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________________ १७२ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | थिर ध्रुव तिष्टें दुहरा तीन अचेतन जड़ है। जीव नाम द्रव्य चेतन है तामे पुद्गल मूर्तीक है अवशेष पांच अमूर्तीक हैं । येही छहों द्रव्यका समुदाय सो ही लोक कहिये । जहां एक आकास द्रव्य ही पाइये पांच न पाइये -तासू अलोक कहिये । लोक अलोकका समुदाय आकाश एक अनन्त प्रदेशी तीन लोक प्रमान असंख्यात प्रदेशी एक एक धर्म अधर्म द्रव्य है । अरु कालकी कालानु असंख्यात एक एक प्रदेस मात्र है । जीव द्रव्य एक एक तीन लोकके प्रमान असंख्यात प्रदेश समूह तें है जिनसो अनन्तगुने एक प्रदेस आकाशको धेरै पुद्गल द्रव्य अनंत है । सो चार द्रव्य अनादुके हैं । जीव पुद्गल ये गमनागमन भी करें हैं । सो लोक आकास द्रव्यके बीच तिष्ठे है । याका करता कोई और नाहीं । ये छहों द्रव्य अनन्तकाल पर्यंत स्वयं सिद्ध बन रहे हैं । अरु जीवनके रागभावन करि पुद्गल पिन्डरूप प्रकृति प्रदेस स्थित अनुभाग चार प्रकार बंध तासूं जीव बंधे है । वाके उपदेसने जीवकी दशा एक विभावरूप होय है । निजभाव ज्ञानानंदमय धारया जाय है । जीव अनन्त सुखका पुंज है । कर्मके उदयतें महा आकुलतारूप परनवे है ताके दुखकी वार्ताको कहनेको समर्थ नाहीं । या दुखकू निवारवे अर्थ सम्यकदर्सन ज्ञानचारित्रका उपदेस भगवान देते भये । तुमही संचार समुद्र में डूबते प्रानीनको हस्ता लंवन हो । तुमारा उपदेस न होता तो ए सर्व प्रानी संसार में डुबे हीं रहते तो बड़ा नल लहो तांतै तुम धन्य हो अरु तिहारा उपदेश धन्य है । अरु तुमारा सासन धन्य है । • तुमारा बताया मोक्षका मार्ग धन्य है । अरु धन्य तुमारे अनुसारी
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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