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________________ १९४ . ज्ञानानन्द श्रावकाचार । करो सर्व पापनका छय करो ऐसे पूर्वले पापकू हल्का पाड़ जरित कर पीछे द्रव्य क्षेत्र काल भावका मानवा स्वरूप पूर्वे यहां ही कह आये ताके अनुसारपूर्वक त्याग कर पूर्व दिसाने वा उत्तर दिसाने मुख कर पीछी कर भूमि सोध पंच परम गुरुने नमस्कार करे पद्मासन मांड बैठ जाय पीछे तत्वनका चिन्तवन करे वारानुपेक्षाका चिन्तवन करे आपा पर का भेद विज्ञान करे निन स्वरूपका भेदरूप वा अभेदरूप अनुभवन करे वा संसारका स्वरूप दुखमई विचारे सिंसारे सो भयभीत होय बहुरि वैराज्ञ दसा आदरे अरु मोक्षका उपाय चिन्तवे संसारके दुखकी निर्वृति वांच्छता संता पंच परम पदने सुमरे ताके गुनकी वारंबार अनुमोदना करे गुनानुवाद गावे वाका स्त्रोत्र पढ़े वाका आत्म ध्यान करे वा विषेश वैराज्ञ विचारे म्हारे कोई नाहीं में या संसारके घोरान घोर भयानक दुःख सों कब छूटों वो समय मेरे कब होसी तब दिगम्बरी दीक्षा घर परिग्रहके भयानक दुख सो छूदसी परिग्रहके भारने पटक निर्दुद होसी. पान पात्र अहार करसी, बाईस परीसह जीतसी दुद्धर, तप आदरसी मोह बजने फोर पंचा चार्ज करसी अरु अपने निन सुद्र स्वरूपको अनुभवन करसों ताका अतसय कर वीतराग भावांकी वृद्धि होसी तब मोह कर्म गलसी घातिया कर्म सिथिल होसी वा खिर जासी अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान अनन्त सुख अनन्त वीर्य ये अनंत चतुष्टय प्रगट होसी सो में सिद्ध साढस्य लोकालोकका देखन जानन हारा अनन्त सुख वीर्यका पुंज कर्म कलंक सूं रहित महा निराकुल आनन्दमय सर्व दुःखोंसों रहित कब होसी कहां तो मेरी यह दशा नर्क निगोदादि महा पापकी
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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