SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । त्व पाय तीर्थकर गोत्र बांध्यौ सभानायक भया तौ भी कर्म सौं छूटो नाहीं नर्क ही लेगयौ । ऐसा परम धर्मात्मासूं कर्म गम्य न खाय । तो तीर्थंकर महाराजकै प्रतिबिंबका अविनय करै तासु गम्य कैसे खासी । ताते श्रेणिकजीका पाप वीच याका पाप अनंत गुना अधिक जानना । सो धर्मात्मा पुरुष ऐसा अविधि कार्य शीघ्र ही छांडौ । अरु केई विरले पुरुष पंचमाकाल विषै भी पूर्व ही अविधि कही ता बिना अपनी शक्ति अनुसार महा विनय सहित धर्मार्थी होय जिनमंदिर निरमापै है। नाना प्रकारके उपकरन चहौड़ें है। तो वह पुरुष स्वर्गादिनै पाय मोक्षके सुखका भोक्ता होय है। बहुरि आनमती राजा जिनधर्मका प्रतपक्षी त्याका दरबारसू नसायरका. चबूतरातूं पांच सात रुपैयाको महीना जिनमंदिरके जाचना करि पूजादिकके अर्थ रोजीना बंधावै है सो ए महापाप है। श्री जिनको अपनै परम सेवकादि बिना औरका द्रव्य लगावना उचित नाहीं। बैरीका पईसा कैसे लगाईये तातै धर्म विषै विवेकपूर्वक कार्य करना। आगे सर्व कुलिंग्याकी उत्पत्ति कहिये है। दस कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पणी काल, ऐता ही उत्सर्पिणी काल ताका नाम कालचक्र है। प्रथमा सुखमा चार कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण ता विषै मनुष्यकी आयु तीन पल्यकी, काय तीन कोस । दूना सुखमा तीन कोडाकोड़ी सागर ता विषै आयु दोपल्यकी, काय दोय कोस । तीना सुखमा दुखमा दोय कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण ता विष आयु एक पल्य, काय कोस एक चौथा दुखमा सुखमा व्यालिस हजार बरस घाट एक कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण कोटि पूर्व आयु, सवा पांचसै धनुष
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy