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________________ ६४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | अरि लंगोट लाल राखे है । अरु लंगोट चाहिये तौ भी लेय । अरि आहारको जाय तब श्रावकके द्वार ऐसा शब्द करे है अझै दान । अरि नगर वारै मंडल विषे वसै है । वा मुन्याके सभीप वनादिक बिषै वसै है । अरु मुन्याके चरनारविन्द सेवै है । अरु मुन्या साथ विचरै है। अरि क्षुल्लक भी मुन्याके साथ विवरे है | अरु संसारसौ महा उदासीन है । अरु अनेक शास्त्रांका पारगामी है । अरि स्वपर विचारका वेत्ता है । तातै आप चिन्मूर्त्ति हुवा शरीरं भिन्न स्वभाव तिष्ठै है । अरि ऐलक आर्जिका जी तौ क्षत्री वैश्य ब्राह्मन ऊंच कुली ही नियम करि उत्कृष्ट श्रावक व्रत धारे है । अरु असपर्श शूद्रनै प्रथम प्रतिमाका धारक जघन्य श्रावक ताकौ भी व्रत नाहीं संभवै है । अरु या आखड़ी पलै नाहीं । अरु बड़ा सैनी पञ्चेन्द्री तिर्यच विषै ज्ञानका धारक तातै भी मध्यम श्रावक व्रत होय है । सो देखौ श्रावककौ तौ यह व्रत है । अरि महा पापी अरि महा काई महा मिथ्याती महा परिग्रही व विषई देव गुरु धर्मका अविनई महा तृषावान महा लोभी स्त्रीके राग महा मानी गृहस्थांकै विभव महा विकल सप्त व्यसन कर पूरन अरु मंत्र मंत्र जोतिष वैद्यक कामिनादिके डोरा गंडा करि मोहित किया है बारा भोला जीवानै अरि ज्याकै कोई प्रकारका संवर नाहीं । तृश्वा अन कर दग्ध होय गया है आत्माजाका | सो अपने लोभके अर्थ गृहस्थांका भला मना वाचनैके वास्तै त्रैलोकन करि पूज्य श्री तीर्थंकर देवका प्रतिबिंब वाके घर ले जाय, वाकूं दर्शन करावे । माछै औहीटा ल्यावै ऐसा अनर्थ अपने मतलब के अर्थ करे । सो
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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