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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार 1 २५१ ऐसा देवाधिदेव मैं ही हूं ताकी निरंतर सेवा करवो मोने जोज्ञ है । ताके सन्मुख रहना अरु वार वार अवलोकन करना सो ताका अवलोकन करता हीं सांत रस धारा रूप अमृतकी छटा उछले अरु आनन्द श्रवे ताके रसकूं मैं पीकर अमर हुवा चाहूं हूं | सो यह मेरा स्वरूप जयवंत प्रवर्तो अरु इसका अवलोकन वा ध्यान जयवन्त प्रवर्ती इस कर अंतर छिन मात्र हूमत होहु ई स्वरूपकी प्राप्त विना कैसे सुखी होहु | कदाच न होय बहुरि जैसे काठकी गनगोरकुं आकाशमें थापिये सो स्थापित प्रमाण आकाश तो गनगोरके प्रदेश में पैठ जाय अरु गनगोर आकाश में पैठ जाय सो क्षेत्रकी अपेक्षा एकमेक होय तिष्टे भेला ही समै सबै परनवे मन स्वभावकी अपेक्षा न्यारा न्यारा भाव लिये तिष्टे । जुदा जुदा परनवे कैसे परनमे जो आकास तो समै समै अपना निर्मल अमूर्तीक स्वभावरूप परनवे सो काठकी गनगोर आकास के प्रदेशों में सो उठाय दूर स्थापे तो आकासका प्रदेश तो वहांका वहां ही रहे काठका प्रदे१ चला जाय आकासका प्रदेश एक भी ताकी लार लागे नाहीं । तासू जे भिन्न भिन्न स्वभावरूप परनमे ते न्यारा न्यारा करता न्यारा हूवा तैसे मैं भी ई शरीरसूं क्षेत्रकी अपेक्षा एक क्षेत्र अवगाही होय भेला तिष्ट्रं हूं । पन स्वभावकी अपेक्षा न्यारो छे ईं को स्वरूप न्यारो छे ये तो परतक्ष जड़ अचेतन अमूर्तिक गलानि पूर्न स्वभावने लियां समै समै परनमें अरु मैं चेतन अमूर्तीक निर्मल ज्ञायक सुखमई आनन्द स्वभावने लियां समै पर नमुं छू । अरु शरीरकूं न्यारा होते न्यारा हूँ । शरीरके अरु हमारे भिन्नपनो प्रत्यक्ष हैं । जो ईका द्रव्य गुन पर्याय न्यास म्हारा द्रव्य
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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