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________________ - २६० ज्ञानानन्द श्रावकाचार। - - wwwwww ऐसा श्रद्धानवे सो अंतरआत्मा है। बहुरि केवल ज्ञानरूपी सूर्य देदीपमान (उदोत) होय तब लोकालोकके चराचर पदार्थ निर्मल जैसाका तैसा प्रतिभासे है । अरु अपना असंख्यात प्रदेस भी त्यों. का त्यों प्रतिभासे सो यह परमात्माका लक्षन है । ऐसा तीन प्रकार आत्माका स्वरूप जानना बहुरि फेर शिष्य प्रश्न करे है हे प्रभू मोक्षमें और सुख तो छ पन इन्द्रीननित सुख नाहीं तब श्री गुरु कहे हैं । हे शिष्य संपूर्न इन्द्रीननित सुख मुक्तिमें संपून छ । ऐसो और ठौर नाहीं। कैसे है सो कहें हैं। इन्द्रीनको सुख ज्ञानते जानों तब सुख होय सो सिद्ध महारानके संपूर्न जानपना छ इन्द्रीनका विषय व मनका विषयरूपी पदार्थ एक समयमें सर्व जाने हैं। सो इनका सुख औरनके न जानना तब फेर शिप्य कहे है हे प्रभू आत्मज्ञान ऐसा ही है सो बारबार ज्ञाता दृष्टांकू अवलोकना । भावार्थ-जो आत्माको ज्ञान में देखना इह देखन जाननहारा है सोई मैं हूं। मैं हूं सोई देखन जाननहारा है। मोमैं अरु जामें दुनायगी नाहीं । एकत्व तदात्मपना है। जैसा अवलोकन निरंतर लगा रहे । फेर फेर बाहीकू देखे जैसे गाय अपना वक्षाको देखता छिनमात्र भी नाहीं भूले वारंवार वाहीकू देखे ज्यों ज्यों देखे त्यों त्यों अत्यंत आनन्द ही होय । सो आनन्दकी बात गौही जाने तैसे सम्यकदृष्टि वारंवार अपना रूपने देखतो तृप्ति नाहीं । अरु अपना स्वरूपका अवलोकन करता गदगद शब्द होय अश्रुपात चल आवे अरु रोमांच होय अरु चित्त शान्ति होय मानूं ग्रीष्म ऋतुमें मेघ छूटा ऐसी शान्तिता होय आवे सो ज्ञान ही गम्य है कहवां मात्र नाहीं और शिष्य प्रश्न करे है हे प्रभू
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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