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________________ २८८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । mmmm कार्य कर आछो फल कैसे लागसी सो यह होली कौंन छै । सो होली एक साहूकारकी पुत्री छी सेो दामीका निमित्तसू पर पुरुषसो रति हुई सो वह पुरुषसू निरंतर रमे पाछे होलीने अपने मनमें विचारी जो जा बात और तो कोई जाने नाहीं दासी जानें है। सेो या भी कहीं कह देसी तो हमारो जमारो खराब होसी तातै दासीने मार नखों ऐसेो सो विचारकर पाछे ईने अनिमें जलाय दीनी सो दामी मर व्यंतरी हुई पाछे व्यंतरी अवधिकर पूर्वलों सारो वृतान्त जानों तब यह महा क्रोधकर नगरका सारा लोगांने रोग करि पीड़ित किया पाछे वेनगरके लोग वीनती करी जो भाई कोई देव होहु तो प्रगट होहु जो थे कहो सोई करतव्य करें तब जा प्रगट हुई अरु सारो पाछलो होलीको वृतान्त कहो तब नारके लोगां कही अब थें सबने आछा करो तूं कहे सो म्हें सब मिल करसी तक देवी इनकू नीका कर कही काठकी तो होली बना और घास फूस लगाय बाल द्यो सब मिल जाके अपवाद गावो अम याकों भाड़ करो अरु मांथे धूल घाल नाचो अरु जाकी वरस प्रति स्थापना करो तब वे भयका मारा नगरका लोग ऐसे ही करता भया सो जीवानें ऐसी विषय चेष्टा नीकी लागे ही तापर यह निमित्त मिल्या सर्व करवां लागा बहुरि सर्व देसोंमें फैल गई। सो अवारही चली आवे है । ऐसा जानना ऐसी गनगोर दिवाली राखी सांझी इत्यादि नाना प्रकारकी प्रवृति जगमें फैली छै ।। ताका निवारवाने कोई समर्थ नाहीं । और भी जीवांकी अज्ञानसाका स्वरूप कहिये है । जो शीतला वोहरी आदि शरीर विर्षे
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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