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________________ २४८ ज्ञानानन्द श्रावकाचार। राखे अरु वह आत्मा सर्व कुटुम्बको देखते ही घर फोड़ निकर जाय । सो किसीने भी देखे नाहीं तातें यह जान्या गया कि आत्मा अमूर्तीक छ । जो मूर्तीक होता तो शरीरकी नाई पकड़ा रह जाता तातें आत्मा प्रत्यक्ष अमूर्तीक ही है। यामें संसय नाहीं यह आत्मा नेत्र इन्द्रीके द्वारा पांच प्रकारके वर्णकं देखे हैं । अरु श्रोत इन्द्रीके द्वारा तीन प्रकार वा सात प्रकार शब्दोंकी परिक्षा करे है । बहुरि यह आत्मा नःसिका इन्द्र के द्वारा दोय प्रकारकी सुगन्ध दुर्गंध ताकू जाने है । बहुरि रसना कर पांच प्रकारके रसकू स्वादे है । बहुरि यह आत्मा सपरस इन्द्रीके द्वारा आठ प्रकारके सपरसकू वेदे है वा अनुभवे है वा निरधार करे है । सो ऐसा जानपना ज्ञायक स्वभाव विना इन्द्रीनमें नांही । इन्द्री तो जड़ हैं अनन्त पुद्गलकी परमानूं मिल कर बन्या है । सो जहां जहां इन्द्रियोंके द्वार दर्सनज्ञान उपयोग आवता है सो वह उपयोगमय मैं हूं और नाहीं भरमतें और भासे छे । तब श्री गुरांके प्रसाद कर मेरा भरम विलय गया मैं प्रत्यक्ष ज्ञाता दृष्टा अमूर्तीक सिद्ध साढस्य देखू हूं अरु नानू हूं अनुभवू हूं । सो अनुभवनमें कोई निराकुलत्व सुख शान्तीक रस उपजे है । अरु आनन्द अवे है सो यह आनन्द प्रभाव मेरे अखंड असंख्यात आत्मीक प्रदेशमें धारा प्रवाहरूप होय चले है। ताकी अद्भुत महिमा मैं जानू हूं के सर्वज्ञदेव जाने वचनगोचर नाहीं । बहुरि देखो मैं बहुत ओंड़ा तैखानामें बैठ कर विचारूं मेरे ताई वज मइ भीति फोड़ कर पदार्थ दीसे है ऐसा विचार होते मेरी यह हवेली देखो
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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