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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १७१ उदै होय । लोकालोकके अनन्ते तत्व पदार्थ द्रव्य गुन पर्याय संयुक्त द्रव्य क्षेत्र काल भावने लिया तीन काल मध्य चराचर पदार्थ एक समयमें तुम्हारे ज्ञान रूपी आरसीमें स्वयमेव ही विना इन्द्रिय आन झलका ताकी महमा कहवाने सहस्र जिह्वासु इन्द्र भी समरथ नाहीं। वा वचनवल रिद्धके धारक गनधरादि महा जोगीसुर भी नाहीं। बहुरि भव्यजीवाका पुन्यके उदयते तुमारी दिव्यध्वनि निकसी सो एक अंत महूर्तमें ऐसा तत्वोपदेस खिरे ताकी रचना शास्त्रमें लिखिये । तो उन शास्त्रोंसो अनन्त लोक पून होयं । हे भगवान तुम्हारे गुनकी महमा कैसे करिये । बहुरि हे भगवान तुमारी वानीका अतिशय कहा कहिये । जो ऐसा खिरे. अनक्षर रूप अनेक भेद लिया पीवे भव्यके कर्न संपुष्टमें पुद्गलकी वर्गना सब्द रूप प्रवर्ते । असंख्यात ऐसे चतुरन कायके देव देवांगना असंख्यात वर्ष पर्यंत प्रश्न विचारे थे । अरु असंख्याते मनुष्य वा तिर्यंच घना काल पर्यंत प्रश्न विचारें थे तिनको अपनी भाषामें प्रश्नके उत्तर हुवे और जिन उपरान्त अनेक वाक्यका उपदेश देय तिस उपरान्त अनन्तानन्त तत्वके निरूपन अहला गया जूंघ त्यूं अपरंपार एक जातके जलरूप वर्षा करे पीछे आम नारियल इत्यादि अनेक वृक्ष अपनी अपनी समर्थ माफिक जलका ग्रहन करे । अपने अपन स्वभाव रूप परनवे । बहुरि दर्याव तलाव कुआ वावड़ी आदि निवान अपने अपने माफिक जलका ग्रहन को अरु अवषेश मेघका जल योंही जाय है। त्यों ही जिनवानीका उपदेश जानना बहुरि ता विषे हे भगवानजी तुम ऐसा उपदेश दिया। ये षटद्रव्य अनादि निधन हैं। तामें पांच द्रव्य तो
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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