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________________ १३६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | तरह का संदेह वर्ते तो विसेषपने सहित प्रश्नकरताके उत्तर सुन निरसल्य खोय । चुपका होय रह्यो । वार वार गुरांके अगारू वचनालाप करे नाहीं । गुरांके अभिप्रायके अनुस्वार गुरू सन्मुष अवलोकन करे । तत्र प्रश्नरूप बचन बोले ऐसा नाहीं के गुरू पहिल्यां आप औराने उपदेस देने लाग जाय । सो गुरा पहली है उपदेसका अधिकारी होना ये तीव्र कषायांका लषिन है । यामें मान कषायकी मुख्यता है । अंतरंग विषै ऐसा अभिप्राय वर्ते है । सो मैं भी विशेष ज्ञानवान होता तो उत्तम शिष्य होय ते पहली अपना औगुन काढ़े आपको वारंवार निौं कि मैषदरेग करे | हाय मेरा काई होसी हों तीव्र पापसो कब छूटों । कच निवृत हों सो तातैं अपने सदीव नूनताई माँ पीछे कोई ओसर पाय कंठ सो पुष्ट होई । वचन मिष्ट होय । आजीवकाकी आकुलता कर रहित होय । गुरुका चरन कमल विषै भ्रमर समान सदा लीन होय । साधर्मीकी संगत होय साधर्मी ही है कुटम्ब जाके बहुरि नेत्र नीक डाक सोंटीका पाषान दर्पन अग्रसारसे सरोंता सिद्धान्त रूप रतनके परतनके परिष्या करनेका अधिकारी है बहुरि सुननेकी इच्छा । श्रवन | ग्रहन | धारना । समान एक प्रश्न | ईतर निह ये आठ श्रोतानके गुन चाहिये। ऐसे श्रोता शास्त्र विषै सराह - वे जोग्य हैं। सोही मोक्षके पात्र है ताकी महमा इन्द्रादिक देव भी करें हैं । अरु महमा करनेवारे पुरुषके पुन्यका संचय होय है । अरु वाका मोह गले है गुनमान की अनमोदना किये वाका गुनका लाभ हो है । औगुनवानकी अनुमोदना किये वाके औगुनका लाभ हो है । तातै औगुनवानकी अनुमोदना करनी नाहीं । इति श्रोता
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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