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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । .२२७ पुरुषनकू अचरज उपजै है । पीछे मेलाके पुरुष जुदा देसने गमन कर जांय तब मेला नास होय सो ऐते मनुष्यनका अन्य अन्य परनाम छां ऐता काल एकसा रहा सो अचरज है । त्यों ही यह शरीर और भांति परनवे है । सो या सुभाव ही है थिर कैसे रहे। अब यह शरीरका राखवाने कोई समर्थ नाहीं। सो क्यों समर्थ नाहीं सोई कहिये है । जेते त्रिलोकमें पदार्थ है सो अपना स्वभावरूप परनमें हैं। कोई किसीकू परनमावे नाहीं । अरु कोई फिसीका भोक्ता नाहीं आप ही आवे आप ही जाय आप ही विठुरे आप ही गले आप ही पूरे तो मैं इसका कर्ता भोगता कैसे मेरा राख्या शरीर कैसे रहे अरु मेरा दूर कहा यह शरीर दूर कैसे होय । मेरा कर्तव्य कछू है नांहीं आगे झूठा ही कर्तव्य माने छा मैं तो अनादिकालका खेद खिन्न आकुल व्याकुल होय महां दुख पावू था सो यह बात न्याय ही है । जाफा कर्तव्य तो क्यों चले नाहीं । वे परद्रव्यका कर्ता होय परद्रव्यकू आपना स्वभावके अनुसार परनमामें ते खेद पावे ही पावे तातै मैं तो एक ज्ञायक स्वभाव ही का कर्ता अरु भोक्ता अरु ताहीकू वहु अरु ताहीको अनुभवो यूँ अब जा शरीरके जाते मेरा किछू बिगार नाहीं अरु शरीरके रहे मेरा सुधार नाही यह तो परद्रव्य जैसा काठ पाखानमें भेद नाहीं शरीरमें यह जानपनेका चमत्कार है सो मेरा गुण शरीरका गुन नाहीं शरीर तो प्रत्यक्ष मुरदा है । जो मैं शरीरसं निकसा सो याकों मुर्दा जान दग्ध किया मेरे ईके मिलाप तें जाका जगत आदर करे हैं । जगतके ताई ऐसी खबर नाहीं जो आत्मा म्यारा है अरु शरीर न्यारा है । तातै जगत भ्रम कर ई शरीरको
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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