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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । २४३ चार घटी आदि कालका मर्यादा कर त्याग करे | जावत जीवे तावत धीरां धीरां त्यागे जब खाट तें उतर भूमिमें सिंहकी नाई नि तिष्टे जैसे वैरीनके जीतवेको शुभट उद्यमी होय रनभूमिमें 'तिष्टे कोई जातकी अंस मात्र भी आकुलता न उपजावे । बहुरि कैसा है वह सुद्धोपयोगी सम्यक दृष्टि जाके मोक्ष लक्ष्मीका पाणिगृहनकी वाक्षां वरते छे ऐसा अनुराग है जो अवार ही मोक्षकं जाय वरों ताका हृदामें मोक्ष लक्ष्मीका आकार वर्ते है । ताकी प्राप्तिकं शीघ्र चाहे है । अरु ताहीका भय थकी राग परनतिको आवने देय है ऐसा विचारे है जो कदाच हमारा स्वभाव विषै राग परनतिने प्रवेश किया तो मोक्ष लक्ष्मी मोने वर कूं सन्मुख हुई है सो जाती रहसी तातें मैं राग परनतिकूं दूर ही तैं छोड़ो हों ऐसा विचार करतो काल पूर्न करे ताका परनामों में निराकुलित आनन्द रस वरसे है । तो सांतीक रस कर तामें तृप्ति है । ताके आत्मीक सुख विना कोई बातकी वाक्षां नाहीं । एक अतेन्द्री अभोगत सुखकी वाक्षां है । ताहीकूं भोगवे है अरु स्वाधीन सुख है सो यद्यपि साधर्मी संयोग है । सो मेरा यो पास है । ऐसे आनन्द मई तिष्टतो सांत परनामों संयुक्त समाधि मरन करे पाछे समाधिमरनका फल थकी इन्द्रादिक विभूतिने पावे पाछे वहां थकी चय कर राजाधिराज होय पाछें केताइक काल राजविभूतने भोग अर्हती दीक्षा धेरै । पाछे चार घातिया कर्मोंको नास करके केवल ज्ञान है तामें समस्त लोकालोकके पदार्थ तीन काल आन झलके हैं । ता सुखकी महिमा वचन क्षपक श्रेणी चह लक्ष्मीने पावे कैसा संबंधी एक समय में अगोचर है । इति
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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