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________________ २७४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । S 1 पुद्गलका आकार एक रुईका तारका अग्र भाग के असंख्यातवें भाग गोल षटकोन धरै है । अरु धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्यका आकार तीन लोक के प्रमान है । अरु आकास लोकालोक प्रमान है नांही वास्ते या सर्व व्यापी कहिये अरु काल अमूर्तीक पुद्गल सादृस्यकालानु धारे है । बहुरि जीव तो चैतन्य द्रव्य है अवशेष पांचों अचेतन द्रव्य हैं । बहुरि पुद्गल तो मूर्तीक द्रव्य है । बाकी पांचों अमूर्तीक द्रव्य हैं । बहुरि आकास लोक अलोक विषं सारे पावजे है । वा पांचों लोक विषे पावजे है । बहुरि जीव पुद्गल धर्म द्रव्यका निमित्त कर क्षेत्र सों क्षेत्रांतर गमनागमन करे है । अधर्म द्रव्यका निमित्त कर स्थित भी करे अरु जीव पुल विना अवशेष चार द्रव्य अनादि निधन ध्रुव कहिये स्थिर रूप तिष्टे हैं । बहुरि जीव पुद्गल तो स्वभाव विभाव रूप परनवे हैं । अवसेष चार द्रव्य स्वभाव रूप ही परनवें विभावतारूप नाहीं परनमें बहुरि जीव तो सुख दुखरूप परनमे हैं अवशेष पाचों सुख दुखरूप नाहीं परनवे हैं बहुरि जीव तो आप सहित सर्वका स्वभाव ताकों भिन्न भिन्न जाने है अवशेष पांचों द्रव्य आपको जाने न परको जानें बहुरि काल द्रव्यका निमित्त कर पांचों द्रव्य परन में है । अरु काल द्रव्य आपही कर आप परनवे हैं । बहुरि जीव पुद्गल द्रव्यका निमित्त कर रागादिक स्वभावरूप परनवे है । अरु पुद्गलका निमित्तकर जीव असुभभाव रूप परनवे है बहुरि जीव कर्माका निमित्त कर नाना प्रकारके दुखकूं सहे है । वा संसार विषे नाना प्रकारकी पर्यायकूं धरे है । अरु भ्रमन करे है अरु कर्मका निमित्त करही ज्ञान आक्षाया जाय है । ताहीको उपाधिक भाव कहिये है ।
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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