SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । - - A-Vvvvvvvvvvvvvvvvvvv... आप तौ घोरान घोर संसार विष बूड़ा ही है । परंतु वापरे भोरा जीवानै संसार विष डोवोवै है। दोय चार गांव ताका ठाकुर भी सेवकका मतलबके वास्तै सेवकका ले गया औषकके घर जाय नाहीं । तौ ए सर्वोत्कृष्ट देव याकू कैसे ले जाई । सो इस समान पाप और हुवा न होसी । सो कैसा कैसा विपर्यय-वात कहिये आजीविकाके अर्थ ग्रहस्थाके घर जाय शास्त्र वांचै अरु शास्त्रमैं अर्थ तौ विषय कषाय रागद्वेष मोह छुड़ावाका अरु वे पापी अपूठा विषय कषाय रागद्वेष मोह ताकौ पोखै । अरु या कहै अवार को पंचमकाल है, न ऐसा गुरु न ऐसा श्रापक। अपनै गुरु माना वाकै वास्तै गृहस्थाने भी धर्ममूं विमुख को अरु गृहस्थानै एक श्लोक भी प्रीति करि सिखावै नांही । मनमै या विचार कदाच याकै ज्ञान होय जासी तौ म्हाका औगुन वा प्रतिभाससी तो पाछै म्हांकी आजीविका मनै किसी रीतिज्ञ होसी । ऐसा निर्दई अपना मतलबके वास्तै जगतनै डोबै है । अरु धर्म पंचमकालके अंत ताई रहता है ये अब ही धर्म घटा है अरु जिनधर्मके आसरै जीविका पूरी करै है । जैसे कोई पुरु: कोई प्रकार आजीविका करवानै असमर्थ है | पाछै वह अपनी माताने पीठे बैठार आजीविका पूरी करै है । त्यों ई जिनधर्म सेइ सत्पुरुष तौ एक मोक्षनै ही चाहै है। स्वर्गादि भी नाही चाहै है तौ आजीविकाकी कहा बात । सो हाय हाय हुंडा व सर्पनी कालदोष करि पंचमकाल विषै कैसी विपरीतिता फैली है। काल दुकाल विषै गरीबाका छोरा भूखा मरता होय चार रुपैया विषे चाकर भया भूरा गोलाकी नाईं मोल विकया पाछै निर्मायल
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy