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________________ २१८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । vvwwwwwwwwwwrnvvvvvvvvvvvvvvo है प्रकास मानो यह प्रकास नाहीं आनन्द बर्षे है । मानूं देवका पुन्य एकठा होय आया है कि मानू त्रैलोककी सुभ परमानू आन एकठी भई है । बहुरि कभी वे देव धर्मकी चरचा कर अपना देवांने पोषि न करे है । अरु आनन्द उपनावे है अरु महा मनोहर वचन बोले अरु या जाने है के ऐ देव म्हारा चाकर है । मैं याका स्वामी हों सो मोने याकी रक्षा कर करनी हूं या देवकर सोभायमान दीसू देखो यो धर्मको महातम तीसू विना बुलाया वा विना प्रेरचा देव आन स्तुति करै है । अरु सेवा करे है यो अद्भुत कोतूहल स्वर्ग लोक विना और ठौर तो नाहीं होती। देखो या विमानकी सोभा और देखो देवांगनाकी सोभा अरु देखो राग वा नृत्य वादित्र वा सुगन्ध उत्कृष्ट ऐठे ही आन एकठी हुई है। कैसे ईकठी हुई है। कहीं तो देवांगना नृत्यगान करे कहीं क्रीड़ा करे कहीं देवांगना आन इकट्ठी भई हैं। कि मानू सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र ग्रह ताराकी अंकित एकठी होय दसों दिसा प्रकासित कीनी हैं कहीं देवांगना रतनोंका चूरन कर मंगलीक साथिया पूरे हैं । कोई देवांगना मीठा मीठा सुरमू मंगल गावे ___ मानू मंगलके मिसकर मध्य लोकसू धर्मात्मा पुरुषाने बुलावे हैं । कोई देवांगना देव आगे हाथ जोड़े ऊभी है । कोई देवांगना हाथ जोड़े स्तुति करे हैं। कोई हाथ जोड़ प्रार्थना करे हैं कोई देवांगना लज्याकर नीची दृष्टि करे है कोई देवांगना देवका तेज प्रतापने देख भयवान होय है। कोई देवांगना थरथर धुनती जाय है । हाथ जोड़े मधुर मधुर वचन बोलती जाय हैं । अरु कैई देवांगना या कहे हैं । हे प्रभू हे नाथ हे दया
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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