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________________ १९८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सिद्धके देव वा तीर्थंकर महाराज वा रिद्ध धारी मुनि इन पर्यंत वीर्य की अधिकता जाननी सोई केवली भगवान के संपूर्ण वीर्यकी प्राप्ति जानना जेता आकाश द्रव्यका प्रमान है जेते मनका लोक होय तो भी ऐसे अनंतानंत लोक के उठायचे की सामर्थता सिद्ध महाराजके है। एती ही सामर्थता सब केवलीन के है। दोनों हीके वीर्य अन्तराय के नास होने ते संपूर्ण सुख प्रगट भया है । सो मेरे स्वरूपकी महिमा भी ऐसी है सो मेरे प्रगट होय । अब तक मेरी अज्ञानताने अनर्थ किया कैसी पर्याय धार पर्म दुःखी भया धिक्कार होहु यह मेरी भूलकूं अरु मिथ्यात्मतीनकी संगतिकं अरु धन्य है यह जिनधर्म अरु पंच परम गुरु अरु सरधानी पुरुष इनके अनुग्रह कर मैं अपूर्व मोक्षमार्ग स्वाधीन है । तानें अत्यंत सुगम है मैं तो महा कटिन जान्या परन्तु श्री गुरु सुगम बताया सो अब मोकूं यह मारग चालता खेद नाहीं । में भ्रम कर खेद माने था अहो परम गुरू थांरी महिमा वा अनमोदना कहा करों । मैं मेरी महिमा सिद्ध साहस्य तुमारे निमित्त ते जानी । ॐ नमः सिद्धेभ्यः । आगे अपने परम इष्ट देवकूं विधि पूर्वक नमस्कार वा गुनस्तवन कर सामान्यपने स्वर्गनकी महमा वर्नन करिए है । सो हे भव्य सावधान होय सुन दोहा। जिन चोवीसों बंदके बंदों सारद मात । गुरु निर्ग्रथ सुबंद पुन ता सेवें अघ जात ॥ पुन पुन कर्म विकारतें भये देव सुर राय । आनन्दमय कीड़ा करे बहुविध भेष बनाय ॥ स्वर्ग संपदा लक्ष्मीको कव कहे बनाय । गनधर भी जाने नहीं जाने सब जिंनर || श्री गुरुसों शिष्य प्रश्न करे है । विनयवान होय काई प्रश्न करे है । सोई कहिए है है स्वामी, हे नाथ, पा- 1
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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