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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १९५ मूर्ति दुखमई आकुलताका पुन नाना प्रकार पायके धरन हारे । सो जिनधर्मके अनुग्रह बिना अनादि कालसू लेय सिंह सर्प काग कूकर चिटी कबूतर कीड़ी मकोड़ी आदि महां भृष्ट पर्याय सर्व धारी एक पर्याय अनन्त अनन्तन बेर धरी तो भी जिन धर्म बिना संसारके दुखका अन्त न आया अब कोई महा भाग्यके उदै श्री जिनधर्म सर्वोत्कृष्ट पर्म रसायन अद्भुत अपूर्व पाया ताकी महमा कौन कह सके केतो मैंने जान्या के सर्वज्ञ जाने सो यह वीतराग परनतमय निनधर्म जयवंत प्रवर्तो नंदो वृद्धो म्हांने समुद्र सों काढो घनी कहा अर्ज करें ऐसा चिन्तवनकर महा वैराज्ञ भाव सहित सामायक काल पूर्ण करे कोई प्रकार राग द्वेष न करे । आरत ध्यान रौद्र ध्यानकू छोड़ आपा परकी सम्हार कर यह साक्षात चिन्मूर्ति सबका देख नहारा ज्ञाता दृष्टा अमूर्तीक आनन्दमई सुखका पुन स्वसंख्यात प्रदेशी तीन लोक प्रमान परद्रव्यसूं भिन्य अपने निज स्वभावका का भोगता परद्रव्यका अफर्ता ऐमा मेरा स्वसंवेदन स्वरूप ताकी महमा कौनकूः कहिये यह जीव पुद्गल द्रव्यका पिण्ड ताका कती भोगता माहीं मोह कर्मके उदै कर्मकी बुद्धिकर जहां ही अपना जाने था ताकर भव भवमें नर्कादिक परम क्लेसने प्राप्त भया सो अब में सर्व प्रकार पर वस्तुका ममत्व छोड़ हुई पुद्गल द्रव्य चाहों त्यों परनवो मेरे ऐसा रागद्वेष नाहीं सोये पुद्गल द्रव्यका पसारा है। सो मावे क्षीनो भावे न क्षीनो भावे प्रलय होय भावे. एकट्ठा होय जा कामें मुनाम नाहीं। याके ममत्व सो मेरे ज्ञानानंदकी बुद्धि नाही ज्ञानानन्द तो मेरा निन स्वभाव है सो वृथा पर द्रव्यके ममत्व सूघाता
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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