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________________ २२६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - - Cr o c ~ ~ ~ ~ ~ अब सावधान होना उचित है । ढील करना उचित नाही नैसे सुभट पुरुष रनभेरी सुन्या पीछे वैरीन ऊपर जावामें ढील छिन मात्र भीत करे अरु घना रोप्त चढ़ आवे ततछिन जाय झुके अरु वैरीका समूहने जाय जीते ऐसा जाका चित्त अभिलाषी है त्योंही हमारे भी अभिप्राय कालका जीतवाको है । सो हे कुटुम्बके लोक तुम सुनो अरु देखो ये पुद्गल पर्यायका चरित्र जो देखता देखता ही उत्पन्य भया अरु देखता देखता ही अब विलय जायगा सो में तो पहिले ही याका विनासीक सुभाव जान्या था सोई अब औसर पाय विलय जासी अब याका आयु तुक्ष रहा है तामें भी समय समय गलता जाय है । सो में ज्ञाता दृष्टी भया देखों हों। में याका पड़ोसी हो सो में अब देखो या शरीरकी आयु कैसे पूर्न होय । अरु कैसे नस जाय सो या हेतु कर रहा हो। अरु जाकर तमासगीर ही याका चरित्र देखों हों । जो असंख्यात कुलकी परमानू एकठी होय सरीर निपज्या है । अरु मेरा स्वरूप चैतन्य स्वभाव सास्वता अविनासी है। ताकी अद्भुत महिमां सो मैं कौनळू कई बहुरि देखो इस पुद्गल पर्यायका महातम जो अनंत पुल परमानुका एकसा परनमन ऐते दिन रहा। सो यह बड़ा विसमय है म्रो अब यह पुद्गल परमानू भिन्य भिन्य होंय और रूप पस्नमेंगे सो जाका आश्चर्य नाहीं। जैसे लाखों मनुष्य एकठे होय मेला नाम पर्यायकू बनावे अरु केताइक काल पर्यत मेला नाम पर्याय बन्या रहे तो याका आश्चर्य गिनिये ऐता दिन ताई लाख्यां मनुष्यनका परिनाम एकसा रहा । ऐसा विचार देखनेवाले
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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