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________________ - १८८ . ज्ञानानन्द श्रावकाचार । हैं । ताते वाका संसर्ग दूर ही ते तनना योग्य है जो पूर्वं हल्का मिथ्यात कमाइ होय तो वहां गये अपूर्व तीव्र होय जाय तो धर्म कहां ते होय धर्मका लुटेरा यसु कोई धर्म चाहे तो वह मोहकर बावला होय जाय जैसे सर्पकू दूध प्याय वाका मुखसेती अमृत चाहे सो अमृतकी प्राप्ति कैसे होय । त्योही कुवेष्याकी संगतिसों अधर्म होय वे धर्मके निंदक परमवैरी हैं अधर्मके पोषक मिथ्यातका सहायक हैं एक अंसमात्र प्रतिमाजीका अविनय होय तो नेमकर नर्कका बंध पड़े अरु जाके घोरानघोर अनेक तरहका अविनय पाइये तो वाका कहा होनहार है। सो हम न जाने सर्वज्ञ जाने अरु भेषी या कहे हैं के प्रतिमाजीके केसर चन्दन लगायवो योग्य है ताका नाम विलेपन है । अनेक सास्त्रनमें कहा है । अरु भवानी भेरु आदि कुंदेवादिक की मूरत आगे स्थाप पहले वाका पूजन करे नमस्कार करे अरु प्रतिमानी• गने भी नाहीं । आप सिंहासन ऊपर बैठ जगतमें पुजावे अरु मालीनसे अनछान्या पानी मगाय मैला कपड़ासू प्रतिमाका प्रक्षाल करे जेते पुरुष स्त्री आवे तेता सर्व विर्षे कषायकी वार्ता करे धर्मका लेस भी नाही इत्यादिक अविनयका वर्नन कहां लग करिये सो पूर्व विशेष वर्नन कहा है । अरु प्रतक्ष देखने में आवे है । ताकू कहा लिखिये सुभूम चक्रवर्त हनुमंतकी माता अंजनी श्रेनिक महाराज नवकार प्रतिमा निग्रंथ गुरु ताका तनक सा अविनय किया था सो वाकू कैसा पाप उपज्या अरु मिड़क वा माली शूद्रकी कन्या श्री जिनके आगे फूल चढ़ाया सो योग्य ही है । सो फूल चढ़ायवाका वाके तनकसा अनुराग
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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