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________________ ७४ - - - - ज्ञानानन्द श्रावकाचार । दर्शन किया विना भोजन न करै अरु अनगालौ जल न पीवै और रात्रि विषै भोजन नाही करै । या मैं सुं एक भी कसर होई तौ जैनी नाहीं अन्यमती शूद्र सादृश्य है। तातै अपनी हेतका बांछा करि पुरुष शीघ्र ही अनगाल्या पानीको तनौ इति अनगाल्या पानी दोप सम्पूर्ण। आगै सात व्यसन विषै छह व्यसनानै छोड़ि जुवाका दोष वर्णन करिये है। छह व्यसनका दोष प्रगट दीसै है जुवाका दोष गूढ है। ताकू छह व्यसन अधिक प्रगट दिखाइये है । जुवामै हार होइ तौ चोरी करनै परै चोरीके धन आये परस्त्रीकी वा परस्त्रीका संजोग मिलै तब वेश्या यादि आवै । वेश्याके घर आये सुरापान करै, वाके अमल मै मांसकी चाह होइ. मांस चाह भयै शिकार खेला चाहै। ततै सात व्यसनका मूल जुवा है और भी धना दोष उपजै है । जुवारी पुरुषका घरकी जायगा आकास ही रह जाय है, ईलोक विषै अपजश होइ है, पैटि विगरै है विश्वास मिटै है, राजादिक करि दंडको पावै है, अनेक प्रकारके - कलह केश बड़े है-अरु क्रोध लोभ अत्यंत बढे है। जनै जनै आगै दीनपना भासै है-इत्यादि अनेक दोष जानना पाछै ताके पाप करि नरक जाई है जहां सागरा पर्यंत तीव्र वेदना उपनै है। तातै भव्यजीव हैं ते दुष्टकर्म शीघ्र छोड़ौ। पंच पांडव आदि जुवेके वशीभूत होय सर्व विभूति व राज्य खोया ऐसा जानना। - आगै खेतीका दोष कहिये है । असाढ़के महिना प्रथम वर्षा होइ ताके निमित्त करि पृथ्वी जीवमई होइ जाइ । ऐसे
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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