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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । होई ताको सौच कहिये । केवल जलकर स्नान करनेका नाम सौच नाहीं है । असंजमका त्याग संजमका ग्रहन ताको संयम कहिये है । बारह प्रकारके तप ताकर आत्माको तपाय कर्मकलंकको नास करिये ताको तप कहिये । चौवीस प्रकारके परिग्रह आभ्यंतर बाह्यके ताका त्याग ताको त्याग कहिये । किंचित कहिये तिलका तुसमात्र परिग्रह सो रहित नगनस्वरूप ताको आकिंचन कहिये। शीलका पालना तासों ब्रह्मचर्य कहिये । ऐसा सामान्य दश लक्षण धर्म एवं दसलक्षनीक धर्म संपूर्ण । आगे रत्नत्रय धरमका स्वरूप कहिये है । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ' ऐसा दस सूत्र वि कह्या है । वा उमास्वाम आचार्यने दर्शन नाम श्रद्धानका कहा है। दर्शनोपयोगका नाम यहां दर्शन नाहीं । दर्शनका अनेक अर्थ है । जहां जैसा प्रयोजन होय तहां तैसा अर्थ जान लेना। सो दर्शनका अनेक नाम है। सुभावे दर्शन कहो वा प्रतीत कहो सरधान कहो। वा रुच कहो इत्यादि जानना। एवमेव ऐसेही है। यही है। अन्य नाहीं और प्रकार नाहीं। ऐसा सरधान होय ताको तो “सामान्य दर्शनका स्वरूप कहिये । बहुरि सराहवा जोग्य कहो भावे भले प्रकार कहो भावे कार्यकारी कहो भावे सम्यक प्रकार कहो भावे सत्य कहो जथारथ कहो ये सब एकार्थ हैं । बहुरि यासो उल्टा जाकर स्वभाव होय । तासों विपर्यय वा अनोग्य कहिये । भावे बुरे 'प्रकार कहो । भावे अकार्यकारी कहो। भावे मिथ्या प्रकार कहो भावे असत्य कहो । भावे अनथार्थ कहो । ये सब कार्य ताते सप्त तत्वका यथार्थ सरधान होय ताको निश्चय सम्यक दरसन कहिये । अर सप्त तत्वनका अजथार्थ श्रद्धान होय ताको मिथ्या
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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