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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
म्हाकै आपकी आज्ञा प्रमान है । है निर बुद्धी क्षा अर विवेक रहित क्षा । तिसूं विनय अविनयमैं समझा नाहीं क्षा । एक आपने हेतुनै ही चाहूं क्षा । जैसे बालक मातानै लाड़ करि चाहैं ज्यौं बोलै । अर लडूवा आदि वस्तुनै मागै सो माता पिता बालक जान वासू प्रीति ही करै । अर खावानै मिष्ठानादिक चोखी वस्तु काड़ ही दे । जैसे ही प्रभु मै बालक क्षो आय माता पिता क्षो । बालक जान म्हां ऊपर क्षिमा करौ । अर म्हाका प्रश्नका उत्तर करौ अर सन्देहका निवारन करौ । त्यू म्हाको अज्ञान अंधकार विले जाई । अर तत्त्वका स्वरूप प्रतिभासै । आपा परकी पिछान होई । सो उपदेश म्हांनै . द्यो । ऐसे सिख्य जन खड़ा खड़ा वचनालाप करता हुवा पाछै चुपका होय रह्या पाछै मुनि महाराज सिख्य जनाका अभिप्रायके अनुसार मिष्ट मधुर आत्म हितकारी कोमल ऐसा अमृतमई वचनकी पंकितता कर मेघ कैसी नाई सिरव्य जनानै पोषिता हुवा अर कैसे वचन उच्चारता हुवा हे राजन! हे पुत्र ! हे भव्य ! हे वक्ष ! तें निकट भव्य क्षौ । अर अवै थाकै संसार थोरौ झै । तीमूं थाकै यह धर्म रुचि उपजी : । अव थै म्हाका वचन अंगीकार करौ सो मै थानै जिनवानीके अनुसार कहौं क्षा सो चित है सुनो । यो संसार महा भयानक क्षै । धर्म विना यो संसारको नाश होइ नाहीं। तीसु एक धर्मनै सेवौ पाछै ऐसा मुन्याको उपदेश पाय जथा जोग्य जिन धर्म गृहन करता हुवा । अर कई प्रश्नका उत्तर सुनता हुवा केई जथा