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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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साधसमाध कहिये । दश प्रकारके संगका वैयावृत कहिये चाकरी करिये वा आप सोगुना कर अधिक धर्मात्मा पुरुष होय । ताकी भी पग चापी आदि चाकरी करिये ताको वैयावृत कहिये। अर्हन्त देवकी भगत करिये ताको अर्हत भक्ति कहिए । आचारजकी भगत करिये ताको आचार्य भक्ति कहिये। उपाध्याय आदि बहुत श्रुत कहिये । धना सास्त्रका जामें ज्ञान होय ताको बहुश्रुत भगत कहिये । जिनवानी समस्त सिद्धान्त गृन्थ ताकी भगत करिये । ताको प्रवचन भक्ति कहिये। षट् आवदयमें दिन प्रति अंतराय न पाड़िये ताको आवस्यका प्रदान क'हये । ज्यों ज्यों धर्मका अंगीकार कर जिन धर्मकी प्रभावना होय । ताको प्रभावना अंग कहिये। निनवानी सों विशेष प्रीत होत । ताको प्रवचन वात्सल्य कहिये । ये सोलाकारण भावना तीर्थकर प्रकृति बंधनेको चौथा गुनस्थानसूं लगाय आठवां गुनस्थान पर्यंत बंधनेको कारन है। तातें ऐसे सोलाकारनके भाव निरंतर राखिये । याका विषेश विनय करिये या विषेश प्रीत राखिये । याके उछवसू पूजाकर बैठा कराइये अर्घ उतारिये याका फल तीर्थकर पद है। एवं षोड़सभावना सामान्य अर्थ संपूर्ण ।
आगे दशलक्षनीक धर्मका स्वरूप कहिये है। न क्रोध कहिये क्रोधका अभावताको उत्तिम क्षिमा कहिये । मानका अभाव हुये विनय गुन प्रगटै तब कोमल परनाम होय ताको मार्दव कहिये। कुटिलता कहिये दगावाजी मायाचार रहित सरल परनामी होय ताको आर्जव कहिये । झूठ जो असत्य मन वचन कायकी प्रवृति रहित होय ताको सत्य कहिये । निर्लोभता कर आतमा पवित्र