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________________ - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १५१ माने है । पवित्र मान्या सो बहुत असक्त होय । ताकी आसक्तता छुड़ावने अर्थ अशुभ भाव ताकरि शरीर विर्षे हाड़-मांस-रुधिर चाम-नसा जाल वाय पित्त कफ मल मूत्र आदि सप्त धात वा सप्त. उपधातमय शरीरका पिंड दिखाया । शरीर सों उदास किये अरु अपना चिद्रूप शरीर महापवित्र शुच निर्मल पर्म ज्ञान सुखका पुन अनन्त महमा भंडार अवनासी अपंड केवल कलोल कर दैदीपमान निःकषाय शांत मूरत सबको प्यारा सिद्ध स्वरूप देवाधिदेव ऐसा अद्वैत ध्रुव त्रिलोक कर पूज्य निज स्वरूप दिखाय आप विषै ममत्व भाव कराया । बहुरि यह जीव संतावन आश्रव कर पाप पुन्य जल कर डूबे है । ताको आश्रव भावनाका स्वरूप दिखाया । आश्रव है तिनतै भयभीत किया । बहुरि यह जीव आश्रवके छिद्र मूंदनेका उपाय नाहीं जानता संता ताको संवर भावनाका स्वरूप दिखाया। संतावन संवरके कारण केस्या सो कहिये । दसलक्षनीक धर्म । बारा तप । बाईस परीसह । तेरा प्रकार चारित्र । नाकर संतावन किये । आश्रवके मूंदनेका उपाय बताया । बहुरि यह जीव पूर्वोक्त कर्म बंध होते ताका निर्जरा होनेका उपाय न जानता संता ताके निर्जरा भावनाका स्वरूप दिखाय चिद्रूप आत्माका ध्यान होसी । भया पर्म तप ताका उपाय बताया । बहुरि संसार विषे मोह कर्मका उदय कर संसारी जीवके यह मिथ्या भ्रम लग रहा है। केईकतो ईश्वरकर्ता माने हैं । केई नास्ति माने हैं। केई पुन्य माने हैं । केई वास किये जाके आधार इत्यादि नाना प्रकारके भ्रम सोई हुवा मोह अंधकार जीव भ्रम रहा ताके भृम दूर
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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