह खभाव जिननें प्रत्यक्ष जान्या अरु अनुभवा सो ही सम्यक दृष्टि निजस्वरूपका भोगता है । बहुरि तीना स्वभाव यह भी जाने कि मैं असंख्यात प्रदेशी अमूर्तीक आकार हूं । जैसा आकास अमूर्तीक है तैसा ही मैं अमूर्तीक हूं परन्तु आकास सनड़
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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