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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २५३ तब पांच जातके वर्न देख्या । अवशेष कछू न देखा । बहुरि पांचमां झरोखा सिंहासन ऊपर बैठा देख्या तब सात जातके शब्द देख्या अवशेष किछू न देख्या सो जब सिंहासन ऊपर बैठ दृष्टि पसार बिचारे तब वासूं जाके पदार्थ तो यह मूर्तीक अरु आकार अमूर्तीक सर्व द से। अरु झरोखा बिना वा सिंहासन बिना कोई पदार्थनें जानें नाहीं । अरु वह राजा जब बंदीखाने छोड़ा अरु महलबारें काढें तो वे राजानें दसूं दिसाका पदार्थ अरु मूर्तीक अमूर्ती विना विचार सर्व प्रतभासे सो ये स्वभाव देखवाका राजाका है । कोई महल ताको नाहीं । अपूठा महलका निमित्त कर ज्ञान आछाद्या जाय है । अरु कोई इक ऐसी निर्मल जातकी परमानूं वा झरोखा अरु सिंहासन के लागी है। ताका निमित्त कर किंचित् मात्र जानपना रहे है । दूजा महलका प्रभाव तो सर्व ज्ञानको घातवा का ही है । त्योंही ई शरीररूपी महल विषें यह आत्मा कर्मन कर बन्दीखाने दिया है । त्योंही ऐंठें पांच इन्द्रीरूप तो झरोखा हैं । अरु मनरूप सिंहासन है । तब यह आत्मा जो इन्द्रीके: द्वार अवलोकन करे तिहिं तिहि इन्द्रीके विषें ई माफक पदार्थकुं देखे अरु मनके द्वार अवलोकन करे तब मूर्तीक व अमूर्तीक सर्व पदार्थ प्रतिभासे है अरु यह आत्मा शरीर रूपी बंदीखाने रहित हो तब मूर्तीक अमूर्तीक लोकके त्रिकालमें बंधी चराचर पदार्थ एक समय में युगतीय प्रतभासें है ये स्वभाव आत्माका है कोई शरीरका तो नाहीं । शरीरका निमित्त कर अपूठा ज्ञान घाता जाय है । अरु इन्द्री मनका निमित्त कर किंचित मात्र खुलया रहे हैं। ऐसे ही निर्मल जातकी परमानूं इन्द्री वा मनकूं लागी हैं।
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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