SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | सोई रसी ऐसी जान धर्मात्मा पुरुष ऐसी विचार करे जो हमारे बूतै त्रस जीव ऊपर शस्त्र कैसे चलाये जाई । तीमूं शरीर धनादिक . is | तो जावयाकी स्थिति ये ते ही छै महारौ, कोई तरौ राखा कैसे रहसी । अरु थिति बधती छै । तौ राजा वा देव करि हत्या कैसे जासी । यह नि:शन्देह है। तीसं म्हारे सर्वथा करि जीव घात करवौ उचित नहीं अरु कोई या है अवार तौ एक ही छै सोही करौ पाछै प्रायश्चित करि लीजौ, सो धर्मात्मा पुरुष ई नैया कहै । रे मूढ़ जिन धर्मकी खड़ी ऐसी नाहीं । जो शरीर बांधुवादिक वास्ते भंग की अरु पाछै फेर प्रायश्चित कीजे यौ उपदेश तौ आऩमत है जिनमत में नाहीं सो ऐसी जान वे धर्मात्मा पुरुष जीवकौ मारवौ तौ दूर ही रहौ । पन अंश मात्र भी परनाम चलावे नाहीं अरु कायरताका भी वचन उच्चारे नाहीं । अरु चलन हलनादि क्रिया विषै अरु भोग संजोगादि क्रिया विषै संख्यात असंख्यात जीव त्रस अर अनंत निगोद जीवकी हिंसा होय है । परन्तु या जीव मारवा को अभिप्राय नाहीं । हलन चलनादि क्रियाका अभिप्राय है अर वा क्रिया त्रस जीवकी हिंसा बिना बने नाहीं तांते या स्थूलपनै त्रस जीवकी रक्षा कहिये अरु पांच थावरकी हिंसाका त्याग है नाहीं तौ भी विना प्रयोजन थावर जीवका स्थूल पर्ने रक्षक ही है । तातै या अहिंसावृतका धारक कहिये । ऐसे जानना आगे सत्य वृत का स्वरूप कहिये हैं जो झूठ बोलौ राजा दंड देवे जगत विषै अपजश होय । ऐसा स्थूल झूठ बोलै नहीं । अरु ऐसा सत्य बचन भी बोलै नहीं जा सत्य बचन बोलै परिजीवका बुरा होई । अरु / 1
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy