SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । ग्दृष्टी श्रावक मुन्यानै एकवार भोजन दे तो कल्पवासी देव ही होय ऐसै शुद्धोपयोगी मुन्याने एकवार भोजन देवाका फल निपजै । और मुन मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय ज्ञानका धारी होइ है इत्यादि अनेक प्रकारके गुन संयुक्त होते संतै भी कोई रंक पुरुष आइ महां मुनर्ले गाली दे वा उपसर्ग करै तौ वासू कदाचित् भी क्रोध न करै । परम दयालु बुद्धि करि वाका भला चाहै है और ऐसा विचार ए भोला जीव है याकौ अपना हित अहित की खबर नाहीं ये जीव या परनामों करि बहुत दुख पावसी । म्हांको कुछ विगार है नाहीं परन्तु ये जीव संसार समुद्रमांहीं डूवसी। तीसू जौ होई तौ याको समुझाईए ऐसा विचार करि हितमित बचन दया अमृत करि करता भव्य जीवनकू आनंदकारी ऐसा वचन प्रकाश कांई प्रकाशै हे भव्य ! हे पुत्र ! तूं आपानै संसार समुद्रा विषै मति डोबै या परिनामोंका फल तोनै खोटा लागसी अरु तूं निकट भव्य छै । अरु थारा आयु भी सुच्छ रहा है। तीसू अवै सावधान होई जिनप्रणीत धर्म अंगीकार करि ई धर्म बिना तूं अनादि कालको संसार विर्षे रुल्यौ अरु नरक निगोद आदि नाना प्रकार दुष सह्या सो तूं भूल गया। ऐसा श्री गुराका दयाल वचन सुन वह पुरुष संसारका भय थकी कंपाईमान होता हुवा अरु शीघ्र ही गुरुके चरनाकू नमस्कार करता हुवा । अरु अपना किया अपराधनै निन्दता हुवा अरु हाथ जोड़ खड़ा हुवा अरु ऐसा वचन कहता हुवा। हे प्रभु ! हे दया सागर ! मोऊपर क्षिमा करौ, क्षिमा करौ, हाय हाय, अवै हूं काई करूं । यौ म्हारौ पाप निवृत्ति कैसे होई । म्हारै कौन पाप उदय आयौ सो म्हारै या खोटी बुद्धि उपजी । बिना
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy